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ज्ञानी धर्मात्माओं से भी कदाचित् असद्व्यवहार कर सकते हैं, करते भी देखे जाते हैं, पर यह बहुत कम होता है । .
यद्यपि अभी वह वही मेलाकुचैला फटा कुर्ता पहने है, मकान भी टूटाफूटा ही है, क्योंकि ये सब तो तब बदलेंगे, जब रुपये हाथ में आ जावेंगे । कपड़े और मकान श्रद्धाज्ञान से नहीं बदल जाते, उनके लिए तो पैसा चाहिए, पैसे, तथापि उसके चित्त में आप कहीं भी दरिद्रता की हीन भावना का नामोनिशान भी नहीं पायेंगे । म जामा उसीप्रकार जीवन तो सम्यकचारित्र होने पर ही बदलेगा, अभी तो असंयमरूप व्यवहार ही ज्ञानी धर्मात्मा में देखा जाता है, पर उनके चित्त में रंचमात्र भी हीन भावना नहीं रहती, वे स्वयं को भगवान ही अनुभव करते हैं । आमा जिसप्रकार उस युवक के श्रद्धा और ज्ञान में तो यह बात एक क्षण में आ गई कि मैं करोड़पति हूँ, पर करोड़पतियों जैसे रहनसहन में अभी वर्षों लग सकते हैं । पैसा हाथ में आ जाय, तब मकान बनना आरंभ हो, उसमें भी समय तो लगेगा ही। उस युवक को अपना जीवनस्तर उठाने की जल्दी तो है, पर अधीरता नहीं, क्योंकि जब पता चल गया है तो रुपये भी अब मिलेंगे ही, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों. बरसों लगनेवाले नहीं हैं।
उसीप्रकार श्रद्धा ज्ञान तो क्षणभर में परिवर्तित हो जाते हैं, पर जीवन में संयम आने में समय लग सकता है । संयम धारण करने की जल्दी तो प्रत्येक ज्ञानी धर्मात्मा को रहती ही है, पर अधीरता नहीं होती, क्योंकि जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान और संयम की रुचि (अंश) जग गई है तो इसी भव में, इस भव में नहीं तो अगले भव में, उसमें नहीं तो उससे अगले भव में, संयम भी आयेगा ही, अनन्तकाल यों ही जानेवाला नहीं है ।
अतः हम सभी का यह परम पावन कर्तव्य है कि हम सब स्वयं को सही रूप में जाने, सही रूप में, पहिचानें, इस बात का गहराई से अनुभव करें कि स्वभाव से तो हम सभी सदा से ही भगवान ही हैं - इसमें शंकाआशंका के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है। रही बात पर्याय की - सो जब हम अपने परमात्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान कर उसी में अपनापन स्थापित करेंगे, अपने ज्ञानोपयोग (प्रगटज्ञान) को भी सम्पूर्णतः उसी में लगा देंगे, स्थापित कर देंगे
और उसी में लीन हो जायेंगे, जम जायेंगे, रम जायेंगे, समा जायेंगे, समाधिस्थ हो जायेंगे तो पर्याय में भी परमात्मा (अरहंतसिद्ध) बनते देर न लगेगी। भार अरे भाई । जैनदर्शन के इस अद्भुत परमसत्य को एकबार अन्तर की गहराई से स्वीकार तो करो कि स्वभाव से हम सभी भगवान ही हैं । पर और पर्याय से अपनापन तोड़कर एकबार द्रव्यस्वभाव में अपनापन स्थापित तो करो, फिर देखना अन्तर में कैसी क्रान्ति होती है, कैसी अद्भुत और अपूर्व शान्ति उपलब्ध होती है, अतीन्द्रिय आनन्द का कैसा झरना झरता है ।
इस अद्भुत सत्य का आनन्द मात्र बातों से आनेवाला नहीं ह, अन्तर में इस परमसत्य के साक्षात्कार से ही अतीन्द्रिय आनन्द का दरिया उमड़ेगा । उमड़ेगा, अवश्य उमड़ेगा, एकबार सच्चे हृदय से सम्पूर्णतः समर्पित होकर निज भगवान आत्मा की आराधना तो को फिर देखना क्या होता है?
बातों में तो इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है । अतः यह मंगलभावना भाते हुए विराम लेता हूँ कि सभी आत्माएँ स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानकर, पहिचानकर स्वयं में ही जमकर, रमकर अनन्त सुख-शान्ति को शीघ्र ही प्राप्त करें ।
मधुकर-मौक्तिक
कई लोग ऐसे होते हैं, जो सुनी-सुनायी बातों पर विश्वास कर लेते हैं । आँखों से देखे बिना वे उन सुनी-सुनायी बातों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं । पर ज्ञानी कहते हैं, पहले सही तथ्य जानो, फिर आलोचना करो । ज्ञानी का वचन है - किसी के द्वारा कुछ भी कहे जाने पर तू सुन ले, पर वास्तविक तथ्य को जाने बिना तू किसी भी प्रकार की आलोचना मत कर | आलोचना करने का तुझे हक नहीं है। यदि तुझे आलोचना करना है, तो तू स्वयं के गुण-दोषों की आलोचना कर | फिर देख, तुझे सारा संसार कैसा दिखायी देता है ।
- जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर'
'नमो अरिहंताणम्' का जाप हमारी कर्णेन्द्रिय को हमेशा वश में रखने का फल प्रदान करता है। यदि हम इन पंच परमेष्ठियों से पूरी तरह जुड़ जाएँगे, तो हमारे जीवन का एक भी पक्ष ऐसा नहीं रह जाएगा जहाँ अरिहंत परमात्मा हमारे साथ न हों, लेकिन हमारी आँख ही अभी तक नहीं खुल रही है । हम तो आँखें बन्द करके इस जीवन की राह पर भागे जा रहे हैं। कहीं खड़े हो कर सोचते तक नहीं हैं कि यदि पंच परमेष्ठियों का इस संसार में अस्तित्व है तो अपना भी तो इनके साथ कुछ सम्बन्ध होगा | दूर से केवल हाथ जोड़ने से सम्बन्ध थोड़े ही बनता है | दूर से दर्शन करके जब हम इनके निकट जाएँगे तभी हमारा सम्बन्ध इनसे जुड़ेगा; और यदि एक बार ऐसा सम्बन्ध जुड़ गया तो अवश्य ही जीवन में निखार आ जाएगा।
- जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर'
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
फीके लगते है सदा, बिना भूख पकवान । जयन्तसेन समझ बिना, व्यर्थ मान सन्मान ।।
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