________________
संस्कृति की परिभाषाएँ -
कहा जाता है कि भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों के मेल से बनी हुई संस्कृति है । वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति आदि अनेक संस्कृतियाँ इस देश में फली फूली हैं। इस देश की मिट्टी, तन्त्र-मंत्र की साधना, स्त्री और शूद्र का बहिष्कार, यज्ञोपवीत धारण आदि ब्राह्मण परंपरा की देन हैं।
जैन संस्कृति
श्रमण संस्कृति की एक विशिष्ट धारा जैन संस्कृति के नाम से भारतीय इतिहास में सुविश्रुत रही है। उसकी अपनी पहचान है जिनेश्वर वीतराग की उपासना और विचार एवं आचारगत कतिपय अनन्य साधारण विशेषताओं से वह मंडित है।
जैन संस्कृतिकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ
(१) जैन संस्कृति गुणों की उपासक संस्कृति है, व्यक्ति की नहीं। इसी कारण इसका प्रमुख मंत्र 'नमस्कार मंत्र' अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के रूप में विश्व की सभी महान आत्माओं के प्रति श्रद्धा एवं प्रणति ज्ञापित कराने वाला मंत्र है ।
(२) यह संस्कृति निवृत्तिप्रधान संस्कृति है। प्रवृत्ति प्रधान संस्कृति इच्छा के परिष्कार पर बल देती है, जबकि यह इच्छा मात्र के सर्वथा निरोध को ही मुक्ति का साधन मानती है। आत्मोपलब्धि और भवचक्र का उच्छेद इच्छा -निरोध से ही संभव है।
(३) विचार और आचार दोनों ही पक्षों में जैनसंस्कृति अहिंसात्मक है । अनेकान्त उसका विचार पक्ष है और अहिंसा उसका आचार पक्ष है। विचार गत अहिंसा का अर्थ है-कदाग्रह अथवा मिथ्याआग्रह (एकान्त पक्ष का आग्रह का त्याग मेरा ही अभिमत सत्य है, इसके बदले 'सत्य है सो मेरा है' का स्वीकार अनेकान्तवाद है । इस दृष्टि का अभिव्यक्ति पक्ष है-स्याद्वाद । इसी के आधार पर जैन संस्कृति अन्य सब दर्शनों का, संस्कृतियों का सम्मान करती है
श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदनाचा me des
185TRE
Jain Education International
Gist
और समुद्र को भरनेवाली नदियों के समान उनको पूरक और उपकारक मानती है।
(४) आचार पक्ष की दृष्टि से अहिंसक वृत्तिवाले के लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना स्वयंसिद्ध हो जाती है। यह साधना प्रवृत्ति निवृत्ति उभयरूपा है। जैसे हिंसा से निवृत्ति और दया, करुणा, अनुकंपा, परोपकार, प्रेम आदि में प्रवृत्ति से ही अहिंसावत की साधना में समग्रता आती है। असत्य से निवृत्ति और हित- मित-मधुर सत्य- संभाषण में प्रवृत्ति से सत्य व्रत का समग्रतः पालन किया जा सकता है। इत्यादि।
(५) इन पांचों व्रतों की आराधना गृहस्थी और संयमी जीवन की दृष्टि से स्तर-भेद रखती है। गृहस्थ व्यक्ति इनका अंशत: पालन करता है, अतः उसके द्वारा पालित ये व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं। जबकि एक संयमी साधक इनका पूर्णतः पालन करता है, तब ये ही व्रत 'महाव्रत' संज्ञा से अभिहित किए जाते हैं।
1
(६) वैराग्य और त्याग प्रधान इस संस्कृति में गृही श्रावक और मुनि बनने के लिए जाति-पाँति, धनी-निर्धन आदि का कोई भी बन्धन स्वीकृत नहीं है कोई भी गृहस्थ व्यक्ति श्रावक के १२ व्रतों को अंगीकार कर सकता है। अस्पृश्य समझी जानेवाली जातियों में उत्पन्न लोग श्रमण दीक्षा स्वीकार कर मैत्री, कारुण्य आदि का उपदेश देते हैं। सामान्य स्त्री-पुरुषों से लेकर विद्वत्ता, शूरवीरता और वैभव से सम्पन्न उच्चवर्णीय ब्राह्मण सेनापति, धनकुबेर, श्रेष्ठी और राजा-महाराजा भी अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिए इस मार्ग का अवलम्बन लेते हैं ।
इस प्रकार जगत के जीवों के प्रति वात्सल्यमयी असाम्प्रदायिक यह जैन संस्कृति भ ऋषभ देव से लेकर आज तक मानव को असद्गुणों से निवृत्त करके सगुणों में प्रवृत्ति का संदेश देते हुए व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ लोकमंगल का विधान करती आयी है।
मधुकर मौक्तिक
सम्यक्ज्ञान - सहित जो क्रिया होती है, वह रचनात्मक है। उस शुद्ध क्रिया से यदि हम तनिक भी दूर हुए तो असत्-क्रिया के चक्कर में पड़ जाएँगे, जो हमारा मानस विकृत कर डालेगी। इससे हमारे विचार, वाणी और व्यवहार सब दूषित, मलिन हो जाएँगे। ऐसा न हो, इसीलिए नवकार मंत्र आँखें खोल कर सावधान हो कर चलने का सन्देश देता है। हमारे जीवन-पथ में अनेक आँधियाँ और अनेक, तूफान हैं। परमेष्ठी भगवन्तों का आलम्बन ले कर ही उनका मुकाबला करते हुए हमें आगे बढ़ना है ।
- जैनाचार्य श्रीमद जयंतसेनसूरि 'मधुकर'
FRE
क
५८
For Private & Personal Use Only
माया ममता ना तजे, रखता चित्त कषाय । जयन्तसेन आत्म वही, जन्म जन्म दुःख पाय ॥ www.jainelibrary.org