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ध्यान-साधना : जैन दृष्टिकोण
(डॉ. श्री नरेन्द्र भानावत)
"जिन" का अनुयायी जैन कहा जाता है | "जिन" वह है, जिसने राग-द्वेष रूप, शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल को आत्मसात् कर लिया है। "जिन" किसी व्यक्ति विशेष का नाम न होकर उस आध्यात्मिक अवस्था की, अनुभूति है, जिसमें अक्षय, अव्याबाध आनन्द की सतत स्थिति बनी रहती है । इसे सिद्ध, मुक्त, परमात्म अवस्था भी कहा जाता है । प्रत्येक प्राणी में इस अवस्था को प्राप्त करने की क्षमता और शक्ति निहित है । दूसरे शब्दों में आत्मा ही परमात्मा होता है और प्रत्येक आत्मा में परमात्मा स्थिति तक पहुँचने की योग्यता है | इस दृष्टि से जैन परम्परा में ईश्वर या परमात्मा एक नहीं, अनेक हैं। सभी स्वतंत्र हैं, उनका सुख "पर" पर आश्रित नहीं, वे स्वाश्रित और स्वाधीन हैं। सब में गुण-धर्म की समानता है । अन्य के कारण किसी प्राणी को सुख-दुःख नहीं मिलता । प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख का कारण वह स्वयं है । अपने सत् कर्मों के कारण वह सुख पाता है और दुष्कर्मों के कारण दुःख पाता है | राग और द्वेष कर्म-बीज हैं, जिनके कारण जीव की स्वाभाविक आत्मशक्तियाँ सुषुप्त पड़ी रहती हैं और उन पर कई प्रकार की परतें छायी रहती हैं, उसी प्रकार आत्म गुण-रत्न नानाप्रकार की दोष व विकाररूपी पर्तों से आवृत्त-आच्छादित बने रहते हैं । इन विकारों की पर्तों को छेदकर-भेदकर आत्म-शक्तियों का विकास किया जा सकता है. गण-रत्नों को चमकाया जा सकता है । विकारों पर विजय प्राप्त करने की, गुण-रलों को चमकाने की साधना के कई रूप है, उनमें ध्यान-साधना का प्रमख स्थान है।
मूल आगमों में "जैन" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । वहाँ अर्हत्, अरिहन्त, निर्ग्रन्थ और श्रमण धर्म का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है । "अर्हत्" का अर्थ है - जिसने अपनी सम्पूर्ण योग्यताओं का विकास कर लिया है । जिसने राग-द्वेष रूपी अरि अर्थात् शत्रुओं का अन्तकर दिया है, वह अरिहन्त है । "निर्ग्रन्थ" वह, जिसने समस्त दोषों, पापों और विकारों की गांठों का छेदन-भेदन कर दिया है । "श्रमण" वह है, जिसके सारे पाप-दोष शमित हो गये हैं, प्राणी मात्र के प्रति जिसके मन में समता, मैत्री और प्रेम का भाव है, जो अपने सख के लिए किसी अन्य पर निर्भर नहीं स्वयं के श्रम, पुरुषार्थ और पराक्रम से जिसने उसे प्राप्त किया है। इस प्रकार अर्हत, निर्ग्रन्थ और शम-सम-श्रम की साधना के पथ पर
-श्रम की साधना के पथ पर चलने वाला साधक जैन है।
जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा, अपनी विशुद्धतम स्थिति में परमात्मा है । पर आत्मा के साथ मन और इन्द्रियों का संयोग होने से वह शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों में प्रवृत्ति करती रहती है । अनुकूल-के प्रति राग और पतिकल के प्रति देष-भावों में उलझी रहती है। इस कारण नानाविध विकारों, दोषों और पापों से उसकी शुद्धता-निर्मलता प्रदूषित होती रहती है । इस प्रदूषण के कारण उसकी तेजस्विता
धूमिल और मन्द पड़ जाती है। जैन दार्शनिकों ने इस प्रक्रिया को संवर और निर्जरा कहा है । ध्यान-साधना प्रकारान्तर से संवर और निर्जरा की साधना है।
जैनेतर दर्शनों में परमात्म-शक्ति से साक्षात्कार करने की साधना को योग कहा गया है | वहाँ योग का अर्थ है - जोड़, आत्मा का परमात्मा से जुड़ना, मिलना । पर जैन परम्परा में योग शब्द का प्रयोग भिन्न अर्थ में किया गया है । यहाँ आत्मा-परमात्मा से मिलती नहीं वरन् कर्म के आवरणों को भेदकर, समस्त कर्म-राज को हटाकर विशुद्ध और निर्मल होकर स्वयं परमात्मा बनजाती है । आत्मा के इस परमात्मीकरण में मन, वचन और काया की कषाय युक्त प्रवृत्तियाँ बांधक हैं । इन प्रवृत्तियों को जैन दार्शनिकों ने "योग" कहा है । यहाँ भी योग का अर्थ जुड़ना है पर परमात्मा से नहीं वरन् सांसारिक विषयों से | जब साधक मन, वचन व काया के योग को सांसारिक विषयों के योग से हटाता है, अलग करता है, तब वह अपनी परमात्माशक्ति से जुड़ पाता है। स्वयं परमात्ममय हो जाता है। इस अर्थ में जैन अयोग जैनेतर दर्शनों का योग है । यहाँ का अयोगी जैनेतर दर्शनों का परमयोगी है।
जैन परम्परा में ध्यान आभ्यन्तर तप का एक प्रकार है । इसके द्वारा कर्म-विकारों को दग्ध किया जाता है, नष्ट किया जाता है। पर इस स्थिति तक पहुंचना सहज-सरल नहीं है । इसके लिए सम्यक् दृष्टि और सम्यक् बोध की आवश्यकता है । स्थानांग, भगवता सूत्र, उववाई आदि जैन आगमों में ध्यान का उल्लेख और विवेचन आया है। वहाँ ध्यान के चार प्रकारों में आर्तध्यान और रौद्र ध्यान को त्याज्य तथा धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान को ग्राह्य बताया है | आर्त व रौद्र ध्यान व्यक्ति की राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति के सूचक हैं । इनसे व्यक्ति व्याकुल, अशान्त, व्यग्र, दुःखी, क्रूर, हिंसक, ईर्ष्यालु, दंभी, लोभी, मायावी और परपीड़क बनता है । आर्त्त और रौद्र ध्यान की दुष्प्रवृत्तियों को छोड़े बिना व्यक्ति धर्मध्यान की ओर अग्रसर नहीं हो सकता ।
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग साधना में ध्यान को सातवां योग बताया है तो भगवान महावीर ने द्वादशांग तप-साधना में ध्यान को ग्यारहवाँ स्थान दिया है । पतंजलि के अनुसार ध्यानसाधक के लिए यह आवश्यक है कि वह यम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; नियम-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय
और ईश्वर प्रणिधान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार - इन्द्रियों को अपने-२ विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना और धारणा - चित्त को किसी ध्येय में स्थिर करने - का पालन करे । महावीर के अनुसार
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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बिना इष्ट मिलता नहीं, जग में दिव्य प्रकाश । जयन्तसेन रखो हृदय, परमेष्ठी अधिवास ।।
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