Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 186
________________ PR A TIMORREY SARARg ---- को स्वीकार किया है। ' जैन, प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के विपुल साहित्य, जैन पुरातत्व और इतिहास में जिनेन्द्र की नाम-महिमा के शतश: उल्लेख प्रकित हैं । इसी महिमा को लेकर अनेक सहस्रनामों की रचना हुई। उनमें भगवज्जिनसेनाचार्य (वि० सं० हवीं शती), प्राचार्य हेमचन्द्र (वि० सं० १२-१३ वीं शती) और पं० प्राशाधर ( १३ वी शती वि० सं० ) के सहस्रनाम ख्याति प्राप्त हैं। ऐसी कुछ अन्य कृतियाँ अभी पाण्डुलिपियों तक ही सीमित हैं। मैंने उनका 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि' में विवेचन किया है । इसी परम्परा से अनुप्राणित होकर बनारसीदास ने हिन्दी में एक सहस्रनाम लिखा था । वह ललित गुणसम्पन्न रचना है। बनारसीविलास में उसका संकलन है । तो इस लम्बी और दूर तक फैली परम्परा का बनारसी पर प्रभाव था । जैसा, कुछ विद्वान, वैष्णवभक्ति पर बौद्धों की महायानी भक्ति का प्रभाव जताने की चेष्टा करते हैं, वैसी बात तो मैं नही करना चाहता, किन्तु जैन और वैष्णव भक्ति-काव्यों का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य होना चाहिए, उससे अनेक मौलिक तथ्यों के उद्भावन की सम्भावना है। कवि बनारसीदास ने 'शृगार' के स्थान पर 'शान्त' को रसों का नायक कहा है। काव्य-शास्त्र के मर्मज्ञ इसे विवाद-ग्रस्त मान सकते हैं, किन्तु भक्ति के क्षेत्र में उसकी सत्ता का महत्व असंदिग्ध है। जैन और अजैन दोनों ही प्रकार के काव्यों में 'भक्ति' और 'शान्ति' पर्यायवाची है। किन्तु जहाँ भक्ति की पृष्ठभूमि हिंसात्मक हो, वहाँ शान्ति का पर्यायवाचित्त्व विचारणीय हो सकता है । मध्यकालीन भक्ति का एक पहलू हिंसा-मूलक था-बलि ही उसका जीवन था । प्रभासपट्टन के प्रसिद्ध मन्दिर से संलग्न 'शक्ति' के अधिष्ठान की बात प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है। वहाँ भाद्रपद की अमावस की रात को ११६ कुपारी, सुन्दरी • १. प्रास्तामचिन्त्य महिमा जिनसस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जयन्ति । -कल्याण मन्दिर स्तोत्र, ७ वा श्लोक, काव्यमाला, सप्तम गुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, पृ० ११ ।। २. देखिए बनारसी विलास, जयपुर, पृ० ३-१६ । ३. प्रथम सिगार वीर दूजो रस, तीजो रस करुना सुखदायक । हास्य चतुर्थ रुद्र रस पचम, छट्ठम रस बीमच्छ विभायक ।। सप्तम भय अष्टम रस अद्भुत, नवमो सांत रसनिको नायक ।। ए नव रस एई नव. नाटक, जो जह मगन सोइ तिहि लायक ॥ -नाटक समयसार, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १०११३३, पृ० ३९१ । F Postal 155555555 959 raiOMThdRTest

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