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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन शोध और समीक्षा
डॉ० प्रेमसागर जैन
एम. ए. पी-एच. डी. अध्यक्ष, हिन्दी विभाग स्नातकोत्तर विजन कालेज
बड़ौत (मेरठ)
माद्यमिताक्षर मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज
प्रकाशक:
ज्ञानचन्द्र विनूका । मंत्री, भी दिन बोर भीमहावीरजी
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प्राप्ति स्थान :१. साहित्य शोष विभाग
श्री दि० जन म. क्षेत्र श्रीमहावीरजी महाबीर भवन सवाई मानसिंह हाईवे, जयपुर-३ २. मैनेजर श्रीमहावीरजी
श्रीमहावीरजी (राज.)
संस्करण प्रथम
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नवरी ७. कर चार २०४५ मूल्य १००
जनवरी ७० वीर नि. संवत् २४६६
मूल्य १० रु.
मुद्रक : अजमेरा प्रिंटिंग वर्क्स धी वालों का रास्ता, जयपुर फोन : ७४२५०
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२१, दरियागत, देहली
"प्रकाशक की ओर से
जैन हिन्दी साहित्य पर गत १० वर्षों से जो शोध कार्य हमा है और अब उसमें जो गतिशीलता दिखलाई देने लगी है वह उसके भविष्य के लिए शुभ संकेत है लेकिन जैन हिन्दी सहिात्य की विशालता एवं विविधता को देखते हुए अभी जितना भी कार्य हुआ है वह एक रूप से सर्वे कार्य के समान है। इसकी गहराई एवं महत्ता का प्रभी मूल्यांकन होना शेष है और इस प्रकार जैन हिन्दी साहित्य की खोज, अनुसन्धान, आलोचना एवं उसके सही मूल्यांकन के लिए शोध कार्यों एवं विद्वानों के लिए विशाल क्षेत्र पड़ा हुआ है। राजस्थान के जैन ग्रंथ संग्रहालय इस कार्य की महत्त्वपूर्ण प्राधार शिला है । यही कारण है कि जब से श्री महावीर क्षेत्र की ओर से राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों की ग्रंथ सूचियों के चार भाग, प्रशस्ति संग्रह, एवं प्रद्युम्न, चरित, जिणदत्त चरित जैसी हिन्दी की प्रादिकालिक कृतियां प्रकाशित हुई हैं तभी से देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैन साहित्य के प्रति प्राध्यापकों एवं शोधार्थियों में एक नवीन अभिरुचि जाग्रत हुई है व कार्य करने की भावना उत्पन्न होने लगी है । गत ४-५ वर्षों से क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग में देश-विदेश के शोध छात्र एवं छात्राएं जैन साहित्य के विभिन्न अंगों पर जितनी संख्या में कार्य करने के लिए मा रहे हैं उससे ज्ञात होता है कि जैन साहित्य का परिचय हमारे मन्दिरों एवं ग्रंथ भंडारों की सीमानों को लांघ कर बाहर आने लगा है और विश्वविद्यालय की भूमि में प्रवेश प्राप्त करने का प्रयास हो रहा है ।
जैन साहित्य की गतिशीलता के ऐसे अवसर पर मुझे 'जैन शोष और समीक्षा' पुस्तक को पाठकों, शोधार्थियों तथा विद्वानों के हाथों में देते हुए प्रसन्नता
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होती है। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् लेखक ने जैन साहित्य को शोध एवं समीक्षा के दोहरे रूप में उपस्थित किया है जो उनके वर्षों के गहन अध्ययन का फल है । लेखक दि० जैन कालेज बडौत के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हैं तथा जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि एवं हिन्दी भक्ति काव्य एवं कवि' के लेखक के रूप में पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुके हैं।
प्रस्तुत प्रकाशन श्री महावीर क्षेत्र की ओर से १५ वां प्रकाशन है । इस पुस्तक के प्रकाशन के पूर्व १४ महत्वपूर्ण एवं शोधपरक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें 'ग्रंथ सूचियों के चार भाग, प्रशस्ति संग्रह, जिरणदत्त चरित, प्रद्युम्न चरित, हिन्दी पद संग्रह, चम्पाशतक, राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा जैन ग्रंथ भंडारस् इन राजस्थान' के नाम विशेषत. उल्लेखनीय हैं । इस वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल को 'राजस्थान के जैन संत व्यक्तितत्व एवं कृतित्व' पर गोपालदास बरंया पुरस्कार से सम्मानित किया गया है । यह पुरस्कार डा० कासलीवाल की खोज कार्यों में गहनता एवं विशेष रुचि के साथ हमारे प्रकाशनों के उच्चस्तरीय स्तर का भी परिचायक है । अप्रकाशित एवं महत्वपूर्ण हिन्दी रचनाओं को प्रकाशित करने की एक योजना क्षेत्र कमेटी के विचाराधीन है जिसके माध्यम से अनेक हिन्दी रचनाओं को प्रकाशित करके शोध छात्रों को इस दिशा में कार्य करने का सुअव सर प्रदान करना है ।
श्रीमहावीरजी क्षेत्र की प्रबन्धकारिणी कमेटी के अन्तर्गत गठित धर्म प्रचार समिति साहित्य प्रकाशन के कार्य को गतिशील बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है । उक्त धर्म प्रचार समिति का यह दुर्भाग्य रहा कि इसके संयोजक श्री केशरलाल जी अजमेरा तथा सदस्य प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् श्री पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ का आकस्मिक स्वर्गवास हो जाने से हमारी योजनाओं को मूर्तरूप नहीं दिया जा सका । उक्त प्रकाशन में स्व० श्री अजमेरा जी का बहुत योगदान रहा है जिसके लिए हम उनके प्रभारी हैं। पं० चैनसुखदासजी की क्षेत्र कमेटी पर सदैव ही महती कृपा रही है और हमें उनका मार्ग दर्शन मिलता रहा है । वे प्राज नहीं हैं किन्तु उनकी पावन स्मृति हमें प्रकाश व प्रेरणादायक होगी ।
इस पुस्तक के प्रकाशन की प्रेरणा हमें पूज्य १०८ मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज के प्राशीर्वाद से मिली जिसके लिए उनके चरणों में हमारी
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कृताशाम्बलिया समर्पित हैं। प्रस्तुत पुस्तक में मुनिश्री ने आद्यमिताक्षर लिखने को पूर्ण अनुकम्पा की है इसके लिए हम उनके चिरकृतज्ञ हैं। पुस्तक के विद्वान् लेखक डा. प्रेमसागर जैन के भी हम आभारी हैं जिन्होंने ऐसी सुन्दर एवं उपयोगी पुस्तक को हमें प्रकाशनार्थ देने कृपा की है। हम डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल को भी धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सकते जिनकी देख-रेख में इस पुस्तक का प्रकाशन हो सका।
ज्ञानचन सिन्दूका
प्रबन्धकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र
श्रीमहावीरजी
994 55 55 55 55
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प्राद्यमिताक्षर
'साहित्य समाज का दर्पण है। समाज की सांस्कृतिक निधियाँ साहित्य के माध्यम से सुरक्षित रहती हैं। जैसे बड़ी-बड़ी कोठियों वाले धनिक वर्ग मकानों में उद्यान व लॉन रखते हैं, उसी प्रकार जातियों का इतिहास साहित्य के सुरभित-कानन रखता है। प्राचीन भारत में प्राज-जैसी प्रशस्त मुद्रण कला नहीं थी। किन्तु तब लोगों का मन साहित्य-मय था। उस समय के टिकाऊ ताड़पत्र पर मोती को लजाने वाले अक्षरों में जो ग्रंथ मिलते हैं, वे माज के युग पर उपहास करते हैं और अपनी दुर्दशा पर अश्रु वहाते हैं। घर-घर में ग्रंथों के बंडल रखे हैं, किन्तु अपने पूर्वजों से संरक्षित उन ग्रन्थों को आज की नई पीढ़ी कहाँ देखती है ? अपने ही घरों में उनका अविनय किया जा रहा है। जो भक्ति से पाले गये, मूल्य देकर लिपिकागे से लिखवाये गये, जिनसे परिवार ने पूजा के छन्द सीखे-प्राज वे ही पराये लगने लगे। पूर्वज तो लिखकर चले गये; किन्तु ये आदर्श ग्रन्थ अभी जीवित हैं।
कितने समाज के लोग ग्रन्थ रक्षा के उपाय-चिन्तन में अपना तन-मन और धन लगा या लगवा रहे हैं ? कोई उनमें सुवर्ण बनाने की विधि ढूढता है तो कोई किसी जरा-व्याधि विनाशक रसायन की प्रक्रिया खोजता है। यदि प्राज के लोगों की अपेक्षित वस्तु उनमें नहीं मिलती तो वे उन हस्तलिखित हेय लगने वाले, पैबन्द वेष्टनों में छिपे ताड़पत्र के ग्रन्थों को महत्त्व देने से इन्कार करते थकते नही । इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए, तभी साहित्य की एवं प्राचीन ग्रन्थों की रक्षा सम्भव हो सकेगी। स्वाध्याय में रुचि लेना, प्रात्म-रस उत्पन्न करना भी इस दिशा में सहायक है। आदर्श ग्रन्थ-रत्नों के प्रति प्रादर भावना से प्राचीन-साहित्य क्षीण और लोप होने से बचाया जा सकता है।
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'स्वाध्याय' का महत्व सर्व विदित है। स्वाध्याय ज्ञान की उपासना है। ज्ञानवान होकर चारित्र्य का पालन यथाशक्ति करना मानव का कर्तव्य-धर्म है। संसार और संसार से परे का ज्ञान-विज्ञान ग्रंथों में संजोया हुआ है। जो प्रतिदिन उस ज्ञान में से थोड़ा-थोड़ा भी संचय करता है, वह श्रीमान्, बहुश्रुत, स्व-समयी, ज्ञानी और वाग्मी बन जाता है। 'बूंद-बूंद जल भरे तालाब' (थ में थे वें तले सांचे--मराठी ) अर्थात् बूद-बूंद पानी से तालाब भर जाते हैं। स्वाध्याय का नियम लेकर नित्य अध्ययन शील को सम्यग विद्या की निधियाँ मिल जाती हैं। स्वाध्याय चित्त को एकाग्र, एतावता प्रात्म को बलवान बनाता है। पवित्रता प्रदान करता है और परिणामों की विशुद्धि करता है। स्वाध्याय रूपी चिन्तामरिण जिसे मिल जाती है, वह कुबेर के रत्नकोषों को पराजित कर देता है। ज्ञान के क्षेत्र में नया उन्मेष और ज्ञान-विज्ञान की खोज में स्वाध्याय ही प्रबल कारण है।
डॉ० श्री प्रेमसागर जैन का प्रस्तुत "जैन शोध और समीक्षा" ग्रंथ इस दिशा में भाषा-शास्त्रियों के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। लेखक ने ग्रन्थ को कई प्रकरणो में संजोकर विभिन्न बातों पर प्रकाश डाला है, इससे पाठकों को अनुकूल ग्राह्य-सामग्री पर्याप्त मात्रा में मिल सकेगी। इस दिशा में लेखक और श्री महावीर जी क्षेत्र के मंत्री, श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका तथा प्रबन्धक महोदयों का प्रयत्न अनुकरणीय एवं सराहनीय है ।
पाशीर्वाद !
मुनि विद्यानन्द
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भूमिका
'जैन शोध और समीक्षा' में मेरे १० शोध निबन्ध हैं। मैंने उन्हें समयसमय पर लिखा है । शोध सतत प्रवाह है। हम नहीं कह सकते कि हमने जो कुछ लिखा है, वह उतना और वैसा ही है । मैं नहीं चाहता कि इन निबन्धों की मान्यताओं को मील का अन्तिम पत्थर समझा जाये। इन पर अनुसन्धित्सु मौर शोध-खोज करें, यदि कुछ नया ला सकें तो मुझे प्रसन्नता ही होगी। जैन साहित्य विपुल है । स्थान-स्थान पर जैन भण्डार हस्तलिखित ग्रन्थों से भरे पड़े हैं । उनको खोजना, पढ़ना फिर उनका सम्पादन और प्रकाशन - सब कुछ परिश्रम-साध्य है । यदि यह हो सके तो भारतीय साहित्य, विश्व में और अधिक गौरवास्पद होगा, ऐसा मुझे विश्वास है ।
मूल साहित्य की खोज एक बात है और फिर उसे प्राधुनिक समीक्षा और तुलनात्मक अध्ययन के साथ प्रस्तुत करना दूसरी बात है। जैन सन्दर्भ में दोनों काम एक साथ करने होते हैं। ऐसा किये बिना मूल मूल्यवान नहीं बन पाता, उसे उचित स्थान नहीं मिलता और वह श्रादरास्पद होते हुए भी उपेक्षित-सा रह जाता है । प्राचीन और मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य, उत्तम कोटि का साहित्य है । इसे जिन्होंने पढ़ा है, उसके महत्व को स्वीकार करते हैं। उसे केवल धर्म कह कर छोड़ा नही जा सकता। किन्तु, हो ऐसा ही रहा है। बनारसीदास, धानतराय, भूधरदास, मानन्दघन आदि अनेक ऐसे जैन कवि हुए, जिन्होने सामर्थ्यवान हिन्दी साहित्य की रचना की। मध्यकाल के अन्य हिन्दी कवियों के साथ उन्हें स्थान मिलना ही चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है, जब उनके काव्य की सामर्थ्य और प्राणवत्ता तुलनात्मक अध्ययन और समीक्षा के साथ प्रस्तुत की जाये ।
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तुलना से मेरा तात्पर्य खींचतान से नहीं है । निष्पक्षता समीक्षा का धारण है । यदि समीक्षक निष्पक्ष नहीं तो वह समीक्षा एक वर्ग विशेष मे क्षणिक समाहत होकर चुक जाती है-सदा के लिये । हमें अपनी बात एक प्रामाणिक पृष्ठभूमि, स्वस्थ दृष्टिकोण और किसी का विरोध किये बिना प्रस्तुत करनी होगी । श्राज नहीं तो कल, उसका स्वीकृत हो जाना अनिवार्य है । मेरा तात्पर्य तुलनात्मक होने से तो है, किन्तु हिंसक होने से नहीं । श्रहिंसा ब्रह्म है और वह तुलना के बीच भी हलके सितार की तरह संकृत होनी ही चाहिए। मैंने अपने निबन्धों में भरसक निष्पक्ष रहने का प्रयत्न किया है ।
कत्रियों के लिखे हुए अनेक महाकाव्य हैं। उनमें धर्म है, उपदेश है, किन्तु रसधार भी अल्प नहीं है। किसी धर्म से सम्बन्धित होने मात्र से कोई काव्य 'साहित्य' संज्ञा से वञ्चित नहीं हो जाता। रामचरितमानस और सूरसागर वैष्णवधर्म से सम्बद्ध होने पर भी सहृदयों के कण्ठहार रहे हैं। स्थायी साहित्य की कोटि में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । कबीर की साखी, शब्द और रमैनी उपदेश-प्रधान होते हुए भी काव्य-मय तो हैं ही। उनका काव्यत्व असंदिग्ध है । जायसी आदि सूफी कवि भी प्रदृष्ट की ओर इशारा करते हुए दार्शनिक से प्रतीत होते हैं, किन्तु उनकी भावुकता साहित्य का प्रारण है। वैसे ही जैनधर्म से निबद्ध होते हुए भी जैन काव्य अपनी भावसंकुलता, रसमयता और वाग्विदग्धता के कारण 'साहित्य' की कसौटी पर भी खरे हैं । रायचन्द का 'सीताचरित्र' एक उत्तमकोटि का प्रबन्धकाव्य है । कथानक के सूत्रों का निबन्धन, गतिमयता, उसका सहज प्रवाह, नगीने से जड़ा-सा एक-एक चरित्र, सब कुछ स्वाभाविक है और महान् । भाषा जैसे भावों की चेरी । शील में खिंची-सी, सौन्दर्य की प्रतीकसी, मन्द मन्द गामिनी सीता 'सीताचरित्र' की विभूति है। रामचरितमानस की सीता भी हूबहू ऐसी ही है। उसे देख कर महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को अकस्मात् १० वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि स्वयम्भू की याद भाई। उन्होंने विश्वास पूर्वक लिखा कि तुलसी बाबा ने सीता का यह चित्र 'पउमचरिउ' से लिया । उन्हे और कहीं न मिला होगा। तुलसी के 'नाना पुराण निगमागमसम्मत' सूत्र से यह प्रसम्भव भी नहीं लगता ।
स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' की अनेक परम्पराएँ हिन्दी में श्रायीं, ऐसा मैं मानता हूँ । उसके विधिवत् विश्लेषण की महती आश्वयकता है, किन्तु वह एक पृथक निबन्ध का विषय है । यह सच है कि जैनों का राम-सीता विषयक विपुल साहित्य है - प्राचीन और मध्यकालीन विविध भारतीय भाषाओं में । उनका अध्ययन
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रुचिकर है, भाव-साम्य का प्राधार भी। मैने पूज्य मुनि श्री विद्यानन्द जी के पास सड़ के महाकवि पम्प की 'पम्परामायण' देखी थी। एक दिन, मुनिश्री ने उसके प्रसिद्ध स्थलों का रसास्वादन कराया, सभी भाव-विभोर होगये । ऐसा अनुभूति मय था वह काव्य । मुनिश्री ने २५ रामायरणों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। उनकी दृष्टि में तुलसी एक उदार कवि थे । उन्होंने कहीं से भी 'पउमचरिउ' को अवश्य सुना या पढ़ा होगा। फिर भी, तुलसी में जैसी तन्मयता है, 'पउमचरिउ' में नहीं । तुलसी भक्त थे, उनके दिल का रेशा रेशा राम-मय हो गया था । ऐसी तल्लीनता हिन्दी के किसी कवि में देखने को नहीं मिली। इस क्षेत्र में तुलसी अनूठे थे, अदभुत और अनुपम । वह उनकी अपनी चीज है । न वाल्मीकि को मिली और न स्वयम्भू को हो सकता है कि कन्नड़ के कवि पम्प में वह बात हो । उसके कतिपय स्थलों से मुझे ऐसा लगा। वैसे, पूरे अध्ययन के बाद ही प्रामाणिक रूप से कुछ कहा जा सकता है ।
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लालचन्द लब्धोदय का 'पद्मिनी चरित' मैंने देखा है। उसकी रचना वि० सं० १७०७ चैत्र शुक्ला १५, शनिवार के दिन पूर्ण हुई थी। कुछ घटनाक्रम के अतिरिक्त यह पूरी कथा जायसी के पद्मावत से मिलती-जुलती है । इसको भी काल्पनिक और ऐतिहासिक ऐसे दो भागों में बांटा जा सकता है । काल्पनिक कथानक में हीरामन तोते का प्रयोग नहीं हुआ है । रतनसेन ने अन्य उपायों से पद्मिनी के सौन्दर्य को सुना है । रतनसेन की रानी का नाम भी नागमती न होकर प्रभावती है । यहाँ ऐसा नहीं है कि पद्मिनी का सौन्दर्य मुनते ही वह वियोगी बन निकल पड़ा । बादशाह अलाउद्दीन को कंकरण दिखाकर कंकणवाली की प्रगाध रूप - राशि का अनुमान भी यहाँ नहीं करवाया गया है। एक बार, राजा ने अच्छा भोजन न बनने की शिकायत की, जिस पर प्रभावती ने क्रोधित होकर पद्मिनी नारी के साथ विवाह करने की बात कही, जो स्वादिष्ट भोजन बनाने में निपुण हुग्रा करती हैं। राजा ने भी ऐसी नारी को प्राप्त कर प्रभावती के गुमान को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की । वह श्रौघड़नाथ सिद्ध की कृपा से भयानक समुद्रों को पार करता हुआ सिहल में पहुँचा, और वहाँ के राजा को अपनी वीरता से प्रसन्न कर उसकी पुत्री पद्मावती के साथ विवाह कर, छह माह के बाद चितौड़गढ़ में वापस आगया । इसी भांति अलाउद्दीन पद्मावती का नख-शिख वर्णन सुन, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हुन ।
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कथानक में कल्पनाएं तो हैं, किन्तु उनमें वैसी प्रसम्भवनीयता नहीं मा पाई है, जैसी कि पदमावत में पाई जाती है । यह कथानक मानव जीवन के प्रषिक निकट है । भाषा सशक्त और सजीव है । उसमें गतिमयता है । स्वाभाfarar मोर सहजता है । भाव भोर अनुभूतियों के अनेक चित्र हैं । कवि में चित्राङ्कन की शक्ति है । बीच-बीच में अध्यात्म को सहज हिलोरे हैं, जो कथानक के सम्बन्ध - निर्वाह में अटकाव नहीं डालतीं । प्रेम का स्पन्दन है, वीरता का उत्साह और अध्यात्म की पावनता। कहीं किसी धर्म के प्रति प्राग्रह नहीं, हठ नहीं । सब कुछ काव्यमय है । पद्मावत के साथ उसका अध्ययन विद्वानों को रुचेगा, ऐसा मुझे विश्वास है ।
भूवरदास का पार्श्वपुराण महाकाव्य है । इसकी रचना वि० सं० १७८६, आषाढ़ सुदी ५ को आगरा में पूर्ण हुई। इसमें 8 अधिकार हैं। भगवान पार्श्वनाथ की जन्म से ही नहीं, किन्तु पूर्वभवों से लेकर निर्वाण- पर्यन्त की कथा है। सम्बन्ध निर्वाह है- कहीं शिथिलता नहीं । श्रवान्तरकथाएँ मुख्यकथा की पुष्टि मौर अभिवृद्धि करती हैं । नायक क्षत्रिय राजकुमार और तीर्थंकर है । शान्तरस की प्रधानता है, और वैसे अन्य रसों का भी उपयुक्त समावेश हुआ है । दोहाstart at बहुत अधिक प्रयोग है । कहीं-कहीं सोरठा भोर छप्पय भी आये हैं । विविध प्राकृत दृश्यों का चित्रण है । प्रारम्भ और अन्त में मंगलाचरण है । इस भांति महाकाव्य के सभी लक्षण इसमें वर्तमान हैं । यद्यपि यह अपभ्रंश के वीर कवि के 'जम्बू स्वामीचरिउ' और हरिभद्र के 'मिरगाह चरिउ' की भांति ही परम्परानुमोदित है, किन्तु फिर भी मन उसे मौलिक कहना चाहता है। मन की यह चाहना प्रकारणिक और निर्बन्ध नहीं है। पार्श्वपुराण की प्रवान्तरकथानों की रसमयता, घटनानों को चित्रोपमता, उपमा श्रौर उत्प्रेक्षात्रों की सजीवता, उसे अन्तस्थल तक उतारने में समर्थ है। कोई सहृदय पाठक उसके काव्यरस में बूडे बिना नहीं रह सकता । प्रसादगुण भूधरदास में जैसा मूर्तिमन्त हुआ, मध्य काल के अन्य किसी कवि में नहीं । पार्श्वपुराण तो उसका प्रतीक ही है । श्राज से वर्षों पूर्व हिन्दी के समर्थ समीक्षक पं० नाथूराम प्रेमी ने इसे हिन्दी का उच्चकोटि का काव्य कहा था । श्राज उसके पुनः सम्पादन और प्रकाशन की मावश्यकता है ।
मध्यकालीन हिन्दी में अनेक वरित काव्यों का निर्माण हुआ । उनमें कुछ प्रबन्ध काव्य थे और कुछ खण्डकाव्य । यद्यपि उनकी संज्ञा 'चरित' या 'चरिउ' थी, किन्तु उनके कथासूत्र संगुम्फित श्रीर काव्य-सौष्ठव मनोरम था ।
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भाषा परिमार्जित और भाव कथानुमाही। उनमें कवि सधार (वि. सं. १४११) के प्रद्य म्नचरित्र का सम्पादन और प्रकाशन महावीर भवन, जयपुर से हो चुका है। इसमें भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न की जीवन-गाथा है । प्रद्य म्न कामदेवजैसे रूप-सम्पन्न थे। उनका जीवन घटना-बहुल और वीरता-सम्पन्न था। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने पं० रामचन्द्र शुक्ल की परिभाषा के प्राधार पर, इसे प्रबन्ध काव्य सिद्ध किया है। उनका कथन है, "प्रद्युम्न चरित्र में पं० रामचन्द्र शुक्ल का प्रबन्ध काव्य वाला लक्षण ठीक बैठता है । इसमें घटनामों का शृखलाबद्ध क्रम है, नाना भावों का रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश है। इन सबके अतिरिक्त यह काव्य श्रोतामों के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में भी समर्थ है । इसलिये प्रद्युम्न चरित्र को निश्चित रूप से प्रबन्ध काव्य कहा जा सकता है ।"' किन्तु डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने इसे 'चउपई छन्दों को एक सतसई' कहा है । शायद उनका कथन इसके चउपई छन्दों की ७०१ संख्या पर प्राधृत है। मेरी दृष्टि में, चरित काव्यो को अपनी एक परम्परा और शैली थी। भले ही वह संस्कृत प्राचार्यों के द्वारा निरूपित प्रबन्ध काव्यों की बाह्यरूपता से तालमेल न बैठा पाती हो, किन्तु उनका अन्तः वैसा ही था, जैसा कि प्रबन्ध काव्यों का होता है । अर्थात्, उनमें चरितनायक के पूर्ण जीवन का संबंधनिर्वाह होता है और रस-परिपाक भी। अत: उन्हें प्रबन्ध काव्य कहने में छन्दों की सख्या बाधक नहीं हो पाती।
इस दृष्टि से हम ईश्वरसूरि के ललितांगचरित्र, ब्रह्मरायमल्ल के 'श्रीपाल रास' और महाकवि परिमल्ल के 'श्रीपालचरित्र' को भी प्रबन्ध काव्य कह सकते हैं । भाषा, काव्य-सौष्ठव. प्रबन्धात्मकता, रसात्मकता, और प्रकृति-निरूपण
आदि दृष्टियों से उन्हें हिन्दी-साहित्य का गौरव कहा जा सकता है। ये तीनों काव्य किसी संस्कृत या प्राकृत काव्य के अनुवाद नहीं है। उनमें पर्याप्त मौलिकता है और भाषा का अपना रूप, अपनी विधा और प्रस्तुतीकरण का अपना ढग । उनका कथानक पुराणों से लिया गया है। किन्तु इतने मात्र से कोई काव्य बासा नही हो जाता। कथानकों के लिये तो माज भी अनेकानेक साहित्यकार पुराणों के ऋणी हैं। कथानक को प्रागे बढ़ाना और उसे लक्ष्य तक पहुँचा देने का प्रपना तरीका होता है, जिसमें वह स्वयं और उसका युग भिदा रहता है । इसी भांति चरित्र-चित्रण में परिवर्तन भी स्वाभाविक है । ईश्वर सूरि,
१. प्रधुम्न चरित्र, महावीर भवन, जयपुर, सन् १९६०, प्रस्तावना, पृ. ३३ । २. देखिए वही, प्राक्कथन, पृ० ५।
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ब्रह्म रायमल्ल और परिमल्ल तीनों ही जन्म-जात कवि थे, बहुश्रुत और प्रतिभावान् । उन्होंने कथानक के पट्ट पर, भावों के नाना चित्र, सग और विराग की तूलिका से खीचे । वे अनूठे चित्रकार थे। जीवन के घात-प्रतिघात और मध्यात्म का शाश्वत, शान्त, ज्योतिवन्त चेतन, उन चित्रों से जैसे आज भी झांक-झांक कर, विश्व के भूले-भटके मानवों से कुछ कहना चाहता है। भारतीय वाङमय के ये पृष्ठ, जिन पर स्थूल और सूक्ष्म का समन्वय ऐसे सहज ढंग से उकेरा गया हो, और कहीं प्राप्त नहीं होते। इनके अतिरिक्त, मालकवि का भोजप्रबन्ध, रामचन्द्र का जम्बूचरित्र, कवि जोधराज का प्रीतंकरचरित्र और जिनचन्द्र का विक्रमचरित्र भी १८वीं शताब्दी की उल्लेखनीय रचनायें हैं।
खण्ड काव्यों में मानव का खण्ड जीवन ही मंकित रहता है। खंड-जीवन का अर्थ है-जीवन का एक हिस्सा, पूर्ण जीवन नहीं। प्रवशिष्ट सब कुछ प्रबंधकाव्य - जैसा ही होता है। नेमि-राजुल को लेकर ऐसे काव्यों का अधिकाधिक निर्माण हुमा। इस सन्दर्भ में मध्ययुगीन जैन हिन्दी के कवि राजशेखरसूरि का 'नेमिनाथ फागु' एक सुन्दर रचना है। दृश्यों को चित्रित करने में कवि निपुण प्रतीत होता है। विवाह के लिए सजी राजुल के चित्र में सजीवता है। शीलसौन्दर्य से सनी राजुल भारतीय नारी की प्रतीक है। नेमिनाथ तोरण-द्वार से वापस लौट गये । पशुओं के करुण-क्रन्दन को सुनकर उन्होंने अपने सारथी से पूछा-यह क्या है ? सारथी ने कहा-"आपके विवाह में भोज्य-पदार्थ बनने के के लिए इन्हें काटा जायेगा ? वह करुणा का एक ऐसा क्षण था, जिससे विगलित हो उन्होंने विवाह के स्थान पर दीक्षा ले ली। फिर राजुल का विलाप, नेमिनाथ को ही पति मानकर ऐसा विरह जो भगवान् किसी को न दे, प्रारम्भ हुपा । रोमाञ्च के क्षण आते-आते रुक गये और एक जीवन-व्यापी विरह शुरू हो गया। उसने राजीमती के प्रेम को और भी पुष्ट बनाया। वह दीवानी विरह के माध्यम से नेमिनाथ के साथ एकमेकता स्थापित कर सकी। कैसा विरह था वह और कैसा प्रेम, किसी राधा से कम नही। हिन्दी के जैन खण्ड काव्य उनकी रोमाञ्चकता और सरसता से ओतप्रोत हैं। ऐसे काव्यों में विनयचन्द्र सूरि की 'नेमिनाथ चतुष्पदी', कवि ठकुरसी की नेमिसुर की बेलि', विनोदी लाल का 'नेमिनाथ विवाह', अजयराज पाटणी का 'नेमिनाथ चरित्र' और मनरंगलाल की 'नेमिचन्द्रिका' प्रसिद्ध कृतियां हैं। नेमिचन्द्रिका में वात्सल्य, करुण और विप्रलम्भ का सुन्दर समन्वय हुआ है । यमक, उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपक स्वाभाविक ढंग से ही काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं। दोहा,
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सोरठा, चौपाई, भुजंगप्रयात मादि छन्दों का सफल प्रयोग है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि भाव और भाषा दोनों का सफल चितेरा था ।
केवल म राजुल पर ही नहीं, अपितु अन्य कथाओं का प्राश्रय लेकर भी अनेक खण्ड काव्यों का निर्माण हुआ । १७वीं शताब्दी के कवि पं० भगवतीदास की 'लघुसीतास्तु' एक अच्छी रचना है। इसमें सीता भोर मन्दोदरी के संवादों के माध्यम से रावण और मन्दोदरी के मानसिक प्रन्तर्द्वन्द्व का चित्रण है भाषा और भाव दोनों ही उत्तम कोटि के हैं। ब्रह्म रायमल्ल का 'हनुमच्चरित्र' भी इस दिशा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसमें वीररस-परक जीवन का चित्रण है । उनके पिता पवनञ्जय और माता अञ्जना जैन धर्मानुयायी थे । हनूमान गर्भ में ही थे कि सास ने एक भ्रम पूर्ण सन्देह के कारण प्रञ्जना को घर से निकाल दिया । एक कठोर और तिरस्कृत जीवन बिताया भञ्जना ने । करुणा जैसे साक्षात् हो उठी । सती, पति-निष्ठा, गर्भभारालसा वह एक अनन्य भक्ति के साथ दिन बिताती रही । कवि ने उसके विरह का मार्मिक चित्र खींचा है। इसी बीच हनुमान का जन्म और लालन-पालन हुम्रा फिर, पति-पत्नी का मिलन | संयोगावस्था, किन्तु अब यौवन की बाढ चुक गई थी। यह शरद ऋतु थी, तो हनुमान ने राम की जै जै के गीत गाये । ऐसा सरस खण्ड काव्य मध्यकालीन हिन्दी में ढूढे भी नहीं मिलेगा । महानन्द के 'अञ्जना सुन्दरीरास' में भी अञ्जना के विरह का सजीव चित्रण हुआ है । कथा के बीच से उभरा यह विरह हार में इन्द्रमणि-सा प्रतिभासित होता है ।
हेमरत्नसूर की 'पद्मिनी चौपई' सौन्दर्य और प्रेम के रंगों से बनी थी । कवि सौन्दर्य के नाना चित्रों को प्रेम की तूलिका से खीचता गया है । पढ कर पाठक विभोर हुए बिना नहीं रहता । उसमें मादकता है, किन्तु सात्विकता भी कम नहीं, उसमें जलाने की ताकत है, किन्तु शीतलता भी अल्प नहीं, उसमें विरह है, किन्तु संयोग के क्षरण भी भुलाये नहीं जा सकते । पद्मिनी का वह रूप, वह विरह, वह संयोग भुलाये नही भूलता, हटाये नहीं हटता, जैसे सदा-सदा के लिए खिंच के रह गया हो ।
हिन्दी का मध्यकाल रूपकों का युग था । कोई ऐसा भक्त कवि नहीं, जिसने अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए रूपकों का सहारा न लिया हो । क्या सूरदास, क्या तुलसीदास और क्या कबीर दास । जैन कवियों ने भी उसी माध्यम को अपनाया । उनमें एक विशेषता थी कि उनकी अनेक कृतियां समूचे
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रूप में 'रूपक' हैं, जबकि सूरदास प्रादि के पृथक्-पृथक् पदों में तो रूपक हैं, किन्तु उनकी कोई ऐसी रचना नहीं, जिसमें समूचे रूप में 'रूपक' संज्ञा दी जा सके 1 जैनों में यह परम्परा पहले से थी । प्राध्यात्मिकता और ज्ञान-बहुला भक्ति उसका मुख्य प्राधार था। जैन हिन्दी में पाण्डे जिनदास का 'मालीरासो', उदयराज जती का 'वैद्यविरहिणी प्रबन्ध', कवि सुन्दर दास का 'धर्म सहेली', पाण्डे रूपचन्द का 'खटोलना गीत', हर्षकीर्ति का 'कर्म हिण्डोलना', छोहल का 'पंच सहेली गीत' और 'पंथी गीत', बनारसीदास का 'मांझा', 'तेरह कोठिया', 'भव - सिन्धु चतुर्दशी', प्रध्यात्महिण्डोलना, प्रजयराज का 'चरखा चउपई एवं 'शिवरमणी विवाह' और भैय्या भगवतीदास का 'चेतन कर्मचरित्र', 'मघुबिन्दुक 'चपई' और 'सुभा बत्तीसी' प्रसिद्ध रूपक काव्य हैं । कवि बनारसीदास का 'नाटक समयसार एक उत्तम रूपक है । उसमें सात तत्व अभिनय करते हैं । जीव नायक और अजीव प्रतिनायक है । ऐसी सरस कृति हिन्दी के भक्ति काव्य को एक अनूठो देन है । बहुत समय पूर्व, इसका एक अच्छा सम्पादन तथा प्रकाशन पं० नाथूराम प्रेमी ने किया था । अब उपलब्ध नहीं होता । उसके नये सम्पादन प्रौर प्रकाशन की महती आवश्यकता है। इनके अतिरिक्त, 'फागु', 'बेलि' और 'चूनडी' ऐसी कृतियाँ हैं, जो समूचे रूप में रूपक हैं । उनके रचयिता क्षमतावान कवि थे । 'बेलि' काव्य पर तो एक पूरा शोध प्रबन्ध ही रचा जा चुका है। फागु प्रौर चुनडी काव्यों पर भी काम हो रहा है । 'फागु काव्य' पर तो शीघ्र ही शोध ग्रन्थ प्रकाशित होगा ।
सूरसागर की भांति जैन कवियों के पदों में से एक-एक में भी 'रूपक' 'सन्निहित है । भूधरदास के 'मेरा मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि, यार लाव न बार रे', 'जगत जन जूवा हारि चले', 'चरखा चलता नाहीं, चरखा हुआ पुराना', द्यानतराय के 'परमगुरु बरसत ज्ञान झरी', 'ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन', भैय्या के 'कायानगरी जीवनृप, भ्रष्टकर्म प्रति जोर', तथा बनारसीदास के 'मूलन बेटा जायो रे साधो, मूलन बेटा जायो रे' में रूपकों का सौन्दर्य है । जैन कवियों के रूपक अधिकांशतया प्रकृति से लिए गए हैं। श्रतः इनमें सौन्दर्य है और शिवत्त्व भी । वे निर्गुनिए संतो की भांति कला-हीन भी नहीं हैं । देवाब्रह्म के पदों में चेतन और सुमति की होली से सम्बन्धित अनेक रूपक हैं, जिनके भाव अनुभूतिमय है तो भाषा निखरे रूप का निदर्शन है । कवि अपने विचारों का भावोन्मेष करता हुआ कवित्व के सांचे में ढालता गया है । जगतराम के पदों में भी रूपकों की सुन्दर छटा है। उनमें जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करने की पूर्ण सामर्थ्य है । कहीं त पैदा नही होती। मन रमता है। अंतः मौर बाह्य
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योगों पक्ष' गुलाब की सुगन्धि मोर सुन्दरता की भांति प्रभावकारी हैं। रस
मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में मात्मचरितों की रचना अल्पावपिझल्प हई, नहीं के बराबर । किन्तु, एक ऐसा प्रात्मचरित है, जिसकी सत्ता और सामर्थ्य प्राज के समीक्षक विद्वान भी स्वीकार करते हैं। उसके रचयिता कवि बनारसीदास थे। नाम है मर्धकथानक । प्रात्मचरितों के अधिकारी शाता श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने 'अधकथानक' को प्रादर्श प्रात्मचरित माना है। इसका अर्थ है कि प्रात्मकथा की कसौटी पर वह खरा है । उन्होंने लिखा है, "अपने को तटस्थ रख कर अपने सत्कर्मों तथा दुष्कर्मों पर दृष्टि डालना, उनको विवेक की तराज पर बावन तोले पाव रत्ती तौलना, सचमुच एक महान कलापूर्ण कार्य है। अर्धकथानक में यह गुण है।"'डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने भी इसका 'अर्धकथा' नाम से सम्पादन किया था और 'साहित्य परिषद्', प्रयागविश्वविद्यालय से उसका प्रकाशन भी हुभा था। उनकी मान्यता है, "कभी-कभी यह देखा जाता है कि प्रात्मकथा लिखने वाले अपने चरित्र के कालिमा पूर्ण अंशों पर एक प्रावरण-सा डाल देते हैं यदि उन्हें सर्वथा बहिष्कृत नहीं करते-किन्तु यह दोष प्रस्तुत लेखक में बिलकुल नहीं है ।२" पं० नाथूराम प्रेमी का कथन है, "इसमें कवि ने अपने गुणों के साथ-साथ दोषों का भी उद्घाटन किया है, और सर्वत्र ही सचाई से काम लिया है । 3" इस सब से सिद्ध है कि 'अर्धकथानक' मध्यकाल की एक सशक्त कृति थी । 'खड़ी बोली की पुट' वाला यह आत्मचरित अत्यधिक प्रासान और रुचिकारक है । न जाने क्यों कॉलिजों के पाठ्यक्रम में, अभी तक, इसको स्थान नहीं मिला है ?
