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अत्यन्त स्नेहपूर्वक समझाते हुए ज्ञानी धर्मात्मा कहते हैं - किट
"भाई, ये बननेवाले भगवान की बात नहीं है, यह तो बनेबनाये भगवान की बात है । स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है । ऐसा जाननामानना और अपने में ही जमजाना, रमजाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है । तू एकबार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर, अन्तर की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि परपदार्थों से हटकर सहज ही स्वभावसन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तू अन्तर में ही समा जायगा, लीन हो जायगा, समाधिस्थ हो जायगा । ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमडेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा । एकबार ऐसा स्वीकार करके तो
देख ।"
"यदि ऐसी बात है तो आजतक किसी ने क्यों नहीं बताया ?"
"जाने भी दे, इस बात को, आगे की सोचो"
"क्यों जाने दें ? इस बात को जाने बिना हम अनन्त दुःख उठाते रहे, स्वयं भगवान होकर भी भोगों के भिखारी बने रहे, और किसी ने बताया तक नहीं।"
"अरे भाई, जगत को पता हो तो बताये, और ज्ञानी तो बताते ही रहते हैं, पर कौन सुनता है उनकी, काललब्धि आये बिना किसी का ध्यान ही नहीं जाता इस ओर । सुन भी लेते हैं तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं, ध्यान नहीं देते। समय से पूर्व बताने से किसी को कोई लाभ भी नहीं होता । अतः अब जाने भी दो पुरानी बातों को, आगे की सोचो । स्वयं के परमात्मस्वरूप को पहिचानो, स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानो और स्वयं में समा जावो । सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
कहते कहते गुरु स्वयं में समा जाते हैं और वह भव्यात्मा भी स्वयं में समा जाता है । जब उपयोग बाहर आता है तो उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति होती है, संसार की थकान पूर्णतः उतर चुकी होती है, पर्याय की पामरता का कोई चिह्न चेहरे पर नहीं होता, स्वभाव की सामर्थ्य का गौरव अवश्य झलकता है ।
आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरंभ मुक्ति के मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है -
"चक्रवर्ती की सम्पदा अर इन्द्र सरीखे भोग ।
कागबीट सम गिनत है सम्यग्दृष्टि लोग ।।" पिता के मित्र रिक्शेवाले नवयुवक से यह बात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कर रहे थे । उनकी यह सब बात रिक्शे पर बैठे-बैठे हो ही रही थी । इतने में एक सवारी ने आवाज दी -
"ऐ रिक्शेवाले ! स्टेशन चलेगा ?" उसने संक्षिप्तसा उत्तर दिया - "नहीं।"
"क्यों ? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये लेना, पर चलो, जल्दी चलो ।"
"नहीं, नहीं जाना, एक बार कह दिया न ।" "कह दिया पर -"
उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायगा ? यदि ले जायेगा तो कितने में? दस रुपये में, बीस रुपये में -?
क्या कहा, कितने ही रुपये दो, पर अब वह रिक्शा नहीं चलायेगा।
"क्यों ?" नि "क्यों कि अब वह करोड़पति हो गया है।"
"अरे भाई, अभी तो मात्र पता ही चला है, अभी रुपये हाथ में कहाँ आये हैं ?"
Pा "कुछ भी हो, अब उससे रिक्शा नहीं चलेगा ? क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाया करते ।"
इसीप्रकार जब किसी व्यक्ति को आत्मानुभवपूर्वक सम्यग्दर्शनज्ञान प्रगट हो जाता है, तब उसके आचरण में भी अन्तर आ ही जाता है । यह बात अलग है कि वह तत्काल पूर्ण संयमी या देशसंयमी नहीं हो जाता, फिर भी उसके जीवन में अन्याय, अभक्ष्य एवं मिथ्यात्व पोषक क्रियाएँ नहीं रहती हैं । उसका जीवन शुद्ध सात्विक हो जाता है, उससे हीन काम नहीं होते। _वह युवक सवारी लेकर स्टेशन तो नहीं जायेगा, पर उस सेठ के घर रिक्शा वापिस देने और किराया देने तो जायेगा ही, जिसकी रिक्शा वह किराये पर लाया था । प्रतिदिन शाम को रिक्शा और किराये के दस रुपये दे आने पर ही उसे अगले दिन रिक्शा किराये पर मिलता था । यदि कभी रिक्शा और किराया देने न जा पावे तो सेठ घर पर आ धमकता था, मुहल्ले वालों के सामने उसकी इज्जत उतार देता था।
आज वह सेठ के घर रिक्शा देने भी न जायेगा । उसे वहीं ऐसा ही छोड़कर चल देगा । तब फिर क्या वह सेठ उसके घर जायेगा?
हाँ जायेगा, अवश्य जायेगा, पर रिक्शा लेने नहीं, रुपये लेने नहीं, अपनी लड़की का रिश्ता लेकर जायगा, क्योंकि यह पता चल जाने पर कि इसके करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं, कौन अपनी कन्या देकर कृतार्थ न होना चाहेगा ?
इसीप्रकार किसी व्यक्ति को आत्मानुभव होता है तो उसके अन्तर की हीन भावना समाप्त हो ही जाती है, पर सातिशय पुण्य का बंध होने से लोक में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, लोक भी उसके सद्व्यवहार से प्रभावित होता है । ऐसा यह सहज ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है।
ज्ञात हो जाने पर भी जिसप्रकार कोई असभ्य व्यक्ति उस रिक्शेवाले से रिक्शावालों जैसा व्यवहार भी कदाचित् कर सकता है, उसीप्रकार कुछ अज्ञानीजन उन
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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उदधि बडा किस कामका, खारा जिस का नीर । जयन्तसेन सुन्दर सरि, हरे प्यास मन पीर Hary.org
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