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तप तिराते हैं
(मुनि श्री पद्मरलविजयजी महाराज) (सुशिष्य जैनाचार्य श्रीमदृविजयजयंतसेनसरिजी)
जन
है।
अनादि से चले आ रहे इस संसार में कभी क्षण मात्र भी किसी
भी भगवान महावीर ने स्वयं धन्ना -जीव को शांति नहीं है। शांति को प्राप्त करने के लिये तीर्थकर
अणगार के तप की प्रशंसा की। धन्ना परमात्मा ने तप बताया है। तप से बढ़कर तेज किसी का नहीं है,
अणगार ने अपने तप द्वारा पूरे शरीर तप से आत्मा का तेज बढ़ता है, जैसे आग में डाले गये सोने को
को ऐसा जीर्ण बना दिया था कि चलते ज्यों ज्यों तपाया जाता है, त्यों-त्यों उसका तेज बढ़ता जाता है, वैसे
समय उसके शरीर की अस्थियों से ही तपरूपी आग में जो अपने तनमन को तपाता है उसका भी तेज
ध्वनि उत्पन्न होती थी। बढ़ता जाता है। तप शील और संयम का परम मित्र है। तप करने
तपस्वी को अहंकार से दूर रहना से विषय वासना का दमन होता है। तप से तन, मन और आत्मा
चाहिये, अहंकार आत्मा के लिये रोग के रोगों का निवारण होता है और तीनों निर्मल बनते हैं। आरोग्यता
है। इससे सदा बचना चाहिये। अहंकारी प्राप्त होती है। तप याने कर्म रोगों की अचूक रामबाण दवा। तप से
मुनिश्री पद्यरत्नविजयजी म.
विनय से वंचित रहता है। अहंकार के जीवों को भी अभयदान मिलता है, कारण तप करने से अनेक त्यागपूर्वक जो तपता है वही अपना विकास कर पाता है। बीस स्थानक अनावश्यक आरंभ समारंभ से निवृत्ति मिलती है। तप से इंद्रियों का तप की आराधना से तीर्थकर नाम का कर्म निकाचित हो सकता है। दमन, कषायों का वमन, वासनाओं का शमन होता है, तप से एकाग्रता बहुत बड़ी महिमा है तप की। तपस्वी केवलज्ञान तक प्राप्त कर सकता आती है- यह मन स्थिर करने का अमोघ साधन है। तप और भोजन के बारहवाँ चन्द्रमा है, तप किया व अनेक मान्यता में फलाहार की
अनशन, अनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और छूट रखते हैं व फिर रोज के आहार से भी ज्यादा उदर पूर्ति कर
संलीनता बाह्य तप हैं, इसी प्रकार प्रायश्चित, विनय, वैयावच्च स्वाध्याय, लेते हैं ऐसा तप कैसा? तप याने आत्मानुभूति की ओर अग्रसर होना।
ध्यान और कायोत्सर्ग आभ्यंतर तप है। बाह्यतप आभ्यंतरतप पूर्वक तप क्षमायुक्त शल्य रहित होना चाहिये। तप के बिना आत्मा उज्ज्वल
ही करना चाहिये। इसी में उसकी सार्थकता है। आभ्यंतर तप सहित नहीं हो सकती। तपस्या से देवता भी वश में हो जाते हैं व अनेक
बाह्यतप सुगंधित स्वर्ण सा है। आभ्यंतर तप बाह्यतप का मूल बढ़ावा सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। तप से अनेकों आधि व्याधि उपाधियां
है। केवल बाह्यतप से जितने कर्मों की निर्जरा होती है उससे अनंत दूर होती हैं। तप से इह लौकिक व पारलौकिक अनेक जन्मों के पापों
गुना अधिक कर्मों की निर्जरा आभ्यंतर तप सहित किये गये बाह्यतप का प्रक्षालन हो अनिष्ट दूर होते हैं। समभावपूर्वक जो तप किया जाता से होती है। अत: अपना विवेक जाग्रत रखकर आभ्यंतर तपपूर्वक है, वह महान फलदायी होता है। उपवास याने “उप समीपे वसति बाहा तप करना आराधकों के लिये उचित है। आत्मनः इति उपवास" याने आत्मा के पास रहना उपवास है अर्थात्
जैन दर्शन में बारह प्रकार का तप धर्म बताया है:- छह बाह्य केवल आत्मा परमात्मा का ही चिन्तन करना और उसमें ही मन
व छह आभ्यंतर:लगाना। उपवास के दिन यदि आहारादि में मन लग गया तो परमात्मा
१. अनशन - उपवासादि करना, जिससे क्षुधापर काबू पाया जा की ओर से मन अवश्य ही हट जाएगा और उपवास टूट जाएगा, क्योंकि एक समय में मन एक जगह ही स्थिर होता है-अधिक जगह
२. उणोदरी- नित्य के आहार से कम करना। क्रोधादि को दूर नहीं।
करने का उपाय करना भाव उणोदरी है। शद्ध तप की आचरणा द्वारा देवताओं को भी वश में किया ३. वत्ति संक्षेप दिनभर में उपयोगी खाने पीने की वस्त की जा सकता है। तप से अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं
धारणा करना जैसे दिन भर में ५, १० आदि द्रव्य रखना और जन्म-जन्म के पापों का नाश होता है।
द्रव्यवृत्ति संक्षेप, अमुक समय तक रखना, समय वृत्ति संक्षेप, कोई भी तप पच्चक्खाण लेकर किया जाता है, पच्चक्खाण इतने क्षेत्र, स्थान पर खाना क्षेत्र वृत्ति संक्षेप रागद्वेष को छोड़ने का अर्थ है प्रतिज्ञापूर्वक किया गया त्याग। मात्र नोकारसी के पच्चक्खाण हेतु धारणा करना भाव वृत्ति संक्षेप है। से भी नरक गति के सौ साल का बंध टूट जाता है। पच्चक्खाण ___४. रस त्याग :- महाविगई (मांस, मदिरा, शहद आदि) का पूर्वक किये गये बड़े तप का तो कहना ही क्या? भगवान महावीर पूर्णत: त्याग व दूध, दही, घी, तेल, गुड़, कढ़ाई (मिठाई) ने दीक्षा के बाद स्वयं साढ़े बारह वर्ष तक घोर तप किया था, फिर इन चीजों में से अमुक अमुक त्याग करना रसत्याग है।
(शेष पृष्ठ १४ पर)
सके।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना
वैर भाव मन में बसा, उदित हुआ जब क्रोध । जयन्तसेन मूर्ख बना, लेता वह प्रतिशोध ।
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