मध्यकालीन हिन्दी मुक्तक पद काव्य क्षमतावान है। विविधरागरागिनियों से समन्वित, वाद्य यन्त्रों पर खरा और श्रुतमधुर । भाव की गहराइयों को लिये हुए । सूरदास के पद काव्य से किसी प्रकार कम नहीं।
'भगवद्भक्ति' के क्षेत्र में सूरदास वात्सल्यरस के एकमात्र कवि माने जाते हैं । तुलसी ने भी बालक राम पर लिखा, किन्तु वह महाकाव्य के कथानक के १. 'हिन्दी का प्रथम प्रात्मचरित', बनारसीदास चतुर्वेदी लिखित, अनेकांत, वर्ष ६,
किरण १, पृ० २१ । २. अर्धकथा, डॉ. माताप्रसाद गुप्त सम्पादित, प्रयाग, भूमिका, पृ० १४। । ३. पर्षकथानक, भूमिका, बम्बई, पृ० २२।
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एक अंश की पूर्ति भर है। सूर का सानी नहीं । किन्तु जैन काव्यों में वात्सल्य भाव के विविध दृश्य उपलब्ध होते हैं। जैन कवियों ने तीर्थंकरों के बाल रूप का चित्राङ्कन किया है। इस विषय की प्रसिद्ध रचना है 'आदीश्वर फागु' | उसके रचयिता भट्टारक ज्ञानभूषरण एक समर्थ कवि थे । यानतराय, जगतराम, बुचराज आदि ने भी प्रदीश्वर की बालदशा का निरूपण किया है। सूरदास को जितना ध्यान बालक कृष्ण पर जमा, बालिका राधा पर नहीं । बालिकाओं का मनोवैज्ञानिक वर्णन सीता, अञ्जना और राजुल के रूप में, जैन पद काव्यों मैं उपलब्ध होता है । ब्रह्म रायमल्ल के 'हनुमन्त चरित्र' में हनूमान के बालरूप का प्रोजस्वी वर्णन है । वह उदात्तता परक है, मधुरता परक नहीं । जैन कवियों का अधिकांश बाल रूप तेजस्विता का निदर्शन है । इससे सिद्ध है कि उस पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव नहीं था । जैन काव्यों में बालरस से सम्बन्धित गर्भ और जन्मोत्सव की अपनी शैली है । वह उन्हें परम्परा से मिली है। इन उत्सवों के जैसे चित्र जैन काव्यों में उपलब्ध होते हैं, सूरसागर में नहीं । सूरदास, जन्मोत्सव के एक दो पदों के बाद ही आगे बढ़ गये ।
सूर का भ्रमरगीत विरहगीत है । कृष्ण के विरह में राधा की वेदना । जैन काव्यों की राजुल से मिलती-जुलती है। दोनों के भावों का साम्य हू-बहू है | विवाह मण्डप तक आकर बिना विवाह किये ही नेमीश्वर पशुओं की पुकार से द्रवित होकर दीक्षा ले गिरिनार पर चले गये । विवाह मण्डप में बैठी राजुल ने यह सुना तो उसकी असह्य वेदना हृदय की शत-शत प्रश्र धाराओं में विगलित हो उठी । कृष्ण भी राधा को बिना कहे मथुरा चले गये फिर लौटे नहीं। दोनों में 'अद्भुत साम्य है। सूर के भ्रमरगीत और विनोदीलाल तथा लक्ष्मीवल्लभ के 'बारहमासों' में तुलना का पर्याप्त क्षेत्र है । किन्तु, जहाँ कभी-कभी भ्रमरगीत निर्गुण के खण्डन में दत्तचित्त-सा दिखाई देता है, वहाँ जैन विरह काव्य, नितांत काव्य की सीमा तक ही सीमित है । उसमें खण्डन-मण्डन जैसी बात नहीं है । गोपियों के पैने तर्कों ने ऊधौ - जैसे दार्शनिक को निरुत्तर कर दिया। काव्य रस में यह तर्क-प्रवणता कही कहीं रसाभास उत्पन्न करती है । जैन काव्य उससे बचे रहे । जैन कवि राजुल, सीता और अञ्जना के विरह गीतों तक ही सीमित नहीं रहे, उनका गुरु-विरह एक मौलिक तत्व है । गुरु के विरह में शिष्य की बेचैनी राजुल से कम नहीं । दूसरी ओर जैन कवियों ने सुमति को राधा कहा और परमात्मा के विरह में उसकी बेचैनी हिन्दी काव्य को नयी देन है। इन सन्दर्भों में प्रकृति-निरूपण भी स्वाभाविक है ।
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सूरदास की भक्ति तथा भाव की भक्ति मानी जाती है । सखा भाव के कारण ही सूर में प्रोजस्विता है। भैय्यां भगवतीदास के 'ब्रह्मविलास' में भी भोज ही प्रमुख है । यह वेतन इस मात्मा को अपना सखा मानता है, जिसमें परमात्मशक्ति मौजूद है, किन्तु जो अपने रूप को न पहचान कर इधर-उधर बहक गया है । एक सच्चे मित्र की भांति यह जीव उसे मीठी फटकार लगाता हैं । जैन कवियों का पदकाव्य इस प्रवृति से प्रीत-प्रोत है। सूर का भोज उनके मीठे उपालम्भों में खिल उठा है। जैन कवियों के उपालम्भों में भी वैसी ही सामर्थ्य है । 'तुम प्रभु कहियत दीनदयालु । श्रापन जाय मुकति में बैठे हम जु रुलत इह जगजाल ।” द्यानतराय का पद है। सूर के स्वर में मिलता-जुलता । किन्तु, जहाँ सूर के पदों में अन्य देवों के प्रति तीक्ष्णता है, वहाँ भी जैन काव्य वीर- गम्भीर बने रहे हैं ।
सूरदास धीर जैन कवियों के पद गेय काव्य हैं । उनमें विविध रागरामनियों की संगीतात्मकं लय है। गेय काव्य सदैव लोक से सम्बन्धित रहा है । वह लोक काव्य ही है । प्राकृत और प्रपभ्रंश काव्य लोक के सन्निकट रहा है । इसमें जैन साहित्य की अधिकाधिक रचना हुई। इसके अतिरिक्त रासक और लोक नाट्य भी जैन मन्दिरों में गाये और खेले जाते थे । उनके निर्माता जैन कवि थे । वहाँ हिन्दी जैन पद काव्य की पूर्व भूमिका प्राप्त हो जाती है ।
हिन्दी के प्रारम्भिक युग का नामकरण करते हुए पं० रामचन्द्र शुक्ल ने उसे 'वीरगाथा काल' कहा। इस काल की जितनी रचनाएँ उन्हें प्राप्त हुईं, मुख्यतः वीररसात्मक थीं । अतः उन्होंने अपनी प्राप्तियों के प्राधार पर जो नाम दिया, गलत तो नहीं कहा जा सकता। उनके समय में जैन ग्रन्थ भण्डारों के दरवाजे मजबूती से बन्द थे । नाथ-सिद्धों की कृतियाँ भी व्यवस्थित नहीं थीं । जो कुछ उनके सामने भाई भी होंगी, उनका साहित्यिक घरातल कमजोर होगा, जिसे उन्होंने नोटिस - मात्र कह कर छोड़ दिया। वैसे मेरी दृष्टि में पं० शुक्ल विचारवान व्यक्ति थे । यदि उन्हें आज की भांति, हिन्दी के प्रारम्भिक युग की कृतियाँ उपलब्ध हुई होतीं, तो वे उन्हें नकारते तो न । यह भी सम्भव है कि वे फिर इस युग का कुछ और ही नाम देते । मैंने अपने निबन्ध में इस काल को. 'प्रादिकाल' स्वीकार किया है । उस समय, शृंगार, वीर और शान्त तीनों रस समरूप से प्रधान थे, एक-दूसरे से न कम और न बढ़। वे 'प्रादिकाल' में ही खप सकते हैं, 'वीरगाथा काल' में नहीं, 'सिद्ध-सामंत काल' में भी नहीं । सब से पहले freevasi ने इस युग को 'प्रादिकाल' कहा था, जिसके प्रौचित्य को डॉ० द्विवेदी
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ने स्वीकार किया। बहुत कुछ पर्यालोचन के बाद मुझे वह समन्वयकारी लगा और मैंने अपने निबन्ध में उसे अपनाया है।
जैन ग्रन्थ भण्डारों में हिन्दी की महत्त्वपूर्ण कृतियों के होने की सम्भावना डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने की थी। उन्होंने का० ना० प्र०५०, भाग ८, पृष्ठ २२० पर लिखा है, "बरार जिला भाकोला के कारंजा शुभस्थानस्थ श्री सेनगरणीय, बलात्कारगणीय और काष्ठासंघीय जैन भण्डारों में सुरक्षित पुराने प्राचार्यों के प्रन्थ हैं, जो हिन्दी भाषा का पूर्ण इतिहास, लगातार शताब्दियों की, हिन्दी भाषा, जीवनी और स्वरूप को अपने अंक में छिपाये हुए हैं।" श्री मोतीलाल मेनारिया ने भी 'राजस्थानी भाषा और साहित्य में लिखा, "इस युग के साहित्य-सृजन में जैन मतावलम्बियों का हाथ विशेष रहा है।" महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने 'हिन्दी काव्य धारा' में इस युग की जन कृतियों को महत्त्वपूर्ण बताया है । डा. भोलाशंकर व्यास ने 'हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास' में इस युग की जैन कृतियों को धार्मिक मानते हुए भी प्रसाहित्यिक नहीं कहा । उन्होने डा० द्विवेदी के इस कथन को स्वीकार किया है कि धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए।
अब तो केवल कारंजा ही नहीं, समूचे भारत के जैन ग्रन्थ भण्डार खुल गये हैं। बहुतों की ग्रन्थतालिकाएँ भी बन गई हैं। किन्तु, हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों में वहाँ जाने की यत्किञ्चित् भी आतुरता दृष्टिगोचर नहीं होती। वे हिन्दी के मौजूदा इतिहास को स्थायी और प्रामाणिक मान बैठे हैं। भण्डारों की शोध-खोज करना, हस्तलिखित प्रतियों का अध्ययन करना और फिर इतिहास को संशोधित करना जहाँ परिश्रम-साध्य है, वहाँ वैसी लगन होनी भी अनिवार्य है । लगन नहीं है । आज भी जाने और अनजाने लोगों के अवचेतन में यह भाव
बैठा हुपा है कि जैन ग्रन्थ, जैन धर्म के उपदेश-भर हैं, न उनमें काव्यत्व है और ' न रस-प्रवणता । डा० द्विवेदी का यह कथन, "धार्मिक साहित्य होने मात्र से ' कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा
१. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ८, पृष्ठ २२०, पुरानी हिन्दी का जन्मकाल,
काशीप्रसाद जायसवाल-लिखित । २. देखिए राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ. २१ । ३. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, का.मा.प्र. समा काशी, पृ. ३७४।
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जाने लगे तो तुलसीदास का 'राम चरितमानस' भी साहित्य क्षेत्र में प्रविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पदुमावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा । " -- जैसे व्यर्थ-सा होकर रह गया है ।
हिन्दी के प्रादिकाल में जैन साहित्य विशेषतया तीन रूपों में प्राप्त होता है-चरिउ, रास और फागु । चरिउ भौर रास में प्रबन्धात्मकता होती है और किसी-न-किसी कथा का आधार रहता है । फागु काव्य नितांत गेय होते हैं, किन्तु उनमें भी कथा-सूत्रता तो रहती ही है । 'जिरगदत्त चरित' हिन्दी के पादिकाल की एक प्रसिद्ध रचना है । इसके रचयिता कवि रल्ह ने इसकी रचना वि० सं० १३५४ (सन् १२६७) में की थी। उस समय अलाउद्दीन खिलजी का राज्य था । रल्ह का पूरा नाम राजसिंह था । इनके पिता का बचपन में स्वर्गवास हो गया था । माता ने पालन-पोषण किया । जिरणदत्त की प्रसिद्ध कथा लोक- प्रचलित थी। जैन कवि इस कथा को श्राधार बना कर प्राकृत, संस्कृत मौर अपभ्रंश में भी काव्य रचना करते रहे हैं । अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि लाखू (लक्ष्मण) की ''जिरणयत्त कहा' जैन समाज में अधिक प्रिय थी । रल्ह ने भी इस कथा को पढ़ा था । उन्होंने श्रादिकालीन हिन्दी में, ५४४ चौपई छन्दों में, इसकी रचना की । अब यह ग्रन्थ, महावीरभवन- शोध संस्थान, जयपुर से प्रकाशित हो गया है । इसकी भूमिका में डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है, "जिरगदत्तचरित अपभ्रंश और हिन्दी के बीच की कड़ी है। अपभ्रंश भाषा ने धीरे-धीरे हिन्दी का रूप किस प्रकार लिया, यह इस काव्य से अच्छी तरह जाना जा सकता है। इसमें हिन्दी के ठेठ शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । २" एक दूसरे स्थान पर उन्होंने लिखा कि"हिन्दी शब्दकोश के विद्वानों को इस काव्य में कितने ही नये शब्द मिलेंगे, जिनका सम्भवतः अभी तक अन्य काव्यों में उपयोग नहीं हुआ है ।" यदि ऐसे शब्द व्युत्पत्ति सहित ग्रन्थ के अन्त में दे दिये जाते तो पाठक अधिक लाभान्वित होते । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी उनका मूल्यांकन हो पाता। इस ग्रन्थ का एक उद्धरण देखिए
ताहं जपइ राय सुन्दरीय ।
परऐसिय पाहुराई जाहि नाहि, मइ तुह निवारिउ ।
तुब देखि मोहिउ जष्णु, बसहूं महं जन तुह जु मारिउ ॥
१. 'हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल', बिहार- राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, पृ० ११ । २. जिरणदत्त चरित, महावीर भवन, जयपुर, १९६६, भूमिका, पृ० २३ । ३. देखिए वही, पृ० ३८ ।
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एम भरतहि रहकर, गाय मह नाहसि।
कवा एक वर बोरकर, निवडा पहिरवासि ॥२२॥ अर्थ-तब सुन्दरी (राजकुमारी) कहने लगी-ए परदेशी पाइने ! तुम यहाँ से जामो-जाप्रो। मैं तुम्हें मना करती है। तुम्हें देख कर मेरे पिता मोहित हो गये हैं और एक मैं हूँ जो तुम्हें मारने जा रही हूँ । रल्ह कवि कहता है-इस प्रकार कहते-कहते पर्याप्त रात्रि बीत गई और फिर उसने कहा, 'हे श्रेष्ठ वीर एक कथा कहो जिससे पहरा बैठे-बैठे (जागते) रात्रि का शेष प्रहर निकल जावे।'
यह काब्य जिणदत्त की वीरता और प्रतिभा से अधिक सम्बन्धित है। इसमें वीर रस का अच्छा परिपाक हुमा है । शालिभद्रसूरि के भरतेश्वर-बाहुबलि रास में भी दो भाइयों के युद्ध का वर्णन है । इसमें प्रयुक्त शब्द भी युद्धोपयुक्त हैं। किन्तु उसका पर्यवसान स्वाभाविक ढंग से ही शान्तरस में हो गया है। इसकी रचना वि० सं० १२४१ में हुई थी। आदिकालीन हिन्दी का उत्तम निदर्शन है। 'सप्तक्षेत्रि रास' (वि०सं० १३२७) और 'संघपतिसमरा रास' (वि०सं० १३७१) भक्ति से सम्बन्धित हैं। इनमें भक्ति रस की प्रमुखता है। मेरुतुग-कृत 'प्रबन्ध चिंतामरिण' एक ऐतिहासिक ग्रन्थ माना जाता है। अब इसका प्रकाशन मुनि जिनविजय जी के सम्पादन में, 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' से हो चुका है। इसके कई प्रबन्धों में यत्र-तत्र ऐसे दोहे बिखरे हुए हैं, जिन्हें हम 'प्राचीन हिन्दी' सहज ही कह सकते हैं । कतिपय दोहे हैं
जा मति पाछइ संपजइ, सा मति पहिली होइ । मंजु भणइ मुणालवइ, विधन न बेद कोइ॥ जह यह रावणु जाइयो, वह मुह इक्कु सरीरु। जननि वियंमी चिन्तवइ, कबनु पियाइए खीर ॥ मंजु भरणइ मुगालवइ, जुम्बण्णु गयउ न भूरि । जइ सक्कर सयरवंड थिय, तोइ स मोठी धूरि॥
विनयचन्द्र सूरि की 'नेमिनाथ चउपई' नेमि-राजुल परक एक प्रसिद्ध रचना है । इसे यदि बारहमासा काव्य कहें तो अनुपयुक्त न होगा। इसमें राजुल और सखी के बीच उत्तर प्रौर प्रत्युत्तर के रूप में यह पूर्ण हुई है । इसमें ४० पद्य
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हैं। एक सरस कृति है । प्रारम्भिक हिन्दी काव्यों में अन्यतम । माघ का माह है । हिम- राशि मत्त बन गई है । राजुल कहती है- हे प्रिय । मुझे अपने समीप मुला लो । हे स्वामी ! तुम्हारे बिना तुषार जल रहा है भीर, कामदेव नये-नये ढंग से मार रहा है
माह मासि मातइ हिम- रासि देवि भजय मइ प्रिय लइ पासि । तह विणु, सामिय! वहइ तुसारु नव-वव मारिहि मारह मारा ||२०||
इस पर सखी का कथन है कि तू जो रो रही है, यह सब भरण्यरुदन है । क्या हाथी कान पकड़ कर काबू में किया जा सकता है। मेरी सखी! तू मुझ पर विश्वास नहीं करती कि सिद्ध रमणी में अनुरक्त होकर नेमि चला गया ।
इहु सखि ! रोइसि सह अरन्नि, हत्थि कि जामह धररराउ कनि । तउ न पतीजसि माहरी माइ ! सिद्धि-रमरिम-रत्तउ - नमि जाउ ॥२१॥
राजुल का उत्तर है - है सखी ! कान्त मेरे हृदय में बस रहा है, फिर तेरी बात पर किस तरह विश्वास करू । यदि नेमि सिद्धि के पास गया तो क्या बुरा है । मैं भी उसके साथ जाऊँ, तभी तो उग्रसेन की पुत्री कहलाऊँगी ।
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कंलि वसंत हियड़ा मांहि, वाति पहीजजं किम हलसाइ' । सिद्धि जाइ तर काईत वोह, सरसी जाउ न उनसेल-षीय ॥ २२॥
यह साधारण नायक-नायिका का वियोग नहीं है । नायक तीर्थङ्कर है और नायिका भी मोक्षगामिनी है। हम इसे भगवद्विषयक रति मान सकते हैं । यह प्रेममूला भक्ति का दृष्टान्त है । यहाँ भक्ति के नाम पर किसी यौन-वासना को प्रश्रय न मिल सका, यह ही कारण था कि प्रेम के रंगों से बनी होने पर भी भक्ति, भक्ति ही रही। उसके भीतर से कोई जयदेव या विद्यापति झांक भी
न सका ।
शालिभद्ररास १४वीं शताब्दी की प्रसिद्ध रचना है। इसके रचयिता श्री राजतिलक गरिण खरतरगच्छीय विद्वान् थे । प्राचार्य जिनप्रबीध सूरि ने उन्हें, संवत् १३२२, ज्येष्ठ बदी ६ को, जालोर में वाचनाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित
१. देखिए, पार्बस, गुजराती सभा, ग्रन्थावलि ६१, बम्बई ४, सन् १९५५ ।
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किया था। श्री अगरचन्द नाहटा का कथन है कि उनकी यह रचना 'वाचक' पद प्राप्ति के पास-पास की है । लगभग ४० वर्ष पूर्व यह रास 'जनयुग', अंक, पृष्ठ ३७० पर, बड़ोदा के लालचन्द भगवानदास के गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित हुमा था। इसके बाद दो हस्तलिखित प्रतियाँ और प्राप्त हुई। तीनों को ध्यान में रखकर अब श्री नाहटा जी ने इसका प्रकाशन सम्मेलन पत्रिका, भाग ५५, संख्या १,२ पृष्ठ ५६-६४ पर करवाया है। इसमें ३५ पद्य हैं। जहाँ तक भाषा का सम्बन्ध है-इसे पुरानी हिन्दी निश्चित रूप से कहा जा सकता है।
पुरानी राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी के मूल रूपों में अन्तर नहीं था। इसलिए उस युग की कुछ कृतियों को राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी तीनों साहित्य में स्थान मिला हुआ है । इसमें खींचतान की बात बिल्कुल नहीं है। अगरचन्द नाहटा का कथन दृष्टव्य है, "अपभ्रंश भाषा से, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी भाषाओं का निकास प्रायः समकाल में ही हुआ, इसलिये साधारण प्रान्तीय भाषा भेद के अतिरिक्त इन भाषाओं में बहुत कुछ समानता ही थी।" शायद इसी कारण, राजस्थानी के आदिकाव्य 'ढोलामारू रा दूहा' को, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में प्राप्त दोहों और बिहारी सतसई के बीच की कड़ी कहा है । २ 'ढोलामारू रा दूहा' के सम्पादकों ने लिखा था, "हिन्दी भाषा के प्रादिकाल की पोर दृष्टि डालने पर पता लगता है कि हिन्दी के वर्तमान स्वरूप के निर्माण के पूर्व गाथा और दोहा साहित्य का उत्तर भारत की प्रायः सभी देशी भाषाओं में प्रचार था। उस समय की हिन्दी और राजस्थानी में इतना रूपभेद नहीं हो गया था, जितना आजकल है। यदि यह कहा जाये कि वे एक ही थीं तो अत्युक्ति न होगी। उदाहरणों द्वारा यह कथन प्रमाणित किया जा सकता है।"3 इस पर डॉ० द्विवेदी का मत है, "लेकिन राजस्थान के साहित्य का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दी से ही नहीं है, एक ओर उसका अविच्छेद्य सम्बन्ध हिन्दी साहित्य से है, तो दूसरी ओर उसका घनिष्ठ सम्बन्ध गुजराती से है। कभी-कभी एक ही रचना को एक विद्वान् पुरानी राजस्थानी कहता है तो दूसरा विद्वान् उसे जूनी गुजराती कह देता है ।" इसी
१. सम्मेलन पत्रिका, भाग ५५, संख्या १-२, पृ० ५६ । २. हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल', पटना, पृ० ६ । ३. वही, पृ०६। ४. वही, पृ.६।
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कारण 'शालिभदास' को गुजराती और हिन्दी एक साथ कहा जा सकता है। इसमें श के शब्दों का बाहुल्य है । इस रास में भगवान महावीर के शिष्य शालिभद्र का चरित्र निबद्ध है । वह राजगृह के सेठ गोभद्र और भद्रा का इकलौता पुत्र था। इसकी सम्पत्ति का पारावार नहीं था । श्रणिक का तो वह नाम भी नहीं जानता था । जिस दिन उसे विदित हुआ कि वे उसके राजा मौर मालिक हैं, उसने दीक्षा ले ली । भ्रपार धन-सम्पत्ति और वैभव को त्याग दिया ।
जब सवा-सवा लाख के १६ रत्नकंबलों को महाराज श्रेणिक भी न खरीद सके तो सेठानी भद्रा ने अपने लड़के की ३२ बहुभों के लिये खरीद लिये । प्राषा फाड़कर प्रत्येक को पैर पोंछने के लिये दे दिये। इससे सम्बन्धित दो पंक्तियाँ देखिये
सयल कंबल भद्दा गिहेई । लखु-लखु तीह तरगउ मुलु देई ।
भद्दा कंबल सवि फाडेई । मज्जह पाउं खड़य करेई ॥ १२ ॥
जब राजा को विदित हुआ, तो स्वयं भद्रा के घर गया । भद्रा ने राजा के माने की सूचना ऊपर महल में भेजी, जहाँ शालिभद्र अपनी पत्नियों के साथ विलास कीड़ा में निमग्न था । उसने सोचा श्ररिगक किसी किरीयाने का नाम है, किन्तु जब उसे विदित हुआ कि श्रेणिक उसका राजा और मालिक है, तब उसने अपने बहनोई धन्ना के साथ भगवान महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली ।
रयरण कांबल रयरग कंबल सब्धि फाडेह । मज्जाह पछड़ विहिय मंति वयणेरण जारिणउ ॥ कोहलि पूरियड सालिमद्द घरि बाइ सेखिउ । राया पहु तुह प्राइयउ मद्दा सुयह कहे । त संसार विरतु मरगु सो सामि बंबे ||२१||
प्राविकालीन हिन्दी की ऐसी अनेक जैन कृतियाँ हैं, जिनमें कोई रचनाकाल नहीं दिया है और रचयिताओं का नाम तो बिल्कुल भी नहीं है। तो, एक अन्धकार में हाथ मारना पड़ता है । केवल भाषा का सहारा रहता है, वह भी बड़ा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जैन कवि १४वीं शती के बाद भी अपभ्रंश और : देशजों में रचनाएँ करते रहे। पं० भगवतीदास का १७वीं शताब्दी में रचा गया 'मृगांक लेखrafta' इसका प्रमाण है। ऐसी अनेक कृतियाँ हैं ।
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एक रचना 'जम्बूस्वामी सत्कवस्तु' का परिचय, डॉ. हरीशंकर शर्मा, हरीश ने महावीर जयन्ती स्मारिका, अप्रेल, १६६३ में दिया है।' उन्होंने इसकी हस्तलिखित प्रति जैसलमेर की एक स्वाध्यायपुस्तिका में मकित बतलायी है। वह स्वाध्यायपुस्तिका सं० १४३७ की लिखी हुई है। इस माधार पर डॉ. हरीश का अनुमान है कि यह १३वीं शताब्दी की होगी। भाषा १३वीं शताब्दी की होने पर भी, किसी जैन कवि के विषय में यह सुनिश्चित रूप नहीं कहा जा सकता कि वह रचना उसी शताब्दी में रची गई थी।
सत्कवस्तु 'वस्तु' छन्द का एक विशेष भेद था। उसके २१ पद्यों में इसका निर्माण हुमा है। इसमें जैनों के अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का चरित्र निबद्ध है। इसके पूर्व जम्बूस्वामी के जीवन को आधार बनाकर संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश में अनेकानेक काव्यों की रचना हो चुकी थी। इसे वह परम्परा प्राप्त हुई । भाषागत सौन्दर्य इसका अपना है। इसके अतिरिक्त दर्शन, कथा और काव्यत्त्व का अच्छा समन्वय हुआ है । कवि ने एक नारी के नख-शिख का चित्र खींचा है
कुडिल कुतल, कुडिल कुसल समवयरिण, खामोयरि हंसगह कमल नयणि उन्नय पयोहरि, सुपमारण वर स्वधर नागसेणि जंपइ मरणोहरि सरिसगुण संपत नहिं अस्थि न महिला सार । सिद्धहि कारणि कंत तुहं खिज्जिम बारहवार,
सुरिणउ सुन्दर सुरिणउ सुन्दर हास विलास ॥१२॥ इसी प्रकार 'मृगापुत्तकम्' नाम की एक कृति का परिचय भी डॉ. हरीश ने दिया है। उन्होंने लिखा है, "१३वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, हिन्दी की इधर एक सुन्दर-सी रचना 'मृगापुत्तकम्' उपलब्ध हुई है। यद्यपि विषय की दृष्टि से इसमें अत्यधिक नवीनता नहीं उपलब्ध होती, परन्तु फिर भी, भाषा
और वर्णन-क्रम की दृष्टि से रचना का पर्याप्त महत्व परिलक्षित होता है। प्रस्तुत रचना का लेखक अज्ञात है । मूल प्रति प्रभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में सुरक्षित है।" इसकी भाषा १३वीं शताब्दी की है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु
१. महावीर जयन्ती स्मारिका, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ-सम्पादित, राजस्थान जैन सभा,
जयपुर, भप्रेल १९६३, पृ० २३-२५ ।
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उपयुक्त बात यहाँ भी कही जा सकती है, इसके अतिरिक्त, पुराने कथानक में नवीनता खोजना प्रौचित्य नहीं है । .
