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कारण 'शालिभदास' को गुजराती और हिन्दी एक साथ कहा जा सकता है। इसमें श के शब्दों का बाहुल्य है । इस रास में भगवान महावीर के शिष्य शालिभद्र का चरित्र निबद्ध है । वह राजगृह के सेठ गोभद्र और भद्रा का इकलौता पुत्र था। इसकी सम्पत्ति का पारावार नहीं था । श्रणिक का तो वह नाम भी नहीं जानता था । जिस दिन उसे विदित हुआ कि वे उसके राजा मौर मालिक हैं, उसने दीक्षा ले ली । भ्रपार धन-सम्पत्ति और वैभव को त्याग दिया ।
जब सवा-सवा लाख के १६ रत्नकंबलों को महाराज श्रेणिक भी न खरीद सके तो सेठानी भद्रा ने अपने लड़के की ३२ बहुभों के लिये खरीद लिये । प्राषा फाड़कर प्रत्येक को पैर पोंछने के लिये दे दिये। इससे सम्बन्धित दो पंक्तियाँ देखिये
सयल कंबल भद्दा गिहेई । लखु-लखु तीह तरगउ मुलु देई ।
भद्दा कंबल सवि फाडेई । मज्जह पाउं खड़य करेई ॥ १२ ॥
जब राजा को विदित हुआ, तो स्वयं भद्रा के घर गया । भद्रा ने राजा के माने की सूचना ऊपर महल में भेजी, जहाँ शालिभद्र अपनी पत्नियों के साथ विलास कीड़ा में निमग्न था । उसने सोचा श्ररिगक किसी किरीयाने का नाम है, किन्तु जब उसे विदित हुआ कि श्रेणिक उसका राजा और मालिक है, तब उसने अपने बहनोई धन्ना के साथ भगवान महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली ।
रयरण कांबल रयरग कंबल सब्धि फाडेह । मज्जाह पछड़ विहिय मंति वयणेरण जारिणउ ॥ कोहलि पूरियड सालिमद्द घरि बाइ सेखिउ । राया पहु तुह प्राइयउ मद्दा सुयह कहे । त संसार विरतु मरगु सो सामि बंबे ||२१||
प्राविकालीन हिन्दी की ऐसी अनेक जैन कृतियाँ हैं, जिनमें कोई रचनाकाल नहीं दिया है और रचयिताओं का नाम तो बिल्कुल भी नहीं है। तो, एक अन्धकार में हाथ मारना पड़ता है । केवल भाषा का सहारा रहता है, वह भी बड़ा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जैन कवि १४वीं शती के बाद भी अपभ्रंश और : देशजों में रचनाएँ करते रहे। पं० भगवतीदास का १७वीं शताब्दी में रचा गया 'मृगांक लेखrafta' इसका प्रमाण है। ऐसी अनेक कृतियाँ हैं ।
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