Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 230
________________ हुमा चक्कर लगाता है वह नट की भाँति नाना वेष और रूप धारण कर नृत्य करता है। नृत्य करने की बात सूरदास ने भी, 'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल' शीर्षक पद में भली भाँति स्पष्ट की है। यहाँ नृत्य का अर्थ है कि जीव का संसार के चक्कर में फंसना और तज्जन्य सुख-दुःख भोगना । वह जब तक मावागमन के चक्कर में फंसा है, उसे नाचना पड़ेगा । यदि वह हर्ष और शोक को समान समझ कर सहज रूप में उनसे उदासीन हो जावे तो वह ज्ञानी कहलाये और शांति का अनुभव करे । गीता का यह वाक्य 'सुख दुःखे समे कृत्वा' जैन-शासन में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित है। कवि त्रिभुवनचन्द्र (१७वीं शताब्दी) ने उसका सुन्दर निरूपण किया है "जहाँ है संयोग तहाँ वियोग सही, जहाँ है जनम तहाँ मरण को बास है । संपति विपति दोऊ एकही भवनदासी, जहाँ बसै सुष तहाँ दुष को विलास है । जगत में बार-बार फिरै नाना परकार, करम अवस्था झूठी थिरता पास है । नट कैसे भेष और रूप होंहि तातें, हरष न सोग ग्याता सहज उदास है ।।'' संसार में प्रानेवाला यह जीव एक महाघ तत्व से सम्बन्धित है । वह है उसका निजी चेतन । उसमें परमात्मशक्ति होती है। वह अपने प्रात्मप्रकाश से सदैव प्रदीप्त रहता है। किंतु यह जीव उसे भूल जाता है । इसी कारण उसे संसार में नृत्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । इस प्रकार भवन में 'भरमतेभरमते' उसे अनादिकाल बीत जाता है। उसे सम्बोधन कर पाण्डे रूपचन्द ने 'लिखा है---अहो जगत के राय ! तुम क्षणिक इन्द्रिय सुख में लगे हो, विषयो में लुभा रहे हो। तुम्हारी तृष्णा कभी बुझती नही। विषयो का जितना अधिक सेवन करते हो, तृष्णा उतनी ही बढ़ती है, जैसे खारा जल पीने से प्यास और तीव्र ही होती है । तुम व्यर्थ ही इन दुग्वों को झेल रहे हो । अपने घर को क्यों नहीं संभालते। अर्थात् तुम्हारा घर शिवपुर है। तुम शिवरूप ही हो। तुम अपना-पर भूल गये हो । तुम इस ससार के मालिक हो । चेतन को यदि यह स्मरण १. अनित्यपंचाशत (हस्तिलिखित प्रति), लेखनकाल वि० सं० १६५२, गुटका नं० ३५, लूणकरण जी का मन्दिर, जयपुर । ORNE P K१८))555555) RETTE R TAIN E

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