मृगावती और उसके पुत्र की कथा प्राचीन है । उसी को प्राधार बनाकर कवि ने सुन्दर भाव अभिव्यक्त किये हैं। विषय-सुखों में डूबे पुत्र को अकस्मात् पूर्वभवों का स्मरण होता है और उसके जीवन की दिशा बदल जाती है। वह सोचता है कि भोग विष-तुल्य है। स्त्री-यौवन और लावण्य चपल हैं, किसी का साथ नहीं देते । धर्म को छोड़कर और कोई गति नहीं है
मोग भोगविय विस सरिस मम प्रइयणा नरय गइ तिरिय गइ वेयरणा कारण । जोइ जस रेसि जगि जीबु सवि दुह सहइ संजह देह नह मशिय खरण खरण इकरहइ । चपल तणु चपल षणु चपल जुम्वरस भरो चपल लाइन्न जीबीउ चंचल तरो । धनु घण सयणु सहु रहइ पूठि घरे जीव एक्कालउ जाइ जम्मतरे । भुत्तवि सफलह जिम साहु मह सुन्दरो
विसयसुह नेम परिणाम नह मणहरो॥८-१०॥" भाषा सरल और लयात्मक है। अनुप्रास की छटा और ललित गुण दृष्टव्य हैं । जीवन का अर्थ केवल भोग नहीं है, प्राध्यात्मिकता की ओर बढ़ना ही उसका लक्ष्य है । निर्वेद इस काव्य का स्थायी भाव है। संसार की असारता पर अधिक बल दिया है । कुल ४२ छंद हैं । हिन्दी के आदिकाल की कृतियों में इसकी गणना होनी ही चाहिए ।
अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ४ में, मैंने कविवर रइधु का 'सोऽहं' गीत देखा था। मेरी दृष्टि में वह प्राचीन हिन्दी की कृति है। डॉ. राजाराम जैन ने रइधु के 'जीवन और कृतित्व' पर एक शोध प्रबन्ध लिखा है। उसमें उन्होंने रइध का रचना-काल वि० सं० १४६८-१५३० माना है। इस दृष्टि से वे १५वीं-१६वीं शताब्दी के कवि थे। डॉ. राजारामजी ने उन्हें अपभ्रंश का अन्तिम महान् कवि सिद्ध किया है। रइधू ने लगभग २३ कृतियों की रचना की। सभी अपभ्रंश भाषा में निबद्ध थीं । मेरी दृष्टि में १७वीं शती तक अपभ्रंश में ! कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहा । अपभ्रंश-बहुल पुरानी हिन्दी भी साथ ही चली।।
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कि- मैं न पुष्य है, सिद्ध है, विषद्ध हूँ
रघू ने सोsहं' में अपना परिचय देते हुए लिखा है न पाप है, न मान हूँ, न माया हूँ, में अलख निरञ्जन हूँ, और परमानन्द है । मैं न रूप हूँ, न स्पर्श, न गन्ध भौर न शब्द, न पुरुष हैं, न नारी, न बालक हूँ, न बड़ा, न स्वामी हूँ, न दास, न धनी है और न गरीब । जननी, जनक, पुत्र, मित्र और भार्या सहित सम्पूर्ण कुटुम्ब है, किन्तु कोई सहायता करने वाला दिखाई नहीं देता, सब कुछ मोह की विडम्बना है । में सम्पूर्ण संकल्प - विकल्पों से रहित, सहज रूप परम प्रतीन्द्रिय सुख-दुखों में सम पोर सब विभावों से हीन हैं । निश्चयनय से विवेचित अपना यह रूप, भाषा की लय में बंधा एक समां उपस्थित कर देता है । पाठक विभोर हुये बिना नहीं रहता । पूरा गीत इस प्रकार है-
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"सोऽ' सोऽहं सोऽहं प्रण्णु न बोयउ कोई । पापुन पुण्णु न मागु न माया अलख निरंजणु सोई । सिद्धोऽहं सुविसुद्धोह हो परमानन्द सहाउ 1 देहा rिous गारणमग्रोहं गिम्मल सासय भाउ । सरण - गारगु चरित गिवासो फेडिय मव-भव पासो । केवल रगारग गुणेहिं प्रखंडो लोयालोयपयासो | रूप गफासुगंधु रग सद्दो चेयरण लक्खरगु रिणच्चो । पुरिसुगारि ग बालु ग बूढ़उ जम्मु रग जासु र मिच्चो । काय वसंत वि काय विहीरगउ भुजतो विग भुजइ । सामि ग किकरु ईसु न रंको कम्मुवि एहु निश्रोजइ । जरग रगी जगरगु जि पुत्त. जिमित्त भामिरिण सयल कुडंबो । कोइ न दीसह तुज्झ सहाई एहुजि मोह विडंबो । हउं संकष्प वियप्प विवज्जउ सहज सरूप सलीगउ । परम प्रतिविध सम-सुख मंदिरु सयल-विभाव-विहीणउ । सिद्धह मज्भिजि कोइम अंतरु रिगच्छयरणय जिय जारी । बवहारे बहुभाउ मुरिगज्जइ इम मणि भावहु वाणी । चितfरगरोहउं इंदियनं तउ भावहि प्रतरि अप्पा | रघू प्रकलs कम्मदलेप्पिरगु जिमि तुहुं होहि परमप्पा ॥" अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ४.
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धू की भांति ही एक महात्मा श्रानन्दतिलक हुए। उन्होंने 'प्रागंदा' नाम की एक महत्त्वपूर्ण कृति की रचना की । इसकी हस्तलिखित प्रति आमेर
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शास्त्र भण्डार, जयपुर में मौजूद है। दूसरी प्रति, मैंने दिल्ली के जैन पंचायती मन्दिर में देखी है। अब तो शायद उसका प्रकाशन भी किसी पत्र-पत्रिका में हो गया है । प्रागंदा में ४४ पद्य हैं । भाषा प्रपभ्रंश-बहुल होते हुए भी बोलचाल के शब्दों से गतिशील बनी है। निश्चित रूप से वह १४वीं शताब्दी की रचना है श्री रामसिह की विचार-परम्परा का प्रतीक । आगे, कबीर श्रादि संत कवियों पर उसका प्रभाव देखा जा सकता है। मैंने ऐसा "जैन अपभ्रंश का हिन्दी के निर्गुण काव्य पर प्रभाव' में दिखाया भी है। यह एक सरस कृति है ।
'थूलभद्दफागु' प्रादिकालीन हिन्दी का गौरवपूर्ण काव्य है । जिनपदमसूरि ने इसकी रचना वि० सं० १४ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की थी। इसमें, कोशा (वेश्या) के मादक सौन्दर्य के परिप्रेक्ष्य में एक अडिग तपस्वी का चित्र है । वह भाषा की सहज तूलिका से और भी जीवन्त बना है। प्रत्येक पाठक किसी जाति और धर्म का हो, किसी देश और काल का हो, इसे पढ़कर विमुग्ध हो उठेगा, ऐसा मुझे विश्वास है । राजशेखर सूरि ने वि० सं० १४०५ में नेमिनाथ फागु की रचना की थी । यह भी एक सामर्थ्यवान रचना है। मैंने इसका विवेचन 'हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि' में किया है। इसकी प्रशंसा में डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन दृष्टव्य है, "जिस प्रकार राधासुधानिधि में राधा की शोभा के वर्णन में कवित्व है और वह कवित्त्व उपास्यबुद्धि से चालित है, उसी प्रकार राजलदेवी की शोभा में कवि व है और वह उपास्यबुद्धि से चालित भी है । कोन कह सकता है कि इस शोभा वर्णन में केवल धार्मिक भावना होने के कारण कवित्व नहीं है । "9
इस प्रकार पं० रामचन्द्र शुक्ल के तथाकथित 'वीरगाथा काल' में वीर ही नहीं समरूप से श्रृंगार और शान्त रस भी प्रधान थे । अतः केवल 'वीरगाथा काल' नितान्त अनुपयुक्त नाम है। इस काल की भाषा, यद्यपि अपभ्रंश- बहुल थी, किन्तु तत्कालीन बोलियों के सम्मिश्रण से एक ऐसी सरस भाषा का जन्म हुआ, जिसमें विविध चरिउ, रास और फागु तथा मुक्तक गीतों की रचना सम्भव हो सकी । उनको केवल नोटिस मात्र कहकर नहीं छोड़ा जा सकता ।
इसी प्रकार अपभ्रंश के साहित्य निर्माण में भी जैन भाचार्यों का महत्वपूर्ण योग रहा है । इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। डॉ० माताप्रसाद गुप्त
१. हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल, पटना, पृ० १२-१३ ।
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का कथन है, "अपभ्रश के साहित्य को श्रीवृद्धि में जैन कृतिकारों का योग प्रसाधारणा है। जब अपनश बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी और उसका स्थान माधुनिक प्रार्यभाषामों ने ले लिया था, उसके बाद भी सात प्राठ,शताब्दियों तक जैन कृतिकारों ने अपभ्रंश की जो सेवा की, वह भारतीय साहित्य के इतिहास में ध्यान देने की वस्तु है।" जैनेतर कवियों ने भो अपम्रश में लिखा, किन्तु वह उपलब्ध कम ही होता है। बौद्ध सिद्धों की रचनाएँ तो प्राप्त भी हैं। इसके अतिरिक्त, 'प्राकृत पैंगल' में और अन्य जैन प्रबन्धों में अनेक ऐसे उद्धरण हैं, जो जनेतर कवियों ने लिखे थे। अपभ्रंश का समृद्ध साहित्य था। वह प्राकृत और प्राधुनिक प्रार्यभाषामों के मध्य, शताब्दियों तक प्रतिष्ठित बना रहा-पहले बोलचाल के रूप में, फिर साहित्यिक पद पर। इधर, जैन ग्रन्थभण्डारों में पर्याप्त अपभ्रंश साहित्य मिला है और मिल रहा है। उसके सम्पा दित पौर प्रकाशित होने पर विद्वानों के अनेक भ्रमों का उन्मूलन होगा, ऐसी सम्भावना है।
प्राकृत व्याकरण लिखते समय पिशेल के पास अपभ्रंश की प्रत्यल्प सामग्री थी। उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण के परिशिष्ट रूप में उपलब्ध अपभ्रश सामग्री को 'मातेरियाल्यन केन्त्रिस, त्सूर अपभ्रंश' के नाम से दिया। इसमें उन्होने केवल-कालिदास के विक्रमोर्वशीय के कुछ अपभ्रंश पद्य, चंड के प्राकृत व्याकरण में आया एक अपभ्रश पद्य, हेमचन्द्र शब्दानुशासन में उदाहृत अपभ्रश के दोहे तथा दशरूपक, ध्वन्यालोक और सरस्वतीकण्ठाभरण में समाहृत अपभ्रंश पद्यों को ही आधार बना पाया था। इससे अधिक अपभ्रंश साहित्य, उस समय तक विदित ही नहीं हो सका था। यह कहा जाता था कि अपभ्रंश साहित्य लुप्त हो गया है। पिशेल ने इतनी अल्प सामग्री के आधार पर, अपभ्रंश के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा, वह आज भी अनुपम है ।
जर्मन के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. हरमन याकोबी, सन् १९१३-१४ में भारतवर्ष में आये। उन्हे जैन शास्त्रों के अध्ययन में ख्याति मिल चुकी थी। उन्होंने अहमदाबाद के जैन ग्रन्थ भण्डार को टटोला। उन्हें एक जैन साधु के पास धनपाल धक्कड़ की भविसयत्तकहा प्राप्त हुई। एक अन्य जैन साधु के पास उन्हें अपभ्रंश का 'नेमिनाथ चरित' भी मिला। वे इन दोनों ग्रन्थों को जर्मन
१. प्रद्युम्न चरित, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ सम्पादित, जैन साहित्य शोध संस्थान,
जयपुर, १६६०, प्राक्कथन, डॉ० माताप्रसाद गुप्त लिखित, पृ० ४ ।
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ले गये। सन् १९१८ में म्यूनिक की रायल एकेडेमिक सोसाइटी से भविसयत कहा' को सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित हुमा । सन् १९२१ में नेमिनाथ चरित की एक अन्त:कथा-'सुदंसण चरिउ' भी वहाँ से ही प्रकाशित हुई।
बड़ौदा के महाराज सर सयाजीराव गायकवाड़ प्राचीन ग्रंथों की शोषखोज में अधिक रुचि लेते थे। उनकी प्राज्ञा से श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल ने पाटण के जैन ग्रन्थ भण्डार का परीक्षण किया और अपभ्रंश के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को खोज निकाला। उनमें सन्देशरासक, चच्चरी, भावनासार, परमात्मप्रकाश, भविसयत्तकहा और 'पउमचरिउ' जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ भी थे। उन्होंने स्वयं भविसयत्तकहा का प्रामाणिक सम्पादन प्रारम्भ किया, किन्तु पाकस्मिक मृत्यु के कारण डा० गुणे ने इस कार्य को सम्पन्न किया।
भण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट की स्थापना सन् १९१८ में हुई। डकन कॉलिज में सुरक्षित प्रतियाँ यहाँ लाई गई। मुनि जिनविजयजी ने जैन ग्रंथों का परीक्षण किया। उन्हें महत्वपूर्ण अपभ्रंश ग्रन्थों का पता लगा । पुष्पदन्त का महापुराण उन्हीं की खोज है। उन्हें स्वयंम्भू के 'पउमचरिउ' और 'हरिवंशपुराण' भी प्राप्त हुये। उन्होंने 'सिंघी जैन ग्रंथमाला' के अन्तर्गत अनेक अपभ्रंश ग्रन्थों का सम्पादन किया और प्रकाशन करवाया । उनका समूचा कार्य ऊँची विद्वत्ता का प्रतीक है। वे एक साधक हैं और अब भी साधना में दत्तचित्त हैं।
डॉ० हीरालाल जैन ने बरार के कारंजा-स्थित जन भण्डारों की शोध. खोज की और जोइंदु, रामसिंह तथा कनकामर के अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाये। स्वयं सम्पादन किया और खोजपूर्ण भूमिकाएं लिखीं । अभी, उनके द्वारा सम्पादित 'मयणपराजयचरिउ', भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुभा है । डॉ० हीरालालजी ने शोध पत्रिकाओं में अपभ्रंश भाषा और साहित्य से सम्बन्धित अनेक शोध निबन्ध लिखे, जो आज भी अनुसन्धित्सुनों के मार्गदर्शक हैं । इसी समय के ख्याति प्राप्त विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने अपने त्रैमासिक पत्र 'जैन साहित्य संशोधक' में 'पुष्पदन्त और उनका महापुराण'जैसे एकाधिक शोध निबन्ध लिखे । उनका संकलन, उन्होंने 'जैन साहित्य का इतिहास' में किया है।
अपभ्रंश साहित्य की शोष-खोज के सन्दर्भ में डॉ. एन. उपाध्ये और डॉ० पी० एल० वैद्य ने भी साधना की है। उन्होंने क्रमशः जोइंदु के परमात्म
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प्रकाश योगसार का तथा पुष्पदन्त के महापुराण का प्रादर्श सम्पादन किया । उनकी भूमिकाएँ तो शोध निबन्ध ही हैं। इतना परिश्रम भाज के विद्वान नहीं कर पाते । डॉ० उपाध्ये को मैंने सतत कार्यरत देखा है ।
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बौद्धों के अपभ्रंश साहित्य को प्रकाशित करने का श्रेय म० म० हरप्रसाद शास्त्री को है । उन्होंने 'बौद्धगान और दूहा' के द्वारा, बौद्धों को अपभ्रंश साहित्य का सर्वप्रथम परिचय कराया। डॉ० शहीदुल्ला और डॉ० बागची ने भी बौद्ध अपभ्रंश साहित्य के सम्पादन में रुचि दिखाई है ।
इधर, राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों की तालिकाए डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने तैयार की हैं। उनका प्रकाशन भी महावीर भवन, जयपुर से हो गया है । उनमें अनेकानेक अपभ्रंश ग्रन्थों की सूचना है। पं० परमानन्द शास्त्री ने 'जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह' भाग २ में अपभ्रंश के प्रसिद्ध ग्रंथों की प्रशस्तियाँ और कवियों का परिचय दिया है । ग्रन्थ ठोस और महत्वपूर्ण है । नागौर के ग्रन्थ भण्डार को खोजने की महती श्रावश्यकता है। एक बार उसके भट्टारक जी से आगरा में भेंट हुई थी। उनके अनुसार इस भण्डार में अपभ्रंश की विविध कृतियाँ हैं। मैं डॉ० भोलाशंकर व्यास के इस कथन से पूर्ण सहमत हूँ कि "अपभ्रंश की प्रसंख्य पुस्तकें प्राज भी जैन भण्डारों में भरी पड़ी हैं ।" "
जैन अपभ्रंश साहित्य को प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य, रूपक, रासा, मुक्तक, चर्चरी आदि कई भागों में बांटा जा सकता है। उसके पूर्ण परिचय के लिए एक पृथक् प्रामाणिक ग्रन्थ की आवश्यकता है। यह सच है कि कोई स्वतन्त्र नाटक अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । संस्कृत नाटकों में अपभ्रंश गद्य-पद्य के उद्धरण बिखरे मिल जाते हैं । जैन अपभ्रंश का कोई स्वतन्त्र गद्य-ग्रंथ भी प्राप्त नहीं हुआ है । कुवलयमालाकहा (उद्योतन सूरि-रचित) में यत्र-तत्र प्रपभ्रंश गद्य मिल जाता है । इसके दो शिलालेख भी अपभ्रंश गद्य में हैं ।
विद्वान् अपभ्रंश साहित्य का प्रारम्भ वि० सं० ६०० से मानते हैं, जो मोटे तौर पर अबाध गति से १२०० तक चलता रहा। यद्यपि वि० सं० १००० से प्राचीन हिन्दी युग प्रारम्भ हो गया था, किन्तु वह रही अपभ्रंश - बहुल हो ।
१. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र० मा०, पृ० ३३८ ।
२. रायबहादुर हीरालाल का इन्सक्रप्शन, ना० प्र० प०, माय ६, अङ्क ४, पृ० ५, दूसरा लेख बम्बई म्युजियम में सुरक्षित है।
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यह एक स्पष्ट ढलाव था, जो बोलियों के सम्मिश्रण से, प्रान्तीय भाषाओं का जन्मदाता बना। राजस्थानी, गुजराती, बंगला, हिन्दी भादि भाषाओं का इसी भांति जन्म हुआ। इनके साथ-साथ अपभ्रंश में भी रचनाएँ होती रहीं, किन्तु उनको बहुत अधिक नहीं कह सकते । यह कथन प्रामक है कि अपभ्रश जैनों की धार्मिक भाषा हो गई थो,' इसी कारण वे माधुनिक आर्यभाषामों के जन्म के बाद भी उसमें लिखते रहे। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्यभाषाओं का प्रारम्भिक साहित्य अधिकाधिक रूप में जन कवियों और प्राचार्यों के द्वारा रचा गया । चाहे हिन्दी हो, गुजराती या राजस्थानी, उसका प्राचीन साहित्य जैन साहित्य है। यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि अपभ्रंश साहित्य भी रचा गया, किन्तु अपेक्षाकृत कम । इसका एक कारण यह भी था कि प्राचीन हिन्दी और अपभ्रश में कोई विशेष भेद नहीं था । एक ही कवि की, यदि दो कृतियों में अपभ्रंश का अधिक पुट होता था, तो चार में तत्कालीन बोली का अधिक सम्मिश्रण हो जाता था और वह हिन्दी या अन्य प्रांतीय भाषा का रूप ले लेती थी। कवि विद्यापति की 'कीतिलता' को अपभ्रंश में गिना जा सकता है तो पदावली को हिन्दी में।
अपभ्रंश लोकभाषा थी। उसमें भागे चल कर पर्याप्त साहित्य रचना हुई। 'कुवलयमाला कहा' के रचयिता उद्योतनसूरि ने उसकी प्रशंसा में लिखा, "ता कि अवहंस होहइ ? हूँ तं पिरणो जेण सक्कम-पाय उभय सुद्धासुद्ध पयसमतरंग रंगंतवाग्गिरं णव पाउस जलयपवाह पूर पव्वालिय गिरिणइ सरिसंसमं विसमं पणयकुवियपियपण इणी समुल्लावसरिसं मणोहरं ।।" इसका अर्थ है, "अपभ्रंश क्या होती है ? जिसमें दोनों-संस्कृत और प्राकृत के शुद्धाशुद्ध रूप पदों का मिश्रित रूप पाया जाता है, जो नववर्षाकालीन मेघप्रवाह के पूर द्वारा प्लावित, गिरिनदी के वेग समान, सम और विषम होता हुआ भी, प्रणयकोप से युक्त कामिनी के वार्तालाप की तरह मनोहर है।" स्वयम्भू ने भी 'पउम चरिउ' में लिखा है, "सक्कय-पायय-पुलिणां लंकिय देसी भासा उभय तडुज्जल । कवि दुक्करघरण-सद्द-सिलायल ।।"3 अर्थात् अपभ्रंश एक नदी के समान है, जिसके संस्कृत पौर प्राकृत दो तट हैं, वह दोनों का स्पर्श करती हुई घनपद-संघटना की चट्टानों
१. प्रद्युम्न चरित्र, प्राक्कथन, डॉ० माताप्रसाद गुप्त लिखित, पृ. ४ । २. देखिए 'कुवलयमाला काहा'। ३. देखिए स्वयम्भू का 'पउमचरिउ' ।
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से टकरा कर बहती है। प्रागे चल कर काव्यशास्त्र के प्राचार्यो-रुद्रट, राजशेखर, पुरुषोत्तम, नमि साधु, हेमचन्द्र प्रादि ने भी अपभ्रंश को मान्यता दी।
अपभ्रश की परम्परा हिन्दी को मिली। केवल छन्द और अभिव्यञ्जना के रूप में ही नहीं, अपितु विषय-गत प्रवृत्तियों के रूप में भी। इस ग्रन्थ में निबद्ध मेरा निबन्ध 'जन अपम्रश का हिन्दी के निर्गुण भक्ति काव्य पर प्रभाव' है। इसमें मैंने लिखा है कि कबीर प्रादि निगुनिए सन्तों ने जो कुछ कहा, ठीक वैसा ही, कहीं-कहीं हू-बहू जोइंदु के परमात्मप्रकाश-योगसार, देवसेन के साधयधम्मदोहा, मुनि रामसिह के पाहुड़दोहा, मुनि महचन्द के दोहापाहुड़ और प्रानन्दतिलक के 'पाणंदा' प्रादि दूहा साहित्य में बहुत पहले ही लिखा जा चुका था। यह साहित्य स्पष्ट रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है- एक तो वह, जिसमें वीर-शृगार प्रमुख था और एक वह, जो अध्यात्म-प्रधान था। मैंने दूसरे को लिया है। डॉ० हीरालाल जैन और डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने इसको रहस्यवादी भी कहा है। डॉ० भोलाशंकर व्यास का अभिमत है, "योगीन्द्र तथा रामसिंह को रचनाओं को रहस्यवाद कहने के पहले हमें रहस्यवाद के अर्थ को परिवर्तित करना होगा। अच्छा हो हम उन्हें प्रध्यात्मवादी या अध्यात्म-परक काव्य ही कहें।" मैं नहीं जानता कि डॉ० व्यास की रहस्यवाद की परिभाषा क्या है ? वह उन्होंने दी नहीं। कबीर के रहस्यवाद को विशेषता थी-समरसीभाव । प्रात्मा और परमात्मा के तादात्म्य को समरस कहते हैं। यह बात अपभ्रंश के दूहाकाव्य में पहले से है। यदि ब्रह्म की भावात्मक अभिव्यक्ति रहस्यवाद है तो वह जैन काव्यों में अवश्य ही उपलब्ध होती है। उसे यदि कोई केवल प्रध्यात्मवाद कहे, तो भी मुझे आपत्ति नहीं है । इस निबन्ध से मेरा तात्पर्य इतना ही है कि निर्गुणकाव्यधारा के कबीर आदि सन्त कवियों में जो प्रवृत्तियाँ थीं, वे जैन पपभ्रंश काव्य में पहले से ही प्राप्त होती हैं ।
कबीर को नाथ सम्प्रदाय की जो सीधी परम्परा मिली थी, उसमें जैनों के दो प्राचीन सम्प्रदाय-पारस' और 'नेमि' अन्तर्भूत हुए थे, ऐसा डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ सम्प्रदाय' नाम के ग्रन्थ में लिखा है। किसी समय नेमि सम्प्रदाय सौराष्ट्र-गिरिनार की तरफ फैला हुआ था। उस पर एक अनुसन्धि त्सु काम कर रहा है। जहाँ तक 'पारस' सम्प्रदाय का सम्बन्ध है मैं कतिपय प्राचीन ग्रन्थों के प्राधार पर इतना कह सकता है कि कुछ पापित्यीय साधु
१. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र० मा०, काशी, पृ० ३४७ ।
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भगवान महावीर के पंचयाम धर्म में दीक्षित नहीं हुए। क्यों ? इसका उत्तर देसे गए श्री भगवानदास झाबेरी ने अपने ग्रन्थ 'comparative and critical study of Mantra shastra' में लिखा है कि उन साधुनों ने अपने जीवन को जो मासान मोड़ दे लिया था, जो मनोनीत ढंग अपना लिया था, जो स्वतन्त्रता सहेज मी थी, उसे त्याय न सके । वे धार्मिक भावरण में प्रच्छन्न साधु, 'निमित्तों और 'विद्यामों की जानकारी के बल पर जनता में मान्यता प्राप्त करते रहे । वे लम्बा भगूला पहनते और हाथ में भिक्षा-पात्र लिये रहते थे। मेरी दृष्टि में इन साधुओं ने तीर्थकर पार्श्वनाथ के चातुर्याम के एक मजबूत याम 'अपरिग्रह' को ठीक नहीं समझा । उसमें ब्रह्मचर्य शामिल था। उन्होंने उसको महत्व नहीं दिया। उसका मुक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं माना । जैनधर्म के मूल सिद्धान्त को विस्मरण कर, केवल मन्त्र -जन्त्र को सहेजे वे अस्तित्व-हीन से रह गये। फिर, ऐसे अनेकानेक लघु सम्प्रदायों ने मिल कर नाथ सम्प्रदाय को जन्म दिया।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि 'नाथ सम्प्रदाय' का 'नाथ' नाम जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के नाम के अन्तिम पद से सम्बन्ध रखता है। प्राश्चर्यजनक रूप से प्रत्येक तीर्थकर के नाम का अन्तिम पद 'नाथ' पर ही समाप्त होता है, जैसे ऋषभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ प्रादि । यदि यह मान भी लें तो भी नाथों में प्रश्लील प्रतीकों वाली बात बौद्ध सिद्ध साधुमों की देन है, ऐसा मैं समझ पाता है। किन्तु, उन्हें भी कहाँ से मिली ? एक प्रश्न सहज ही उठता है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है, "पूरब में बुद्ध के पहले से ही कई मनार्य जातियाँ-किरात, यक्ष, गन्धर्व प्रादि रहती थीं, जो अत्यधिक विलासी थीं। ये जातियाँ कामदेव, वरुण और वृक्षों की उपासना करती थीं। इन्हीं के एक देवता वज्रपारिग थे । यही यक्ष-परम्परा भारतीय संस्कृति को प्रभावित कर एक मोर घुस पड़ी, दूसरी ओर उसने बौद्ध धर्म को प्रभावित किया ।"२ डा० द्विवेदी ने ही 'नाथ सम्प्रदाय' में लिखा है, ब्रजपाणि बोधिसत्व मान लिगे गये । मागे जाकर इनके विलासमय जीवन, मदिरापान आदि ने बौद्ध धर्म को जन्म दिया, जिसमें मदिरापान और स्त्री-संग प्रावश्यक बन गया।"3 इसी सन्दर्भ में डॉ० भोलाशंकर व्यास का कथन है, बौद्ध तांत्रिकों से होती हुई यह परम्परा शेव
