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ग्रन्थ लिखे थे । सप्तम ग्रन्थ का नाम 'सिरि-पंचमी कहा' है । उनकी 'सप्त जिव्हा' वास्तव में उनके सात ग्रन्थ थे TOIS
गजंति ताम्ब कइमच कुंजरा लक्ख लक्खण- बिहीणा । जा सच दीह-जी सयंभु-सीण पेच्छिति ॥
"स्वयंभू छन्द" का प्रकाशन सर्वप्रथम हुआ। इसमें आढ अध्याय हैं जिनमें प्रथम तीन अध्यायों में प्राकृत 'कुन्दों' तथा परवर्ती पांच अध्यायों में अपभ्रंश कुंदों का वर्णन है । स्वयंभू ने अपने इस ग्रन्थ से राजशेखर, हेमचन्द्र आदि को प्रभावित किया था ।
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स्वयंभू को अमर शाश्वत बनाने वाली रचनाएं 'पउमचरिउ' तथा 'रिमिचरिउ' हैं। जैन-परिपाटी में 'पद्म' श्रीराम का परिचायक है। स्वयंभू जैन रामकथा गायक विमलसूरि की परम्परा के कवि थे । उन्होंने इस कथा को अनेक अभिधानों से उद्भासित किया था यथा पोमचरिय, रामायण पुराण, रामायण, रामएवचरिय, रामचरिय, रामायणकाव, राघवचरिय, रामकहा इत्यादि । 'पउम चरिउ' पांच काण्डों में विभाजित है जबकि 'रामचरित मानस' सप्त सोपानों में पउम चरिउ' में कुल मिलाकर ९० संधियां हैं विद्याधर काण्ड - २०, अयोध्याकाण्ड २२, सुन्दरकाण्ड - १४, युद्धकाण्ड - २१ तथा उत्तरकाण्ड १३ संधियां । समूचे ग्रन्थ में कुल १२६९ कड़वक हैं। 'रिट्ठणेमेचरिउ' स्वयंभू का सबसे बड़ा ग्रन्थ है । इसमें १८ हजार श्लोक हैं। इसमें ४ काण्ड और १२० संधियां है ।
मान्यता-सूत्र :
स्वयंभू और तुलसी रामकथा के सूत्र से सम्बद्ध थे । दोनों में लगभग ७५० वर्षों का अंतर था। दोनों के काव्य-सिद्धातों में अंतर दिखायी पड़ता है। स्वयंभूने शाश्वत कीर्ति और अभिव्यंजना को अपने लक्ष्य स्वीकार किये थे
पुणु अथाणउ पाय मि रामायण कावैं । णिम्मल पुण्य पवित्र कह- क्विणु आढप्पड़ । जैण समाणिज्जंतेण थिर किचणु विपढप्पढ़ ॥
तुलसी के काव्योद्देश्य में राम के स्तवन के साथ आत्मकल्याण तथा परहित निहित था
एहि महं रघुपति काम उदारा, अति पावन पुरान स्मृति सारा । मंगलभवन अमंगलहारी, उमा सहित, जेहि जपत मुरारी ॥
स्वयंभू को राम कथा जैन परम्परा से प्राप्त हुई । भगवान महावीर स्वामी, गौतम गणधर सुधर्मा प्रभव, कीर्तिधर और आचार्य रविषेणसे यह धारा उन्हें मिली । तुलसी को स्वयंभू शिव से प्राप्त हुई। स्वयंभू रविषेण को अपना मुखिया मानते थे
वद्धमाण-मुह- कुहर विणिग्गय राम कहा- गइ एह कमागय ॥
पच्छर इन्तमुह-आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकिएं ।
पुणु पहवे संसाराराएं । किचिहरेण अणुचरवाएं | पुणु रविषेणायरिय पसाएं। बुहिए अवगाहिय कइराएं ॥
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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स्वयंभू ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की वंदना से अपना काव्यारम्भ किया है
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णमह णव-कमल-कोमल-मणहर- वर-वहल- कांति-सोहिल्लं । उसहस्स पाय कमले स-सुरासुरं वन्दियं सिरसां ।
तुलसी पार्वती-शंकर के मंगलाचरण से 'मानस' का श्रीगणेश करते
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याम्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ॥
'पउमचरिउ' तथा 'मानस' के कतिपय कथा सूत्र भी अवलोकनीय हैं । स्वयंभू राम वनवास में सीता के वियोग में गज से मृग-नैनी सीता की बात पूछते हैं
हे कुंजर कामिणि-गह- गमज कहेकंहि मि दिह जड़ मिगणयण || 'मानस' के राम भी इसी प्रकार पूछते-फिरते दिखायी देते
हैं -
"हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी तुम देखी सीता मृग नैनी ।। । स्वयंभू के राम नीलकमलों को सीता के नयन समझते हैं तो कहीं अशोक को सीता की बांह मान बैठते हैं
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यि पारि वेण वैयारियउ जाणइ सीयएं हक्कारियउ || कत्थई दिई इन्दीवरहं जणइ घण-णयणई दीहरहं || ॥ कत्थइ असोय-तरू हल्लियउ । जानाइ घण-वाहा- डौल्लियउ ॥
वणु सय गवेसवि सवल महि पल्लट्टु पडीवउ दासरहि ॥
तुलसी के राम की भी यही स्थिति है। उनको ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सीता के अंग-प्रत्यंगों से ईर्ष्या करने वाले खंजन, मृग, कुंद, कमल आदि इस समय प्रमुदित हैं -
खंजन सुक कपोत मृग मीना मधुप निकर कोकिला प्रवीना ॥ । कुंद कली दाडिम दामिनी । कमल सरद ससि अहिमामिनी ॥ बरुन पास मनोज धनुहंसा । गज के हरि निज सुनत प्रसंसा ॥ श्रीफल कनक कदलि हरसाहीं । नेक न संक सकुच मनमाहीं ॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजु । हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥ स्वयंभू ने सीता के असहाय करुण क्रन्दन को मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है।
हउंपावेण एण अवगण्णेवि पिय तिहवणु अ मणूसउ मण्णें वि ।। अह महं कवणु णेइ कन्दन्ती ।
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नक्खण राम - विजइ हुन्ती ॥
हा हा दसरह माणगुणोवहि ।
हा हा जणय जणय अवतौयहि ||
हा अपराइएं हा हा केक्क
हा सुप्पेहें सुमिचें सुन्दर -मह ॥
हा सुतहण भरह भरहेसर ।
हा भामष्कुछ भाइ सहोयर ||
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चोरी, चुगली, चाटुकी, चालाकी ये चार । जयन्तसेन तजो करो, पापों का परिहार ॥y.org