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एकदेश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा देश ३- स्यात् अस्ति नास्ति ! तदुभय पर्यायों से आदिष्ट है ! अतएव द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा स्यात् अवक्तव्य ! नहीं है और अवक्तव्य है।
स्यात् अस्ति अवक्तव्य ! उक्त भंगों में चतुर्थ भंग का जो स्वरूप है उसके सम्बन्ध में स्यात् नास्ति अवक्तव्य ! एक तथ्य ज्ञातव्य है, वह यह कि एक ही स्कन्ध के भिन्न-भिन्न अंशों ७- स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य !
७में विवक्षा-भेद का आश्रय लेने से चौथे से आगे सभी भंग होते हैं। इस सप्तभंगी में मूलत: भंग तीन ही हैं अस्ति, नास्ति अवक्तव्य ! इन्ही विकलादेशी भंगों को बतलाने की प्रक्रिया प्रस्तुत वाक्य से प्रारम्भ । इसमें तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी इस प्रकार चार भंग मिलाने होती है।
से सात भंग बनते हैं । अस्ति-नास्ति, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य उस के बाद महावीर ने त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के सम्बन्ध में तेरह.
ये तीन भंग द्विसहयोगी भंग हैं । मूल तीन भंग होने पर भी फलितार्थ चतुष्पदेशिक स्कन्ध के सम्बन्ध में उन्नीस, पंचप्रदेशिक स्कन्ध के रूप से सात भंगों का उल्लेख आगम - वाङ्मय में उपलब्ध होता सम्बन्ध में बावीस व षट्पदेशिक स्कंध के तेवीस भंग किए।
है। भगवती सूत्र में जहाँ त्रिप्रदेशी स्कन्ध का उल्लेख आया है वहाँ इस प्रकार उपर्युक्त भंगों को देखने से यह कहा जा सकता है
स्पष्ट रूप से सात भंगों का प्रयोग हुआ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कि यदि ऐसे अधिक प्रदेश बाहुल्य पुद्गल स्कन्धों के सम्बन्ध में भी
भी सात-भंगों के नाम गिना कर सप्त भंग का उल्लेख किया है। विचार-चिन्तन किया जाय तो भंगों की संख्या अपेक्षा-भेद के
भगवतीसूत्र२६और विशेषावश्यक भाष्य इन दोनों में अवक्तव्य को
तीसरा भंग माना है। कुन्दकुन्द आचार्य ने पंचास्तिकाय में इस को कारण-सहित और भी अधिक हो सकती हैं इस में कोई संदेह नहीं।
चौथा माना है" पर अपने प्रवचनसार" ग्रन्थ में इस को तीसरा माना इन भंगों पर गहन-चिन्तन करने पर इस बात का पता चलता
है। २९ उत्तरावर्ती आचार्यों की कृतियों में दोनों क्रमों का उल्लेख प्राप्त है कि स्याद्वाद से फलित होने वाली सप्तभंगी पश्चात के आचार्यों की
होता है। देन नहा है, उनकी कोई सूझ नहीं है। यह तो जैनागमों में मिलती है
प्रथम भंग-स्यात् अस्ति घटः! और वह भी अपने वैविध्य पूर्ण प्रभेदों के साथ ! प्रवक्ता अपने
उदाहरण के लिये सप्तभंगी को “घट” में घटायेंगे ! घट में बुद्धि-कौशल से नाना प्रकार के विकल्पों के आधार पर अनेक भंगों
अनन्त धर्म होते हैं, उन अनन्त धर्मों में से एक धर्म कथंचित् सत् है। का निर्माण कर सकता है।
घट में “अस्तित्व" धर्म किस अपेक्षा से है, घट है पर वह क्यों है? सप्तभंगी के इस सन्दर्भ में मेरी अपनी जो विचार सरणि है वह कैसे है? यह एक प्रश्न चिन्ह है, इसी का उत्तर प्रथम भंग देता है। यह है कि आगम-प्रतिपादित भंगों का अवलोकन करने पर यह स्पष्टत:
घट का जो अस्तित्व है वह कथंचित् स्व चतुष्टय की अपेक्षा कहा जा सकता है कि जैन दार्शनिकों ने “सप्तभंगी” की संरचना की
से है। जब हम यह कहते हैं कि घड़ा है तब हमारा उद्देश्य यही होता है, यह कथन भ्रममूलक है, भंगों की जो संख्या है वह मौलिक भंगों
है कि घड़ा स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्वकाल, और स्व-भाव की अपेक्षा से के भेद के कारण नहीं है, किन्तु एक वचन बहुवचन भेद की विवक्षा
है। यहाँ घट के अस्तित्व की जो विधि है वही भंग है, परन्तु यह के कारण है, यह कथन निर्मूल नहीं है। यदि हम वचन भेद-कृत और
अस्तित्व की विधि, स्व की अपेक्षा से है पर की अपेक्षा से नहीं समझनी संख्या की-दृष्टि से विचार नहीं करेंगे तो हम इस निर्णय पर पहुँचते
चाहिये। यदि हम किसी पदार्थ में स्वरूप से अस्तित्त्व का होना हैं कि - मौलिक भंग सात ही होते हैं, न कम और न अधिक हो सकते
स्वीकार न करें तो उसकी सत्ता ही नहीं रह जायगी वह वस्तुत: सर्वथा हैं। अत: स्पष्ट है कि जैनागमों में सप्तभंगी का वैज्ञानिक-प्रतिपादन
असत् हो जाएगा। अतएव संसार के प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व स्व हुआ है।
रूप से ही होता है पर से कदापि नहीं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक भंग-कथन पद्धति -
वस्तु में स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव से सत्ता अवश्यमेव शब्द-शास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक शब्द के मुख्य-रूप में दो वाच्य
स्वीकार करनी चाहिये । विश्व की प्रत्येक वस्तु का जो अस्तित्व है वह होते हैं - विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के साथ निषेध है और
पर रूप से नहीं। स्व रूप से ही होता है। यदि स्वयं से भिन्न अन्य प्रत्येक निषेध के साथ विधि जुड़ी रहती है। एकान्त रूप से न कोई
समग्र पर स्व-रूपों से भी घट का अस्तित्व माना जाय तो फिरघट, विधि है और न कोई निषेध संभव है। इकरार के साथ इन्कार और
घट ही नहीं रह सकता, जल धारण आदि क्रियाएँ घट में ही होती है, इन्कार के साथ इकरार सर्वत्र रहा हुआ है। उक्त विधि और निषेध के
पट में कभी भी नहीं ! आच्छादन आदि करना पट का कार्य है, एक आधार पर जो सप्तभंग बनते हैं ! इन सप्त भंगों के कथन की पद्धति
बात और है, जो स्मरण रखनी चाहिये यदि पदार्थों में अपने स्वरूप इस प्रकार है।
के समान, पर-स्वरूप की सत्ता भी मानी जाय तो° उनमें “स्व” “पर"
का विभाग किस प्रकार घटित होगा। स्व-पर के विभाग के अभाव स्यात् अस्ति !
में गुण और गोचर एक हो जायेगा। संकर दोष उपस्थित होता है। २- स्यात् नास्ति !
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन प्रथ/वाचना
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आज्ञा पालन सुखद है, दुःखद आज्ञा भंग । जयन्तसेन आज्ञा धर, चलना नित्य उमंग ॥
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