________________
मुक्ति का मार्ग
(साध्वीश्री शासनलताश्री)
विश्व में यह सर्वमान्य एवं सर्वान्भुत तथ्य है कि सभी प्राणी
(५) अनुकंपा-किसी भी प्रकार दु:खी हैं और दुःख से मुक्ति चाहते हैं तदर्थ यत्न भी करते हैं, परंतु
| का स्वार्थ के बिना दु:खीजीवों के ऊपर उस मुक्ति के सही मार्ग का पता न होने के कारण उनका किया गया
करुणा भाव प्रकट करना।। सारा ही प्रयत्न व्यर्थ जाता है अत: मूलभूत प्रश्न यह है कि वास्तविक
जा वीतराग परमात्मा ने जो कहा है मुक्ति का मार्ग क्या है?
कि वही सत्य है ऐसी अटल श्रद्धा इस प्रश्न के पूर्व वास्तविक मुक्ति क्या है? इस समस्या का
होना। समाधान अपेक्षित है । मुक्ति का आशय दुःखों की पूर्णत: मुक्ति से है
सम्यग् दर्शन उत्पन्न कैसे होता दुःख आकुलता रूप है। अत: मुक्ति पर पूर्ण निराकुल होना चाहिए, जहाँ अंशमात्र भी आकुलता रहे वह परिपूर्ण सुख नहीं अर्थात् मुक्ति
काम सम्यग् दर्शन उत्पन्न होने के नहीं है।
मुख्य दो प्रकार उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में बताये:मुक्ति मार्ग क्या है इसका निरूपण करते हुए आचार्य
"तन्निसर्गादधिगमाद्वा" अमृतचन्द्रजी लिखते हैं कि :
पहला निसर्ग और दूसरा अधिगम । निसर्ग-जो सम्यग्दर्शन "एवं सम्यग्दर्शनबोध, चारित्रत्रयात्मको नित्यम् ।
जीव को बाह्य निमित्त बिना स्वाभाविकरूप से उत्पन्न होता है, और तस्यापि मोक्ष मागों भवति, निषेव्यो यथाशक्ति ॥”
दूसरा अधिगम जो सम्यग्दर्शन गुरु उपदेश आदि बाह्य निमित्त द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीनों की एकता प्राप्त होता है। ही मोक्षमार्ग है। प्रत्येक जीव को इसका सेवन यथाशक्ति करना सम्यग ज्ञान का विशेष स्वरूप:चाहिए।
सम्यग् दर्शन को जानने के पश्चात् सम्यग् ज्ञान को जानना जरूरी अत: यह तो निश्चित हुआ कि सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्ची श्रद्धा
है। सम्यग्ज्ञान-भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय वस्तु को जानना, सुगुरु, सुदेव सम्यग्ज्ञान अर्थात् सच्चाज्ञान और सम्यग्चारित्र अर्थात् सच्चा चारित्र
सुधर्म की पहचान करना। यह सभी सम्यग्ज्ञान द्वारा ही हो सकता तीनों की एकता ही सच्चा मुक्ति मार्ग है। सम्यग्दर्शन का विशेष
है। सुदेव अठारह दोषों से रहित, बारहगुणों के सहित, वाणी के पैंतीस स्वरूप:
गुणों से युक्त चौंतीस अतिशयों से सुशोभित ऐसे सुदेव को जानना। “तत्त्वार्थ- श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् "
सुगुरु - गुरु यानी अंधकार को नाश करने वाले, पंच महाव्रत तत्त्वरूप जीवादि पदार्थों की श्रद्धा अर्थात् जीवादि पदार्थ जिस
धारी, संसार में डूबते हुए प्राणी को पार करने में जहाज के समान ऐसे स्वरूप में है उस स्वरूप में मानना। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के सुगुरु को जानना। क्षयोपशम से प्रकट यह शुद्ध आत्म परिणाम मुख्य सम्यग्दर्शन है। सुधर्म - दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों को बचाकर सद्गति की तब कोई भव्यात्मा प्रश्न करती है कि जीव में सम्यक्त्व प्रकट
ओर प्रेरित करना, जिससे आत्मा की शुद्धि हो अर्थात् आत्मा जिससे हुआ या नहीं यह कैसे जान सकते हैं?
मूल स्वभाव को प्राप्त करे, उसका नाम सुधर्म है। सम्यग्दर्शन को जानने के लिए ज्ञानी भगवंतों ने पाँच लक्षण
इस प्रकार संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित एवं बताये हैं (१) शम (२) संवेग (३) निर्वेद (४) आस्तिक्य (५) अनुकंपा
अनेकान्तात्मक प्रयोजन भूत तत्त्व की जानकारी ही सम्यग्ज्ञान है। (१) शम - क्रोध का निग्रह करना।
सम्यग् चारित्र का विशेष स्वरूप :(२) संवेग- मोक्ष के प्रति राग होना।
सम्यग् चारित्र यानी यथार्थ ज्ञान पूर्वक असत् क्रिया से निवृत्ति (३) निर्वेद - संसार के प्रति निर्वेद भाव प्रकट होना।
और सक्रिया में प्रवृत्ति । सम्यक् चारित्र के पांच भेद है:(४) आस्तिक्य
(शेष पृष्ठ ४८ पर)
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना
धर्म बिन्दु को छोड़कर, चला तनिक जो दूर ।
जयन्तसेन रहे सदा, भाव भक्ति तस क्रूर Library.org
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only