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है।
वह अपने स्वतंत्र नियमों का पालन करती है। इसे प्राचीन प्राकृत कहा गया है। कुछ स्थलों पर नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं परस्पर मिश्रित
हो गई हैं। इसलिए उनका अलग अध्ययन करना कठिन पड़ता है। साधारणतया मगध के आधे हिस्से में बोली जाने वाली भाषा नियुक्तियों की भाषा के समान भाष्यों की भाषा भी मुख्य रूप से को अर्धमागधी कहा गया है। अभयदेवसूरि के अनुसार इस भाषा में प्राचीन प्राकृत अथवा अर्धमागधी है। सामान्यतया भाष्यों का समय ई. कुछ लक्षण मागधी के और कुछ प्राकृत के पाए जाते हैं अतएव इसे सन् की-1 वीं शताब्दी माना जाता है। निशीथ, व्यवहार, कल्प, अर्धमागधी कहा है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी के समीप होने के कारण, पंचकल्प, जीतकल्प, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्तसार पिण्डनियुक्ति इन सूत्रों पर भाष्य लिखे गए हैं। इनमें निशीथ, व्यवहार में इसे महाराष्ट्री और मागधी का मिश्रण बताया है। इनसे यही सिद्ध और कल्पभाष्य विशेष कर जैनसंघ का प्राचीन इतिहास जानने के होता है कि आजकल की हिन्दी भाषा की भांति अर्धमागधी जन-सामान्य लिए अतीव उपयोगी है। इन तीनों भाष्यों के कर्ता संघदास ठाणि की भाषा थी जिसमें महावीर ने सर्वसाधारण को प्रवचन सुनाया था। क्षमा-श्रमण है जो हरिभद्रसूरि के समकालीन थे। ये वसुदेवहिण्डी के आगमों की टीकाएं
कर्ता संघदास गणिवाचक से भिन्न है। __आगम साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णीटीका, विवरण-विवृत्ति,
आगमों पर लिखे गए व्याख्या साहित्य में चूर्णियों का स्थान वृत्ति दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णीव्याख्या, व्याख्यान पञ्जिका, आदि महत्वपूर्ण ह। यह साहित्य गद्यशला म लिखा गया है। सभवत: जन विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है। आगमों का विषय अनेक
तत्त्वज्ञान और उससे सम्बन्ध रखने वाले कथा-साहित्य का विस्तार स्थलों पर इतना सूक्ष्म और गंभीर है कि बिना व्याख्याओं के उसे पूर्वक विवेचन करने के लिए पद्य-साहित्य पर्याप्त न समझा गया। समझना कठिन है। इस व्याख्यापूर्ण साहित्य में 'पर्वप्रबन्ध' वद्ध इसके अतिरिक्त यह भी जान पड़ता है कि संस्कृत की प्रतिष्ठा बढ़ सम्प्रदाय, वद्ध व्याख्या. केवलिगम्य आदि के उल्लेख व्याख्याकारों जाने से शुद्ध प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत मिश्रित प्राक़त में साहित्य ने पूर्व प्रचलित परम्पराओं में प्रतिपादित किया है। निर्यक्ति. भाष्य लिखना आवश्यक समझा जाने लगा। इस कारण इस साहित्य की चूर्णी और कतिपय टीकाएं प्राकृत में लिखी गयी हैं जिससे प्राकृत भाषा को मिश्र प्राकृत भाषा कहा जा सकता है। आचारांग, सूत्रकृतांग, भाषा और साहित्य के विकास पर प्रकाश पडता है। इन चारों व्याख्याप्रज्ञप्ति-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रत स्कन्ध, व्याख्याओं के साथ मूल आगमों को मिला देने से यह साहित्य पश्चाङ्गी
जीतकल्प, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक साहित्य कहा जाता है।
दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वार इन सोलह आगमों पर चूर्णियां व्याख्यात्मक साहित्य में नियुक्तियों (निश्चिता उक्तिः नियुक्तिः)
लिखी गयी हैं। इनमें पुरातत्त्व के अध्ययन की दृष्टि से निशीथ चूर्णी का स्थान सर्वोपरि है। सूत्र में निश्चय किया हुआ अर्थ जिसमें निबद्ध
और आवश्यक चूर्णी का विशेष महत्त्व है। इस साहित्य में तत्कालीन हो उसे नियुक्ति कहते हैं। नियुक्ति आगमों पर आर्या छन्द में प्राकृत
रीति रिवाज, देश, काल, सामाजिक, व्यवस्था, व्यापार आदि का गाथाओं में लिखा हुआ संक्षिप्त विवेचन है। आगमों का प्रतिपादन
रोचक वर्णन मिलता है। वाणिज्य कुलीन कोटिकगणीय वज्रशाखीय करने के लिए इसमें अनेक कथानक, उदाहरण और दृष्टांतों का उल्लेख
जिनदास-गणि-महत्तर अधिकांश चूर्णियों के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध किया गया है। इस साहित्य पर टीकाएं भी लिखी गयी हैं। संक्षिप्त
हैं। इनका समय ई. सन् की छठी शताब्दी माना जाता है। और पद्यबद्ध होने के कारण इसे आसानी से कंठस्थ किया जा सकता
आगमों पर अन्य अनेक विस्तृत टीकाएं और व्याख्याएं भी है। आचारांग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रज्ञप्ति, व्यवहारकल्प, दशाश्रुतस्कन्ध,
लिखी गयी हैं। अधिकांश टीकाएं संस्कृत में हैं, यद्यपि कतिपय उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और ऋषिभाषित इन दस सूत्रों
टीकाओं का कथा सम्बन्धी अंश प्राकृत में उद्धृत किया गया है। पर नियुक्तियां लिखी गयी हैं।
आगमों के प्रमुख टीकाकारों में याकिनीसून, हरिभद्रसूरि और मलयगिरि इनमें विषयवस्तु की दृष्टि से आवश्यक नियुक्ति का स्थान विशेष
आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। टीकाओं में आवश्यक टीका महत्त्व का है। पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति मूल सूत्रों में गिनी गयी
और उत्तराध्ययन की पाइय (प्राकृत) टीका आदि मुख्य है। है। इससे नियुक्ति साहित्य की प्राचीनता का पता चलता है कि वल्लभी
इसके अतिरिक्त वर्तमान शताब्दी में हिन्दी भाषा में भी अनेक वाचना के समय ई. सन् की पांचवी-छठी शताब्दी के पूर्व ही संभवतः
विद्वान् आचार्यों ने अच्छा व्याख्यात्मक साहित्य लिखा है। यह साहित्य लिखा जाने लगा था। अन्य स्वतन्त्र नियुक्तियों में पंचमंगलश्रुत स्कन्धनियुक्ति, संसक्तनियुक्ति, गोविन्दनियुक्ति और
संस्कृत हिन्दी कोश, ले. वामन शिवराम आपटे, पृ. १३९-१० आराधनानियुक्ति मुख्य हैं। नियुक्तियों के लेखक परंपरा के अनुसार
रत्नाकरावतारिकावृत्ति
आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । उपचारादाप्तवचनंदप। भद्रबाहु माने जाते हैं, जो छेद-सूत्रों के कर्ता अंतिम श्रुत-केवलि से
स्याद्वादमंजरी श्लो. टीका भिन्न है।
सासिज्जइ जेण तयं सत्यं तं वा विसेसियं नाणं। नियुक्तियों की भांति, भाष्य साहित्य भी आगमों पर लिखा गया आगम एव य सत्थं तु सुयनाणं । विशेषावश्यकभाष्य गा. ५५९ है, जो कि प्राकृत गाथाओं, संक्षिप्त शैली और आर्या छन्द में लिखा ५ अंत्थं भासइ अरहा, सुत्रं गन्थन्ति गणहरानिधण/सासणस्स हि
श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना
न्यायनीति रख नम्रता, छोड़ सकल अभिमान । जयन्तसेन अवश्य हो, जीवन का उत्थान ॥
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