१. 'Comparative and Critical study of Mantra shastra', भगवानदास
झाबेरी, महमदाबाद, पृ० १५२ । २. हिन्दी साहित्य की भूमिका. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ० २२८-२३३ । ३. नाथ सम्प्रदाय, डॉ. द्विवेदी, पृ० ८२-८३ ।
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और शाक्त साधना के पंचमकार का रूप पल्लवित करने में समर्थ हुई। ईसा की सातवीं और आठवीं शती में बिहार-बंगाल बौद्ध तांत्रिकों के केन्द्र थे । एक और इस तांत्रिक साधना का प्रभाव बौद्ध सतों की रचनाओं में पाया जाता है, जहाँ उन्होंने अपनी रहस्यात्मक मान्यताओं को स्त्री-सग सम्बन्धी प्रतीकों से व्यक्त किया है, दूसरी ओर विद्वानों ने इस तरह की प्रतीक रचना में यह भी कारण afra ब्राह्मण धर्मानुयायी पण्डितों को चिढ़ाने के लिए ऐसी वस्तुनों को विहित घोषित करते हैं, जिन्हें ब्राह्मण धर्म निषिद्ध मानता था ।""
कबीर के प्रतीकों में यह अश्लीलता नाम मात्र को भी नहीं है । उनका मुख्य स्वर बाह्याडम्बरों के विरोध, जाति-पांति की निन्दा, सहज साधना और दिल में बसे ब्रह्म से प्रेम में रम गया था । यह बात जैन धर्म के मूल में ही पाई जाती है - सिद्धान्त रूप से । सिद्ध संतों में भी कर्माडम्बरों का विरोध है, ग्रन्थगत ज्ञान का उपहास है, किन्तु उनका स्वर ब्राह्मण - प्रतिक्रिया का परिणाम था, उनके मूल में ऐसा न था ।
जैनों मन्त्र तन्त्र के सम्प्रदाय, जो भगवान पार्श्वनाथ को आधार बना कर पनप उठे थे, कितने ही विकृत हुये हों, किन्तु उनमें बौद्ध तांत्रिकों - जैसी श्लीलता कभी नहीं आई। प्राचार्य सुकुमारसेन के 'विद्यानुशासन' और मल्लि
के 'भैरवपद्मावती कल्प' तथा 'ज्वालामालिनीकल्प' - जैसे ग्रन्थों में भी यह बात नहीं है । इसके साथ ही, इन सम्प्रदायों में जैन तत्व किसी-न-किसी रूप में बना रहा । उन्होंने कर्मकाण्ड का खुला विरोध किया, प्रदृष्ट, अमूर्तिक, निरजन, आत्मब्रह्म को ही मुख्य माना और शरीर के सम्बन्ध में उठी समूची मान्यतात्रों को धार्मिक मानने से इन्कार कर दिया । आगे चलकर 'नाथ सम्प्रदाय' के इसी तत्व ने हिन्दी के 'निर्गुनिए सन्तों' को प्रभावित किया ।
जैन संत योगीन्दु, रामसिंह, देवसेन, लक्ष्मीचन्द, श्रानन्दतिलक आदि में भी यही तत्व प्रबल था । डॉ० भोलाशंकर व्यास ने एक स्थान पर लिखा है, "इन दोनों (योगीन्दु और रामसिह ) पर बौद्ध तांत्रिकों तथा शाक्त योगियों का स्पष्ट प्रभाव है । इसी सन्दर्भ में उन्होंने एक दूसरे स्थान पर लिखा, "यह दूसरी बात है कि जैन कवियों के इन दोहों में बौद्धों या नाथ सिद्धों जैसा विध्वंसात्मक
१. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र० मा०, काशी, पृ० ३४६-५० २. देखिए वही, पृ० ३४८ |
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रूप नहीं पाया जाता।"" मैंने जहाँ तक उन्हें पढ़ा और समझा है, उनमें विध्वंसात्मकता नाम-मात्र को भी नहीं है। उन्होंने अपने विचारों को प्रस्तुत-भर किया है, कण्ह या सरह की तरह किसी को डांटा-डपटा या फटकारा नहीं है। केवल ग्रन्थ-शान मोक्ष नहीं दिला सकता, उसके लिए 'ॐ' का उच्चारण मावश्यक है, इसको प्रस्तुत करते हुए रामसिह ने लिखा
बहुवह पढियहं मूढ पर तालू सुक्का जेरण । एक्कु जि अक्खरु पढहु सिवपुरि गम्मइ जेण ॥
पाहुड दोहा-१७ इसका अर्थ है- "अरे मूढ़ ! तूने बहुत पढ़ा, जिससे तेरा तालू सूख गया । अरे ! तू उस अक्षर को क्यों नहीं पढ़ता, जिसके पढ़ने से जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है।" यह किसी को फटकारना नहीं, अपितु अपने को ही समझाना है।
___ जहाँ भक्ति है, वहाँ शान्त-रस अनिवार्य है, दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध है । अजैन भक्ति-परक काव्यों में भी शान्त-रस ही प्रधान माना जाता है। जैन काव्य तो प्रायः अध्यात्म-मूला भक्ति के निदर्शन ही हैं। अतः उनमें शान्त-रस की जैसी रसधार देखने को मिलती है, अन्यत्र नहीं। जैनाचार्यों ने शान्त को रसों का नायक माना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने और रसों को अहमियत नहीं दी । वीर, शृगार, रौद्र आदि रस भी वहाँ यथाप्रसंग स्वाभाविक रूप से आये हैं, किन्तु प्रमुखता शान्त रस को ही है। वह उनके विषय के अनुकूल था । जहाँ अनन्त ज्ञान और दर्शन रूप आत्मा जीवन का लक्ष्य होगी, वहाँ शान्त ही रस-नायक होगा। मैंने अपने निबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी काव्य में शान्ता भक्ति' शीर्षक के अन्तर्गत, मध्ययुगीन हिन्दी के जैन भक्ति-परक काव्यों को माधार बनाकर भक्ति और शान्तरस का सम्बन्ध दिखाने का प्रयास किया है । पाठक उसका मूल्यांकन करेंगे।
बनारसीदास मध्यकालीन हिन्दी काव्य के सामर्थ्यवान कवि थे। उन पर डॉ० रवीन्द्रकुमार जैन ने एक शोध-प्रबन्ध लिखा है। अब यह पुस्तकाकार रूप में भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हो गया है। किन्तु उसमें मुझे कहीं बनारसीदास की भक्ति-विवेचना प्राप्त नहीं हुई। बनारसीदास एक भक्त कवि
१. वही, पृ. ३४८ ।
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थे, ऐसा मैं मानता माया हूँ। भले ही फिर वह भक्ति प्राध्यात्ममूलक हो, किन्तु थी भक्ति । 'अध्यातमियाँ सम्प्रदाय' का सदस्य होने के कारण बनारसीवाल ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' और उस पर लिखे गये अमृतचन्द्राचार्य के कलशों तथा राजमल्ल की बालबोधिनी टीका का सूक्ष्म अध्ययन किया था। ये सब दर्शन के ग्रन्थ हैं, किन्तु बनारसीदास को जन्म से ही एक भावुक कवि का हृदय प्राप्त हना था । अल्पवय में ही एक सहस्र-पद्य प्रमाण की रचना इसका प्रमाण है । व्यापार में असफल होकर मधुमालती की कथा सुनाने वाला अवश्य ही सहृदय था । भक्ति और भाव का गहरा सम्बन्ध है। बनारसीदास दर्शन पढ़कर भी दार्शनिक न बन सके । उन्होंने समूचे आध्यात्मिक अध्ययन को भक्ति और भाव के सांचे में ढाल दिया । वे प्रथमतः भक्त थे, फिर और कुछ। अध्यात्म की प्राधार भूमि ने उनको प्रध्यात्ममूला बना दिया है। उसे हम ज्ञानमूला भी कह सकते हैं। मैंने 'कवि बनारसोदास की भक्ति साधना' में, यह सब कुछ विशद रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
'जैन समाधि और समाधिमरण' में जैन-बौद्ध और हिन्दू ग्रन्थों में वरिणत समाधियों का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। समाधिमरण और सल्लेखना जैनों का अपना एक विशेष तत्त्व है। इस पर कुछ अनजानकार लोग दोषारोपण करते रहते हैं कि वह आत्महत्या है। मैंने अपने निबन्ध में प्रमाण, तर्क और पागम के आधार पर इसका निराकरण किया है । भनेकानेक उद्धरण भी प्रस्तुत किये है। जिज्ञासु अवश्य ही समझ सकेगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
'भगवान् महावीर और उनके समकालीन जैन साधक' निबन्ध को और अधिक विस्तृत करना चाहता था, किन्तु समयाभाव के कारण ऐसा न कर सका । फिर भी जितना है, उससे तत्कालीन युग का परिचय तो अवश्य ही मिल जाता है। सच यह है कि महावीर के पंचायम में बहुत से पापित्यिक सम्मि. लित हो गये और कुछ नहीं भी हुये । वे भी अपने को जैन साधक मानते रहे। इनका पूरा विवरण एक ग्रंथ की अपेक्षा रखता है ।
अन्त में, इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि 'जैन शोध और समीक्षा' के रूप में मेरा यह प्रयत्न यदि पाठकों को भाया पौर रुचा तो मैं उसे कृतकृत्य समझंगा। परम पूज्य १०८ मुनिश्री विद्यानन्दजी ने इस ग्रंथ के सभी शोध निबन्धों को प्राद्योपान्त देखा है । उन्हें रुचिकर हुए और उन्होंने हिन्दी भाषा
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भाषियों के लिए इस प्रन्थ की उपादेयता स्वीकार की है, इसे मैं अपना पुण्याः कर्म मानता हूँ। उनके पावन चरणों में प्राभार तो नहीं श्रद्धा समर्पित करता है। दि० जैन म० क्षेत्र श्रीमहावीरजी के मंत्री श्री ज्ञानचन्दजी खिन्दूका तथा क्षेत्र की धर्म प्रचार एवं प्रकाशन समिति के संयोजक श्री केशरलालजी अजमेरा (स्वर्गीय) ने इसके प्रकाशन में जो तत्परता, जो सद्भाव दिखाया है, वह प्रत्येक प्रकाशक में नहीं मिलता, मैं उनके प्रति अत्तीच आभारी हूँ। डॉ० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल की देखभाल में इस ग्रंथ का प्रकाशन हुआ, वे मेरे मित्र हैं। उनके सहयोग के लिए क्या लिखू। वे अपने ही हैं।
दि० जैन कॉलिज, बड़ौत (मेरठ) । दिनांक ७ सितम्बर, १९६६ ।
-डॉ० प्रेमसागर जैन
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विषय-सूची
विषय
क्रम संख्या
१. प्रकाशक की भोर से
२. श्राद्यमिताक्षर
३. भूमिका
४. भगवान महावीर और उनके समकालीन जैन साधक ५. जैन समाधि श्रौर समाधिमरण
६. जैन भक्ति काव्य
७. जैन अपभ्रंश का हिन्दी के निर्गुण भक्ति काव्य पर प्रभाव ८. हिन्दी के श्रादिकाल में जंन भक्ति परक कृतियां
६. जैन परिप्रेक्ष्य में मध्य युगीन हिन्दी काव्य १०. कवि बनारसीदास की भक्ति साधना ११. मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों की शिक्षा-दीक्षा १२. मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों की प्रेम साधना १३. मध्यकालोन जेन हिन्दी काव्य में शान्ता भक्ति
पृष्ठ संख्या
१ - १० १९- ३५
३६- ५७
५८- ८४
८५- ६२
६३-१०६
११०- १४६
१४७–१५४ १५५ - १६८
१६६ - २०२
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वीर सेवा मंदिर कालय
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२. रिगण, देवली
भगवान महावीर और उनके समकालीन जैन साधक
महावीर एक ऐतिहासिक पुरुष थे। उनका महात्मा गौतमबुद्ध से पृथकत्व प्रमाणित हो चुका है । कभी दोनों को एक ही समझ लिया गया था । यह भ्रम पाश्चात्य विद्वानों ने उत्पन्न किया था । निराकरण भी उन्हीं ने किया। सबसे प्रथम जैकोबी और डा० ल्युमान ने जैन आगम सूत्रों के आधार पर सिद्ध किया कि महावीर बुद्ध से पृथक ही नहीं अपितु उनसे कुछ वर्ष बड़े भी थे । डा० ल्युमान ने लिखा कि महावीर की तीर्थङ्कर संज्ञा वैसी ही निराली है, जैसी बुद्ध की
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फिर भारतीय विद्वानों का प्रयास भी प्रारम्भ हुआ । डा० काशीप्रसाद जायसवाल ने खारवेल का शिलालेख १६ वर्ष में पढ़ा। उसमें लिखा है, " वध - मान से स यो वे (व) नाभि विजयो”, अर्थात् बचपन में खारवेल का सौन्दर्य महावीर जैसा था । खारवेल कलिङ्ग का राजा था और मगध से जिनमूर्ति जीतने के उपरान्त उसने यह शिलालेख उत्कीर्ण करवाया था । इसका समय ईसा से १७० वर्ष पूर्व माना जाता है। इससे भी पूर्व का एक और प्रमाण उपलब्ध हुना है । वह है बडली ( राजस्थान ) से प्राप्त एक शिलालेख । उसमें लिखा है, "विराय् भगवत् ८४ चतुरासिति वस भाये सालिमालिनीयर निविठ
१. बुद्ध अने महावीर, पूना, पृ० १२ ।
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मज्झिमिके।" अर्थात् भगवान महावीर के लिए ८४ वें वर्ष में मध्यमिका में सालिमालिनि । डा० जायसवाल ने इसका उत्कीर्ण काल ३७४ ई० पूर्व माना है।' मथुरा के कंकाली टीले की खुदाइयों में अनेक ऐसे शिलापट्ट मिले हैं, जो ईस्वी पूर्व प्रथम शती के हैं। जहां तक मूर्तियों का सम्बन्ध है वह सबसे प्राचीन ५३ ई० पूर्व है, जो कनिष्क के राज्य काल में रची गई थी। यह मथुरा की खुदाइयों में प्राप्त हुई है । जैन स्तूप और मूर्तियाँ भगवान पार्श्वनाथ के समय में ही बनने लगी थीं। मोहनजोदड़ो की खुदाइयों से तो अब मूर्तिकला का इतिहास बहुत पीछे तक चला जाता है। मोहनजोदड़ो की मूर्तियों में से एक पर डा० प्राणनाथ ने 'श्रीजिनाय नमः' पढ़ा है ।
पुरातत्व के अतिरिक्त प्राचीन ग्रथ भी महावीर के पुनीत अस्तित्व को प्रमाणित करने में सहायक हैं। ऋग्वेद और यजर्वेद में महावीर का उल्लेख है । मज्झिमनिकाय, न्यायबिन्दु, अंगुत्तरनिकाय, संयुक्तनिकाय, और समागम सुत्त आदि बौद्ध ग्रन्थों में महावीर की प्रशंसा की गई है । षट्खण्डागम .. सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र, जयधवल और नन्दी सूत्र आदि प्राचीन जैन सूत्र ग्रंथों में महावीर की वन्दना में अनेक पद्यो का निर्माण हुआ है। महावीर की सबसे प्राचीन स्तुति दूसरे अंग सूत्रकृतांग में उपलब्ध है । इसके पश्चात् प्राचार्य समन्तभद्र की वीर स्तुति हृदयग्राही है। उसके बाद तो सस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में रचा गया 'वीर' परक जैन साहित्य इतना अधिक है कि 'महावीर और उनकी भक्ति' लेकर एक शोध प्रबन्ध ही लिखा जा सकता है। महावीर केवल जैन समाज के ही नहीं, अपितु समूची भारतीय चेतना के प्रेरणा सूत्र रहे हैं । भारतीय संस्कृति की पावनता महावीर की देन है ।
जैन पागम सूत्रों में महावीर का जीवन चरित्र बहुत कुछ सुरक्षित है। उनमें भी पंचमांग भगवती या 'विवाह प्रज्ञप्ति' अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उसमें भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित प्रचुर सामग्री संकलित है । विशेषता है कि गोशालक का वर्णन करते हुए भगवान ने अपने मुह से अपनी प्रात्म कथा कही है। इसी अग में भगवान के समकालीन अनेक व्यक्तियों का वर्णन है ।
१. जर्नल आफ दी बिहार एण्ड मोड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भाग १६ पृ० १६७ २. मदनमोहन नागर, मथुरा का जैन स्तूप और मूर्तियां, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २८० । ३. इसकी तुलना पब्बज्जा-सुत्त [सुत्तनिपात] में वरिणत बुद्ध की प्रात्मकथा से की जा
सकती है।
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इसी भांति पहले प्रग प्राचारांग में भगवान के साधक जीवन का विशद विवेचन है। अभी तक इन अंगों की खोज बीन कर महावीर के जीवन सूत्रों से कोई प्रामाणिक ग्रंथ नहीं लिखा गया, कसे आश्चर्य की बात है। अब एक ग्रन्थ विजयेन्द्रसूरि का 'तीर्थकर महावीर' यशोधर्म मन्दिर, बम्बई से प्रकाशित हुमा है। यह ग्रंथ का केवल प्रथम भाग है । अभी उसके अन्य भाग भी प्रकाशित होंगे। विद्वान लेखक ने साधना की है और उसका यह परिणाम है। इसके पूर्व भी अनेक प्रयास हुए हैं, किन्तु वे नगण्य ही हैं । जीवन चरित्र
महावीर के समय को लेकर कोई विवाद नहीं है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही ग्रन्थों के अनुसार महावीर का जन्म ईस्वी पर्व ५९८ में और निर्वाण ईस्वी पूर्व ५२७ में हुआ था। निर्वाण को लेकर कल्पसूत्र और उत्तरपुराण में यत्किचित् अन्तर है । कल्पसूत्र के अनुसार महावीर पूर्ण ७२ वर्ष जीवित रहे, जबकि उत्तरपुराण में उन्हें ७१ वर्ष और कुछ मास का लिखा है। इसका प्रामाणिक विवेचन इस लेख का विषय नहीं है । अन्य विद्वान उस पर प्रकाश डालने का प्रयास करेगे। इस विषय में धवलाटीका, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, तपागच्छ और नन्दीसंघ की पट्टावली आदि दिगम्बर ग्रन्थों को भी पढ़ना होगा । इस विषय में बौद्ध ग्रन्थों का सहाय्य महत्वपूर्ण होगा। प्रस्तुत लेख के लिये तो इतना पर्याप्त है कि महावीर का जन्म ५६८ ई० पूर्व और निर्वाण ५२७ ई० पूर्व हुआ।
__ महावीर का जीवन चरित्र सभी ग्रंथों में समान रूप से वरिणत है । कहीं-कहीं थोड़ा बहुत भेद पाया जाता है, जो नगण्य-सा ही है । महावीर का जन्म क्षत्रिय कुण्ड ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। त्रिशला वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। चेटक की ही दूसरी पुत्री चेलना थी, जिसका परिणय मगध के सम्राट बिम्बसार के साथ हुआ था । क्षत्रिय कुण्ड ग्राम वैशाली का ही एक भाग था। महावीर को 'वैसालिय' कहा जाता है । वे क्षात्रकुल में जन्मे थे। उन्हें 'नातपुत्त' कहते हैं। उनका जन्म 'निर्ग्रन्थ' परम्परा में हुआ था। उनके माता-पिता २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के धर्म को मानते थे। वे प्रति दिन एक पार्श्व चैत्य में बंदना के लिये भी जाया करते थे। पहले जैन साधुओं को निम्रन्थ ही कहा जाता था। महावीर के लिये 'निगण्ठ' शब्द
१. 'अरहा नायपुत्त भगव बेसालिए वियाहिए सि वेमि' सूत्रकृताङ्ग सूत्र, २/३ ।
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का शताधिक बार प्रयोग हुआ है । गौतमबुद्ध उन्हें 'निगण्ठनातपुत्त' कहा करते थे।'
जैन पुराणों, चरित्रों, कथा-ग्रन्थों और स्तुति-स्तोत्रों में महावीर के पंचकल्याणकों का भक्ति-परक विवेचन हुआ है। तीसरे तप-कल्याण के प्रारम्भ में जैन तीर्थकर वैराग्य की ओर उन्मुख होता है। प्रत्येक तीर्थङ्कर का अपना एक विशेष संयोग है, जिससे उसकी मानस धारा वीतरागी दीक्षा की ओर मुड़ती है। सम्राट ऋषभदेव के दरबार में नीलांजना नाम की एक अप्सरा नृत्य करते-करते ही दिवंगत हो गई । जीवन की इस क्षण भंगुरता से युवा ऋषभदेव के हृदय में वैराग्य का संचार हुमा । दुल्हा के वेश में सजे नेमिनाथ दीन पशुओं की करुण पुकार से वीतरागता की ओर झुके। विश्व की अनिंद्य सुन्दरी राजीमती से विवाह नहीं किया । एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में ये बाह्य प्रसंग एक व्यक्ति के जीवन को तभी परिवर्तित कर पाते हैं, जब उसमें 'असंयोजितप्रसंग' के अनुकूल प्रबल सस्कार रहा हो । भले ही जैन तीर्थकरों का बाल और यौवन वैभवसम्पन्न वातावरण में बीता हो, किन्तु वीतरागता उनके खून में व्याप्त थी। महावीर का वैराग्य किसी बाह्य-प्रसंग पर नही, अपितु उनके अपने अध्ययन और चिंतन पर आधारित था। उनके पूर्व जन्म की अनुभूतियां उभरी और उन्होंने अपने माता-पिता से दीक्षा के लिए अनुमति चाही। दो वर्ष तक उनकी और उनके माता-पिता की इच्छा-शक्तियों में संघर्ष चलता रहा। जीत महावीर की हुई और वे सब की खुशियों के बीच तप करने चले गये । वे संसार से भागे नहीं, डरे नहीं । उन्होंने कुछ को छोड़ा सब को पाने के लिये । अपने को पाये बिना सबको नहीं पाया जा सकता, अतः उन्होंने अपने को पाने का प्रयास किया। उनका प्रयास आध्यात्मिक था । आध्यात्मिक साधना का अर्थ है सत्य और अहिंसा । कोरा सत्य नहीं, कोरी अहिंसा नहीं। इनमें से एक पर किया गया आग्रह एकांकी हो सकता है, अतः महावीर ने समन्वयात्मक पथ का उद्योतन किया । गान्धी ने भी इस रहस्य को समझा था। अन्यथा उनके सत्याग्रह का रचनात्मक रूप अहिंसक कैसे होता। इस साधना से महावीर ने अपने को पाया और उसके साथ ही विश्व को। उनकी चेतना ने विश्व व्यापी रूप धारण किया।
१. धम्मपदट्ठ कथा, जिल्द तीसरी, पालिटेक्स्ट सोसाइटी, पृ० ४८६ ।
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केवलज्ञान
महावीर के हृदय में तप की सोई भावना जागृत हुई और उन्होंने वीतरागी दीक्षा धारण कर ली। वीतरागी दीक्षा परम्परा से चली आ रही थी। उसका एक प्रशस्त मार्ग था। महावीर के पूर्व २३ तीर्थकर उसे धारण कर चुके थे। उन्होंने जिस मार्ग को अपनाया, उस पर उनका पूर्ण विश्वास था, श्रद्धा थी। इसलिए उनके कदम मजबूत थे। साधना भी मजबूत हुई। उन्होंने १२ वर्ष की सतत् साधना से ऋजुकूला नदी' के तट पर केवल-ज्ञान प्राप्त किया। इसी को उपनिषदों की भाषा में 'कैवल्यपद' कहते हैं।
केवलज्ञान का अर्थ है सर्वसत्व । बुद्ध ने महावीर के सर्वसत्व को स्वीकार किया था। मज्झिमनिकाय से ऐसा सिद्ध है। सर्वसत्व सदैव महावीर के साथ रहता था। वह आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा से उत्पन्न हुआ था। दूसरी ओर बोधि की व्याख्या करते हुए मिलिन्दपण्ह में लिखा है, "गौतम की सर्वसत्ता सदैव उनके पास नही रहती थी, अपितु उनके विचार करने पर अवलम्बित थी।"3 कुछ भी हो महावीर के सर्वसत्व और उनकी दिव्यवारणी का बुद्ध की ख्याति पर प्रभाव पड़ा था । बुद्ध के जीवन की ५० वर्ष से ७० वर्ष तक की आयु की घटनामों का उल्लेख नही मिलता । इसका एक मात्र कारण महावीर की वृद्धङ्गत ख्याति थी। यह कथन 'पासादिकसुतन्त' से और भी स्पष्ट हो जाता है। उसमें लिखा है कि बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द को जब पावा के चण्ड के द्वारा महावीर के निर्वाण की सूचना मिली, तो उसने तुरन्त ही इस समाचार को तथागत के समक्ष उपस्थित करने योग्य समझा।
अहिंसा का जैसा समूचापन महावीर को दिव्यवाणी में प्रस्फुटित हुमा, वैसा कहीं देखने को नहीं मिलता। यद्यपि बौद्ध भिक्षु अहिंसा के अनुयायी थे पर वे आगे चल कर मांसाहार को उचित मानने लगे । मासाहारी देशों में बौद्ध धर्म के द्रुतगति से फैलने का कारण भी यह ही था । महावीर ने अहिसा को ही आध्यात्मिक
१. ऋजुकूला नदी का तट, जहाँ भगवान को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई, प्राजकल बिहार
उड़ीसा के अन्तर्गत माना जाता है। कहा जाता है कि बाराकर नदी ऋजुकूला थी।
खोज की प्रावश्यकता है। २. देखिए चूल दुक्खक्खन्ध-सुत्तन्त ( मज्झिम, १/२/४ ) तथा चूल सुकुलदायिसुत्तन्त
(मज्झिम, २/३/६)। ३. मिलिन्दपण्ह (S. B. E.) भाग ३५ वा, पृ० १५४ ।
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साधना माना। उन्होंने कोरे सत्य को कभी स्वीकार नहीं किया । उनकी दृष्टि के अनुसार अहिंसा की यत्किचित् भी कमी सत्य को अहंकार से भर देती हैं। उन्होंने दोनों के समन्वय पर जोर दिया। महात्मा गान्धी ने इसको समझा था । इसी कारण उनके 'सत्याग्रह' में सत्य का आग्रह केवल शाब्दिक नहीं रहा, रचनात्मक रूप में सत्य के साथ अहिंसा को प्रमुखता मिली है। महावीर ने अपनी दिव्यवारणी में हिंसा को प्रेम कहा है । वास्तव में उनकी प्राध्यात्मिक साधना प्रेम साधना ही थी । इसी आधार पर जैन प्राचार्य 'सत्वेषुमंत्री' वाला गीत गा सके। और इसी प्रेम रूप के सहारे भक्तों के दिल टिके रहे ।
भक्ति भावन
महावीर मोक्षगामी थे । वे संसार के कर्ता-धर्ता नहीं, अच्छे-बुरे के दाताप्रदाता नहीं, फिर भी उनको लेकर असीम भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ । असंख्य मूर्तियां रची गई, श्रसंख्य मन्दिर और चैत्य बने । महावीर भले ही कुछ न करते हों, कुछ न देते हों, किन्तु उनका व्यक्तित्व प्रेम के ऐसे धागों से बुना गया था, जो मौन रहते हुए भी प्रेम को प्रेरणा देता रहा। भक्त भगवान को मुक्ति में जा बिराजने के लिये उपालम्भ भी देता रहा और प्रेरणा भी पाता रहा "तुम प्रभु कहियत दीन दयाल, आपन जाय मुकति में बैठे हम जु रुलत इह जगजाल ।” कहने वाला ही भक्त कवि “मेंढक हीन किए अमरेसुर, दान सबै मनवांछित पाए । द्यानत आज लौं ताही को मारग सारग है सुख होत सवाए ।' गा सका । जिसके दर्शन मात्र से ही हीन मेंढक तर सका हो, वह भगवान अवश्य ही जीव मात्र के लिये प्रेम का प्रतीक होगा । उसकी उदारता का विस्तार विश्वव्यापी बन सका होगा । उसका अहं अहकार नही अपितु विश्व ग्रहं में परिणत हो सका होगा ।
