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अनन्त सुख ही परम शान्ति है। भैया ने एक सुन्दर से पद में जैन मत को शान्तिरस का मत कहा है । शान्ति की बात करने वाले ही ज्ञानी हैं, अन्य तो सब मज्ञानी ही कहे जायेंगे ।"
भूवरदासजी के स्वामी की शरण तो इसीलिए सच्ची है कि वे समर्थ श्रीर सम्पूर्ण शान्ति-प्रदायक गुणों से युक्त हैं। भूषरदास को उनका बहुत थोड़ा भरोसा है । उन्होंने जन्म-जरा श्रादि बेरियों को जीत लिया है और मरन की टेव से छुटकारा पा गये हैं। उनसे भूधरदास अजर श्रौर भ्रमर बनने की प्रार्थना करते हैं। क्योंकि जब तक यह मनुष्य संसार के जन्म-मरण से छुटकारा नहीं पायेगा, शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । जैन परम्परा में देवों को अमर नहीं कहते । यहाँ अमरता का अर्थ है मोक्ष, जहाँ किसी प्रकार की प्राकुलता नहीं होती, ऐसी शान्ति वह दे सकता है, जिसने स्वयं प्राप्त कर ली है । वे संसारी 'साहिब', जो बारम्बार जनमते हैं, मरते हैं, भोर जो स्वयं भिखारी हैं, दूसरों का दारिद्रय कैसे हर सकते हैं । भगवान् 'शान्तिजिनेन्द्र', जो स्वयं शान्ति के प्रतीक हैं, सहज में ही अपने सेवकों के भाव द्वन्द्वों को हर सकते हैं। भूघरदास उन्हीं से ऐसा करने की याचना भी करते हैं । यह जीव सांसारिक कृत्यों के करने में तो बहुत ही उतावला रहता है, किंतु भगवान् के सुमरन में सीरा हो जाता है। जैसे कर्म करता है, वैसे फल में शांति और निराकुलता चाहता है, जो कि पूर्ण रीत्या असम्भव है । भाक बोयेगा, श्राम कैसे मिलेंगे, नग हीरा नहीं हो सकता । जैसे यह जीव विषयों के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता, वैसे ही यदि प्रभु को निरंतर जपे तो सांसारिक प्रशांति को पार कर निश्चय शांति पा सकता है । ४
शान्तभाव को स्पष्ट करने के लिए भूधरदास ने एक पृथक् ही ढंग अपनाया है । वे सांसारिक वैभवों की क्षणिकता को दिखाकर और तज्जन्य बेचैनी को उद्घोषित कर चुप हो जाते हैं और उसमें से शांति की ध्वनि, संगीत की भंकार की तरह फूटती ही रहती है । धन और यौवन के मद में उन्मत्त जीवों को सम्बोधन
१. शान्तरसवारे कहें मन को निवारे रहें
वेई प्रानप्यारे रहें मौर सरवारे हैं ।।
वही, ईश्वर निर्णय पच्चीसी, छठा कवित्त, पृ० २५३ ।
२. भूधरविलास, कलकत्ता, ५३वां पद, पृ० ३० ।
३. वही, ३४ वां पद, पृ० १६ ।
४. वही, २२ वा पद, पृ०
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