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इस प्रकार आमने-सामने दस-पन्द्रह लाख की बोली चल रही थी। करोड़ मूल्य के तीन रत्ल दिये, जिन्हें लेकर मैं अपनी वृद्ध माता को उस समय महुवा के झगडू शाह ने सवा-सवा करोड़ के तीन मोती भी तीर्थ-यात्रा की भावना हो जाने के कारण उन्हें साथ लेकर आया एवं वृद्ध माता को साथ लेकर श्रीसंघ के दर्शन एवं तीर्थ-यात्रा के हूँ, परन्तु अपार मानव-मेदिनी के कारण उन्हें मैं कपर्दी यक्ष के मन्दिर लिए आकर वृद्ध माता को कपर्दी यक्ष के मन्दिर के पास छोड़कर में छोड़कर आया हूँ और यह लाभ लिया है। अभी तक सवा-सवा लाखों अनुष्यों की मेदिनी के मध्य आकर सवा करोड़ रुपयों की करोड़ के दो रत्ल तो व्यय करने शेष हैं।" उछामणी की घोषणा की। यह सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गये। महाराज कुमारपाल झगडूशाह के साथ कपर्दी यक्ष के मन्दिर स्वयं महाराज कुमारपाल की दृष्टि भी उस ओर गई। उन्हें देखने पर। के समीप आये और वहाँ आकर उन्होंने झगडूशाह की माता के चरणों ऐसा प्रतीत होता था कि जिसकी देह पर पूरे सवा रुपये के वस्त्र भी में नमस्कार किया और बोले, "हे रत्न-कुक्षिणी माता ! धन्य है, तुम्हें नहीं हैं, वह व्यक्ति एकदम ऐसी घोषणा कैसे कर सकता है? ऐसा कि तुमने ऐसे नर-रल को जन्म दिया। मेरे जैसा अठारह देशों का प्रतीत होता है कि उसने मेरे द्वारा उछामणी में वृद्धि कराने के लिये अधिपति इतना विशाल संघ लेकर यहाँ आया। फिर भी इन्द्रमाला ही पत्थर फेंका है।
का चढ़ावा बोलकर तुम्हारे इस पुत्र-रल ने इन्द्रमाला पहनी और मैं उन्होंने बाहड़ को कहा, “मन्त्रीश्वर ! आप रुपये पहले लेकर फिर रह गया।” तत्पश्चात् इन्द्रमाला पहन कर जगडू शाह ने प्रभु के समीप उन्हें सहर्ष आदेश दे सकते हैं।” यह सुनकर जगडू शाह ने कहा, इन्द्र माला की समस्त क्रिया की। “महाराज ! यह तीर्थ कोई राजामहाराजाओं के लिये ही नहीं है। कोई वहाँ से संघ रैवतगिरि पर गया। वहाँ भी जगडूशाह ने सवा भी व्यक्ति आकर लाभ ले सकता है। तीर्थ-स्थान पर तो सभी पुण्य करोड़ मूल्य के दूसरे रत्न का व्यय किया और तीसरा सवा करोड़ का उपार्जन करने के लिए ही आते हैं, कोई किसी को ठगने के लिए नहीं रल उन्होंने प्रभासपाटण तीर्थ पर व्यय किया। इसप्रकार तीर्थ स्थानों आता।”
में लक्ष्मी का सदुपयोग करने बाले नर-रल झगडूशाह भी अब नहीं यह कहकर उन्होंने अपनी देह पर रखे खेस के कोने पर बँधे रहे, फिर भी ग्रन्थों में, गीतों में, गाथाओं में उनका नाम अमर रह गया। रल बाहर निकले। जगडू शाह ने उस समय 'चिथड़े में बाँधा रल' ऐसे असंख्य उदाहरण विद्यमान हैं, परन्तु इस लेख में उनका संक्षिप्त की उक्ति चरितार्थ की। उन्होंने सवा करोड़ मूल्य का एक रल निकाल दिग्दर्शन कराया गया है। कर मन्त्रीश्वर के हाथ में दिया और वहाँ जगडू शाह को इन्द्रमाला से
का इससे पाठकों को यह समझना चाहिये कि लक्ष्मी सदा चंचल सुशोभित किया गया। यह देखकर महाराजा कुमारपाल के नेत्र तो
है, किसी की भी लक्ष्मी न स्थिर रही है और न रहेगी, परन्तु इससे फटे के फटे रह गये। वे चकित हो गये और उन्होंने जगडू शाह को
जितने सुकृत, पुण्य के कार्य, धर्म के कार्य होंगे उतना ही हमारा अमर पूछा, “भाग्यशाली ! आप कहाँ के निवासी हैं? क्या नाम है आपका? आपको जन्म प्रदान करने वाली जननी कौन है?"
यश ‘या तो भी तों अथवा गीतों में, चिरस्थायी रहेगा और परम्परा
में उनके स्वर्ग एवं मोक्ष के सुफल प्राप्त होंगे। जगडूशाह ने उत्तर दिया, “महाराज ! मैं महुवा निवासी हूँ।
यह सोचकर प्राप्त लक्ष्मी का आप सदुपयोग करें, अनेक जीवों आपके महान् संघ के सिद्धगिरि पर आने का समाचार सुनकर मेरे
को सुमार्गगामी बनायें, अनेक लोगों का उपकार करें और अपना अमर पिताजी की आज्ञा लेकर श्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा पर आया हूँ।
यश जगत् में चिरस्थायी करके इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों से मेरे पिताजी ने आते समय कहा था कि तू सहर्ष जा, पर तीर्थस्थान
अमर रखकर स्वर्ग एवं मोक्ष के सफल प्राप्त करें यही आन्तरिक पर खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। यह कहकर उन्होंने मुझे सवा-सवा
अभिलाषा है।
मधुकर मौक्तिक
इसलिये दैनिक क्रियाओं संबंधी और जीवन संबंधी अनेकानेक नियमों तथा विधि विधानों का भी जैन धर्म ने संस्थापन एवं समर्थन किया है, जो महावीर की देन है? जिन्हें बारह व्रत एवं पंच महाव्रत भी कहते हैं। जिनका तात्पर्य यही है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति में इस प्रकार मानव शांति बनी रहे और सभी को अपना विकास करने का सुन्दर एवं समुचित संयोग प्राप्त हो । उन्होंने साधुधर्म व गृहस्थ धर्म का अलग अलग निरूपण किया।
जाति, देश, लिंग, रंग, भाषा, वेश नस्ल वंश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल में मानव-मात्र एकही है, यह है महावीर की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन धर्म की महानता को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा देती है।
भगवान् महावीर के ये सिद्धान्त भारत के लिए ही नहीं, किन्तु समस्त विश्व के लिए एक अनोखी देन हैं। इन्हीं सिद्धातों के आधार पर मनुष्य जाति के सुखी भविष्य की आशा दी जा सकती है। सामाजिक विषमताओं का उन्मूलन, धार्मिक कदाग्रहों व संघर्षों का शासन एवं राजनैतिक तनावों की कमी केवल इन्हीं आदर्श सिद्धान्तों का प्रचार भगवान् महावीर ने भारत भूमि पर किया। इसलिये हम उस युग को- महावीर युग को - भारतीय जीवन दर्शन का स्वर्णयुग कह सकते है। आज महावीर के उपदेशों पर चले तो विश्व में शांति हो सकती है।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
श्रवण करो सद् ज्ञान का, चिन्तन करो विशेष । जयन्तसेन सुफल करा, आतम शान्ति अशेष alMelibrary.org,
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