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चित्त और चित्त की वृत्तियों का समान और सम्यक् स्थित होना समाधान है।
-समाधानटेन समाधिः; अर्थात् समाधानार्थ ही समाधि है । यहाँ 'एकारम्मणे के द्वारा पालम्बन की बात स्पष्ट ही झलकती है । अर्पणा-समाधि वह है, जिसमें पालम्बन के मान की आवश्यकता नहीं होती और मन निरवलम्ब में ही टिकता है।
जैन प्राचार्यों ने योगसूत्र की भांति, निर्विकल्पक समाधि में आत्मविस्मृत हो जाने की बात स्वीकार नहीं की। वहाँ तो योगी सोता नहीं, अपितु जागरूक होता है । वह मोक्ष तक की इच्छा-कामनाओं को छोड़कर अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। प्रात्म-विस्मृति गीता की 'समाधि' में भी नही होती। श्री अरविन्द ने लिखा है, समाधिस्थ मनुष्य का लक्षरण यह नही है कि उसको विषयों, परिस्थितियों, मनोमय और अन्नमय पुरुष का होश ही नही रहता और शरीर को जलाने तथा पीड़ित करने पर भी इस चेतना में लौटाया नहीं जा सकता, जैसा कि साधारणतया लोग समझते हैं; इस प्रकार की समाधि तो चेतना की एक विशिष्ट प्रकार की प्रगाढता है; यह समाधि का मूल लक्षण नहीं। समाधि की कसौटी है- सब कामनाओं का बहिष्कार, किसी भी कामना का मन पर चढ़ाई न कर सकना; और यह वह आन्तरिक अवस्था है जिससे स्वतन्त्रता उत्पन्न होती है । प्रात्मा का आनन्द अपने ही अन्दर जमा रहता है और मन सम, स्थिर तथा ऊपर की भूमिका में ही अवस्थित रहता हुआ आकर्षणों और विकर्षणों से तथा बाह्य जीवन के घड़ी-घड़ी बदलने वाले आलोक, अन्धकार, तूफानों तथा झंझटों से निर्लिप्त रहता है।' यौगिक समाधि से गीता की समाधि सर्वथा भिन्न है। गीता में कर्म सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचने का साधन है
और मोक्ष-लाभ कर चुकने के बाद भी वह बना रहता है; जब कि राजयोग में सिद्धि के प्राप्त होते ही कर्म की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
पातञ्जल समाधि में पवन को वाञ्छापूर्वक अवरूद्ध करना पड़ता है; किन्तु जैनों के ध्यानी मुनियों को पवन रोकने का यत्न नही करना पड़ता । बिना ही यत्न के पवन रुक जाता है और मन अचल हो जाता है-- ऐसा समाधि का प्रभाव है । 'पाञ्जल योग' में समाधि को शून्य-रूप कहा है, किन्तु जैन ऐसा नहीं मानते; क्योंकि जब विभावो की शून्यता हो जायेगी, तब वस्तु का ही प्रभाव हो
१ अरविन्द, गीता-प्रबन्ध, प्रथम भाग, पृ० १८७-१८८ । २. देखिये, वही, पृ० १३३ ।
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