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भावशुद्धि पर बल
महावीर ने सदैव भावशुद्धि पर बल दिया । नग्नता भावशुद्धि का एक श्रावश्यक साधन मात्र है, किन्तु नग्न होने से कोई समूचे रूप में शुद्ध ही हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है । इसी कारण अनेक जीव मुनि-पद धारण करके भी भव समुद्र से तर न सके । उस समय दिगम्बरत्व साधु का चिन्ह था । इतिहास से सिद्ध है कि उस समय के प्राजीवक साधु भी नग्न रहते थे । महावीर भी नग्न बने । किन्तु उन्होंने गेरुआ वस्त्रों की भांति नग्नता को साधुत्व का 'फैशन' नहीं बनने दिया । 'फैशन' कैसा ही हो भावशुद्धि में बाधक बनता है । आगे चल
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कर हिन्दी के सन्त कवियों ने जिन बाह्याडम्बरों का विरोध किया, उनसे सैकड़ों वर्ष पूर्व महावीर ने साधु के सभी देशों का निराकरण करते हुए केवल भावों की पावनता को ही प्रमुखता दी थी। प्रागे चल कर दिगम्बर साधुओं के क्रिया-काण्ड भी इतने बढ़े कि उन पर मोटे-मोटे ग्रंथों की रचना हुई । महावीर के दिगम्बर जीवन में उनका कोई मूल्य नहीं था । महावीर को कई दिनों से आहार नहीं मिला था । उनकी प्रतिज्ञा थी कि कुमारी, जंजीरों में जकड़ी भोर रोती हुई कन्या के हाथों श्राहार लेंगे । एक दिन उधर से निकले, जहां चन्दना को कैद करके रक्खा गया था। वह रो रही थी, उसके आगे कैदी का खाना रक्खा था । उसने जंजीरों से जकड़ी दशा में ही भगवान को भोजन के लिये आमंत्रित किया । उन्होंने स्वीकार किया और कैदखाने के सींकचों के बाहर, संकरी-सी गली में खड़े होकर वह कैदियों वाला भोजन ले लिया । महावीर सभी प्रकार के क्रियाकाण्डों से नितांत दूर थे I
महावीर से ढाई सौ वर्ष पूर्व २३ वे तोर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था । इतिहास ने उनके अस्तित्व को मान लिया है। उनका युग चला आ रहा था। उन्हीं के नाम पर वीतरागी साधु जैन दीक्षा ले रहे थे। इनमें मुनि पिहिताश्रव का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । वे पार्श्वनाथाम्नायो थे । उन्हीं से बुद्ध ने दीक्षा ली थी । इन साधुनों में गोशालक का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है । उसका पूरा नाम था मंखलिगोशाल । प्राचार्य देवसेन के दर्शनसार में मंखलिगोशाल और पूरणकाश्यप का एक साथ उल्लेख हुआ है । दिगम्बर ग्रन्थ दोनों को एक मानते हैं । दोनों ही आजीविक मत के नेता थे । किन्तु बौद्ध ग्रन्थों से स्पष्ट है कि वे भिन्न दो व्यक्ति थे । अन्त में दोनों के मत-सादृश्य ने दोनों को एक कर दिया था । इसी कारण जैन परम्परा दोनों को एक मानती रही ।
मंखलि गोशाल और पूरणकाश्यप महावीर से उम्र में बड़े थे। जैन साधु थे । उन्होंने जैन पूर्व ग्रन्थों के आधार पर जैन धर्म को समझने का प्रयास किया था । वे उसके मर्म को समझ न सके । मत्र और ज्योतिष ने भी बाधा पहुँचायी । गोमट्टसार और सूत्रकृतांग सूत्र में उनके मत को अज्ञात मत कहा गया है । वैसे भाजीविक नाम भी जैनत्व का द्योतक है। किसी भी प्रकार की जीविका से पृथक् रहने को आजीविक कहते हैं। इसे जैनों के त्याग और अपरिग्रह पर निर्भर रहना चाहिये था । किन्तु भाजीविक साधु मन्त्र और ज्योतिष के बल पर जीविका भी कमाने लगे । इस धर्म के पतन का यह ही एक मात्र कारण है। भाजीविक सम्प्रदाय पर डा० बरुना ने 'आजीविस' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था । उन्होंने भी ऐसी ही मान्यता अभिव्यक्त की है ।
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भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुमा । उनका समवसरण रचा गया। मंखलि गोशाल पहुंचा। वह समझता था कि एक पुराने जैन साधु होने के नाते उसे ही गणधर बनाया जायगा, किन्तु ऐसा नहीं हुआ । इन्द्रभूति गौतम को गणधर बनाया गया । गोशाल रुष्ट और मन्त्राहत नाग की भाँति श्रावस्ती चला गया। वहां उसने अपने को सर्वज्ञ घोषित किया। सभी प्राजीविक उसे सर्वज्ञ मान उठे। जब महावीर का समवसरण श्रावस्ती पहुँचा, तो अधिकांश प्राजीविक महावीर के साथ हो गये । 'दर्शनसार' में ऐसे ही एक आजीविक शब्दाल-पुत्र का जिक्र पाया है। वह कुम्हार था, भारत का प्रसिद्ध शिल्पी। उसने मिट्टी के बर्तनों से ही तीन करोड़ स्वर्णमुद्रायें कमाई थीं। एक दिन उसने सुना कि पलाशपुर में सर्वज्ञप्रभु प्रायेंगे, तो उसने समझा कि उसके गुरु गोशाल पायेंगे। प्राये महावीर। उनके धर्मोपदेश से वह वास्तविकता को समझ सका। उनके धर्म में दीक्षित हो गया । उसका दुर्द्धर्ष तप प्रसिद्ध है।
कुछ ऐसे जैन साधक थे जिनकी महावीर ने स्वयं प्रशंसा की है। उनमें धन्यकुमार का नाम सर्वोपरि है। वह काकन्दी का श्रेष्ठि-पुत्र था। घोर तप के कारण उसमें हड्डियाँ-भर अवशिष्ट रह गई थीं। मगध नरेश श्रेणिक ने भगवान से, उनके १४ हजार शिष्यों में सर्वश्रेष्ठ साधक पूछा, तो उन्होंने 'धन्ना प्रणागार' का नाम लिया। दूसरा साधक, जिसको प्रशसा भगवान ने की 'कामदेव श्रावक' था । उसका उल्लेख 'दशांगसूत्र' में आया है । वह चम्पा निवासी था। एक बार भगवान का बिहार चम्पा में हुप्रा । कामदेव ने श्रावक की दशा में ही भगवान के द्वारा उपदिष्ट साधना प्रारम्भ की। एक रात्रि को एक देव के द्वारा घोर उपसर्ग पाने पर भी कामदेव विचलित न हुआ। भगवान ने अपने समवसरण में उसकी प्रशंसा करते हुए निर्ग्रन्थ श्रमरणों से उपसर्ग सहन करने का उपदेश दिया। उन्होंने कामदेव श्रावक का उदाहरण उपस्थित किया। तीसरी थी साधिका सुलसा । वह एक गांव में रहकर गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए ही वीतरागी साधना में तल्लीन रहती थी। भगवान ने अम्बड श्रावक के द्वारा उसको धर्म-लाभ कहलवाया था। इससे स्पष्ट है कि भगवान उसके प्रशंसक थे'
___ जीवंधर की गणना प्रसिद्ध जैन साधकों में थी। जीवंधर हेमांगद देश के सम्राट थे। उनकी राजधानी राजपुरी थी। हेमांगद अपनी स्वर्ण की खानों
१. देखिए अगरचन्द नाहटा का लेख महावीर द्वारा प्रशासित तीन व्यक्ति' अहिसावाणी,
अप्रेल १६६६, पृ० १४० ।
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के लिए प्रसिद्ध था । बाल्यावस्था में जीवंधर ने आर्यनन्दि नाम के एक जैनाचार्य के पास शिक्षा प्राप्त की थी। भार्यनन्दि ने शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी थी। जीवंधर के शस्त्र-कौशल ने उन्हें राज्य दिलवाया और शास्त्र नैपुण्य ने वीतरागी भावनाओं के अंकुर को पनपाया। एक दिन महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली । राजा श्रेणिक ने महावीर के समवसरण के बाहर परिणवृक्ष के नीचे जिस तेजस्वी मुनि को तप-निरत देखा था, वे मुनि जीवंधर ही थे। वे श्र तज्ञान के धारी थे और महावीर के साथ ही उनका भी निर्वाण होना था। वे इतिहास में वीर श्रमण जीवंधर के नाम से प्रसिद्ध हैं।'
भगवान महावीर का समवसरण प्रारम्भ हो चुका था, किन्तु देवगण विमानों में उड़ते हुए समवसरण में न पाकर कहीं अन्यत्र चले जा रहे थे। यह एक आश्चर्य का विषय था । किसी ने भगवान से इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि महाराज जितारि का निर्वाण हुआ है, ये उनका निर्वाणोत्सव मनाने जा रहे हैं । २ महाराज जितारि या जितशत्रु कलिङ्ग के सम्राट थे और रिश्ते में महावीर के फूफा लगते थे। उनका निर्वाण खण्डगिरि में हुआ था। तभी से खण्डगिरि सिद्धि क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है । सम्राट खारवेल (ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी ) के शिलालेख में इसको 'प्रहनिषिद्या' कहा गया है । इस विषय में बाबू छोटेलालजी के अन्वेषण का एक उद्धरण देखिए, “अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी के फूफा कलिंगाधिपति महाराज जितशत्रु या जितारि का निर्वाण मेरे अनुमान से खण्डगिरि में ही हुआ था। और उन्ही के सम्बन्ध से यह सिद्धिक्षेत्र हो जाने के कारण सहस्रों निम्रन्थ मुनियों ने इस स्थान को तपोभूमि बनाया था। ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी में होने वाले कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेल ने भी अपना अन्तिम साधु जीवन यहा ही व्यतीत किया था।"3 सम्राट खारवेल ने अपना प्रसिद्ध शिलालेख इसी गुफा में क्यों उत्कीर्ण करवाया ? इस पर बाबूजी का पुरातात्विक विवेचन इस प्रकार है, “मेरे अनुमान से उपर्युक्त श्री जितारि मुनि ने इसी हाथी गुफा में तपश्चरण करते हुए निर्वाण प्राप्त किया था और उसे तीर्थ बनाया था, जिससे वहां हजारों यात्री वन्दना के लिये और हजारों मुनि तपश्चरण के लिये सैकड़ो वर्षों से आते रहे हैं। अत: विशेष प्रचार
१. जीवंधर की कथा के लिए देखिए उत्तरपुराण । २. देखिए हरिवंश पुराण ।। ३. बाबू छोटेलाल जी, खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय, अनेकान्त, वर्ष ११ किरण १, मार्च
१६५२, पृ० ८१।
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की दृष्टि से और शिलालेख की अपनी विशिष्टता के कारण उसे इस महत्वपूर्ण स्थान में अंकित किया गया है । अन्यथा महाराज खारवेल ने अपनी प्रग्रमहिषी के लिये उसी गुफा के निकट जो प्रतिसुन्दर समाश्रय रूप गुफा बनवाई थी, उसी में इस शिलालेख को भी स्थान दे देते। हाथी गुफा तीर्थस्थान के कारण ही अधिक मान्य और प्रतिष्ठित हो गई थी और महाराज खारवेल ने उसका प्रकृत्रिम भद्दा रूप अक्षुण्ण रखते हुए भी इसे इतना महत्व दिया था ।" "
महावीर के नारी संघ में चन्दना सर्वोत्तम साधिका थी । अपने अनिन्द्य सौन्दर्य के कारण उसे असीम कष्ट भोगने पड़े, किन्तु उसने कहीं पर भी सतीत्व को त्यागा नहीं । वह प्राजन्म ब्रह्मचारिणी रही । महावीर की भक्ति उसके जीवन का सम्बल थी । जब महावीर को केवल ज्ञान हुआ, तब उसने दीक्षा ले ली । उसका कठोर तप नारियों के लिये ईर्ष्या का विषय बना । वह अपने सौन्दर्य में जैसे प्रसिद्ध थी, आगे चलकर उसकी आध्यात्मिक साधना भी वैसे ही ख्याति प्राप्त हुई । सुन्दरी चन्दना ने अपने जीवन से जिस प्रादर्श की रचना की थी, वह आज भी नारी जगत के लिये अनुकरणीय है ।
१. देखिए वही, पृ० ८२ ।
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जैन - समाधि और समाधिमरण
'समाधि' शब्द की व्युत्पति
समाधीयते इति समाधि : । समाधीयते का अर्थ है - 'सम्यगाधीयते एकाग्रीक्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र सः समाधिः ।' अर्थात् विक्षेपों को छोड़कर मन जहां एकाग्र होता है, वह समाधि कहलाती है । 'विसुद्धिमग्ग में 'समाधान' को ही समाधि माना है, और 'समाधान का अर्थ किया है - 'एकारम्मणे चित्तचेतसिकानं समं सम्मा च प्राधानम्' – २ अर्थात् एक श्रालम्बन में चित्त और चित्त की वृत्तियों का समान और सम्यक् प्राधान करना ही समाधान है । जैनों के 'अनेकार्थ निघण्टु' में भी 'चेतसश्च समाधानं समाधिरिति गद्यते कहकर चित्त के समाधान को ही समाधि कहा है । 'सम्यक् प्राधीयते' और 'सम्यक् श्राधान' में प्रयोग की भिन्नता के अतिरिक्त कोई भेद नहीं हैं। दोनों
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१. मिलाइये, पातञ्जल योगसूत्र, व्यास भाष्य १ / ३२, मेजर बी० डी० वसु-सम्पादित, इलाहाबाद, १९२४ ई० ।
२. प्राचार्य बुद्धघोष, विसुद्विमग्ग, कौसाम्बी जी की दीपिका के साथ, तृतीय परिच्छेद, पृष्ठ ५७, बनारस ।
३. देखिये, घनञ्जयनाममाला, सभाष्य श्रनेकार्थ निघण्टु तथा एकाक्षरी कोश, १२४ वाँ श्लोक, पृ० १०५, पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी-सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१२
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एक ही धातु से बने हैं और दोनों का एक ही अर्थ है। चित्त का पालम्बन अथवा ध्येय में सम्यक् प्रकार से स्थित होना- दोनों ही व्युत्पत्तियों में अभीष्ट है।
ध्येय में चित्त की सुदृढ़ स्थिति निरन्तर अभ्यास और वराग्य पर निर्भर करती है । गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा, कि "हे महाबाहो ! सच है कि चञ्चल मन को वश में करना कठिन काम है । पर हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से वह वश में किया जा सकता है।'' योगसूत्र के अभ्यासवराग्याभ्यां तन्निरोध:२ के द्वारा भी यह तथ्य कि, 'चञ्चल मन का निरोध अभ्यास और वैराग्य से ही हो सकता है,' सिद्ध होता है। जहां तक बौद्ध धर्म का सम्बन्ध है, वह अभ्यास पर ही निर्भर है । 3 जैन धर्म में ध्यान के पांच कारणों में 'वैराग्य' को प्राथमिकता दी गई है। वहां चित्त को वश में करने के लिए यद्यपि वायु-निरोध की बात को थोथा प्रमाणित किया गया है, तथापि प्राणायाम का अभ्यास कर, मन को रोक कर, चिद्रूप में लगाने की बात तो कही ही गई है, फिर भले ही मन और पवन स्वयमेव स्थिर हो जाते हों। जैन शास्त्रों के अनुसार शुभोपयोगी का मन जब तक एकदम आनन्दघन में अडोल अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता, तब तक मन को वश में करने के लिए पंच परमेष्ठी और ओंकारादि मत्रों का ध्यान करना होता है, फिर शनैः शनै: मन शुद्ध प्रात्म-स्वरूप पर टिकने लगता है। चौदह गुणस्थानों पर क्रमश: चढ़ने की बात भी अभ्यास की ही कहानी है। शुद्ध अहिसा तक पहुँचने के लिए सीढ़िया बनी हुई है । इस भांति समूचा जैन सिद्धांत अभ्यास और वीतरागता की भावना पर ही निर्भर है ।
१. असशय महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् । अम्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।
महात्मा गांधी, अनासक्तियोग, श्रीमद्भगतद्गीता भाषा-टीका, ६/३५ पृ० ६२, सस्ता
साहित्य, मण्डल, नयी दिल्ली १६४६ ई० । २. पातञ्जल योगमूत्र, १/१२ । ३. भरतसिह उपाध्याय, बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, द्वितीय भाग, पृ० ६०६,
बंगाल हिन्दी मंडल, वि० स० २०११ । ४. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्म प्रकाश, १९२ वें दोहे की ब्रह्मदेवकृत सस्कृत-टीका,
पृ० ३३१, डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित, परमश्रुत प्रभावक मडल बम्बई
१९३७ ई० । ५. परमात्म-प्रकाश, ५० जगदीशचन्द्र-कृत हिन्दी-अनुवाद, पृ० ३०६ ।
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समाधि की तुलनात्मक व्याख्या
ध्यान और समाधि
जैन शास्त्रों में अनेक स्थानों पर उत्कृष्ट ध्यान के अर्थ में ही 'समाधि' शब्द का प्रयोग हुआ है । 'भावप्राभृत' की बहत्तरवी गाथा में 'समाधि' शब्द उत्तम ध्यान का हो द्योतक है । १ प्राचार्य समन्तभद्र ने अपने 'स्वयम्भूस्तोत्र' के सतहत्तरवें, तिरासीवे और एकसौ दसवें श्लोकों में समाधि, सातिशयध्यान और शुक्ल ध्यान को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है । प्राचार्य उमास्वाति ने 'धर्म्य ध्यान' और 'शुक्ल ध्यान' को मोक्ष का हेतु कहकर उनके समाधि रूप की घोषणा की है । २ 1 श्री योगीन्दु ने भी 'ध्यान' शब्द का प्रयोग 'समाधि' अर्थ में ही किया है । पण्डित प्रवर प्राशावर ने 'जिनसहस्रनाम' की स्वोपज्ञवृत्ति में 'समाधिराट्' की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा है- समाधिना शुक्लध्यानेन केवल ज्ञानलक्षणेन राजते शोभते । अर्थात् केवलज्ञान है लक्षरण जिसका, ऐसी शुक्ल ध्यान रूप समाधि से जो सुशोभित हैं, वे ही 'समाधिराट्' कहलाते हैं । पातञ्जल योगसूत्र में ध्यानमेव ध्येयाकारं निर्भासं प्रत्ययात्मकेन स्वरूपेण शून्यमेव यदा भवति ध्ययेस्वभावावेशात्तदा समाधिरित्युच्यते ५ के द्वारा ध्येयाकार निर्भासध्यान को हो 'समाधि' कहा गया है। यहां ध्यान के चरम उत्कर्ष का नाम ही समाधि है । समाधि, चित्तस्थैर्य की सर्वोत्तम अवस्था है । भगवान बुद्ध ने 'सम्बोधि-लाभ' करते समय चार ध्यानो की प्राप्ति की थी, 'मज्झिमनिकाय' में इनको समाधि संज्ञा से अभिहित किया गया है । बौद्ध साधना पद्धति में 'ध्यान' का केंद्रीय स्थान है । शील के बाद समाधि ( ध्यान ) और समाधि के अभ्यास से प्रज्ञा (परम ज्ञान ) की प्राप्ति होती है। शास्ता की यह वाणी - “भिक्षुत्रों, ध्यान करो । प्रमाद मत करो।" सहस्रों वर्षों तक ध्वनित होती रही है । यद्यपि बौद्धों
ध्यान - सम्प्रदाय की विद्यमानता के लिखित प्रमाण नहीं मिलते, परन्तु उसकी परम्परा बुद्ध के समय से ही अवश्य चली आ रही थी, ऐसी चीनी परम्परा के
१. आचार्य कुन्दकुन्द, भावप्राभृत, गाथा ७२ ।
२. उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, ६ / २६ ।
३. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, दूहा १७२, १८७
४. पं० प्रशाघर, जिनसहस्रनाम, स्वोपज्ञवृत्ति ६ / ७४, पृ० ६१ भारतीय ज्ञानपीठ काशी । ५. पातञ्जल योगसूत्र, व्यासभाष्य, ३ / ३ मेजर वी. डी. वसु-सम्पादित, इलाहाबाद, १६२४ ई०
६. देखिये - मज्झिमनिकाय, चूलहत्थि, पदोपमसुत्त
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आधार पर कहा जा सकता है। प्राचार्य बोधिधर्म ने चीन में बताया कि ध्यान के गूढ़ रहस्यों का उपदेश भगवान बुद्ध ने अपने शिष्य महाकाश्यप को दिया था, जिन्होंने उसे प्रानन्द को बताया। ' उपनिषदों में भी 'उत्कृष्ट ध्यान' को समाधि कहा है । साधारण ध्यान में ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों का पृथकपृथक् प्रतिभास होता रहता है, किन्तु उत्कृष्ट ध्यान में ध्येय-मात्र ही अवभासित होता है और उसे ही समाधि कहते हैं। ध्यान और मन को एकाग्रता
ध्यान में मन की एकाग्रता का प्रमुख स्थान है । मन के एकाग्र हुए बिना ध्यान हो ही नहीं सकता । जैनाचार्यों ने 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् २' के द्वारा एकाग्र में चिन्ता निरोध को ध्यान कहा है । "अग्र पद का अर्थ है 'मुख' अर्थात् आलम्बन-भूत द्रव्य या पर्याय । जिसके एक अग्र होता है. उसे एकाग्र-प्रधान वस्तु या ध्येय कहते हैं । 'चिन्तनिरोध' का अर्थ है-अन्य अर्थों की चिन्ता छोड़कर एक ही वस्तु में मन को केन्द्रित करना । ध्यान का विषय एक ही अर्थ होता है। जब तक चित्त में नाना प्रकार के पदार्थों के विचार आते रहेंगे, तब तक वह ध्यान नहीं कहला सकता।"3 अतः चित्त का एकाग्र होना ही ध्यान है। योगसूत्र में भी तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यकतानतासदश: प्रवाहःप्रत्यांतरेणापरामृष्टो ध्यानम् कहकर ध्येय विषयक प्रत्यय की एकतानता को ध्यान माना है। एक तानता' एकाग्रता ही है । बौद्धों के 'मझिमनिकाय' में चार ध्यानों का निरूपण हुआ है और उनमें एकाग्रता को ही प्रमुख स्थान है । गीता के ध्यानयोग में आत्म-शुद्धि के लिए मन की एकाग्रता को अनिवार्य स्वीकार किया गया है । चंचल मन को एकाग्र किये बिना मनुष्य योगी नही कहला सकता । स्थिरचित्त योगी ही प्रात्मा को परमात्मा के साथ जोड़ सकता है, अन्य नहीं । श्री
१ हिन्दी साहित्य सम्मेलन पत्रिका, भाग ४१, सख्या ३, पृ० ३२ २. उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, ६/२७ ३. अग्र मुखम् । एकमग्रमस्येत्येकानः । नानार्थवलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवर्ता, तस्या
प्रन्याशेषमुखेम्यो व्यावर्च्य एकस्मिन्नन नियम एकग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते । अनेन ध्यानं स्वरूपमुक्तं भवति ।
-पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६/२७ पृ० ४४४ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वि० स० २०१२ ४. पातञ्जल योगसूत्र, बी. डी. वसु-सम्पादित, ३/२ का व्यासमाष्य, पृ० १८० ५. महात्मा गांधी, अनासक्तियोग श्रीमद्भगवद्गीता भाषा-टीका, ६/१८, पृ० ८७ ६. देखिये वही, ६/१६, पृ०६८
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अरविन्द ने 'मन की एकाग्रता' में उस मन को लिया है जो निश्चय करने वाला और व्यवसायी है, उस मन को नहीं लिया, जो केवल बाध करने वाला है। निश्चय करने वाले मन की एकाग्रता ही एकनिष्ठ बुद्धि है, जिसका महत्व गीता में स्थान-स्थान पर उद्घोषित किया गया है।'
समाधि में ग्राह्य और स्याज्य तत्व ___ जैन शास्त्रों में ध्यान को चार प्रकार का कहा गया है-पात, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ।। यह जीव आर्त रौद्र ही के कारण इस संसार में घूमता रहा है, अतः वे त्याज्य हैं । भावलिङ्गी मुनि धर्म्य और शुक्ल ध्यान-रूपी कुठार से संसार रूपी वृक्ष को छेदने में समर्थ होता है, अतः वे उपादेय हैं । ३ आचार्य उमास्वाति ने भी 'परे मोक्षहेतु' कहकर उपर्युक्त कथन का समर्थन किया है। योगीन्द्रु ने 'ध्यानाग्निना कर्मकलङ्कानि दग्ध्वा में ध्यान का अर्थ शुक्ल ध्यान ही लिया है । 'एकाग्रता' ध्यान अवश्य है, किन्तु शुभ और शुद्ध में एकाग्र होने वाला ध्यान ही आगे चलकर समाधि का रूप धारण करता है। योगसूत्र में चित्त की पांच भूमिकाएँ स्वीकार की हैं-क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । इनमें से प्रथम तीन का समाधि के लिए अनुपादेय और अन्तिम दो को उपादेय माना है। योगसूत्र में ही स्वरूप-दृष्टि से चित्तवृत्तियों के दो भेद माने गये हैंक्लिष्ट और अक्लिष्ट । क्लिष्ट क्लेश की और अक्लिष्ट ज्ञान का कारण है।' बौद्धों ने इन्हीं को कुशल और अकुशल के नाम से पुकारा है। इनमें कुशल होने वाला ध्यान ही 'समाधि' हो सकेगा, अकुशल वाला नहीं ।
समाधि के मेद और उनका स्वरूप
जैन शास्त्रों में समाधि के दो भेद किये गये हैं-सविकल्पक मौर निर्विकल्पक । सविकल्पक समाधि सालम्ब होती है और निर्विकल्पक निरवलम्ब ।
१. अरविन्द, गीता-प्रबन्ध भाग, पृ० १७८; सातवीं पंक्ति से चौदहवीं पक्ति तक
का भाव । २. प्राचार्य उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, ६/२८ ३. प्राचार्य कुन्दकुन्द, भावप्राभृत, गाथा १२१-१२२ ४. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, पहला दोहा, सस्कृत-छाया ५. पातञ्जल योगसूत्र, १/१ का व्यास-भाष्य ६. देखिये वही, १५ का व्यास-भाष्य
