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भारतीय दर्शनों की तुलना में
जैन दर्शन की प्राचीनता के निश्चायक सन्दर्भ - सूत्र
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आम आदमी, प्रायः यह मानता है कि जैन धर्म का शुभारंभ श्रमण भगवान महावीर ने ही किया है। वास्तविकता यह है कि जैन धर्म के शुभारंभ का एक विस्तृत और लम्बा, परम्परागत पुरातन इतिहास है। इस परम्परा के प्रवर्तकों में भगवान महावीर का नाम चौबीसवें क्रम पर आता है। जैन धर्म के तमाम शास्त्रों से तथा भारतीय वाङ्मय के भी अन्य प्राचीनतम ग्रंथों से, जैन धर्म के प्रवर्तकों की जो नामावली मिलती है, उसमें इस परम्परा के संस्थापक, आद्यप्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव का नाम मिलता है। इसीलिये, उन्हें जैन परंपरा का प्रथम तीर्थंकर भी माना गया है महावीर से पूर्व के दो तीर्थंकरों - तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ और बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि को भी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार कर लिया है इतिहासज्ञों की इस स्वीकृति से यह तथ्य पुष्ट हो जाता है कि भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक न होकर एक 'पुनः प्रवर्तक' / तीर्थंकर थे इस ऐतिहासिक स्वीकृति के अतिरिक्त भी अन्य अनेकों ऐतिहासिक साक्ष्य, इस तरह के उपलब्ध होते हैं, जिनसे जैनधर्म की प्राचीनता का परिज्ञान परिपुष्ट होता है। इसी प्रकार के कतिपय साक्ष्यों का उल्लेख, यहां किया जाना उपयुक्त होगा ।
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श्रीमदार अभिनंदन मंचबाना f
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(साध्वी डॉ. श्री दर्शनप्रभाजी म.सा.) ( दर्शनाचार्य, साहित्य रत्न. एम. ए., पी.एच.डी.)
ईसा पूर्व की प्रथम शताब्दी में कलिङ्ग का शासक थाखारवेल । इसका विशाल साम्राज्य, उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक विस्तृत था इसने जैन धर्म की उन्नति के लिये अनेकों महत्वपूर्ण प्रयास किये थे। इस तथ्य के समर्थन में कई प्रमाण, इतिहासज्ञ प्रस्तुत करते हैं। मगध का शासक नन्द, अपने शासन काल में, एक जैन मूर्ति, कलिङ्ग से मगध ले गया था खारवेल ने सिंहासनारूढ़ होने के बारहवें वर्ष में, इस मूर्ति को वापिस कलिङ्ग में ले आकर इसकी पुनः स्थापना की थी पक्षात् तेरहवें वर्ष में जैन धर्मानुयायियों की एक विशाल सभा भी कलिङ्गनगर में आयोजित की थी, जिसमें जैन मुनियों को श्वेत वस्त्रों का दान भी इसने दिया था। इन तथ्यों से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कलिङ्ग जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था ।
२७२ ई.पू. से २३२ ई पूर्व तक कलिङ्ग युद्ध के समय ब्राह्मण, श्रमण और अन्य धर्मों के अनुयायी वहां रहते थे। इनमें जैन धर्म के अनुयायियों की बहुलता थी। अशोक के शासनकाल में भी पौण्ड्रवर्धन नामक नगर में जैनों की प्रधानता और बौद्धों के साथ संघर्ष का परिचय 'दिव्यावदात''अशोकावदात' 'सुमागधीवदात' आदि बौद्ध ग्रंथों से मिलता है।
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ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में, मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त के शासनकाल (ई.पू. ३२२ से ई. पू. २९८ तक) में बौद्धधर्म की अपेक्षा जैन धर्म विशेष प्रबल था । चन्द्रगुप्त स्वयं भी जैनधर्मानुयायी था। जैन धर्म के अनुसार २४ वर्षों तक शासन करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त जैन मुनि बन गया था और कर्नाटक के मैसूर प्रान्तान्तर्गत श्रवणबेलगोल नामक स्थान पर उसने
'संल्लेखना' का वरण किया था।
मौर्यवंश से पूर्ववर्ती मगध का शासक 'नन्द' राजवंश भी जैन धर्म के प्रति विशेष अनुरागी था कलिङ्ग के शासक खारवेल की 'हरितगुफा' के शिलालेखों से यह ज्ञात हुआ है कि नंद वंश का कोई राजा एक जैन मूर्ति को मगध ले आया था । इतिहासज्ञों की धारणा है कि यह नन्द राजा महापद्म नन्द ही है। पुराणों में इसी का वर्णन 'सर्वक्षात्रांतक 'एकराट्' आदि नामों से मिलता है। सम्भवतः इसी ने कलिङ्ग विजय की थी। इस विवरण से यह निश्चय होता है कि ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में मगध का नन्द वंश, जैनधर्मानुयायी था और उसके शासनकाल में जैनधर्म 'वैशाली', 'मगध' प्रदेश से लेकर सुदूर कलिङ्ग पर्यंत विस्तृत था ।
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नन्द वंश से भी पूर्ववर्ती मगध का हर्याङ्क राजवंश भी जैन धर्म का अनुयायी था। ई.पू. की छठी शताब्दी के शासक बिम्बसार और अजातशत्रु, भारतीय इतिहास में सुविख्यात हैं। इन्हीं के शासनकाल में वैशाली साम्राज्य की स्थापना हुई थी बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध, जैन धर्म के अंतिम प्रवर्तक, चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर तथा आजीवक धर्म के प्रवर्तक मंखली गौशाल ने अपने अपने धर्मों का, प्रचार-प्रसार भी इन्हीं दोनों के शासनकाल में किया था। ये दोनों शासक बुद्ध और महावीर के प्रति समानरूप से श्रद्धावान् थे तथा इनके धर्मों के प्रति अनुरागी रहे हैं। ये दोनों ही महावीर के साथ वैवाहिक सम्बन्धों से जुड़े हुए थे महावीर की माता 'त्रिशला', और बिम्बसार की महारानी 'चेलना' दोनों सहोदरा, चेटकराजा की पुत्रियां थीं। कालान्तर में, अजात शत्रु का आकर्षण जैन धर्म के प्रति विशेष हो गया था अजात शत्रु का पुत्र 'उदय' (या 'उदायी) भी सम्भवतः जैन धर्मानुयायी था। इन उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि अजातशत्रु
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धर्मात्मा की देशना होती नित फलवान । जयन्तसेन फलित करे, जीवन का उद्यान ॥
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