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तर गए थे। अवश्य ही उसने उनके हृदय में परम शांति को जन्म दिया होगा। परम शांति ही परम पद है-मोक्ष है, संसार से तिरना है। यह बात केवल तुलसी और सूर ने ही नहीं लिखी, जैन कवि भी पीछे नहीं रहे । महा कवि मनराम ने लिखा, "महन्त के नाम से पाठ कर्म रूपी शत्रु नष्ट हो जाते हैं।" यशोविजय जी का कथन है, "अरे प्रो चेतन ! तू इस संसार के भ्रम में क्यों फंसा है। भगवान् जिनेन्द्र के नाम का भजन कर । सद्गुरु ने भगवान का नाम जपने की बात कही है।"२ द्यानतराय का अटूट विश्वास है, "रे मन ! भज दीनदयाल । जाके नाम लेत इक छिन में, कटै कोट प्रधजाल ।"3 कवि विश्वभूषण की दृष्टि में इस बोरे जीव को सदैव जिनेन्द्र का नाम लेना चाहिए। यदि यह परम तत्त्व प्राप्त करना चाहता है तो तन की ओर से उदासीन हो जाये। यदि ऐसा नहीं करेगा तो भव-समुद्र में गिर जायेगा और उसे चहेगति में घूमना होगा। विश्वभूषण भगवान् पदपंकज में इस भांति रांच गए हैं, जैसे कमलों में भौंरा
"जिन नाम ले रे बौरा, जिन नाम ले रे बोरा । जो तू परम तत्त्व कौं चाहै तो तन को लगे न जौरा ।। नातरु के भवदधि में परिहै भयो चहुँगति दौरा । विसभूषण पदपंकज राच्यौ ज्यों कमलन बिच भौंरा॥"
"भैया" भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में भगवद्नाम की महिमा का नानाप्रकार से विवेचन किया है । उनकी मान्यता है कि "भगवान का नाम कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि और पारस के समान है। उससे इस जीव की इच्छायें भरती हैं । कामनायें पूर्ण होती हैं । चिंता दूर हो जाती है और दारिद्र य डर जाता है। नाम एक प्रकार का अमृत है, जिसके पीने से जरा रोग नष्ट हो जाता है । अर्थात्
१. करमादिक अरिन को हर अरिहन्त नाम,
सिद्ध कर काज सब सिद्ध को मजन है ।।
मनराम विलास, (हस्तलिखित प्रति), मन्दिर ठोलियान, जयपुर । २. "जिनवर नाम सार भज मातम, कहा भरम संसारे ।
सुगुरु वचन प्रतीत भये तब, प्रानन्द धन उपगारे ॥" भानन्दधन अष्टपदी, मानन्दघन, मानन्दधन बहत्तरी,
रायचन्द ग्रन्थमाला, बम्बई । ३. यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ६६ वा पद, पृ० २८ । ४. हस्तलिखित पद संग्रह, नं० ५८, दि० जैन मन्दिर, बड़ौत, पृ. ४८ ।
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