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सालम्ब में मन को टिकने के लिए सहारा मिलता है, जबकि निरवलम्ब में उसे अनाधार में ही लटकना होता है । चंचल मन पहले तो किसी सहारे से ही टिकना सीखेगा, तब कहीं निराधार में भी ठहर सकने योग्य हो सकेगा । श्री योगीन्दु के मतानुसार चिन्ता का समूचा त्याग मोक्ष को देने वाला है, उसकी प्रथम अवस्था विकल्प सहित होती है । उसमें विषय- कषायादि अशुभ ध्यान के निवारण के लिए और मोक्ष मार्ग में परिणाम दृढ़ करने के लिए ज्ञानी जन जो भावना भाते हैं, वह इस प्रकार है - "चतुर्गति के दुःखों का क्षय हो, अष्टकर्मों का क्षय हो, ज्ञान का लाभ हो, पंचम गति में गमन हो, समाधि में मरण हो और जिनराज के गुणों की सम्पत्ति मुझको प्राप्त हो ।" यह भावना चौथे, पांचवें और छठें गुणस्थान में ही जाती है, आगे नहीं ।" सालम्ब समाधि में मन को टिकाने के लिए तीन रूपों की कल्पना की गई है - पिण्डस्थ, पदस्थ श्रौर रूपस्थ । शरीर युक्त श्रात्मा पिण्डस्थ, पंच परमेष्ठी और प्रोंकारादि मंत्र पदस्थ तथा अर्हन्त रूपस्थ कहे जाते हैं । २ प्राचार्य देवसेन ने स्पष्ट कहा है कि सर्वसाधारण के लिए निरवलम्ब ध्यान सम्भव नहीं, श्रतः उसे सालम्ब ध्यान करना चाहिए। उ
सालम्ब समाधि का प्रारम्भिक रूप सामायिक है । सामायिक का अर्थ रिहंतादि का नाम लेना और किसी मन्त्र का जाप जपना मात्र ही नहीं है, अपितु वह एक ध्यान है, जिसमें यह सोचना होता है कि यह संसार चतुर्गतियों में भ्रमण करने वाला है, प्रशरण, अशुभ, प्रनित्य और दुःख - रूप है । मुझे इससे मुक्त होना चाहिये । ४ सामायिक का लक्षण बताते हुए एक प्राचार्य ने कहा है :
समता सर्वभूतेषु सयम : शुभभावना प्रार्त्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ।।
१. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, प० जगदीशचन्द्र-कृत हिन्दी अनुवाद, पृ० ३२७-२८ । २. श्राचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा ४५६, ४६४, ४७२-४७५ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००६ ।
३. प्राचार्य देवसेन, भावसंग्रह, गाथा ३८२, ३८८ मरिणकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९२१ ई० ।
४. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र, ५।१४, पृ० १४० वीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली, १६५५ ई० ।
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अर्थात् जिस व्रत में सब प्राणियों में समता-भाव, इन्द्रिय-संयम, शुभभावना का विकास तथा प्रात्तं और रौद्र ध्यानों का त्याग किया जाता है, वह सामायिक व्रत कहलाता है । सामायिक के पांच प्रतिचार हैं-मन-वचन-काय का प्रसत्-प्रयोग, अनुत्साह और अनैकाग्रता।' इनसे सामायिक में दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इस भांति एकाग्रता सामायिक का गुण और अनैकाग्रता दोष है। इसी एकाग्रता का विकसित रूप समाधि का मूलाधार है । वास्तव में सामायिक गृहस्थ श्रावकों का एक व्रत है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इसे शिक्षा-व्रतों में गिना है।' स्वामी कीर्तिकेय ने अपने 'अनुप्रेक्षा' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में गृहस्थ के बारह धर्मों में सामायिक को चौथा स्थान दिया है । प्राचार्य उमास्वाति, समन्तभद्र, जिनसेन, सोमदेव, देवसेन, अमितगति, अमृतचन्द्र, प्राचार्य वसुनन्दि और पंडित प्रवर पाशाधर ने भी सामायिक के महत्व को स्वीकार किया है। उन्होंने यहां तक कहा है कि सामायिक में स्थित गृहस्थ सचेलक मुनि के समान होता है। सामायिक कम से कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट) तक करनी चाहिए।
निर्विकल्प समाधि में मन को टिकाने के लिए किसी पालम्बन की पावश्यकता नहीं होती। यहां तो 'रूपातीत' का ध्यान करना होता है । शरीर के जाल से पृथक् शुद्धात्मा अथवा भगवान सिद्ध ही 'रूपातीत' कहलाते है। उन पर जब मन ठहर उठता है, तभी निर्विकल्प समाधि का प्रारम्भ समझना चाहिए। प्राचार्य योगीन्दु ने निर्विकल्प समाधि की परिभाषा बतलाते हुए लिखा है- सयलवियप्पहं जो बिलउ परम समाहि मणंति । तेरण सुहासुह भावड़ा मुणि
१. देखिये वही, ५।१५, पृ० १४२ । २. प्राचार्य कुन्दकुन्द, चरित्रपाहुड, गाथा २६ । ३. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीनधर्मशास्त्र, ५॥१२, पृ० १३६, वीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली,
१९५५ ई०। ४. वसुनन्दिश्रावकाचार की प्रस्तावना, पं० हीरालाल-कृत, पृ० ५५, भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी। ५. वण्णरस-गंध-फासेहिं वज्जिनो णाण-दसण सरूवो।
जंझाइज्जद एवं तं झारण रूव रयिं ति ॥ ४७६ ।। -वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार, पं० हीरालाल सम्पादित, पृ० २८०, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी।
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सयलवि मेल्लंति ।' अर्थात् सकल विकल्पों का विलीन होना ही परम समाधि है, इसमें मुनिजन शुभ और अशुभ भावों का परित्याग कर देते हैं। अपने इसी मत की पुष्टि करते हुए प्राचार्य ने एक-दूसरे स्थान पर कहा है कि "जब तक समस्त शुभाशुभ परिणाम दूर न हों, मिटे नहीं, तब तक रागादि विकल्प-रहित शुद्ध चित्त में सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप शुद्धोपयोग जिसका लक्षण है, ऐसी परम समाधि इस जीव के नहीं हो सकती।"२ उन्होंने यहां तक कहा कि" केवल विषय कषायों को जीतने से क्या होता है, मन के विकल्प मिटाने ही चाहिए, तभी वह परमात्मा का सच्चा आराधक कहा जायेगा।"3 प्राचार्य कुन्दकुन्द ने 'षट्पाहड' में लिखा है कि "जो रागादिक अन्तरंग परिग्रह से सहित हैं और जिन भावना रहित द्रव्य-लिंग को धार कर निर्ग्रन्थ बनते हैं, वे इस निर्मल जिन-शासन में समाधि और बोधि को नहीं पाते।"४ इस भांति प्राचार्य कुन्दकुन्द ने रागादिक अन्तरंग परिग्रह के त्याग को समाधि के लिए आवश्यक बतलाया। बाह्य ज्ञान से शून्य निर्विकल्पक समाधि में विकल्पों का प्राधार भूत जो मन है वह अस्त हो जाता है, अर्थात् निज स्वभाव में मन की चंचलता नहीं रहती। जिन मुनीश्वरों का परम समाधि में निवास है, उनका मोह नाश को प्राप्त हो जाता है, मन भर जाता है, श्वासोच्छवास रुक जाता है और कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र ने यह स्वीकार किया है :
स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा, निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् । जगाद तत्वं जगतेऽथिनेऽञ्जसा, बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ।।'
अर्थात् समाधि-तेज से अपने आत्म-दोषों के मूल कारण को निर्दयतापूर्वक भस्म कर यह जीव ब्रह्म-पदरूपी अमृत का स्वामी हो सकता है।
१. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित, दोहा १६०, पृ. ___३२८, प्र० मंडल, बम्बई । २. देखिये वही, दोहा १६४, पृ० ३३२ । ३. देखिये वही, दोहा १६२, पृ० ३३१ । ४. प्राचार्य कुन्दकुन्द, पट्पाहुड, मावपाहुड, ७२ वीं गाथा पृ० ७८, प्रकाशक बाबू
सूरजमान वकील, देवबंद । ५. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित, दोहा १६२,
पृ० ३०६, बम्बई। ६. प्राचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू-स्तोत्र, ११३, वीर-सेवा मन्दिर, सरसावा ।
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योगसूत्र में समाधि की परिभाषा लिखते हुए कहा गया है
तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । श्रर्थात् ध्येयाकार निर्भास ध्यान ही जब ध्येय स्वाभावावेश से अपने ज्ञानात्मक स्वभाव शून्य के समान होता है, तब उसे समाधि कहते हैं । २ ध्यान करते-करते जब हम श्रात्मविस्मृत हो जायें, जब केवल ध्येय-विषयक सत्ता की ही उपलब्धि होती रहे तथा अपनी सत्ता विस्मृत हो जाये, श्रौर ध्येय से अपना पृथक्त्व ज्ञानगोचर न हो, तब ध्येय विषय पर उस प्रकार का चित्तस्थैर्य ही समाधि है । इसमें ध्येय की सत्ता प्रतिभासित होती है । अतः वह सालम्ब, सबीज और सविकल्पक समाधि कहलाती है । विषय-भेद से यह समाधि-रूपरसादिग्राह्य विषयक, ग्रहङ्कारादिग्रहरण विषयक, अहमत्वमात्रगृहीतृपदस्थविषयक तीन प्रकार की कही जाती है, जो जैनों के पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ से मिलती-जुलती है। सब वृत्तियों के निरूद्ध होने पर संस्कार- शेष रूप-समाधि प्रसंप्रज्ञात समाधि कही जाती है । ४ इसका साधन परवैराग्य है; क्योंकि सालम्ब अभ्यास इसका साधन नहीं हो सकता । विराम का कारण परवैराग्य, वस्तुहीन प्रालम्बन के सहारे प्रवृत्त होता है । उसमें कुछ भी चिन्त्य पदार्थ नहीं रहता । वह अर्थ शून्य है और उसका अभ्यासी चित्त निरालम्ब और अभावापन्न-सा होता है। इस प्रकार की निर्बीज समाधि ही प्रसंप्रज्ञात समाधि कही जाती है। इसे ही जैन लोग निर्विकल्पक समाधि कहते हैं । समाधि का यह द्विविध वर्गीकरण बौद्धो में 'उपचार' और 'अर्पणा' के नाम से स्वीकार किया गया है । 'विसुद्धिमग्ग' में उपचार- समाधि की परिभाषा लिखी है - कुसल चित्तेकग्गता समाधि: : - कुशलचित्त में, अर्थात् शुद्ध आत्मा में, मन के एकाग्र होने को समाधि कहते हैं । इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट है कि यह सालम्ब समाधि है । व्याख्या इस प्रकार है- एकारम्भणे चित्तचेतसिकान समं सम्मा च प्रधानं समाधानम् ; अर्थात् एक श्रालम्बन में
१. देखिये योगसूत्र, ३।३
२. योगसूत्र ३ । ३ का व्यास भाष्य ।
३. पातञ्चल योगदर्शन, भागीरथ मिश्र सम्पादित, श्री मद् हरिहरानन्द- कृत हिन्दी व्याख्या पृ० २१४, लखनऊ वि० वि० ।
४. देखिये योगसूत्र, १1१८ ।
५. देखिये, योगसूत्र, ११८ का व्यास भाष्य ।
६. आचार्य बुद्धघोष, विसुद्धिमग्ग, कोसाम्बीजी की दीपिका के साथ, तृतीया परिच्छेद,
पृ० ५७ ।
७. प्राचार्य बुद्धघोष, विसुद्धिमग्ग, तृतीय परिच्छेद, पृ० ५७ ।
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चित्त और चित्त की वृत्तियों का समान और सम्यक् स्थित होना समाधान है।
-समाधानटेन समाधिः; अर्थात् समाधानार्थ ही समाधि है । यहाँ 'एकारम्मणे के द्वारा पालम्बन की बात स्पष्ट ही झलकती है । अर्पणा-समाधि वह है, जिसमें पालम्बन के मान की आवश्यकता नहीं होती और मन निरवलम्ब में ही टिकता है।
जैन प्राचार्यों ने योगसूत्र की भांति, निर्विकल्पक समाधि में आत्मविस्मृत हो जाने की बात स्वीकार नहीं की। वहाँ तो योगी सोता नहीं, अपितु जागरूक होता है । वह मोक्ष तक की इच्छा-कामनाओं को छोड़कर अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। प्रात्म-विस्मृति गीता की 'समाधि' में भी नही होती। श्री अरविन्द ने लिखा है, समाधिस्थ मनुष्य का लक्षरण यह नही है कि उसको विषयों, परिस्थितियों, मनोमय और अन्नमय पुरुष का होश ही नही रहता और शरीर को जलाने तथा पीड़ित करने पर भी इस चेतना में लौटाया नहीं जा सकता, जैसा कि साधारणतया लोग समझते हैं; इस प्रकार की समाधि तो चेतना की एक विशिष्ट प्रकार की प्रगाढता है; यह समाधि का मूल लक्षण नहीं। समाधि की कसौटी है- सब कामनाओं का बहिष्कार, किसी भी कामना का मन पर चढ़ाई न कर सकना; और यह वह आन्तरिक अवस्था है जिससे स्वतन्त्रता उत्पन्न होती है । प्रात्मा का आनन्द अपने ही अन्दर जमा रहता है और मन सम, स्थिर तथा ऊपर की भूमिका में ही अवस्थित रहता हुआ आकर्षणों और विकर्षणों से तथा बाह्य जीवन के घड़ी-घड़ी बदलने वाले आलोक, अन्धकार, तूफानों तथा झंझटों से निर्लिप्त रहता है।' यौगिक समाधि से गीता की समाधि सर्वथा भिन्न है। गीता में कर्म सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचने का साधन है
और मोक्ष-लाभ कर चुकने के बाद भी वह बना रहता है; जब कि राजयोग में सिद्धि के प्राप्त होते ही कर्म की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
पातञ्जल समाधि में पवन को वाञ्छापूर्वक अवरूद्ध करना पड़ता है; किन्तु जैनों के ध्यानी मुनियों को पवन रोकने का यत्न नही करना पड़ता । बिना ही यत्न के पवन रुक जाता है और मन अचल हो जाता है-- ऐसा समाधि का प्रभाव है । 'पाञ्जल योग' में समाधि को शून्य-रूप कहा है, किन्तु जैन ऐसा नहीं मानते; क्योंकि जब विभावो की शून्यता हो जायेगी, तब वस्तु का ही प्रभाव हो
१ अरविन्द, गीता-प्रबन्ध, प्रथम भाग, पृ० १८७-१८८ । २. देखिये, वही, पृ० १३३ ।
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जायेगा | योगसूत्र में अम्बर का अर्थ प्रकाश लिया गया है, तब जनों ने भात्मस्वरूप को अम्बर, अर्थात् शून्य कहा है । " जैसे प्रकाश द्रव्य सब द्रव्यों से भरा हुआ है, परन्तु सबसे शून्य अपने स्वरूप में है, उसी प्रकार चिद्रूप श्रात्मा रागादि सब उपाधियों से रहित है, शून्य रूप है, इसलिए प्राकाश शब्द का अर्थ शुद्ध श्रात्म-स्वरूप लेना चाहिए ।"१
समाधि और भक्ति
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योगसूत्र में ईश्वरप्रणिधान को ही समाधि का कारण माना है ।" ईश्वर है 'पुरुष - विशेष', जो पूर्वजों का भी गुरु है और जिसमें निरतिशय सर्वज्ञ के बीज सदैव प्रस्तुत रहते हैं । प्रणिधान का अर्थ है - भक्ति । ईश्वर की भक्ति से समाधि के मार्ग में आने वाली सभी बाधाएँ शान्त हो जाती हैं । प्ररणव का जाप, मन्त्रोच्चारण और अर्थ भावन इसी ईश्वर भक्ति के द्योतक है । 3 गीता में भी भक्ति को योग की प्रेरणा शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। गीता की व्याख्या करते हुए श्री अरविन्द ने लिखा है, यह योग उस सत्य की साधना है, जिसका ज्ञान दर्शन कराता है और इस साधना की प्रेरक शक्ति है- एक प्रकाशमान शक्ति, एक शान्त या उग्र आत्मसमर्पण का भाव उस परमात्मा के प्रति, जिन्हें ज्ञान पुरुषोत्तम के रूप में देखता है ।" ४ जैन शास्त्रों में धर्म्य ध्यान के चार भेद किये गए हैं, जिनमें सबसे पहला है 'आज्ञा-विचय' ।' 'विवेक' श्रीर 'विचाररणा' विचय के पर्यायवाची नाम हैं । श्राज्ञा-विचय का अर्थ है- भगवान जिन की आज्ञा में अटूट श्रद्धा करना । श्राज्ञा सर्वज्ञ-प्रणीत श्रागम को कहते हैं । श्राचार्य पूज्यपाद ने कहा है, "तान्यथावादिनो जिना: इति गहनपदार्थश्रद्धानाद वधारणमाज्ञाविचयः” । श्रर्थात् भगवान् जिन अन्यथावादी नहीं होते; इस प्रकार गहन पदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना श्राज्ञा-विचय धर्म्य
१. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये - सम्पादित, १६४वें दोहे का हिन्दी - भावार्थ, पृ० ३०८, बम्बई
२. पातञ्जल गोगदर्शन, १।२३, पृ० ४६
३. पातञ्जल योगदर्शन, १।२४- २८, पृ० ५०-६०
४. अरविन्द, गीता-प्रबन्ध, भाग १, पृ० १३४
५. प्राज्ञापाय-विपाक संस्थानविचयाय धर्म्यम् । - तत्त्वार्थसूत्र 81३६
६. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, पं० फूलचन्द शास्त्रि सम्पादित, पृ० ४४६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
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ध्यान है । प्राज्ञा-विचय के दूसरे अर्थ का उद्भावन करते हुए आचार्य ने कहा है, "भगवान् जिन के तत्व का समर्थन करने के लिए जो तर्क, नय और प्रमाण की योजना-रूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वज्ञ की श्राज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञा-विचय कहलाता है ।"७ प्रत्येक दशा में भगवान् जिन श्रौर उनकी श्राज्ञा पर पूर्ण श्रद्धा की बात है । इस भाँति धर्म्य ध्यान, जिसे मोक्ष - मार्ग का साक्षात् हेतु कहा गया है, भगवान जिन में श्रद्धा करने की बात कहता है । यह बात गीता के आत्म समर्पण तथा पातञ्जल योग के किसी दशा में कम नहीं है । तीनों ही भक्ति और समाधि के घोषणा करते हैं ।
ईश्वर - प्रणिधान से स्थायी सम्बन्ध की
सालम्ब समाधि के प्रकरण में रूपस्थ ध्यान की बात कहीं जा चुकी है । समवशरण में विराजित भगवान अर्हन्त ही रूपस्थ हैं । रूपस्थ इसलिए हैं कि उनके रूप है और प्राकार है । रूपस्थ ध्यान में ऐसे 'रूपस्थ' पर मन को टिकाना होता है । किन्तु इसके पूर्व मन का उधर झुकना अनिवार्य है, और मन श्रद्धा के बिना नही झुक सकता, अतः मन की एकाग्रता के पूर्व श्रद्धा का होना अनिवार्य है । प्रत की पूजा, स्तुति और प्रार्थना आदि में लगी हुई एकाग्रता और इस ध्यान वाली एकाग्रता में बाह्य रूप से कुछ भी अन्तर हो; किन्तु दोनों ही के मूल
अगाध श्रद्धा की भूमिका है। श्रद्धा भक्ति रस का स्थायी भाव है । पदस्थ ध्यान में एक अक्षर को प्रादि लेकर अनेक मन्त्रों का उच्चारण करते हुए 'पंच परमेष्ठी' का ध्यान किया जाता है । मन्त्रों के उच्चारण की एकतानता में श्राराध्य के प्रति मन की जो एकाग्रता पुष्ट होती है, वह ध्यान वाली एकाग्रता से कम नही है | मन्त्रोच्चारण, स्तुति-स्तवन, पूजा-अर्चा और ध्यान आदि सभी भक्ति की विभिन्न शैलियों हैं, जो श्रद्धा के प्रेरणा-स्रोत से ही सदैव सञ्चालित होती हैं ।
सामायिक भी एक प्रकार का ध्यान है, जिसका निर्देशन उन गृहस्थ श्रावकों के लिए हुआ है, जो साधु नही हो सके हैं । श्रावक के शिक्षाव्रतों में इसका प्रथम स्थान है । मामायिक के स्वरूप से स्पष्ट है कि वह भक्ति का ही एक अंग मात्र है । सामायिक में भी, गृहस्थ श्रावक को अपना मन 'पंच परमेष्ठी
१. 'तत्त्वसमर्थनार्थ तर्कनयप्रमारणयोजनपर : स्मृतिसमन्वाहार : सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचयः इत्युच्यते ।'
- प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ९३६ का भाष्य, पृ० ४४६
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पर केन्द्रित करना पड़ता है। 'चरित्तपाहुड' की छब्बीसवीं गाथा का हिन्दी अनुवाद करते हुए पं० जयचन्द छाबड़ा ने लिखा है, "सामायिक अर्थात् राग-द्वेष को त्याग कर, गृहारम्भ-सम्बन्धी सर्व प्रकार की पाप-क्रिया से निवृत्त होकर, एकान्त स्थान में बैठकर अपने आत्मिक स्वरूप का चिन्तन करना व 'पंच परमेष्ठी' का भक्ति-पाठ पढना. उनकी वन्दना करना. यह प्रथम शिक्षा-व्रत है।"" इस प्रकार आचार्य वसुनन्दि ने जिन धर्म और जिन-वन्दना२ को सामायिक कहा है और प्राचार्य शृतसागर ने समता के चिन्तवन को सामायिक कहा है। प्राचार्य अमितगति सूरि के 'सामायिक-पाठ' में निबद्ध श्लोक भक्ति के ही निदर्शक हैं। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है, "जैसे अन्धकार-समूह सूर्य को छू भी नहीं पाते, वैसे ही कर्म कलंक जिसके पास फटक भी नहीं सकते, ऐसे नित्य और निरञ्जन भगवान् की शरण में मैं जाता हूँ।" एक दूसरे स्थान पर उन्होंने भगवान् को हृदय में स्थापित करने की भावना भाते हुए लिखा है, "बड़ेबड़े मुनियों के समूह जिसका स्मरण करते हैं, सब नर नारी और देवताओं के इन्द्र जिसकी स्तुति करते हैं, तथा वेद और पुराण शास्त्र जिसके गीतों को गाते हए नहीं रुकते, ऐसे देवों के देव भगवान् हमारे हृदय में विराजमान हों।'५
१. प्राचार्य कुन्दकुन्द, षट्पाहुड मे चरित्तपाहुड, २६वी गाथा का हिन्दी-अनुवाद, प्रकाशक
सूरजभान वकील, देववद । २. प्राचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा २७४-७५, पृ० १०७ भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी।
३ देववन्दनायां निःसंक्लेश सर्वप्राणिसमताचिन्तनं सामायिकमित्यर्थः ।
-~-प्राचार्य श्रुतसागर, तत्वार्थवृत्ति, ७।२१ का भाष्य, पृ० २४५, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी.
४. न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदापः, यो ध्वान्तसधैरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनम् नित्यमनेकमेकम्, त देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ।।
-अमितगतिरि, सामायिक पाठ, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जैन-सम्पादित, १८वां
श्लोक, पृ० १७ धर्मपुरा, देहली। ५. य. स्मर्यते सर्वमुनीन्द्र वृन्दै, यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्र । यो गोयते वेदपुराणशास्त्रैः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।।
–देखिये वही, १२वां श्लोक, पृ० १४.
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समाधिमरण और उसके भेद
समाधिमरण दो शब्दों - समाधि और मरण से मिलकर बना है । इसका अर्थ है - समाधिपूर्वक मरना । शुद्ध आत्मस्वरूप पर मन को केन्द्रित करते हुए प्रारणों का विसर्जन समाधिमरण कहलाता है । सभी धर्मों के प्राचार्यों ने जीव
अन्त काल को अत्यधिक महत्त्व दिया है । जैन आचार्यों ने तो यहाँ तक लिखा है कि जीवन भर की तपस्या व्यर्थ हो जाती है, यदि अन्त समय में राग-द्वेष को छोड़कर समाधि धारण न की । श्राचार्य समन्तभद्र का कथन है- अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतित व्यम् । अर्थात् तप का फल अन्तक्रिया के आधार पर अवलम्बित है, ऐसा सर्वदर्शी सर्वज्ञ देव ने कहा है । इसलिए यथासामर्थ्य समाधिमरण में प्रयत्नशील होना चाहिए । श्री शिवार्यकोटि ने 'भगवती - श्राराधना' में लिखा है- सुचिरा विरिणरदिवारं विहरित्ता गाग दंसण चरिते । मरणे विराधयित्ता अनंतसंसारिनो दिट्ठो । अर्थात् दर्शन, ज्ञान श्रौर चरित्र - रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य भी यदि मरण के समय उस धर्म की विराधना कर बैठता है, तो वह संसार में अनन्त काल तक घूम सकता है । समाधिमरण का विधान सभी के लिये है ।
समाधिमरण के पाँच भेद हैं- पण्डितपण्डित, पण्डित, बालपण्डित, बाल और बाल-बाल । इनमें से प्रथम तीन अच्छे और अवशिष्ट दो बुरे हैं । बाल-बाल मरण मिथ्यादृष्टि जीवों के, बाल-मरण अवरित सम्यग्दृष्टियों के, बाल-पण्डित मरण देशव्रतियों (श्रावकों) के, पण्डित-मरण सकल संयमी साधुनों के श्रौर पण्डित पण्डित - मरण क्षीरणकषाय केवलियों के होता है । पण्डितमरण के भी तीन भेद है - पहला 'भक्त- प्रत्याख्यान' कहलाता है । भक्त नाम भोजन का है, उसे शनैः-शनैः छोड़ कर जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसे भक्त - प्रत्याख्यानं मरण कहते है । भक्त-प्रत्याख्यान करने वाला साधु अपने शरीर की सेवा-टहल या वैयावृत्य स्वयं अपने हाथ से भी करता है, और यदि दूसरा करे, तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। दूसरा 'इंगिनी मरण' है; जिसमें और तो सब 'भक्तप्रत्याख्यान' के समान ही होता है, किन्तु दूसरे के द्वारा वैय्यावृत्य स्वीकार नहीं
६. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीनधर्मशास्त्र, ६।१२, पृ० १६३, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली शिवार्यकोटि, भगवती - श्राराधना, गाथा १५, मुनि अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई.
