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हंस स्मरण कर-करके अपने तालाबों पर पाये, सारस बोलने लगे और खंजन भी दिखाई पड़ने लगे । कांसों के फूलों से वन में प्रकाश हो गया, किन्तु हमारे कन्त न फिरे, कहीं विदेश में ही भूल गये। कवि भवानीदास ने भी 'नेमिनाथ' बारहमासा' लिखा था, जिसमें कुल १२ पद्य हैं। श्री जिनहर्ष का 'नेमि बारहमासा' भी एक प्रसिद्ध काव्य है । उसके १२ सवैयों में सौंदर्य और आकर्षण व्याप्त है। श्रावण मास में राजुल की दशा को उपस्थित करते हुए कवि ने लिखा है, "श्रावण मास है, घनघोर घटायें उनै पाई हैं । झलमलाती हुई बिजुरी चमक रही है, उसके मध्य से बज-सी ध्वनि फूट रही है, जो राजुल को विष बेलि के के समान लगती है। पपीहा पिउ-पिउ रट रहा है। दादुर और मोर बोल रहे हैं । ऐसे समय में यदि नेमीश्वर मिल जायें तो राजुल अत्यधिक सुखी हो।"
माध्यात्मिक होलियां जैन साहित्यकार प्राध्यात्मिक होलियों की रचना करते रहे हैं। जिनमें होली के अंग-उपांगों का प्रात्मा से रूपक मिलाया गया है। उनमें प्राकर्षण तो होता ही है । पावनता भी आ जाती है। ऐसी रचनामों को 'फागु' कहते हैं । कवि बनारसीदास के 'फागु' में मात्मारूपी नायक ने शिवसुन्दरी से होली खेली है । कवि ने लिखा है, "सहज प्रानन्दरूपी बसन्त आगया है और शुभ भावरूपी पत्ते लहलहाने लगे हैं । सुमति रूपी कोकिला गहगही होकर गा उठी है, और मनरूपी भंवरे मदोन्मत्त होकर गुजार कर रहे हैं। सुरति रूपी अग्नि-ज्वाला प्रकट हुई है, जिसमें प्रष्ट कर्मरूपी वन जल गया है। अगोचर प्रमूर्तिक प्रात्मा
१. स्वाति बूद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ।।
सरवर संवरि हंस चलि भाये । सारस कुरलहिं खंजन देखाये ।। मा परगास कांस वन फूले । कन्त न फिरे विदेसहि भले ।। जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुल्क सम्पादित, का० ना० प्र० सभा, तु० सं०,
वि० स० २००३, ३०१७, पृ० १५३ ।। २. धन की घनघोर घटा उनही, बिजुली चमकति झलाहलि-सी।
विधि गाज प्रगाज, अवाज करत सु लागत मो विषवेलि जिसी। पपीहा पिउ-पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदं करलिसी। ऐसे श्रावण में यदु नेमि मिले, सुख होत कहे जसराज रिसी ।। जिनहर्ष, नेमि बारहमासा, हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि, छठा प्रध्याय, पृ० ५०२।
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