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स्याद्वादो वर्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किंचिद् जैन धर्मः स उच्यते ॥
स्याद्वाद क्या है ? जैन दर्शन की नींव है स्याद्वाद ! जैन तत्त्वज्ञान की भव्य अट्टालिका इस स्याद्वाद के सिद्धांत की नींव पर खड़ी है। जैन दर्शन का प्राण है- स्याद्वाद इसके बिना जैन दर्शन वैसा ही होगा जैसे आत्मा बिना शरीर! 'स्यात्' शब्द का अर्थ कोई-कोई शायद संभव इस प्रकार मानते हैं पर ये शब्द संशयात्मक है। कहा गया है - 'संशयात्मा विनश्यति।' लेकिन हमारा सिद्धांत सर्व-धर्म समन्वय की बात बताता है।
स्याद्वाद की दृष्टि
(साध्वीजी- संयमप्रभाजी सुशिष्या साध्वीजी चांदकुंवरजी)
शंकराचार्य जैसे विद्वान भी स्याद्वाद को संशयवाद कहने लगे। किसी ने पूछा आप कौन हो ? शंकराचार्य कहते है - मैं संन्यासी हूं। प्रश्नकर्ता आप गृहस्थ नहीं हैं? शंकराचार्य नहीं मैं गृहस्थ नहीं हूं। प्रश्नकर्ता - आप हूं और नहीं हूं ऐसी दुहरी बात कैसे करते हो? उन्हें कहना पड़ा-संन्यासाश्रम की अपेक्षा से मैं हूं और गृहस्थाश्रम की अपेक्षा से नहीं हूं। अपेक्षा भेद के कारण मेरा कथन परस्पर विरोधी नहीं है। तो यही हमारा स्याद्वाद है। 'स्याद्' का अर्थ शायद संभवतः या कदाचित् नहीं है किन्तु उसका अर्थ है 'कथंचित्' किसी अपेक्षा से।
एक वक्त भगवान महावीर बचपन में चौथी मंजिल पर बैठकर चिंतन रत थे । उनके बालसखा उन्हें ढूंढ़ते हुए आए। माता त्रिशला से पूछा- मां, भैया कहां है? मां ने कहा- ऊपर है। बच्चे ऊपर चढ़ते सातवीं मंजिल पर पहुंच गए, सिद्धार्थ ऊपर थे, पूछा- भैया कहां है? पिता सिद्धार्थ ने कहा- नीचे है। सारे बाल-सखा हैरत में पड़ गए। मां कहती है ऊपर है, दादा कह रहे हैं नीचे हैं। वे झूठ तो नहीं बोल सकते ? आखिर मामला क्या है ? आखिर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते चौथी मंजिल पर वर्धमान को पा लिया। वे ध्यान मुद्रा में चिंतन रत बैठे थे। बच्चे उनके समीप जाकर कहते हैं- भैया! हम तो परेशान हो गए। मां कहती आप ऊपर हो, दादा कहते नीचे हो। बालक वर्धमान ने कहा- दोनों की बात सही है। ऊपर की अपेक्षा से पिताश्री ने कहा- मैं नीचे हूं। माता जी नीचे थी, उस अपेक्षा से उन्होंने कहा- मैं ऊपर हूँ। सापेक्षता हमारी कई समस्याओं का समाधान है। स्याद्वाद की आवश्यकता - अनेक श्रेणियों का समन्वय/मेल करके सत्यकी कसौटी पर कसना व अनेक धर्मों को एवम् दार्शनिक सिद्धांतों को सत्सूत्रो में गूंथना स्याद्वाद का प्रमुख लक्ष्य रहा हुआ है। एक ही वस्तु में विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति है- स्याद्वाद !
श्रीमद जयंतसेनसून अभिनंदन
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स्याद्वाद - अनेकांतवाद - यद्यपि जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत हैं— स्याद्वाद / अनेकांतवाद जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अनेकांतवाद वस्तु दर्शन की विचार पद्धति है तो स्याद्वाद भाषा पद्धति । जैसे चित्रकार मनमें संकल्प करता है, कल्पनाएँ बनाता है और संकल्पों को साकार रूप देने के लिए कल्पनाओं को चित्रित करने के लिए कागज पर चित्रांकन करता है। संकल्प युक्त विचार है- अनेकांत वाद और चित्रांकन है स्याद्वाद का स्वरूप ।
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स्याद्वाद की दृष्टि इस धर्म सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक पदार्थ चाहे वह अणु स्वरूप हो या विराट रूप में वह अनंत धर्मों का समूह है। पदार्थ को एक पहलू से /एक धर्म से जानना एकांतवाद है जो कभी कभी पतन की ओर भी ले जाता है पर स्याद्वाद हमारी दृष्टि को विस्तृत करके हमारी विचार धारा को पूर्णता की ओर ले जाता है।
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एक आम्र फल रखा है। हम कहते हैं कि इसमें रूप भी है/रस भी है / गंध भी है, स्पर्श भी है तब हम स्याद्वाद का उपयोग करते हैं। लेकिन जब हठाग्रह से कहते हैं- आम्रफल में रूप ही है / गंध ही है या रस ही है तब हम मिथ्या एकांतवाद का प्रयोग करते हैं। स्याद्वाद की दृष्टि कहती है- 'मेरा भी सच्चा' पर एकांतवादी दृष्टि कहती है 'मेरा ही सच्चा' इसमें दूसरे गुण धर्मों का स्पष्टतः निषेध किया जाता
स्याद्वाद न्यायाधीश एक व्यक्ति ने एक चित्र बनाया अन्य तीन व्यक्ति उसे देखने के लिए आए। चित्र देखकर जब वे आपस में मिले एक कह रहा है-चित्र लक्ष्मीजी का था। दूसरा कहता है-क्या आंखें मूंदकर देख रहे थे? चित्र तो गणेशजी का था तीसरा वा भाई वा! तुमने आंखें खोलकर क्या देखा? चित्र तो सरस्वती का था। इस बात को लेकर वे आपस में झगड़ने लगे। इतने में कोई प्राज्ञ व्यक्ति उधर से निकला। इस झगड़े को सुनकर कुतूहल जाग्रत हुआ। स्थिति को जाना तीनों से कहा मुझे भी बताइए वह चित्र ! तीनों ने अलग अलग स्थानों से चित्र बताया। वास्तव में कलाकार ने इसी ढंग से चित्र बनाया था कि एक स्थान से वह लक्ष्मी का, दूसरे स्थान से गणेशजी का तीसरे स्थान से सरस्वती का नजर आ रहा था । सत्यार्थ को जानने के लिए स्याद्वाद को न्यायाधीश बनाना पड़ेगा । स्याद्वाद कहता है- एक ही चित्र में अनेक धर्म है परंतु भिन्न भिन्न अपेक्षा से यह अपेक्षावाद दर्शन की भाषा में स्याद्वाद के नाम से जाना जाता है।
नेत्रयुक्त दर्शन- स्याद्वाद — एकांतवादी अंधे दर्शन को स्याद्वाद की ज्ञान दृष्टि देते हुए कहता है कि तुम्हारी मान्यता का एक पहलू ठीक हो सकता है, सभी नहीं। अपने एक अंश को सर्वथा सब अपेक्षा (शेष पृष्ठ ७० पर)
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दान शील तप भावना, कर आत्म को शुद्ध । जयन्तसेन धर्म यही, जो धारत वह बुद्ध ॥
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