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की जाती। तीसरा 'पादोपगमन मरण' है । इसे धारण करने वाले के लिए किसी प्रकार की वैयावृत्य का प्रश्न ही नहीं उठता। इसमें तो मरण - पर्यन्त प्रतिमा के समान किसी शिला पर तदवस्थ रहना होता है ।"
सल्लेखना की व्याख्या
'समाधि - मरण' के अर्थ में ही 'सल्लेखना' का प्रयोग होता है । सल्लेखना पद 'सत्' और 'लेखना' दो शब्दों से मिलकर बना है। सत् का अर्थ है सम्यक् और लेखन का अर्थ है कृश करना; अर्थात् सम्यक् प्रकार से कृश करना | बुरे को ही क्षीण करने का प्रयास किया जाता है, अच्छे को नही । जैन सिद्धान्त में काय और कषाय को अत्यधिक बुरा कहा गया है, अतः उन्हें कृश करना ही सल्लेखना है । प्राचार्य पूज्यपाद ने 'सम्यक्कायकषायलेखना' को और श्राचार्य श्रुतसागर ने 'सत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायारणां च कृशीकरणं तनूकरणं' ३ को सल्लेखना कहा है ।
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मरण-काल के उपस्थित होने पर ही सल्लेखना धारण की जाती है । प्राचार्य उमास्वाति ने लिखा है- "मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता; ४ अर्थात् मरण-काल आने पर गृहस्थ को प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करनी चाहिए । श्री उमास्वाति के इस सूत्र पर आचार्य पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि', भट्टाकलंक की 'राजवातिक' और श्रुतसागर सूरि की 'तत्वार्थवृत्ति' भाष्य-रूप में देखी जा सकती है । वहाँ इस सूत्र के प्रत्येक पद की व्याख्या विस्तारपूर्वक की गई है । सभी ने 'जोषिता' का प्रतिपादन प्रीतिपूर्वक धारण करने के अर्थ में ही किया है । प्राचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में लिखा है- उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । अर्थात्, प्रतिकार - रहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा तथा रोग की
१. समाधिमरण के भेदों के लिए देखिये, वट्टकेरि-कृत मूलाचार और शिवार्यकोटि-कृत भगवती - श्राराधना |
२. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ७।२२ का माष्य, पृ० ३६३, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी । ३. प्राचार्य श्रुतसागर, तत्वार्थवृत्ति, ७।२२ का माध्य, पृ० २४६, भारतीय ज्ञानपाठी, काशी ।
४. आचार्य उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र, पं० कैलाशचन्द सम्पादित, ७।२२, पृ० १६८, चौरासी,
मथुरा।
५. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र, ६।१, पृ० १६० ।
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दशा में और ऐसे दूसरे किसी कारण के उपस्थित होने पर जो धर्मार्थ देह का संत्याग है, उसे सल्लेखना कहते हैं ।
काय और कषाय को क्षीण करने के कारण सल्लेखना दो प्रकार की होती है- काय-सल्लेखना, जिसे बाह्य सल्लेखना भी कहते हैं; और कषाय-सल्लेखना, जिसे प्राभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। श्री शिवार्यकोटि ने 'भगवती-आराधना' में लिखा है- एवं कदपरिकम्मो अभंतर बाहिरम्मि सल्लिहणे । संसार मोक्खबुद्वी, सब्बवरिल्लं तवं कुणदि । अर्थात् "ऐसे प्राभ्यन्तर सल्लेखना और बाह्य सल्लेखना ताके विषय बंध्या है परिकर जाकै, अर संसार तें छूटने की है बुद्धि जाकी, ऐसा साधु सो सर्वोत्कृष्ट तप करै है।" इन्हीं दो भेदों का निरूपण करते हुए प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है-कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायारणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना; अर्थात्, बाहरी शरीर और भीतरी कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को शनै:-शनैः घटाते हुए, उनको भले प्रकार कृश करना सल्लेखना है । प्राचार्य श्रुतसागर ने तो स्पष्ट ही कहा हैकायस्य लेखना बाह्यसल्लेखना। कषायारणा सल्लेखना अभ्यन्तरा सल्लेखना अर्थात् काय की सल्लेखना बाह्य सल्लेखना और कषायों की सल्लेखना प्राभ्यन्तर सल्लेखना कही जाती है । काय बाह्य है और कषाय अान्तरिक ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने शिक्षाव्रतों के चार भेद माने हैं, जिनमें चौथी सल्लेखना है। श्री शिवार्य कोटि, देवसेनाचार्य, जिनसेनाचार्य और वसुनन्दि सैद्धान्तिक ने भी सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में ही शामिल किया है । दूसरी ओर, प्राचार्य उमास्वाति ने सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में तो क्या, श्रावक के बारह व्रतों में भी नहीं गिना और एक पृथक् धर्म के रूप में ही उसका प्रतिपादन किया। प्राचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, विद्यानन्दी सोमदेवसूरि, अमितगति और स्वामी कार्तिकेय आदि ने आचार्य उमास्वाति के शासन को स्वीकार किया
१. शिवार्यकोटि, भगवती-आराधना, हिन्दी-अनुवाद सहित, गाथा ७५, पृ० ४०, अनन्त
कीर्ति ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई । २. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ७।२२, पृ० ३६३ ३. प्राचार्य श्रु तसागर, तत्वार्थवृत्ति, ७।२२ का भाष्य, पृ० २४४ ४. सामाइयं च पढयं विदियं च तहेव पोसहं भरिणयं । वइयं अतिहि पुज्ज चउत्थ सलेहरणा अन्ते ।।
-चरित्तपाहुड, गाथा २६, पृ० २८
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है । इन प्राचार्यों का कथन है कि 'शिक्षा' अभ्यास को कहते हैं और सल्लेखना मरण-समय उपस्थित होने पर धारण की जाती है, अतः उसमें अभ्यास का समय ही नहीं रहता; फिर शिक्षा-व्रतों में उसकी गणना क्यों कर सम्भव हो सकती है ? इसके अतिरिक्त, यदि सल्लेखना को श्रावक के बारह व्रतों में गिना जाय तो श्रावक को आगे की प्रतिमाएं धारण करने के लिए जीवनावकाश ही न मिल सकेगा । सम्भवतः इसी कारण श्री उमास्वाति प्रादि प्राचार्यों ने सल्लेखना को श्रावक-व्रतों से पृथक् धर्म के रूप में प्रतिपादित किया है।'
सल्लेखना और समाधिमरण
जैन शास्त्रों के अनुसार सल्लेखना और समाधिमरण पर्यायवाची शब्द है। दोनों की क्रिया-प्रक्रिया और नियम-उपनियम एक से हैं। प्राचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' के छठे अध्याय की पहली कारिका में सल्लेखना का लक्षण लिखा, और दूसरी कारिका में उसी के लिए समाधिमरण का प्रयोग किया। श्री शिवार्यकोटि की 'भगवती-अराधना' में, अनेकों स्थानों पर सल्लेखना और समाधिमरण का प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति ने श्रावक और मुनि, दोनों ही के लिए सल्लेखना का प्रतिपादन कर, मानों सल्लेखना और समाधिमरण का भेद ही मिटा दिया है। किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण साधु के लिए और सल्लेखना गृहस्थ के लिए मानते थे। यह सच है कि 'मृत्यु' समय एक साधु शुद्ध प्रात्मस्वरूप पर, अपने मन को जितना एकाग्र कर सकता है, उतना गृहस्थ नहीं । इस समय तक साधु अभ्यास
और वैराग्य के द्वारा समाधि धारण करने में निपुण हो चुकता है। समाधि में एकाग्रता अधिक है, सल्लेखना में नहीं ।
समाधिमरण और प्रात्म-वध
भारत के कुछ विद्वान, जैन मुनि के समाधिमरण को प्रात्म-घात मानते है । प्रात्म-घात का शाब्दिक अर्थ है आत्मा का घात, किन्तु जैन दर्शन ने प्रात्मा को शाश्वत सिद्ध किया है। "प्रात्मा एक रूप से त्रिकाल में रह सकने वाला नित्य पदार्थ है। जिस पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी संयोग से न हो सकती हो, वह पदार्थ नित्य होता है । आत्मा किसी भी संयोग से उत्पन्न हो सकती है, ऐसा मालूम नहीं होता; क्योंकि जड़ के चाहे कितने भी संयोग क्यो न करो, तो भी
१. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, जैनाचार्यों का शासन-भेद, पृ० ४३ से ५७ तक
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उसमें चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।"" भावलिङ्गी मुनि सदैव विचार करता है, "मेरी आत्मा एक है, शाश्वत है और ज्ञान दर्शन ही उसका लक्षण है । अन्य समस्त भाव बाह्य हैं ।" इस भांति नित्य श्रात्मा का घात किसी भी दशा में सम्भव नहीं है ।
श्रात्मघात का प्रचलित अर्थ है--राग, द्वेष या मोह के कारण, विष, शस्त्र या अन्य किसी उपाय से, अपने इस जीवन को समाप्त कर लेना । किन्तु जैन मुनि की समाधि न तो राग-द्वेष का परिणाम है, और न मोह का भावावेश । जैन श्राचार्यों ने समाधिमरण धारण करने वाले से स्पष्ट कहा है-यदि रोगादि कष्टों से घबड़ाकर शीघ्र ही समाप्त होने की इच्छा करोगे अथवा समाधि के द्वारा इन्द्रादि पदों की श्रभिवाञ्छा करोगे, तो तुम्हारी समाधि विकृत है । इससे लक्ष्य तक न पहुँच सकोगे । मृत्यु समय समाधि धारण करने वाले जीव का भाव अपने को समाप्त करना नहीं, अपितु शुद्ध आत्म- चैतन्य को उपलब्ध करना होता है । वह मृत्यु को बुलाने का प्रयास नहीं करता, अपितु वह स्वयं श्राती है । उसका 'समाधिमरण', श्राने वाले के स्वागत की तैयारी - मात्र है ।
समाधिमरण में चिदानन्द को प्राप्त करने के लिए शरीर के मोह को छोड़ना होता है । किन्तु शरीर का मोहत्याग और श्रात्मघात दोनों एक ही बात नही है । पहिले में संसार की वास्तविकता को समझ कर शरीर से ममत्व हटाने की बात है; और दूसरे में संसार से घबड़ाकर शरीर को समाप्त करने का प्रयास है । पहले में सात्विकता है, तो दूसरे में तामसिकता । एक में ज्ञान का प्रकाश है, तो दूसरे में अज्ञान का अन्धकार । मोह त्याग में सयम है, तो श्रात्मघात में असंयम । समाधिमरण का उद्देश्य मोह त्याग भी नहीं, श्रपितु आत्मानन्द प्राप्त करना है । आत्मस्वरूप पर मन को केन्द्रित करते ही मोह तो स्वयं ही दूर हो
१. श्रीमद् राजचन्द्र, डा० जगदीशचन्द्र जैन- सम्पादित, पृ० ३०७
२. एगो से सासदो अप्पा रगारण दंसरण लक्खणो ।
सेसा मे बाहिराभावा सव्वे संजोगलक्खा |
- आचार्य कुन्दकुन्द, भावप्राभृत, गाथा ५६ । ३. रागद्वेषमोहाविष्टस्यहि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं घ्नतः स्वघातो भवति । - प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३६३ ४. जीवितमरणाशसा - मित्रानुराग-सुखानुबन्ध निदानानि ।
--- तत्त्वार्थ सूत्र ७३७
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जाता है।' उसे नष्ट करने का प्रयास नहीं करना पड़ता। परम समाधि में तो सभी इच्छाएं विलीन हो जाती हैं, यहां तक कि आत्मा के साक्षात्कार की अभिलाषा भी नहीं रहती। इसके अतिरिक्त जैन आगमों में प्रायु-कर्म को बहुत प्रबल माना गया है। चार घातिया कर्मों को जीतने वाले महन्त को भी प्रायु-कर्म को बिल्कुल क्षीण होने तक इस संसार में रुकना पड़ता है। इस तथ्य को जानने वाला जैन मुनि आत्म-घात का प्रयत्न नहीं कर सकता। तीर्थकर का स्पष्ट निर्देश है कि आत्मघात करने वाला नरकगामी होता है। जैन शास्त्रों में समाधिमरण का उल्लेख
प्राकृत भाषा के 'दिगम्बर प्रतिक्रमरण-सूत्र' में 'पण्डितमरण' शब्द का प्रयोग हुआ है। वहां उसके तीन भेदों का भी विशद वर्णन है । यह 'प्रतिक्रमण सूत्र' गौतम गणधर द्वारा रचित माना जाता है।
प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी सभी प्राकृत भक्तियों के अन्त में भगवान् जिनेन्द्र से-“दुक्खक्खो कम्मक्खनो बोहिलाहो, सुगइगमरणं समाहिमरणं जिणगुण सम्पत्ति होउ मज्झ" के द्वारा समाधिमरण की याञ्चा की है। अनगारों की वन्दना करते हुए उन्होंने लिखा है, एवं मएऽमित्थुया प्रणयारा रागदोसपरिमुद्धा संघस्स वरसमाहिं मज्झवि-दुक्खक्खयं दितु ।२ वट्टकेरस्वामीकृत 'मूलाचार' में भी अनेकों स्थानों पर समाधिमरण का प्रयोग हुआ है।
श्री यतिवृषभाचार्य ने 'तिलोयपण्णति' के चउच्थमहाधिकार' में कत्तिय बहुल्लसंते सादीसुदिणयरम्मि उग्गमिए । कियसण्णा सा सव्वे पावंति समाहिमरणं हि गाथा की रचना की है, इससे समाधिमरण प्राप्त करने की अभिलाषा स्पष्ट है।
श्री शिवार्यकोटि की 'भगवती-पाराधना' समाधिमरण का ही ग्रन्थ है। इसमें समाधिमरण-सम्बन्धी नियम-उपनियमों और भेद-प्रभेदों का विस्तार के
१. परमात्मप्रकाश, दोहा, पृ० ३२८ २. देखिये प्राचार्य कुन्दकुन्द-कृत योगिभक्ति, गाथा २३, दश-भक्तिः, प्राचार्य प्रभाचन्द्र की
संस्कृत-टीका और पं० जिनदास पार्श्वनाथ के मराठी-अनुवाद सहित, पृ० १८६,
शोलापुर, १९२१ ई० ३. प्राचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित, चउत्य महा
धिकार, १५३१ वी गाथा, पृ० २४५, जन संस्कृति संरक्षक सघ, शोलापुर, १९४३ ई०
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साथ वर्णन हुआ है । इस विषय का ऐसा असाधारण ग्रन्थ दूसरा नहीं है । इसमें शौरसेनी प्राकृत की इक्कीस सो सत्तर गाथाएँ है । ग्रन्थ के अन्त में लिखा है - " भक्ति से वर्णन की गई यह भगवती श्राराधना संघ को तथा मुझको उत्तम समाधि का वर प्रदान करे । अर्थात् इसके प्रसाद से मेरा तथा संघ के सभी प्राणियों का समाधिपूर्वक मरण होवे । ""
'चेइयवंदरणमहाभासं' में 'दुक्खक्खनो की कई गाथाओं की व्याख्या की गई है । 'समाहिमरण' का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है- भन्नइ समाहिमरणं, रागोसेहि विप्पक्कारणं । देहस्सपरिच्चाम्रो भवंतकारी चरित्तीण -- श्रर्थात् राग-द्वेष से विनिर्मुक्त चरित्रधारियों का भवान्तकारी देह का परित्याग समाधिमरण कहा जाता है । 'चेइयवंदरणमहाभासं प्राचीन प्राकृत गाथाओं का एक संकलन-ग्रन्थ है |
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में
लिखा है- "स्वयप्रभा
प्राचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् के द्वारा समाधिमरण का प्रतिपादन किया है । प्राचार्य पूज्यपाद ने स्व-रचित संस्कृत - भक्तियों में समाधि - भक्ति पर भी लिखा है । प्राचार्य जिनसेन ने अपने प्रादि-पुराण नामक देवी सौमनस वन की पूर्व दिशा के जिन मन्दिर में चैत्य वृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठी का भले प्रकार स्मरण करते हुए, समाधिमरण पूर्वव क प्रारण त्याग कर स्वर्ग से च्युत हो गई । "४ उन्होंने ही एक दूसरे स्थान पर लिखा है, "जीवन के अन्त समय में परिग्रह- रहित दिगम्बर-दीक्षा को प्राप्त हुए सुविधि महाराज विधिपूर्वक उत्कृष्ट मोक्ष मार्ग की आराधना कर समाधिमररणपूर्वक शरीर छोड़ा, जिससे प्रच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए । "५
१. भाराहरणा भगवदी एवं मत्तीए बगिदा संती | संघस्स सिवज्जस्स च समाहिवरमुत्तम देउ |
- शिवार्यकोटि, भगवती आराधना, गाथा २१६८ ।
२. चेइयवदरणमहाभासं, श्री शातिसूरि सकलित, मुनि श्री चतुरविजय और प० बेचरदाससम्पादित, गाथा ८६३, पृ० १५३, श्री जैन श्रात्मानंद सभा, भावनगर, वि० सं० १९७७ ३. प्राचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ६२, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई ४. भगवज्जिन सेनाचार्य, महापुराण, प्रथम भाग पं० पन्नालाल साहित्याचार्य-सम्पादित और प्रनूदित, ६।५६-५७, पृ० १२४, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
५. देखिये वही, १०।१६-१७०, पृ० २२२
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श्री हरिषेणाचार्य बृहत्कथाकोश में 'जयसेन नृपति कथानकम्' के-"जिनेन्द्रदीक्षया शुद्धः सर्व त्यागं विधाय च । स्मरन् पञ्चनमस्कारं धर्मध्यानपरायणः ।। स्वीयमुदरं हत्वा करवाल्याऽतितीक्ष्णया । समाधिमरणं प्राप्य सूरिरेष दिव ययौ ॥"' द्वारा और 'शकटाल मुनिकथानकम्' के "तवृत्तान्तमिदं ज्ञात्वा कृत्वा स्वालोचनाविधिम् । शरीरादिकमुज्झित्वा जपन् पञ्चनमस्कृतिम् ।। आदाय क्षुरिकां शान्तां पाटयित्वा निजोदरं । समाधिमरणं प्राप्य शकटालो दिवं ययौ ।"२ द्वारा प्रमाणित है कि नृपति जयसेन और मुनि शकटाल दोनों ही ने अन्त समय में समाधिमरण धारण किया था।
श्री योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है कि मोक्ष-मार्ग में परिणाम दृढ़ करने के लिए ज्ञानी जन समाधिमरण की भावना भाते हैं। इस प्रकार महाकवि पुष्पदन्त के 'रणायकुमारचरिउ' में, इसी मोक्खगामी, तुम मज्झ सामी। फुडं देहि बोही विसुद्धा समाही । ४ तथा त्रिभुवनलिक' में, 'रणं समाहि रणं सरसइ रणं दय, रणं खम पुरिसवेस विहिणा कय' । ५ आदि उल्लेख मिलते हैं। जैन पुरातत्व में समाधिमरण के चिह्न ___श्रवणबेल्गोल के शिलालेख ऋ० १ से प्रमाणित हो गया है कि श्री भद्रबाहु स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर आप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य-सहित कटवप्र पर ठहर गए और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। ६ प्रभाचन्द्र चन्द्रगुप्त का ही नामान्तर या दीक्षा-नाम था। श्रवण वेल्गोल के ही शिलालेख क्र. १७-१८, ४०, ५४ तथा १०८ से भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दोनों का चन्द्रगिरि से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। राजगिरि पर सप्तपर्ण और सोनभद्र नाम की
१. हरिषेणाचार्य, बृहत्कथाकोश, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित १५६१३६-४०, पृ०
३४६, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभवन, बम्बई २. देखिये वही, १५७।१३६-४०, पृ० ३५४ ३. देखिये परमात्मप्रकाश, पृ० ३२८ । ४. प्राचार्य पुष्पदन्त, णायकुमारचरिउ, डॉ० हीरालाल जैन-सम्पादित, द्वितीय परिच्छेद,
३।२०, पृ० १६, जैन पब्लिशिंग सोसाइटी, कारंजा, १६३३ ई० ५. देखिये वही, ९ वां परिच्छेद, ४१५. पृ. ६५ ६. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, डॉ. हीरालाल जैन-सम्पादित, पृ० १-२, माणिक
चन्द दिगम्बर जैन प्रन्थमाला समिति, बम्बई। ७. देखिये वही, पृ० क्रमशः ६, २४, १०१, २१०
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दो गफाएँ हैं, जो वैभारगिरि के उत्तर में एक जैन मन्दिर के नीचे है। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने वैभारगिरि पर निर्ग्रन्थ साधुओं को देखा था। इनमें से एक गुफा पर अङ्कित शिलालेख से स्पष्ट है कि मुनि वरदेव के समय में वहाँ साधु समाधिमरणपूर्वक निर्वाण प्राप्त करते थे। ' सितनवासल्ल पडुक्कोटा से वायव्यकोण में नवें मील पर अवस्थित है। यहाँ पर पाषाण के टीलों की गहराई में जैन गुफाएं उत्कीरिणत हैं। प्रत्येक की लम्बाई ६-४ फुट है। गुफा का क्षेत्रफल १०० x ५० फुट है। २ समाधि-शिलाएँ वे स्थान हैं, जिन पर बैठ कर मुनियों ने समाधिमररण-पूर्वक मृत्यु को वरण किया था, महा नवमी-मण्डप के लेख ऋ० १२ (६६) में प्राचार्य नयकीर्ति के समाधि-मरण का सम्वाद है, जो सन् ११७६ में हुअा था। 3 ।
___ समाधिमरणपूर्वक मरने वाले साधु के अन्तिम संस्कार-स्थल को 'नसियाँजी' कहते हैं। यह जैन परम्परा का अपना शब्द है, जो अन्य किसी परम्परा में सुनने को नहीं मिलता । प्राकृत 'मिसीहिया' का अपभ्रंश 'निसीहिया हया, और वह कालान्तर में नसिया होकर आजकल नशियों के रूप में व्यवहृत' होने लगा है। सस्कृत मे उसके 'निषीधिका', 'निषिद्धिका' आदि अनेक रूप प्रचलित है । 'बृहत्कल्पसूत्रनियुक्ति' की गाथा ऋ० ५५११-४२ में 'निसीहिया' शब्द का प्रयोग हुअा है, तात्पर्य उस स्थान से है, जहाँ क्षपक साधु का समाधिमरण पूर्वक दाह संस्कार किया जाता है । 'भगवती-पाराधना' की टीका में बतलाया गया है, "जिस स्थान पर समाधिमरण करने वाले क्षपक के शरीर का विसर्जन या अन्तिम संस्कार किया जाता है, उसे निषीधिका कहते है।"
निसीदिया का सबसे पुराना उल्लेख सम्राट् खारवेल के हाथी-गुफा वाले शिलालेख में हुआ है। इस शिलालेख की १४ वी पक्ति में ....... कुमारी पवते अरहते परवीण-ससतेहिकाय-निसीदयाय.........' और १५ वीं पंक्ति में ...
१. प्राचीन जैन स्मारक, पृ० ११ २ मुनि कान्तिसागर खंडहरो का वैभव, पृ० ६५, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ३. डा० हीरालाल जैन, श्रवणवेल्गोलस्मारक, जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग में निबद्ध
पृ० १३ ।
४. यथा निषाधिका पाराघक शरीर-स्थापनास्थानम् ।
-मूलाराधना टीका, गाथा १९६७
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मरहत निसीदिया समीपे पाभारे..........' पाठ पाया है। इससे निषीधिका की प्राचीनता सिद्ध होती है। उससे समाधिमरण की प्राचीनता तो स्वमेव प्रमाणित है। वास्तव में ये निषोधिकाएँ जैन मुनियों और साधुओं की स्मारक हैं। वे स्तूप भी इसके पर्यायवाची हैं, जो समाधिमरण करने वाले किसी महापुरुष की स्मृति में निर्मित हुए थे। प्राचार्य स्थूलभद्र ने वी० नि० सं० २१९ और ईसा-पूर्व ३११ में शरीर-त्याग किया। माज भी उनका समाधि-स्थान एक स्तूप के रूप में पटना में गुलजार बाग स्टेशन के पिछले भाग में स्थित है। प्रसिद्ध यात्री श्युपानचुआंग ने इसे देखा था।२ श्रवण वेल्गोल के जो लेख प्रका. शित हुए हैं, उनसे सिद्ध होता है कि वहाँ समाधिमरण से सम्बन्ध रखने वाले मुनि, अजिकामों व श्रावक-श्राविकाओं के लेखयुक्त कई स्मारक हैं, जिनमें सर्वप्राचीन समाधिमरण का लेख शक० सं० ५७२ का है ।
समाधिमरण की भावना
जैन परम्परा में आज भी 'दुक्खक्खनो कम्मक्खो समाधिमरण च बोहिलाहो वि । मम होउ तिजगबन्धव तव जिरणवर चरण सरणेण' की भावना पाई जाती है । समाधिमरण धारण करने वाले का यह प्राकुल भाव भिन्न-भिन्न युगों, स्थानों और भाषा-उपभाषाओं में व्यक्त होता रहा है। यहाँ प्राचार्य पूज्यपाद की समाधि-भक्ति के कतिपय श्लोकों को उद्ध त किया जा रहा है। संस्कृतसाहित्य के सभी भक्त-कवियो ने कुछ कम-बढ़ रूप में इसी भाव को स्पष्ट किया है :
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायें: सद्वत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रिय-हितवचो भावना चात्मतत्वे सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्ग: ।।२।।
हे भगवन् ! मैं भव-भव में शास्त्राभ्यास, भगवान् जिनेन्द्र की विनती, सदा प्रार्यों के साथ संगति, अच्छे चरित्र वालों के गुणों का कथन, दूसरों के दोषों के
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १६, किरण २, पृ० १३५-३६ २. मुनि कान्तिसागर, खोज की पगडण्डियाँ, पृ० २४४, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। ३. प्राचार्य पूज्यपाद, समाधि-भक्ति, संस्कृत भाषा में है, यह शोलापुर से मुद्रित
समाधि भक्ति में प्रकाशित हो चुकी है।
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विषय में मौन, सबके लिए प्रिय और हितकारी वचन और शुद्धात्मतत्व में मन लगाता रहूँ, ऐसी प्रार्थना है ।
पाबाल्याज्जिनदेवदेव भवतः श्रीपादयोः सेवया, सेवासक्त विनेय-कल्पलतया कालोऽद्य यावद्गतः । त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्राणप्रयागक्षणे,
त्वन्नाम प्रतिबद्धवर्णपठने कण्टोऽस्त्वकुण्ठो मम ॥६॥ हे भगवन् जिनदेव ! मेरा बचपन से लेकर आज तक का समय आपके चरणों की सेवा और विनय करते-करते ही व्यतीत हुआ है। इसके उपलक्ष में आपसे मैं वही वर चाहता हूँ कि आज इस समय, जबकि हमारे प्राणों के प्रयाण की बेला मा उपस्थित हुई है, आपके नाम से जटित स्तुति के उच्चारण में मेरा कण्ठ अकुण्ठित न हो।
तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वय लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावन्निर्वाण सम्प्राप्तिः ।।७।।
हे जिनेन्द्र ! जब तक मैं निर्वाण प्राप्त करू, तब तक आपके चरण-युगल मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके दोनों चरणों में लीन बना रहे ।
अनन्तानन्त-संसार-संततिच्छेदकारणम् । जिनराज-पदाम्भोज-स्मरणं शरणं मम ॥१४॥ अन्यथाशरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥१५।।
भगवान् जिनेन्द्र के चरणकमलों का वह स्मरण, जो अनन्तानन्त संसारपरम्पराओं को काटने में समर्थ है, मुझ दुःखी को शरण देने वाला है। मुझे आपके सिवा और कोई शरण देने वाला नही है, इसलिए हे भगवान् ! कारुण्य भाव से मेरी रक्षा करो।
नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ।।१६।। जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिदिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ।।१७।।
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याचेऽहं याचेऽहं जिन तव चरणारविन्दयोर्भक्तिम् ।
याचेऽहं याचेऽहं पुनरपि तामेव तामेव ॥१८॥ तीनों लोकों में भगवान् वीतराग के अतिरिक्त कोई रक्षा करने वाला नहीं है । ऐसा देव न कभी भूत में हुमा और न भविष्यत् में होगा। भक्त का भगवान् से निवेदन है कि, प्रतिदिन भव-भव में मुझे भगवान् जिनेन्द्र की भक्ति उपलब्ध हो । हे जिनेन्द्र ! मैं बारम्बार यही प्रार्थना करता हूँ कि आपके चरणारविन्द की भक्ति सदैव प्राप्त होती रहे । मैं पुनः पुनः उसी की याचना करता हूँ।
विघ्नौधाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः । विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥१६॥
भगवान् जिनेन्द्र की स्तुति करने से विघ्नों के समूह-रूप शाकिनी, भूत और पन्नग सभी विलीन हो जाते हैं और विष निर्विषता को प्राप्त हो जाता है ।
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जैन भक्ति-काव्य
यद्यपि हरिभक्तिरसामृतसिन्धु, भक्तिरसायन, नारद भक्तिसूत्र और शाण्डिल्य सूत्रों की भांति जैन परम्परा में किसी भक्तिसूत्र का निर्माण नहीं हुआ, किन्तु अनेक जैन सैद्धान्तिक ग्रन्थों में भक्ति संबधी विवेचन उपलब्ध होता है। प्राचार्य कुन्द-कुन्द (ईसा की प्रारंभिक शताब्दियां) ने सिद्ध-भक्ति, श्र त-भक्ति, चरित्र-भक्ति, योग-भक्ति, प्राचार्य-भक्ति और निर्वाण-भक्ति पर प्राकृत भाषा में लिखा था । ये भक्तियां प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका और पं० जिनदास पार्श्वनाथ के मराठी अनुवाद सहित 'दशभक्ति' नाम की पुस्तक में, शोलापुर से सन् १६२१ में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अतिरिक्त आचार्य कुन्द-कुन्द के बोध पाहुड और मोक्षपाहुड में भी भक्तिपरक तत्वों की व्याख्या की गयी है।
प्राचार्य उमास्वाति (वि० सं० दूसरी शताब्दी) के तत्वार्थसूत्र में श्रद्धा, विनय और वैयावृत्य के सम्बन्ध में अनेक सूत्रों का निर्माण हुआ है । उन्होंने एक सूत्र के द्वारा तीर्थङ्करत्व नाम कर्म के उदय में भक्ति को कारण कहा है । आचार्य उमास्वाति के इस सूत्र पर आगे के काल में अनेकानेक भाष्य और वृत्तियों की रचना हुई। इनमें प्राचार्य पूज्यपाद (वि० सं० पांचवीं शताब्दी) के 'सर्वार्थसिद्धि', प्राचार्य अकलंक (वि०सं० सातवीं शताब्दी) के 'तत्वार्थराजवार्तिक'
और प्राचार्य श्र तसागर (वि० सं० १६वीं शताब्दी) के तत्वार्थवृत्ति' नाम के ग्रन्थ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें उपर्युक्त भक्ति संबंधी सूत्रों की विशद व्याख्या
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की गयी है । इन भाष्यकारों ने यथास्थान मौलिक तथा नवीन बातों का भी समावेश किया है ।
उमास्वाति के पश्चात् प्राचार्य समंतभद्र के 'समीचीन धर्म शास्त्र' में श्रद्धा, विनय वैयावृत्य, जिनेन्द्र और गुरु भक्ति पर तात्विक रूप से विचार किया गया है । वे अपनी परीक्षा की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही जिनेन्द्र के परमभक्त बने थे । उन्होंने अपनी श्रद्धा को सुश्रद्धा कहा है । उस समय का भारतीय वातावरण उनके तर्क और पांडित्य का लोहा मानता था ।
प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के अतिरिक्त दश-भक्तियाँ भी संस्कृत में लिखी हैं । ये सब 'दशभक्ति:' नाम की पुस्तक में प्रकाशित हो चुकी हैं । इन्हीं प्राचार्य के 'समाधितंत्र और इष्टोपदेश' में भी समाधि और गुरुभक्ति से सम्बन्धित अनेक प्रकररण बिखरे पड़े हैं । विक्रम की पांचवीं शताब्दी के ही प्राचार्य सिद्धसेन के 'द्वात्रिंशिका स्तोत्र' में भी भक्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा हुआ। मिलता है ।
श्राचार्य योगीन्दु (छठी शताब्दी ईसवी) ने 'परमात्मप्रकाश - योगसार ' की रचना की थी । यह अपभ्रंश भाषा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसका प्रकाशन परम तप्रभावकमण्डल, बम्बई, हो चुका है। इसमें भगवान सिद्ध और श्रात्मा की एकरूपता दिखाते हुए उनकी भक्ति का निरूपण किया गया है । डा० ए० एन० उपाध्याय ने इस ग्रंथ को रहस्यवादी कहा है ।
आचार्य यतिवृषभ (वि० सं० छठी शताब्दी) की तिलोयपण्णत्ति ( प्राकृत ) में जिनेन्द्र के पचकल्याणक और तत्सम्बन्धी भक्ति का विस्तृत वर्णन किया गया है । उन्होंने प्रकृत्रिम मन्दिरों, देवमूर्तियों, देवियों और देवों की भक्ति के विषय में पर्याप्त लिखा है । भक्ति के प्रमुख प्ररंग वंदना का विचार, उत्तराध्यनसूत्र, श्रावश्यक नियुक्ति और वृहत्कल्पभाष्य में सभी दृष्टियों से किया गया है ।
