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जिस ज्ञान की सीमा होती है उसको अवधिज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान का विषय है रूपी पदार्थों को जानना। मूर्तिमान् द्रव्य ही इस के ज्ञेय-विषय बनते हैं। द्रव्य छ हैं जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों में जीव द्रव्य चेतनामय है और शेष द्रव्य चेतानारहित हैं पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष अमूर्तिक हैं। इन छः द्रव्यों में से केवल पुद्गल द्रव्य ही अवधिज्ञान का विषय है क्योंकि अवशेष पाँच द्रव्य अरूपी है।
मनः पर्यवज्ञान मनुष्य गति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति में नहीं हो सकता। मनुष्य में भी संयती मनुष्यों को ही होता है, असंवती मनुष्य को कभी भी नहीं। मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जाननेवाला ज्ञान मन:पर्ययज्ञान कहलाता है। मन भी एक प्रकार का पौद्लिक द्रव्य है । प्रत्येक इन्द्रिय का विषय अलग-अलग है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर पाती है। मन एक सूक्ष्म इन्द्रिय है, इसलिये इसे अनिन्द्रिय कहते हैं, अनिन्द्रिय का अर्थ हैं ईषत् इन्द्रिय यह सूक्ष्म इन्द्रिय सभी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर सकती हैं । यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है । ४५ जब व्यक्ति किसी विषय विशेष पर चिन्तन करता है तब उस समय में उस के मन का नाना प्रकार की पर्यायों में परिवर्तन होने लगता है मनः पर्यवज्ञानी मन से ही उनविविध पर्यायों का साक्षात्कार कर लेता है। केवल ज्ञान में केवल शब्द का अर्थ एक अथवा सहाय रहित है । ४६ 'केवलज्ञानी केवल ज्ञान उत्पन्न होते ही लोक और अलोक दोनों को ही जानने लगता है। केवल ज्ञानी का विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय है। ४७
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प्रमाण वाक्य व नय-वाक्य के आधार से सप्तभंगी भी दो विभागों में विभक्त हुयी है प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ! प्रमाण - सप्तभंगी -
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* प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है। किसी भी पदार्थ का पूर्णरूप से अवबोध करने के लिये अनन्त-शब्दों का प्रयोग करना अपेक्षित है या नहीं ? यह प्रश्न चिह्न है। इसका उत्तर देना भी कठिन है । वस्तुतः अनन्त शब्दों के प्रयोगार्थ अनन्तकाल भी चाहिये, और मनुष्य का जो जीवन है वह वस्तुतः अनन्त नहीं है। इसलिये यह संभव भी नहीं है, और न व्यवहार्थ ही इसलिये कहना होगा कि वह मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन में भी एकभी पदार्थ का समग्र भाव से प्रतिपादन नहीं कर सकेगा।
यद्यपि वह उसका एक ही शब्द द्वारा सम्पूर्ण अर्थ का परिज्ञान करता है, और बाह्य दृष्टि से ऐसी भी प्रतीति होती है कि वह एक ही धर्म का प्रतिपादन करता है किन्तु वह अभेदोपचार वृत्ति - इतर गुण धर्मों का भी प्रतिपादन करता जाता है। अभेदोपचार से एक ही शब्द के द्वारा साक्षात् रूप से एक धर्म का प्रतिपादन होने पर भी अखण्ड रूप से अनन्तधर्मात्मक समग्र धर्मों का भी युगपत् कथन हो जाता है, इसलिये इसको प्रमाण सप्तभंगी कहते हैं।
श्रीमद जयंतसेन अभिनंदन
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जीव आदि पदार्थ किसी अपेक्षा से अस्तिरूप है, अतएव उक्त एक अस्तित्व प्रतिपादन में अभेदावच्छेदक, काल, आत्मरूप अर्थ आदि की घटना पद्धति इस प्रकार है। इनके नाम ये हैं
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काल
आत्मरूप
अर्थ
सम्बन्ध
नय सप्तभंगी
नय पदार्थ के किसी एक धर्म को मुख्यत्वेन ग्रहण करता है, किन्तु अवशिष्ट धर्मों की उपेक्षा न करके उनके प्रति तटस्थ रहता है। इसी को "सुनय" कहते हैं नय सप्तभंगी सुनय में हैं, दुर्नय में नहीं होती। प्रमाण में समस्त धर्मों के ज्ञान का समावेश हो जाता है। किन्तु नय एक अंश को मुख्यत्वेन प्रतिपादित करता है। किन्तु अन्य गुणों की उपेक्षा नहीं । यह सच है कि दुर्नय अन्य निरपेक्ष होकर अन्य-गुणों का निराकरण करता है। प्रमाण तत् और अतत् सभी को जानता है किन्तु नय में केवल “तत्” की ही प्रतिपत्ति होती है। पर दुर्नय दूसरों का तिरस्कार करता है।
इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है कि वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं और पर का निषेध करते हैं किन्तु जब वे परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्व के सद्भाव वाले होते हैं। "
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पदार्थ के अनन्त धर्मों में किसी एक धर्म का काल आदि भेद - अवच्छेदकों द्वारा भेद की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से प्रतिपादन करने वाला वाक्य “विकलादेश" है। इसी को "नवसप्तभंगी" कहा गया है भेददृष्टि से नय सप्तभंगी में पदार्थ के स्वरूप का कथन किया जाता है।
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नय सम्बन्धित भेदावच्छेदक कालादि।
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नय सप्तभङ्गी में गुण-पिण्ड रूप द्रव्य पदार्थ को गौण और पर्याय स्वरूप अर्थ को प्रधान माना गया है। इसलिए नय सप्तभंगी भेद-प्रधान है, उक्त भेदों की प्रामाणिकता कालादि के द्वारा ही होती है जिस प्रकार सप्तभंगी में काल, आत्मरूप अर्थ आदि के आधार पर एक गुण-धर्म को अन्य गुणों से विवक्षित किया जाता है, उसी प्रकार नय सप्तभंगी में भी उन्हीं काल, आत्मरूप आदि आधारों से एक गुण का दूसरे गुण से भेद विवक्षित किया जाता है। वह निम्न लिखित है
काल आत्मरूप अर्थ सम्बन्ध
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उपकार
गुणिदेश
संसर्ग
शब्द
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उपकार
गुणिदेश
संसर्ग
शब्द
क
आज्ञा निध धारक मनुज, पाता अनुपम ठाम । जयन्तसेन हृदय धरो, पावो नित विश्राम ॥
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