Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 174
________________ बछड़े में रखा रहता है,' ठीक ऐसे ही यह जीव संसार के नाना कृत्यों में उलझ कर भी अपने चित्त का स्वर ब्रह्म की पोर रख सकता है। जो उधर को मुड़ गया है, वह हटता नहीं। इसी मोड़ में शक्ति है और इस मोड़वाला ही शक्ति-सम्पन्न कहलाता है । 'जिनेन्द्र की ओर मोड़' को जिनेन्द्र-भक्ति कहते हैं । बनारसीदास ने उसका श्रेष्ठ ढंग से प्रतिपादन किया है"जैसे काह देस को बसया बलवन्त नर, जंगल में जाइ मधु-छत्ता को गहतु है। वाका लपटाय चहुँ ओर मधुमक्षिका पै, __ कम्बली की पोट सों अडंकित रहतु है ।। तैसे समकिती शिव-सत्ता को सरूप साधे, उदै की उपाधिकों समाधि-सी कहतु है। पहिरे महज को सनाह मन में उछाह, ठाने सुखराह उद्वेग न लहतु है ।।"२ जैन शास्त्रों में प्रात्म-ब्रह्म को चेतन, चिदानन्द या चिन्मूत्ति भी कहते है । यहाँ चेतन का तात्पर्य शुद्ध चेतन से है, ऐसा हुए बिना तो उसमें ब्रह्म संज्ञा घटित ही नहीं होती। यह चेतन स्वानभूति से दमकता रहता है. अर्थात अपने को अपने से प्रकाशित करता रहता है। प्रकाश के दो अर्थ है-ज्ञान और प्रानन्द । ज्ञान को प्रकाश और अज्ञान को अंधकार अजैन आचार्यों ने भी कहा है । तुलसीदास ने 'विनय पत्रिका' में एकाधिक स्थानों पर ज्ञान को प्रकाश लिखा है । स्वानुभूति ही ज्ञान रूप होती है। इसका अर्थ निकला कि ज्ञान स्वतः अपनी शक्ति से ही दीप्तिवन्त होता है । स्वानुभूति का प्रकाश ही प्रानन्द भी है । ज्ञान और प्रानन्द में अन्तर नहीं है । पूर्ण ज्ञान ही चरम आनन्द है। अमृतचन्द्राचार्य का 'नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते' में 'स्वानुभूति' ज्ञान की द्योतक है और 'चकासते' १. "मात पाच महलियां रे हिल-मिल पारगीडे जायं । ताली दिय खल में, बाकी सरन गगरुमा मायें ।। उदर भरण के कारगणे रे गउवा बन मे जायं । चारो चरै चहु दिमि फिर, वाकी मुरत बछरुमा माय ।।" -प्रानन्दधन पद मग्रह, श्रीमद् बुद्धिमागर कृत गुजराती भावार्थ महित, अध्यात्म जान प्रसारक मण्डल, बम्बई, वि० सं० १६६६, पद ६५, पृ० ४१२-१५ । २ निर्जराद्वार । ३४, नाटक ममयमार, पृ० ५४-५५ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246