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भारतीय दर्शनिकों ने मन-योग को काफी चर्चा का विषय बनाया है। भिन्न-भिन्न उपमाओं से मन को उपमित किया। इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रस्तुत हुईं। अलग-अलग विद्वानों-लेखकों द्वारा विभिन्न मंतव्य उल्लिखित हुए मन के संबंध में ।
माना कि मन का महत्व अपने स्थान पर है। मन का वेग, मन की प्रवृत्ति और मन का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत रहा है। उसी प्रकार इन्द्रियों का प्रभाव भी कम नहीं समझना चाहिये । इंद्रियों की प्रवृत्ति और इन्द्रियों का कार्यक्षेत्र भी मन के कार्य क्षेत्र की अपेक्षा काफी विस्तृत लोकाकाश की परिधि में जीवाणु जगत् के क्षितिज पर्यंत परिव्याप्त है। समनस्क और अमनस्क जीव-जगत को स्पर्शित किया हुआ है । मानसिक शक्ति के अभाव में सूक्ष्म किंवा स्थूल शरीर और शरीर के अवयवों का काम रुका नहीं, अपितु शरीर की प्रवृत्ति सतत चालू रही है।
इन्द्रिय-विज्ञान की भूमिका
श्रमण संघीय प्रवर्तक श्री रमेशमुनिजी महाराज
परंतु ज्ञातव्य है कि ऐन्द्रिय (इन्द्रिय-सम्बन्धी) शक्ति के अभाव में भौतिक शरीर की स्थिति अति शोचनीय बन जाती है। इन्द्रिय-बल प्राण क्या है? मेरी दृष्टि में विद्युत तरंगों का एक समूह है। एक तरह से नेगेटिव और पोजेटिव के मिश्रण का रूप है जब विद्युत तरगें केन्द्र के साथ जुड़ जाती हैं। तभी प्रकाश का वातावरण निर्मित होता है। दोनों शक्तियाँ जहाँ तक अलग-थलग कार्यरत रहती है, वहाँ तक केन्द्र में इधर-उधर लगे सभी बल्ब कार्य करने में सक्षम नहीं होते हैं। अंधकार का एक छत्र साम्राज्य फैला रहता है।
उसी प्रकार पांचों इन्द्रियाँ, विद्युत तरंगों से विहीन बल्ब के सदृश रही हुई हैं। बल-प्राणों की तरंगें ज्योंही इन्द्रियों के साथ जुड़ जाती हैं बस निष्क्रिय निष्प्रयोजन बनी वे इन्द्रियां दनादन अपने-अपने कार्यक्षेत्र में सक्रिय हो जाती हैं। क्योंकि बल प्राणों का साथ जो मिला। बल-प्राण शक्ति के अभाव में प्राणियों के प्रत्येक कार्य कलाप खतरे के बिंदु को छूने लगते हैं गति-शील प्रवृत्तिमोह में अव्यवस्था का होना स्वाभाविक है। दिल दिमागों में उभरे हुए व्यक्त या अव्यक्त, प्रगट किंवा प्रच्छन्न, गोपनीय या अगोपनीय मनोभावों की अभिव्यक्तियां, माध्यम के अभाव में उद्घोषित उद्घाटित होना संभव नहीं। इसी प्रकार वाक् शक्ति का प्रगटीकरण क्या शक्य है ? बल्ब का सही स्थिति में रहना उतना ही आवश्यक है जितना विद्युत तरंगों का भी। बल्ब की गड़बड़ी तरंगों को पकड़ नहीं पायेगी और तरंगों की शिथिलता बल्ब को आलोकित कैसे करेगी ? दोनों एक दूसरे के पूरक रहे हैं। वस्तुतः दोनों का व्यवस्थित होते रहना जरूरी है। ठीक उसी प्रकार बल्ब सदृश इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों का स्वस्थ रहना आवश्यक है।
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श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ वाचना
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और विद्युत सदृश बल-प्राण हैं दोनों के सहयोग से ही क्रियाओं की निष्पत्ति किंवा पूर्णता होती चली जाती है।
जैन दर्शन का मनोवैज्ञानिक तर्क यथार्थ धरातल पर एक नये आयाम को उद्घाटित करता है। उसका यह उद्घोष है कि मनः पर्याप्ति के पूर्व ही इस पार्थिव शरीर के साथ स्पर्शेन्द्रिय रसनेन्द्रिय, चक्षु-इन्द्रिय रमेशमुनि महाराज और कर्णेन्द्रिय इस प्रकार पांचों इंन्द्रियों के उद्भव का एक व्यवस्थित क्रम अनादि काल से चालू रहा है। इस क्रम बद्ध व्यवस्था प्रणाली को आज का विज्ञान भी मान्य करता है । उक्त क्रमानुसार ही इन्द्रियों का सम्बन्ध शरीर के साथ और शरीर का सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ चिरकाल से जुड़ता रहा और बिछुड़ता रहा है। एकेन्द्रिय (पृथ्वी-अप-तेउ-वाय-वनस्पति अर्थात ५२ लाख जीव योनिक) सत्वों के साथ केवल स्पर्शेन्द्रिय का द्वीन्द्रिय (छोटे-छोटे कीटाणु अर्थात् दो लाख जीवयोनिक) प्राणियों के साथ स्पर्श और रसनेन्द्रिय का त्रीन्द्रिय (कीड़े-मकोड़े-जूं- लीक-खटमल इत्यादि (दो लाख जीव योनिक) प्राणियों के साथ स्पर्श-रसना एवं घ्राणेन्द्रिय का, चतुरिन्द्रिय (मक्खी, मच्छर, बिच्छू, पतंगें इत्यादि - दो लाख जीव योनिक) प्राणियों के साथ स्पर्शन- रसना घ्राण और चक्षु इन्द्रिय का इसी प्रकार पंचेन्द्रिय (जलचर, थलचर, खेचर, उरपर, भुजपर मनुष्य नैरयिक और देव अर्थात २६ लाख जीव योनिक) जीवों के साथ स्पर्श, रसना घ्राण, चक्षु और कर्णेन्द्रिय का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। शरीर की निष्पत्ति के साथ ही इन्द्रियों के उद्गम का श्री गणेश हो जाता है। सूक्ष्म किंवा स्थूल शरीर हो उसका महत्व इन्द्रियों के होने पर ही है वरना शरीर का क्या महत्व ? वह केवल मांस-पिंड ही माना जायेगा।
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वस्तुतः इन्द्रियों के सद्भाव में मनः पर्याप्ति की भजना है।
अर्थात् द्रव्य मन हो भी सकता है और नहीं भी परन्तु मन की सत्ता में इन्द्रियों का होना निश्चित है जो मन के कार्य क्षेत्र को विकसित करने में आदेश को शिरोधार्य करने में आगे बढ़ाने में, प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष रूप में, अपने-अपने कार्य क्षेत्र में रहकर सभी इन्द्रियां पूर्णत: सहयोग करती रही हैं। तो इधर इन्द्रियां अपने-अपने कार्य क्षेत्र की एक नियत परिधि में कार्यरत रही हैं। इस अपेक्षा से इन्द्रियों का महत्व मन पर्याप्ति के उद्भव के पूर्व ही उद्घोषित और उद्भासित मान्य किया है।
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आज्ञाराधन से सदा, आत्म शक्ति अभिराम । जयन्तसेन उसे मिले, आत्माराम ललाम ॥
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