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अधिकांश सिद्धान्त समान हैं। इनमें मुख्य अन्तर यही है कि सांख्य योगसूत्र के उक्त सूत्रपाठों का आशय यह है कि पदार्थ सामान्य पुरुष को अकर्ता मानता है और योग परमेश्वर को मानकर उसकी विशेष उभयरूप हैं। भक्ति पर विशेष बल देता है इसलिए इसे ईश्वरवादी सांख्य भी कह इस प्रकार योगदर्शन में अनेकान्तवादात्मक आपेक्षिक कथनों के देते हैं तथा योग पर विशेष बल देने से योगदर्शन कहते हैं। योगदर्शन दर्शन होते हैं। में भी सांख्य-दर्शन की तरह प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्त्व माने
सांख्यदर्शन में स्याद्वादः गए है किन्तु वर्तमान में योग दर्शन की विधिवत् व्यवस्था करने
सांख्य-दर्शन भी जैन और बौद्ध दर्शनों की तरह वेदों को प्रमाण वाले महर्षि पतंजलि हैं।
नहीं मानता है। यह यज्ञयागादि हिंसा मूलक कर्मकांड का विरोधी है जगत् की नित्यानित्यता:
और मुक्ति के तत्त्वज्ञान एवं अहिंसा को मुख्यता देता है। जैनदर्शन __योग-दर्शन (सेश्वरवादी सांख्य-दर्शन) के मान्य ग्रन्थ पातंजल के आत्म-बाहल्यवाद और बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद की तरह योगसत्र के भाष्य में महर्षि व्यास ने जगत की नित्यानित्यता के बारे परिणामवाद को मानता है। सांख्य-दर्शन के आद्य प्रणेता प्रवर्तक या में अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर निम्न प्रकार से कथन किया है - व्यवस्थापक महर्षि कपिल माने जाते हैं और इनका जन्म भी जैन और
अपर' आह धर्मानभ्यधिको धर्मी पूर्वतत्वानतिक्रमात् । बौद्ध तीर्थंकरों की तरह क्षत्रियकुल में होना माना जाता है। कुछ लोग पूर्वापरावस्थाभेदमनुपतितः कौटस्थ्येन विपरिवर्तेत पद्यन्वयी स्यादिति। कपिल को ब्रह्मा का पुत्र बताते हैं और भागवत में इन्हें विष्णु का अयमदोषः कस्मात् एकान्तानभ्युपगमात्। तदेतत् त्रैलोक्यं व्यक्तरपंति अवतार कहा है। कस्मात् नित्यत्वप्रतिषेधात् । अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात्।
सांख्य-दर्शन की दो धाराएँ हैं-सेश्वरसांख्य और निरीश्वरसांख्य। उपर्युक्त सूत्र में बौद्धदर्शन की शंका का समाधान करने के सेश्वर-सांख्य-योग-दर्शन और निरीश्वरसांख्य सिर्फ सांख्यदर्शन के नाम लिए अनेकान्तवाद का अनुसरण करते हुए भाष्यकार ने संकेत किया से अभिहित होता है। उक्त दोनों प्रकार के सांख्यों ने अपने-अपने
चिन्तन में अनेकान्तवाद का आश्रय लिया है। जैन-दर्शन की तरह अयमदोषः कस्मात् एकांतानभ्युपगमात् ।
निरीश्वरवादी ने भी प्रकृति को उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक माना है या वाचस्पतिमिश्र ने अनेकान्तवाद की कथन-प्रणाली का आश्रय आचार्य वाचस्पति के अनुमान के उदाहरण में वह्नित्व को सामान्य लेकर योग-भाष्य की व्याख्या में आप लिखते हैं
विशेषात्मक मानते हुए अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। यथा"कटककुण्डलकेयूरादिम्यो भिन्नाभिन्नस्य सुवर्णस्य भेद विवक्षया “यथा धूमात् वह्नित्वसामान्यविशेषः पर्ततेऽनु मीयते ।" । सुवर्णस्य कुण्डलादन्यत्वम्। तथा च कटककारी सुवर्णकार: म जैसे धूम के ज्ञान से वह्नित्व रूप सामान्य विशेषका पर्वत में कुण्डलादभिन्नात्सुर्वात् अन्यत्कुर्वनन्यत्वकारणम्।”
अनुमान होता है। यहाँ पर वह्नित्व को सामान्य एवं विशेष उभयरूप कुल मिलाकर इसका सारांश इतना ही है कि कटक कुण्डल से स्वीकार करने में ही अनेकान्तवाद की स्वीकृति है। अनेकान्तवाद आदि धर्मों से सुवर्ण रूप धर्मी भिन्न अथवा अभिन्न हैं। भेद विवक्षा भी तो यही कहता है कि वस्तु सामान्य विशेष, नित्य-अनित्य आदि से वह भिन्न है और अभेद विवक्षा से अभिन्न है इसके अलावा
धर्मों से संयुक्त है, लेकिन उनका कथन-अभिव्यक्ति अपेक्षा से होती योगदर्शन की भोजदेव कृत राजमार्तण्ड नामकवृत्ति में भी अनेकांतवाद है। के अनुरूप ही धर्म-धर्मी के भेदाभेद को स्वीकार किया गया है। मीमांसा-दर्शन में स्यादवाद :
पातंजल योग-भाष्य में जैनदर्शन के अनुरूप पदार्थ को र मीमांसा - दर्शन के प्रथम प्रस्तावक महर्षि जैमिनी माने जाते सामान्य-विशेष उभयात्मक माना गया है। उदाहरण के रूप में निम्न हैं। उनके द्वारा रचित मीमांसा-सूत्रों के कारण इसे जैमिनीय दर्शन भी सूत्र उद्धृत हैं
कह दिया जाता है। जैमिनी कृत मीमांसा सूत्र पर कुमारिल भट्ट ने 'सामान्य-विशेषणात्मनोऽर्थस्य।
ईसा की सातवीं सदी में श्लोक वार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुष्टी ये
तीन टीकाएँ लिखीं। मीमांसादर्शन में सामान्यत: पाँच प्रमाण माने गये य एतेष्वभिव्यक्तानभिव्यक्तेसु धर्मेष्वनुपाती सामान्य
हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, शब्द। कुमारिलभट्ट ने विशेषात्मासोऽन्वयी धर्मी।
छठा अभाव प्रमाण भी माना है। सामान्य-विशेष समुदायोऽत्र द्रव्यम्।
जैनदर्शन में जैसे द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक माना
है तथा द्रव्य स्वरूप से धौव्यात्मक और अपनी पर्यायों से टीकाकार नालाराम उदासीन
उत्पादव्ययात्मक है, द्रव्यनित्य है और पर्याय अनित्य। वैसे ही मीमांसा २ योगसूत्र - विभूतिपाद सूत्र १३
दर्शन में भी द्रव्य-पर्याय के नित्यानित्यत्व को इस प्रकार प्रकट किया ३ योगसूत्र, समाधिपाद सूत्र ७ ४ योगसूत्र, विभूतिपाद सूत्र १४ ।
योग सूत्र, विभूतिपाद सूत्र ४७
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना
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तन धन बल अरु बुद्धि का, उचित नहीं अभिमान । जयन्तसेन मिले सदा, कदम कदम अपमान ॥
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