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उक्त चर्चा का अभिप्राय यही है कि अनेकान्त एक लक्ष्य है, एक जैनागमों में जिस प्रकार स्याद्वाद का रूप बताया गया है, हम वाच्य है और सप्तभंगी और स्याद्वाद एक वाचक है, एक साधन है, उसी का वर्णन-विवरण प्रस्तुत करेंगे। जिस पर से यह विदित हो उसे समझाने का एक सुन्दर प्रकार है। तथ्य यह है कि क्षेत्र की दृष्टि सकेगा कि सप्तभंगी का जो स्वरूप है वह प्राचीन है, नूतन नहीं है। अनेकान्त एवं व्यापक है, जब कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से स्याद्वाद किन्तु जैन आगम-वाङ्मय में उस पर अवश्य ही चर्चा-विचारणा की व्याप्य है। दोनों व्याप्य-व्यापक भाव का सम्बन्ध है। किसी जिज्ञास गई है और उसके पश्चात् जैन दर्शन के तलस्पर्शी आचार्यों ने उन्हीं के अन्तर्मन में प्रश्न उबद्ध हो सकता है कि स्यावाद व्याप्य क्यों भंगों का दार्शनिक-दृष्टि से विवेचन व विश्लेषण किया है। है? समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि अनन्तानन्त अनेकान्तों गणधर इन्द्रभूति गौतम ने प्रश्न प्रस्तुत किया-भगवन् ! रत्नप्रभा में शब्दात्मक होने के कारण सीमित है अत: स्याद्ववादों की प्रवत्ति पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ? उत्तर में प्रभु महावीर ने कहानहीं हो सकती हैं। इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि अभिलाष्य भाव, १- रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है! अननिलाष्य भावों के अनन्तवें भाग हैं। अनन्त का अनन्त वाँ भाग २- रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा नहीं है! भी अनन्त ही होता है अत: वचन भी अनन्त है। स्पष्ट है कि वचन
३- रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है। अनन्त हैं तो स्याद्वाद भी अनन्त है। परन्तु वह अनेकान्त धर्मों का
उक्त तीनों भंगों को सुनने के पश्चात् गौतम गणधर ने भगवान् अनन्तवाँ भाग होने से सीमित है फलत: व्याप्य है व्यापक नहीं।
से पुन: प्रश्न किया कि आप एक ही पृथ्वी को इतने प्रकार से किस आगमकालीन स्याद्वाद के भंगों का स्वरूप!
अपेक्षा से कहते हैं? जैन आगम साहित्य भारतीय वाङ्मय का अक्षय कोष है, प्रभु महावीर ने समाधान की भाषा में कहाजैनागमों में आत्मा-परमात्मा के विषय में गहन-चिन्तन और १- आत्मा के आदेश से आत्मा है। विशद-विवेचन मिलता है। इस अनुपम निधि के अवलोकन से इस २- पर के आदेश से आत्मा नहीं है। बात का पता चलता है कि जैनागमों के रचयिता - पुरस्कर्ता केवल उभय के आदेश से अवक्तव्य है। र७ दार्शनिक ही रहें होंगे यह बात नहीं, वे दार्शनिक होने के साथ ही मामा इन्द्रभूति गौतम गणधर ने रलप्रभा की तरह अन्य प्रवियों, साथ महतो महीयान् साधक रहे हैं, इसीलिये वे जीवन के क्षेत्र में नया देवलोक और सिद्धशीला के विषय में भी प्रश्न पूछा है और प्रभु ने शिल्प लेकर उभरते हैं, नया स्वर और नया साज लेकर उतरते हैं। भी उसी प्रकार समाधान किया है ! उस के पश्चात् उन्होंने परमाणु के वस्तुत: उन्होंने अपने आप को साधना की अग्नि में तपाकर स्वर्ण की सम्बन्ध में भी प्रश्न उपस्थित किया। प्रभु ने पूर्ववत् ही उत्तर दिया। भाँति निखारा ! आत्मा की शाश्वत सत्ता का मार्मिक शब्दों में उद्घोष किन्तु जब उन्होंने द्विप्रदेशिक स्कन्ध के सम्बन्ध में पूछा, तब भगवान् किया है।
महावीर ने उत्तर इस रूप में दिया। वह इस प्रकार है - सूत्र, प्रवचन, आज्ञा, वचनप्रज्ञापन, उपदेश, आगम आप्तवचन, १-- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है ! ऐतिय, आम्नाय और जिनवचनश्रुत ये सभी शब्द आगम के ही २- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है। पर्यायवाची हैं।१०
३- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् अवक्तव्य है। आगम शब्द की निष्पत्ति “आ” उपसर्ग और गम् धातु से हुयी ४- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और आत्मा नहीं है। है। “आ” उपसर्ग का अर्थ है समन्तात् अर्थात् पूर्ण है और “गम्”
५- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य है। धातु का अर्थ गति-प्राप्ति है।
द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। जैनाचार्यों ने “आगम" शब्द के विषय में अनेक परिभाषाएँ
उक्त भंगों की संयोजना के विषय में अपेक्षा-कारण है उनके प्रस्तुत की हैं "जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान हो
सम्बन्ध में तीर्थंकर प्रभु महावीर ने कहा है - उसे आगम कहते है। जिससे पदार्थों का पदार्थ ज्ञान होता है उसे
१- द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा के आदेश से आत्मा है। आगम कहा जाता है। आप्त का कथन “आगम" कहलाता है।
पर आदेश आत्मा नहीं है। जैनदृष्टि से आप्त कौन है? प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर में यह बताया गया है कि जिन्होंने राग और द्वेष को जीत लिया है वह जिन, सर्वज्ञ
उभय के आदेश से अवक्तव्य है। भगवान्, तीर्थंकर, आप्त हैं और उनका उपदेश ही जैनागम है !४ ४- एक देश सद्भाव पर्यायों से आदिष्ट है और दूसरा जो अंश तीर्थंकर केवल अर्थरूप उपदेश देते हैं और गणधर उसे सूत्र-बद्ध है वह असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है। अत: स्पष्ट है कि करते हैं।१५
द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि गणधर केवल द्वादशांगी की ही ।
एक देश सद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश उभय संरचना करते हैं और स्थविर अंगबाह्य आगमों की संरचना करते
पर्यायी से आदिष्ट है । इसलिये द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना
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आज्ञापालक को मिले, गूढ तत्त्व का ज्ञान । जयन्तसेन अनुभव यह शाश्वत सत्य निदान ॥
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