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अनेक लौकिकऋद्धियों को प्राप्त करने में सफल रहता है। अरिहन्त के चरण-कमल सदा प्रशंसनीय और स्वाभाविक सुन्दर होते हैं, इनका ध्यान करने वाले साधक लक्ष्मी, यश, कांति एवं धैर्य को प्राप्त करते है।
आचार्य ने पूज्यपाद के चरण-कमल की संलीनता का महत्व दर्शाते हुए उसका उपाय भी बताया है, और कहा है
तव पादौ मम हृदये
मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र,
तावद्यावन्निर्वाणसंप्राप्तिः ॥
अर्थात् हे अरिहन्त जब तक मैं निर्वाण प्राप्त करूं तब तक आपके चरण युगल मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके दोनों चरणों में लीन बना रहे ।
हृदय कमल में तात्विक प्रतिष्ठा :
सम्यक् प्रकार से परमात्मा में अपने विशुद्ध चित्त को स्थापित करना और बाद में अर्हत् स्वरूप का ध्यान करना। तीन गढ़ में स्फुरायमान प्रकाश वाले समवसरण के मध्य में रहे हुए चौंसठ इन्द्रों से जिनके चरण कमल पूजित हैं ऐसे तीन छत्र, पुष्पवृष्टि सिंहासन, चामर अशोक वृक्ष, दुंदुभि दिव्य ध्वनि और भा-मण्डल ऐसे आठ महाप्रातिहायों से अलंकृत सिंह के लांछन से युक्त सुवर्णवत् कांतिवाले पार्षदों में विराजमान श्रीवर्धमान जिनेश्वर को ध्याता अपने हृदय में साक्षात् देखें। ऐसे साधक नेत्र एवं मन को उनमें लीन कर दें।
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प्रतिष्ठा के बाद साधक को अपनी साधना का पूर्ण विश्वास होना चाहिए, क्योंकि शंका, संशय या संदेह करने से साधना सफल नहीं होती है। साधना की सफलता का परम रहस्य यही है कि जिसने अपने हृदय कमल में ऐसे जिनेश्वर भगवन्त की प्रतिष्ठा कर ली है, उसके लिए विश्व में ऐसा कोई कल्याण नहीं है, जो उसके सामने न आता हो। वह उसकी प्राप्ति में अवश्य ही सफल रहता है। उसके दुःख प्रथम समाप्त हो जाते हैं उसकी देह सुवर्णवत् आभा संपन्न जाती है। एक बार अरिहंत परमात्मा को हृदय में धारण करने पर अन्यत्र कहीं उसका मन नहीं रमता। इस मन रूपी मंदिर में जिनेश्वर के स्फुरायमान होने से पापरूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है। जिस प्रकार अन्य स्थानों को छोड़कर कमल जैसे सरोवर में विकसित होता है, उसी प्रकार एक बार अरिहन्त परमात्मा में संलीन हृदय कभी भी नहीं रुकता। हृदय कमल में तात्विक प्रतिष्ठा, यह ध्यान की एक उत्तम पद्धति है ।
वदन कमल का ध्यान :
परमात्मा के शांत प्रशांत वदन, उनमें साधना की सिद्धि से युक्त दैदीप्यमान दिव्य दो नेत्र युगल न केवल वदन कमल ही अरिहन्त परमात्मा का संपूर्ण देह ही अद्भुत एवं रूप सम्पन्न होता है। जन्मकृत चार अतिशयों में अद्भुत रूप और गंध से युक्त देह का होना प्रथम अतिशय है । पिवंगु, स्फटिक, सुवर्ण, पद्मराग और अंजन जैसी
श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना
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प्रभाकांति वाले जिनेश्वर स्वाभाविक पवित्र एवं सुन्दर होते हैं। अरिहन्त भगवान का देह वर्ण प्रियंगु जैसा हरा तो किसी का स्फटिकवत् श्वेत, किसी का सुवर्ण जैसा पीला, तो किसी का पद्मराग जैसा लाल एवं किसी का अंजन जैसा श्याम होता है। इन पांच वर्षों में से कोई भी वर्ण अरिहन्त को स्पर्श करता है।
अरिहन्त भगवान के चक्षु युगल प्रशम रस से भरे हुए हैं। वदन- कमल अति प्रसन्न है श्रीमानतुंगाचार्य ने प्रभु के बदन कमल हैं। का स्वरूप दर्शाते हुए बहुत सुंदर कहा है कि सदैव उदय रहने वाला, मोह रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला, राहु के मुख द्वारा प्रसे जाने के अयोग्य मेघों के द्वारा छिपाने के अयोग्य, अधिक कांतिवाला और संसार को प्रकाशित करने वाला आपका मुख कमल रूपी अपूर्व चन्द्रमण्डल सुशोभित होता है। देव, मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों का हरण करने वाला एवं संपूर्ण रूप से जीत लिया है तीनों जगत की उपमाओं को जिसने ऐसा आप का मुख कहां और कहां कलंक से मलिन चन्द्रमा का मुख मंडल ।
प्रभु का वदन कमल परम मंगल स्वरूप है। प्रात:काल स्मरणीय है, ध्यान द्वारा दर्शनीय है। कल्याण करने वाला है। इस प्रकार वदनकमल के ध्यान के कई लौकिक लोकोत्तर परिणाम हैं।
प्रभु का इस प्रकार ध्यान करने से अज्ञान दूर होता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, तथा भव्यजन सावधान बुद्धि से युक्त होकर प्रभु के निर्मल मुख कमल आदि पर लक्ष्य बांधने वाला देदीप्यमान स्वर्ग की सम्पत्तियों को भोग कर कर्म रूपी मल समूह से रहित होकर शीघ्र ही मुक्ति पा जाता है।
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हर्ष के प्रकर्ष से युक्त परमात्मा को जो विधि पूर्वक ध्याता है, वह मोक्ष का सुख प्राप्त करता है।
मधुकर मौक्तिक
अशुभ से विपरीत है— शुभ यह मनुष्य को 'मनुष्यता 'के शृंगार रूप भावों से ओतप्रोत कर देता है.। जब मनुष्य शुभ की ओर प्रगति करता है, तब वह शुद्ध को पहचान सकता है। शुद्धिकरण और निशुद्धिकरण की प्रक्रिया के शुभारंभ के पश्चात् ज्ञातव्य के ज्ञान के पश्चात् शुभ से शुद्ध प्राप्त किया जा सकता है। इसे समझने के लिए गहन विचार मंथन की आवश्यकता है पर पहले इसे भावों की तरतमता से जान लेना आवश्यक है।
जिनशासन में अशुभ से शुभ में प्रवेश पाने के लिए प्रार्थना का विधान किया गया है। प्रकृष्ट उत्कृष्ट भाव निर्मल होते है, उनकी नस नस में निर्माण समाया हुआ होता है। इसीलिए भावों की जाज्वल्यमान पुरस्कृति के लिए अचेत मन को जागृत करना बहुत आवश्यक है।
आकर्षण की मदिरा से पथभ्रष्ट होकर जो भव के प्रेमपाश में जकड़े गये हैं उनके लिए बार-बार यह कहा गया है कि जब तक अन्तर्मन में सद्भावों की सरिता कल कल करती बहने नहीं लगेगी, तब तक पवित्रता की अभिव्यक्ति बिल्कुल असंभव है।
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बनी बिगड़ती जिंदगी, करे अहं नर कोय । जयन्तसेन विनम्रता, सुखदायक नित होय ॥
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