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यछाएतओसुत्तं पवत्तइ ॥ आव. नि. गा. १९२ नंदीसूत्र गा. ४० सुत्र गणहरकपिदै तहेव पत्रेय बुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्ण दस पुव्वकथिदंच ॥ मूलाचार गा. ५-८० तथा जयधवला, पृ. १५३ विशेषावश्यक भाष्य गा. ५५०
वृहत कल्प भाष्य गा. १४४ ९ अहवा तं समासओ दविहं पण्णतं, तं जहा-अंग पविट्ठ अंगबाहिरं च
नंदी सूत्र ४३ गणहर थेरकयं ना आएसा मुक्क वागरणओ वा। धुव चल विशेषओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं॥ विशेषावश्य. भा. गा. ५५२ दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयावि णत्थि, ण कयाइ णासी, ण कयाइ, ण भविस्सइ मुर्वि च भवति य भविस्सति य, अयले, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्टिए, णिच्चे । समवायांग, समवाय १४८। आरातीयाचार्य कृतांगार्थ प्रत्यासत्ररूपमंगबाह्यम् । अकलंक, तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, १/२० दे. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २, पृ. ६८८
तथा विस्तृत अध्ययन के लिए देखिए, नंदीसूत्र १४ जैन आगम साहित्य, पृ. १४, लेखक, देवेन्द्रमुनि शास्त्री,
वही, पृ. १५, तथा मिलाइए, जैन आगम साहित्य में भा. पृ. २८ १६ डा. जगदीश जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. २८ १७ वही, पृ. २८ का फुटनोट
१८ वही, पृ. २८ तथा विस्तार के लिए दे. जैन आगम साहित्य, पृ. ३१-३२. १९ प्रभावक चरित्र आर्यरक्षित, श्लोक ८२-८४ २० (क) आवश्यकनियुक्ति गा. ३६३-३७७
(ख) विशेषावश्यक भाष्य २२८४-२२९५ (ग) दशवैकालिक नियुक्ति, ३ टी. जत्थ एते चात्तारि अणुओगा विहप्पिहि, वक्खाणिज्जंति पुहुत्ताणुयोगे अपुहुत्ताणुजोगो, पुण जं रएक्केक्कं सुत्तं एतेहिं चउहिं वि अणुयोगेहि सत्ताहिं णयसत्तेहिं वक्खाणिज्जाति ।
म सूत्रकृत चूर्णि पत्र ४।१.१२०४ २२ आवश्यक चूर्णि २, पृ. १८७ २३ नन्दी चूर्णी, पृ.८ । ३४ कहावली, २९८, मुति कल्याण विजय वीर निर्वाण और,
जैन काल गणना, पृ. १२, आदि से। संभवत: इस समय आगम साहित्य को पुस्तक बद्ध करने के सम्बन्ध में ही विचार किया गया। परंतु हेमचंद्र ने योगशास्त्र में लिखा है कि नागार्जुन
और स्कंदिल आदि आचार्यों ने आगमों को पुस्तक रूप में निबद्ध । किया। फिर भी साधारणतया देवर्धिगणि ही 'पुत्थे आगमलिहिओ' के
रूप में प्रसिद्ध हैं। मुनि पुण्यविजय, भारतीय जैन प्रमण, पृ. १७। २६ जैसे पात्र, विशेष के आधार से वर्षा के जल में परिवर्तन हो जाता है।
वैसे ही जिन भगवान की भाषा भी पात्रों के अनुरूप हो जाती है। बृहत्कल्प भाष्य जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज,
पृ. ३३, ले. डॉ. जगदीशचंद्र जैन २८ आवश्यक चूर्णी पृ. ४९१।
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मधुकर मौक्तिक
जो आत्मा की साधना करते हैं, उन्हें संसार से कोई मतलब नहीं होता। उन्हें तो आत्मा को साधना है। जगत् के क्रिया-कलापों से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। जगत् के समस्त पदार्थ अ-शाश्वत हैं। वे बनते और बिगड़ते हैं, इसलिए हमें ऐसे जीवन का निर्माण करना चाहिये जो बनने के बाद फिर कभी बिगड़े नहीं। साधक यदि विनश्वर पदार्थों में उलझ जाएगा तो उसकी सारी साधना निरर्थक हो जाएगी। विनश्वर पदार्थों में उलझने से बचाते हैं-साधु-मुनिराज। हमें उनका बार-बार अवलम्बन लेना चाहिये और अपनी आराधना को आगे बढ़ाते रहना चाहिये। वे स्वयं साधना के मार्ग पर चलते हैं और आराधक आत्माओं को साधना के मार्ग पर चलाते हैं।
भाव आत्म परिणामों में निर्मलता लाता है, जबकि भव मलिनता बढ़ाता है। भाव से निर्वेद, निलेप और निराग स्थिति प्राप्त होती है, जबकि भव ठीक इसके विपरीत स्थिति में रखता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वामी आत्मा को स्व-पर कल्याणकारी पावन पथ पर अग्रसर होने के लिए और अनुशासन बद्ध रहकर भावसंशुद्धि/विशुद्धि का मार्गक्रमण करने के लिए जैनशासन प्रबल प्रेरणा देता है। जैनशासन की यह प्रेरणा आत्मा में नयी चेतना जगाती है। यह चेतना उसे अशुभ से शुभ, शुभ से शुद्ध और शुद्ध से विशुद्ध की ओर ले जाती है। अशुभ और शुभ की परिभाषा सरल और सीधी है। दानवी कुविचार वाणी और व्यवहार जीव को अशुभ की ओर घसीट ले जाते हैं अर्थात् ये मलिनता को बढ़ावा देते हैं। परिणाम यह होता है कि इनके कारण मनुष्य पथभ्रष्ट हो कर हैवान/शैतान बन जाता है। उसकी मनुष्यता खत्म हो जाती है।
- जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसरि 'मधुकर'
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
क्रोध हनन करता सदा, विजय कीर्ति सन्मान । जयन्तसेन इसे तजो, हित अहित पहचान ।
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