आचार्य शिवाकोटि (वि० सं० सातवीं शताब्दी) के 'भगवती श्राराधना' ग्रन्थ में जैन भक्ति पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है । उन्होने जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों के श्राधार से भक्ति का विवेचन किया है । इस विशालकाय ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर पंच परमेष्ठी की श्रद्धा, सेवा, नियम वैयावृत्य और अनुराग परक भक्ति की सार्थकता सिद्ध की गयी है। श्री जिनदास गणी ( वि० सं० सातवी-आठवीं शताब्दी ] की निशीथचूरिंग में "सेवा जा सा भत्ति," कहकर जिनेन्द्र सेवा पर बहुत कुछ लिखा हुआ मिलता है। श्री देवसेन [११वीं शती
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ईसवी ] ने अपने 'भाव संग्रह' में पंच परमेष्ठी के ध्यान का वर्णन अनेक दोहों में किया है। आचार्य सोमदेव के 'यशस्तिलक' (वि० सं० १०१६) और प्राचार्य वसुनन्दि के 'वसुनन्दि श्रावकाचार ( वि० सं० १२वीं शताब्दी) में भक्ति के अनेक
- उपांगो की व्याख्या प्राप्त होती है ।
जैन मंत्र ग्रन्थ देव देवियों की भक्ति से सम्बन्धित हैं । इनमें श्राचार्य मल्लिका 'भैरव पद्मावतीकल्प' अत्यधिक प्रसिद्ध है । इसमें देवी पद्मावती की साधना के लिए विविध मंत्रों का निर्माण किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र की 'अभिधान चिन्तामरिण' में भी देवियों की साधना से सम्बन्धित सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है ।
जैन भक्ति का स्वरूप
प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' में लिखा है 'अर्हदाचार्येषु बहुश्रतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:' । इसका तात्पर्य है कि प्रर्हन्त, प्राचार्य, और प्रवचन में भाव विशुद्धि-युक्त होकर अनुराग करना भक्ति है । श्राचार्य सोमदेव ने भी 'यशस्तिलक' में, "जिने जिनागमे सूरौ तपःश्रुतपरायणे । सद्भावविशुद्धिसम्पन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥ " लिखा है । किन्तु प्रश्न तो यह है कि उस वीतराग भगवान् में जो स्वयं राग रहित है और जो राग त्यागने का उपदेश देता है, अनुराग कैसे सम्भव है ? राग कैसा ही हो कर्मों के बन्ध का कारण है ।
आचार्य कुन्दकुन्द के कथनानुसार वीतराग भगवान में किया गया अनुराग पाप के बन्ध का यत्किचित् भी कारण नही है । उनकी दृष्टि से पंचपरमेष्ठी में राग करने वाला सम्यग्दृष्टि हो जाता है । श्राचार्य योगीन्दु का कथन है कि 'पर' में होने वाला राग ही बन्ध का हेतु है, 'स्व' में होनेवाला नहीं । वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं, अपितु 'स्व' आत्मा हो है । अतः जिनेन्द्र में राग करना अपनी आत्मा में ही प्रेम करना है । 'स्व' में राग करने वाला मोक्षगामी होता है ।
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इसके अतिरिक्त वह ही राग बन्ध का कारण है, जो सांसारिक स्वार्थ से प्रेरित होकर किया गया हो । निष्काम अनुराग में कर्मो को बांधने की शक्ति नही होती । वीतराग में किया गया अनुराग निष्काम ही है । वीतराग पर रीझकर ही भक्त ने वीतराग में अनुराग किया है। इसके उपलक्ष्य में यदि वीतराग भगवान अपने भक्त में अनुराग करने लगे, तो भक्त का रोझना ही समाप्त हो जायगा । वह भगवान से अपने ऊपर न दया चाहता है, न अनुग्रह और न प्रेम ।
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प्राचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में श्रद्धा को ही भक्ति कहा गया है। 'पाइप-सह-महाण्णवो' में भी भक्ति के पर्यायवाचियों में सेवा के साथ श्रद्धा की भी गणना है । प्राचार्य समन्तभद्र ने समीचीन धर्मशात्र में श्रद्धान और भक्ति का एक ही अभिप्राय माना है। वे प्राप्तादि के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। माचार्य उमास्वाति ने 'सम्यग्दर्शन' के 'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धान ही लिया है। उन्होंने तत्वज्ञान के पहले तत्वश्रद्धान को इष्ट माना है। उनकी दृष्टि से तत्वज्ञान तत्वश्रद्धान के बिना नहीं हो सकता। प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने लिखा है कि प्रात्मदर्शन ही सम्यग्दर्शन है, किन्तु अकलंकदेव का मत है कि प्रात्मा का दर्शन तब तक नहीं हो सकता, जब तक वैसा करने की श्रद्धा जन्म न ले।
श्रावक शब्द के 'श्रा' का अर्थ भी श्रद्धा ही लिया गया है। अभिधान राजेन्द्रकोश में लिखा है, "श्रन्ति पचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं निष्ठा नयन्तीति श्राः ।" श्रावक श्रद्धा के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार का फल पा जाता है । वह अपनी
आत्मा को देखने का प्रयास नहीं करता, किन्तु जिनेन्द्र में श्रद्धा करता है । जिनेन्द्र और आत्मा का स्वभाव एक ही है। अत: वह जिनेन्द्र की श्रद्धा से अपनी शुद्ध प्रात्मा को जान जाता है किन्तु यह श्रद्धा सम्यक् श्रद्धा होनी चाहिए, अन्ध श्रद्धा का यत्किचित् मूल्य भी जैन शास्त्रों में नहीं मांका गया। अपनी सुश्रद्धा के कारण ही प्राचार्य समन्तभद्र जिनेन्द्र के दृढ़ भक्त बन सके थे। इसका अर्थ है कि जैन आचार्यों ने सुश्रद्धा के प्रगाढ़ रूप को ही भक्ति कहा है ।
निशीथचूरिण में, "अब्भुट्ठाणदंडग्गहण-पाय-पुच्छरणासरणप्पदाणगहरणादीहि सेवा ना सा भत्ति" लिखा है। इसका अर्थ है-प्राचार्य के सम्मान में खड़े हो जाना, दण्ड ग्रहण करना, पांव पोछना, आसन देना आदि जो सेवा है, वह ही भक्ति है। राजेन्द्रकोश में, “सेवायां भक्तिविनयः", कह कर भक्ति का अर्थ सेवा तो लिया ही है, सेवा का अर्थ भी विनय किया है। प्राचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र में विनय के 'ज्ञान-दर्शन चरित्रोपचारः" रूप में चार भेद माने हैं। इनमें उपचार विनय का सेवा से सीधा संबंध है। प्राचार्य पूज्यपाद ने उपचार विनय प्राचार्यों के पीछे-पीछे चलने, सामने आने पर खड़े हो जाने, अंजलिबद्ध होकर नमस्कार करने को कहा है ।
इस भांति यह सिद्ध हुआ कि जिनेन्द्र के अनुराग, श्रद्धा और सेवा करने को भक्ति कहते हैं। किन्तु प्रश्न तो यह है कि जैन सिद्धान्त के अनुसार जिनेन्द्र न कर्ता है और न भोक्ता, फिर भक्त अपनी स्तुतियों में उसको कर्त्ता क्यों कहता है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है-वीतराग भगवान
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को पूजा वन्दना से कोई तात्पर्य नहीं है, क्योंकि वे सभी रागों से रहित हैं । निन्दा से भी उनका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि उनमें से वैरभाव निकल चुका है । फिर भी उनके पुण्य गुरणों का स्मरण भक्त के चित्त को पाप मलों से पवित्र करता है । भगवान् को भक्त के इस स्मरण का भान भी नहीं होता, किन्तु उन्हीं के गुणों के स्मरण से भक्त का चित्त पवित्र बना और पाप-मल घुले । अतः वह तो उन्हें कर्त्ता कहता ही है । इसी दृष्टि को लेकर जैन भक्त अपनी रचनात्रों में जिनेन्द्र से कभी याचना करता है, कभी प्रार्थना और कभी विनती ।
प्राचीन भक्ति-परक काव्य
स्तुति स्तोत्र, स्तव - स्तवन, वंदना, पूजा और मंगलाचरण के रूप में जैनों का प्राचीन भक्ति-काव्य बहुत अधिक है । यह साहित्य प्राकृत, संस्कृत और अपतीनों ही भाषाओं में लिखा गया था । प्राकृत का 'जयतिहुअरण स्तोत्त' सबसे अधिक प्राचीन माना जाता है । बृहद्रव्यसंग्रह' की ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीका के आधार पर सिद्ध हैं कि इसके रचियता भगवान् महावीर के प्रमुख गरणधर गौतम थे । भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट होते ही गौतम ने इसी स्तोत्र से उनको नमस्कार किया था । भद्रबाहु स्वामी का 'उवसग्गहर स्तोत्र' भी बहुत प्राचीन है । उसमें भगवान् पार्श्वनाथ की भक्ति से सम्बन्धित पाँच पद्यों की रचना हुई है । भद्रबाहु भगवान महावीर के निर्वाण के १७० वें वर्ष मोक्ष गये थे । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भक्ति परक अनेक स्तुतियों का निर्माण प्राकृत भाषा में ही किया था । उनका उल्लेख ऊपर हो चुका है। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'तित्थ - परशुति' की भी रचना की थी। इसमें आठ गाथाएं हैं, जिनमें चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की गयी है । इसे 'लोगस्ससूत्त' भी कहते हैं । मानतुगंसूरि (तीसरी सदी ई०) का २९ पद्यात्मक 'भयहर स्तोत्त' भी प्राकृत भाषा का मनोहारी काव्य है ।
संस्कृत भाषा में तो उत्तमोत्तम जैन स्तुति स्तोत्रों की रचना हुई। प्राचार्य समन्तभद्र के स्वयम्भू-स्तोत्र तथा स्तुति-विद्या समूचे भारतीय भक्ति साहित्य के जगमगाते रत्न है । हृदय की भक्ति परक ऐसी कोई धड़कन नहीं जो इनमें सफलता के साथ अभिव्यक्त न हुई हो । भाव और कला का ऐसा अनूठा समन्वय भारत के किसी अन्य स्तोत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता । शंकराचार्य के 'भज गोविन्द' और जयदेव के 'गीत गोविन्द' में स्वरलहरी भले ही मनमोहक हो, किन्तु उनकी भावधारा में 'स्वयम्भू स्तोत्र' जैसा अजस्र प्रवाह नहीं है । आचार्य सिद्धसेन (वि० सं० पांचवी शताब्दी) के 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र', विद्यानन्दि
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पात्रकेशरी ( ईसा की पांचवीं छठी शताब्दी) के 'बृहत्पंचनमस्कार स्तोत्र' मानतु' - गाचार्य (वि०सं० सातवीं शताब्दी मुनि चतुर विजय ) के 'भक्तामर स्तोत्र', मट्टाकलंक ( वि० सं० सातवीं शताब्दी) के कलंक स्तोत्र, बप्पमट्टि ( ई० ७४३-८३८ ) के 'चतुर्विंशति जिन स्तोत्र', धनंजय ( वि० सं० प्राठवीं नवीं शताब्दी ) के 'विषापहार स्तोत्र' और प्राचार्य हेमचन्द्र ( जन्म स० ११४५, मृत्यु सं० १२२९ ) के 'वीतराग स्तोत्र' में भक्ति रस चरम आनन्द की सीमा तक पहुँच गया है। इनमें भी 'भक्तामर स्तोत्र' की ख्याति सबसे अधिक है । इसमें ४८ पद्य है । सादृश्य विधायक उपमा, उत्प्रेक्षा प्रौर रूपकों के प्रयोग से बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव की ऐसी सफल अभिव्यक्ति कम स्तोत्रों में देखी जाती है। भक्त मर स्तोत्र का पढ़ने वाला श्राज भी भाव विभोर और तन्मय हुए बिना नहीं रहता ।
कुछ विद्वानों का कथन है कि अपभ्रंश में स्तुति स्तोत्रों का निर्माण नहीं हुआ । इसी आधार पर वे हिन्दी के भक्ति-काव्य को अपभ्रंश से प्रभावित नहीं मानते । किन्तु जैन भण्डारों की खोज के अधार पर सिद्ध हो चुका है कि संस्कृत और प्राकृत की भांति ही प्रपभ्रंश में भी स्तोत्र और स्तवनों की रचना हुई थी । कवि धनपाल (वि० सं० ११ वीं शताब्दी) ने 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह,' जिनदत्त सूरि (जन्म ११३२, मृत्यु १२११ वि० सं०) ने 'चर्चरी' और 'नवकारफलकुलक' तथा देवसूरि (जन्म ११५३, मृत्यु १२११ वि० सं०) ने 'मुनिचंद्रसूरि स्तुति' का निर्माण अपभ्रंश में ही किया था। एक श्री जिनप्रभसूरि हुए हैं, जिनको डा० विण्टरनित्स ने सुलतान फीरोज (वि० सं० १२२० - १२६६ ) का समकालीन बतलाया है। ये जिनप्रभसूरि, विविध तीर्थकल्प के रचियता जिनप्रभसूरि से भिन्न थे । उन्होंने जिनजन्माभिषेक:, जिनमहिमा और मुनिसुव्रत स्तोत्रम् की रचना की थी । श्री धर्मघोषसूरि ( वि० सं० १३०२ - १३५७ ) ने भी महावीरकलश का निर्मारण अपभ्रंश में ही किया था। पाटण के जैन भण्डार में अपभ्रंश का भक्ति - साहित्य इतना अधिक है कि उस पर पृथक खोज की श्रावश्यकता है । जैनों में अनेक कवि ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने एक स्तोत्र में छः भाषात्रों का प्रयोग किया है । उनमें सोमसुन्दर सूरि ( वि० सं० १४३० - १४६६) का 'षडभाषामय स्त्रोत्राणि' प्रसिद्ध है । यह जैन- स्तोत्र समुच्चय में प्रकाशित हो चुका है ।
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जैन देवियों की भक्ति में अनेक स्तुति स्तोत्रों की रचना हुई थी। मैने पी० एच० डी० के लिये प्रस्तुत किये गये अपने शोध निबन्ध में देवी पद्मावती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, सरस्वती, सच्चिया और कुरुकुल्ला के
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पुरातात्विक, ऐतिहासिक और सैद्धांतिक विवेचन के साथ-साथ भक्ति परक स्तुति स्तोत्रों का भी निरूपण किया है । मल्लिषेणसूरि ( वि० सं० ११वीं१२ वीं शाताब्दी) ने 'भैरव पद्मावतीकल्प' की रचना की जो देवी पद्मावती से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके १० अध्यायों में ४०० श्लोक निबद्ध हुए हैं। इसका तीसरा अध्याय 'भगवती अराधना' के नाम से गूंथा गया है । यह ग्रंथ अहमदाबाद और सूरत से प्रकाशित हो चुका हैं। अहमदाबाद वाले प्रकाशन में जिनप्रभसूरि ( १३ वीं शताब्दी ईसवी) की 'पद्मावति चतुष्पदिका' भी छप चुकी है । इसमें ३७ पद्य हैं। इन्हीं सूरिजी ने प्राकृत भाषा में भी 'पद्मावती चतुष्पदी' की रचना की थी, जिसमें ४६ गाथाएं हैं। जैन स्तोत्र संदोह के "घ" परिशिष्ट में एक 'पद्मावत्यष्टक' दिया है, जिसकी वृत्ति के रचियता श्री पार्श्वदेवगणी ( वि० सं० १९७१) ये । सूरत वाले भैरव पद्मावतीकल्प में 'पद्मावती सहस्रनाम, ' 'पद्मावती कवचं' और 'पद्मावती-स्तोत्र' दिये गये है । इनके अतिरिक्त श्री
भट्टसूरि (ठवीं सदी ईसवी) ने 'सरस्वती स्तोत्र' श्री देवसूरि ने 'कुरुकुला देवी स्तवनम्', जिनेश्वरसूरि ( १२ वीं शताब्दी वि० सं०) ने 'अम्बिका स्तुति' और जिनदत्तसूरि ने ' चक्रेश्वरी स्तोत्र' का निर्माण किया था। इनसे स्पष्ट है कि जैन देवियों की भक्ति जिनेन्द्र के भक्तों की भक्ति है। जैन देवियाँ, हिन्दू देवियों की भांति स्वतंत्र नहीं थीं । उनको जिनेन्द्र की शासनदेवी कहा जाता है । उन पर तांत्रिक युग का प्रभाव है, किन्तु उनमें मांस भक्षण, जन- रुधिर का पान और व्यभिचारादि जैसी प्रवृत्तियों का कभी जन्म नहीं हुआ ।
उपर्युक्त स्तुति-स्तोत्रों की भाँति ही पूजा, वन्दना और मंगलाचरणों के रूप में जैन भक्ति की विविध प्रवृत्तियों का प्रस्फुटन हुआ है । इन सब में मंगलाचरण का महत्वपूर्ण स्थान है । प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति और श्राचार्य विद्यानन्द की प्राप्तपरीक्षा में मंगल का तात्विक विवेचन किया गया है। जैनों का सबसे प्राचीन मंगलाचरण "रणमो अरहंताणं" वाला मंत्र है । वैसे तो इस मंत्र को अनादि निधन कहा जाता है, किन्तु उपलब्ध साहित्य में, भगवत् पुष्पदन्त भूतबलि के षट्खण्डागम का प्रारम्भ इसी मंगलाचरण से हुआ है । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के सभी जैन ग्रंथों का प्रारम्भ किसी न किसी मंगलाचरण से हुआ है । ये मंगलाचरण जैन भक्ति के सर्वोत्तम निदर्शन हैं । इनमें सबसे बड़ी विशेषता है कि इनके नाम पर विलासिता को थोड़ा भी प्रश्रय नही दिया गया, जब कि शैव भक्ति में लिखे गये अनेक मंगलाचरण वैसी भावनाओं का नियंत्रण नहीं कर सके ।
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वन्दना भी जैन भक्ति का मुख्य अंग है । 'वन्दनक सूत्र' पर लिखी गई 'भद्रबाहुनियुक्ति' में, उत्तराध्ययन सूत्र और प्रावश्यक सूत्रों में, हरिभद्रसूरि के 'वन्दनापंचाशक' में तथा वट्टकेरकृत 'मूलाचार' में वन्दना का सैद्धान्तिक निरूपरण किया गया है । श्ररहन्तवन्दन और चैत्यवन्दन पर अनेक स्तुतिस्तोत्र उपलब्ध हैं। श्री जिनदत्तसूरि के चैत्यवन्दनकुलक में २८ गाथाएँ हैं । जिनप्रभसूरि के 'वन्दन स्थान विवरण' में १५० प्राकृत की गाथाएँ हैं ।
प्राचार्य समन्तभद्र ने देवाधिदेव जिनेन्द्र के चरणों की परिचर्या अर्थात् सेवा करने को ही पूजा कहा है । भ्रष्टद्रव्यरूप पूजा का उल्लेख सर्व प्रथम, प्राचार्य यतिवृषभ की 'तिलोयपण्पत्ति' में उपलब्ध होता है । इसके उपरान्त पंचपरमेष्ठी, विविधतीर्थक्षेत्र, नन्दीश्वर द्वीप, कृत्रिम और प्रकृत्रिम चैत्यालयों की भक्ति
forfan पूजा का निर्माण हुआ। ये पूजायें बहुत कुछ संस्कृत और हिन्दी में ही रची गई । इनके अंत में लिखित जयमालाएँ भक्ति-साहित्य का मूल्यवान प्रश है । इन पूजानों के अनेक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें भारतीय ज्ञानपीठ - पूजांजलि महत्वपूर्ण है । हिन्दी में द्यानतराय की पूजाएँ, संगीत, लय, भाव और भाषा सभी दृष्टियों से उत्तम हैं । जैन श्रौर जैन पूजा साहित्य के तुलनात्मक विवेचन से अनेक नई बातें ज्ञात हो सकती हैं।
हिन्दी का जन भक्ति-कव्य
हिन्दी का भक्ति काव्य अपनी ही उपर्युक्त पूर्व परम्परा से अनुप्राणित है । उसका विभाजन - निष्कल भक्तिधारा और सकल भक्तिधारा के रूप में किया जा सकता है । निष्कल ब्रह्म 'सिद्ध' को कहते हैं । सिद्ध अदृश्य हैं और स्थूल आकार से रहित हैं । वे मोक्ष में विराजमान हैं। उनमें सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलघु और श्रव्याबाध नाम के प्राठ गुण होते हैं । श्राचार्य योगीन्दु ने 'सिद्ध' और 'शुद्ध आत्मा' का एक ही रूप माना है । प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि श्राठ कर्मों के नाश से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है, उसे ही सिद्धि कहते है और ऐसी सिद्धि करने वाला ही सिद्ध कहलाता है । पं० श्राशावर ने 'सिद्ध' की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है "सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः संजाता यस्य इति सिद्धि: । श्रात्मा भी निराकार है अदृश्य है । हिन्दी के जैन कवियों ने अपने मुक्तक पदों में सिद्ध और श्रात्मा दोनों ही को सम्बोधन करके अपना भाव प्रकट किया है ।
सकल ब्रह्म अरहन्त को कहते हैं । चार घातिया कर्मों का क्षय करने से अर्हत्पद मिलता है । अर्हन्त को चार अघातिया कर्मों के नाश होने तक संसार में
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रुकना होता है । 'समवशरण में बैठकर संसार को उपदेश देते हैं। उनके शरीर होता है, वे दिखाई देते हैं हिन्दी के भक्त कवियों ने अर्हन्त की भक्ति में बहुत कुछ लिखा है । इसी सकल भक्ति-धारा में प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, देव - देवियों, चैत्य, पूर्ति, मन्दिर र तीर्थ क्षेत्रों को लिया जा सकता है । ये सब सशरीर हैं और दिखाई देते हैं । किन्तु जैन हिन्दी के भक्त कवियों को निष्कल और सकल भक्ति धाराम्रों में पृथक-पृथक नहीं बांटा जा सकता, जैसा कि पं० रामचन्द्रशुक्ल ने निगुण और सगुण भक्ति धारानों के रूप में स्पष्ट विभाजन किया है । हिन्दी का ऐसा कोई जैन कवि नहीं है, जिसे हम केवल सिद्ध या अर्हन्त का ही भक्त कह सके । प्रत्येक जैन कवि ने यदि एक ओर सिद्ध और आत्मा की भक्ति में अपने भाव अभिव्यक्त किये, तो दूसरी र अर्हन्त, प्राचार्य या किसी देव-देवी के चरणों में भी अपनी श्रद्धा के पुष्प बिखेरे हैं ।
वीरगाथा काल में जैन भक्ति कवि
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के कथनानुसार प० रामचन्द्र शुक्ल ने जिस काल को वीरगाथा काल नाम दिया है, उसमें वीरगाथाश्रो की अपेक्षा धार्मिक कृतियाँ अधिक थीं । पं० शुक्ल ने उन कृतियों को सूचना मात्र कह के छोड़ दिया था । इन कृतियों में जैन भक्ति सम्बन्धी रचनायें हैं । उनमें धार्मिकता हैं, तो साहित्यिकता भी । धार्मिक होने मात्र से ही कोई रचना साहित्यिक नही हो जाती । मूल प्रवृत्तियों का भावोन्मेष ही साहित्य है, फिर भले ही उसका मुख्य स्वर धर्म अथवा अन्य किसी विषय से सम्बन्धित हो। इसी कारण कबीर ग्रन्थावली और रामचरितमानस साहित्य के ग्रन्थ माने जाते हैं ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल, वि० सं० १०५० (सन् ९८३) से वि० सं० १३७५ (सन् १३१८) तक निर्धारित किया गया है। इसके पूर्व बहुत पहले ही, प्राकृत और अपभ्रंश के अतिरिक्त देश भाषा का जन्म हो चुका था । धर्मशास्त्री नारद ने लिखा है कि "संस्कृतैः प्राकृतेर्वाक्यैः शिष्यमनुरूपतः । देशभाषाद्युपायैश्च बोधयेत् स गुरुः स्मृतः । ।" डा० काशीप्रसाद जायसवाल का कथन है कि प्राचार्य देवसेन ( वि० सं० ६६०) के पहले ही 'देश भाषा' प्रचलित हो चुकी थी । श्राचार्य देवसेन ने अपने श्रावकाचार में जिन दोहों का उपयोग किया है, वे देश भाषा के ही है । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति कारंजा के सेनगरण मन्दिर के पुस्तक भंडार में मौजूद है। इसमें श्रावकों के लिये
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जिनेन्द्र और पंचगुरु भक्ति का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है । एक दोहा इस प्रकार है :
" जो जिरगसासरण भासियउ सो भइ कहियउ सारु । जो पाले सइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु ||"
इसमें प्रयुक्त शब्द रूप, विभत्ति और धातुरूप प्रायः सभी देश-भाषा के हैं । देश - भाषा को ही प्राचीन हिन्दी कहते हैं । यह भाषा ही आगे चलकर विकसित हिन्दी के रूप में परिणत हुई । श्राचार्य हेमचन्द्र ने अपभ्रंश और देश-भाषा में अन्तर स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। अपभ्रंश, देश-भाषा अथवा प्राचीन हिन्दी नहीं है । इसी कारण स्वयंम्भू (वि० सं० ६ वीं शताब्दी) के 'पउमचरिउ' और पुष्पदन्त ( वि० सं० १०२९) के, महापुराण' को हिन्दी के ग्रन्थों में नहीं गिना जा सकता । इनमें बिखरे हुए कुछ स्थल देश-भाषा के हैं, किन्तु वे अल्प ही हैं । पुष्पदन्त से ४० वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्द का कथाकोष देश-भाषा में लिखा गया है। इसकी अधिकांश कथाये जिनेन्द्र - भक्ति से सम्बंधित हैं । ईसा को ११वीं सदी के धनपाल की 'श्रुत पंचमीकथा' में भी देश-भाषा का ही प्रयोग हुआ है | श्रुत पंचमी' का मूलस्वर जिन भक्ति से युक्त है । तेहरवीं शताब्दी के प्रारम्भ के कवि विनयचन्द्र सूरि ने "नेमिनाथचउपई" का निर्माण किया था । नेमिनाथ के वैराग्य लेने पर, उनके वियोग में राजीमती विलाप करती है । इस "चउपई" में उनका वियोग वर्णन दिखलाया गया है । एक दृष्टांत देखिये :
"मणइ सखी राजल मन रोई, नीठुरु नेमि न अप्परगु होई । सांचेउ सखि वरि गिरि भिज्जंति, किमइ न भिज्जइ सामलकंति । ।"
विनयचन्द्र सूरि के समकालीन शालिभद्रसूरि के 'बाहुबलि रास' में अप का प्रयोग हुआ है । श्री जिनदत्तसूरि (वि० सं० १२७४) के "उपदेशरसायन रास" में गुरुभक्ति के अनेक दृष्टांत हैं, किन्तु उसकी भाषा देश-भाषा नहीं है, वह दुरुह प्रपत्र का निदर्शन है। श्री जिनपद्मसूरि का "थूलिमद्दफाग" श्राचार्य स्थूलभद्र की भक्ति में लिखा गया है । आचार्य स्थूलिभद्र भद्रबाहु स्वामी के समकालीन थे । उनका निर्वाणस्थल, गुलजारबाग, पटना स्टेशन के सामने कमलदह में बना हुआ है । यह रचना भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उत्तम है । भाषा हिन्दी के प्रारम्भिक रूप को लिए हुए है । ऐसे सरस फागों की
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प्रक्षुण्ण परंपरा वि०सं० की अठारहवीं शताब्दी तक उपलब्ध होती है । प्रस्तुत फाग के पास वर्णन का एक पद्य इस प्रकार है
"सीयल कोमल सुरहि वाय जिम जिम वायंते । माण- मडफ्फर माणणिय तिम तिम नाचते ॥ जिम जिम जलधर मरिय मेह गयणंगणि मिलिया । तिम तिम कामीतणा नयण नीरहि झलहलिया ||"
नेमिचन्द्र भडारी, खरतगच्छीय जिनेश्वर सूरि के पिता थे । वि० सं० १२५६ के लगभग 'जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन' के नाम से एक स्तुति लिखी थी, जो ऐतिहासिक काव्यसंग्रह में प्रकाशित हो चुकी है । यह स्तुति श्राचार्य - भक्ति का दृष्टांत है । महेन्द्रसूरि के शिष्य श्री धर्मसूरि ने वि० सं० १२६६ में जम्बूस्वामीचरित और स्थूलभद्ररास की रचना की। दोनों में क्रमशः ५२ एवं ४७ पद्य है । भगवान् महावीर के निर्वाण के उपरान्त केवल तीन केवली हए, जिनमें जम्बूस्वामी अन्तिम थे । स्थूलभद्र के विषय में लिखा ही जा चुका है। शाहरयण (वि० सं० १२७८) ने 'जिनपतिसूरिधवलगीत' लिखा था। यह 'जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में छप चुका है। मंत्रीवर वस्तुपाल के धर्माचार्य श्री विजय सेनसूरि ने वि० सं० १२८८ में 'रेवतगिरि रासो' का निर्माण किया था। यह प्राचीन 'गुर्जर काव्य संग्रह' में प्रकाशित हम्रा है। इन सबकी भाषा हिन्दी है । नेमिचन्द्र भंडारी का एक पद्य देखिये :--
"पणर्माव सामि वीर जिगु, गणहर गोयम सामि । सधरम सामिय तुलनि सरगु. जुग प्रधान सिवगामि ॥'
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विक्रम संवत् की चौदहवीं शती में अनेक जैन कवि हुए हैं। उनकी भाषा हिन्दी थी। उनकी कविताओं का मूल स्वर भक्तिपूर्ण था । खरतरगच्छीय जिनपतीसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने वि० सं० १३३१ के लगभग अनेक ऐसी स्तुतियों की रचना की, जो गुरु, आचार्य और जिनेन्द्र की भक्ति से सम्बन्धित थी। जिनेश्वर सूरि के शिष्य श्री श्रभयतिलक ने वि० सं० १३०७ में, महावीर रास का निर्माण किया था, जिसमें केवल दस पद्य हैं । यह रास श्री प्रगरचदजी नाहटा के निजी संग्रह में मौजूद है । लक्ष्मीतिलक का 'शांतिनाथरास' और सोममूर्ति का 'जिनेश्रसूरि संयमश्रीविवाहवर्णनरास' प्रसिद्ध कृतियां है।
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हिन्दी के भक्ति-काल में जैन कवि और काव्य ४
यद्यपि रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति-काल वि० सं० १४०० से १७०० तक माना है, किन्तु जैन हिन्दी भक्ति काव्य की दृष्टि से उसको वि. सं. १८०० तक मानना चाहिए, क्योंकि जैन हिन्दी के भक्ति काव्य की प्रौढ़ रचना वि० सं० १७०० से १८०० के मध्य हुई।
राजशेखर सूरि (वि. सं. १४०५) का जन्म प्रश्नवाहन कुल में हुआ था। वे तिलकसूरि के शिष्य थे। उनका सम्बन्ध कोटिक गरण की मध्यम शाखा के हर्षपुरीगच्छ से था उन्होंने हिन्दी में 'नेमिनाथफाग' की रचना की थी। यह २७ पद्यों का एक छोटा सा खण्डकाव्य है। इसमें नेमिनाथ और राजुल की कथा है । राजशेखर एक सफल कवि थे। भावों और दृश्यों को चित्रित करने में उन्होने अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है। विवाह के लिए सजी राजुल के पूरे चित्र की कतिपय पंक्तियां देखिये :
"किम किम राजुलदेवि तरणउ सिणगारु भरणेवउ । चंपइ गोरी अइधोई अंगि चंदनु लेवउ ॥ खुपु भराविउ जाइ कुसुम कस्तूरी सारी ।
सीमंतइ सिंदूररेह मोतिसरि सारी ॥" विनयप्रभ उपाध्याय (वि० सं० १४१२) खरतरगच्छ के जैन साधु थे। उनके गुरु का नाम दादा जिनकुशलसूरि था। उनकी प्रमुख रचना का नाम "गौतमरासा" है । यह कृति भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम की भक्ति से सम्बन्धित है । इसमे स्थान स्थान पर उत्प्रेक्षाओं के सहारे गौतम की शोभा का चित्र अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त विनयप्रभ उपाध्याय की कृतियों में ५ स्तुतियां और हैं। उनमें विविध तीर्थंकरों के गुणों का काव्यमय विवेचन है। प्रत्येक में १६-२६ के लगभग पद्य है। इनमें 'सीमन्धर स्वामिस्तवन', एन्शियंट जैनहिम्स' में प्रकाशित हो चुका है। सीमन्धर स्वामी पूर्व विदेह के विहरमाण बीस तीर्थ करों में एक हैं। उनका शासन अभी चल रहा है। यह २१ पद्यों का एक मनोरम स्तवन है । कवि ने लिखा है कि मेरुगिरि के उत्तुंग शिखर, गगन के टिमटिमाते तारागण और समुद्र की तरंगमालिका, सीमंधर स्वामी का स्तवन करते ही रहते हैं।
मेरुनन्दन उपाध्याय के दीक्षागुरु का नाम जिनोदयसूरि था। उन्होंने वि० सं० १४१५ के उपरान्त दीक्षा ली थी। मेरुनन्दन उपाध्याय की तीन रचनाएं
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उपलब्ध हैं- जिनोदयसूरि विवाहलउ, प्रजितशान्तिस्तवनम् और सीमन्धर स्वामी स्तवनम् तीनों ही भक्ति से सम्बन्धित हैं। पहले में गुरु भक्ति और अवशिष्ट दो में तीर्थंकर भक्ति है । जिनोदयसूरि विवाहलउ में प्राचार्य जिनोदय का दीक्षाकुमारी के साथ विवाह हुआ है । यह एक रूपक काव्य है । प्रजितशांतिस्तवनम् में सीमन्धर स्वामी की स्तुति की गयी है। ये दोनों ही स्तवन 'जैन -स्तोत्र संदोह' के प्रथम भाग में प्रकाशित हो चुके हैं ।
भट्टारक सकलकीत अपने समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे । उनका संस्कृत भाषा पर एकाधिपत्य था । उन्होंने संस्कृत में १७ ग्रन्थों की रचना की थी । प्रत्येक उत्तमकोटि का ग्रन्थ है । भट्टारक सकलकीर्ति प्रतिष्ठाचार्य भी थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों में तत्कालीन इतिहास की अनेक बातें अ ंकित हैं । उनका समय १५ वीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है । वे वि०सं० १४४४ में ईडर की मट्टारकीय गद्दी पर आसीन हुए और वि० सं० १४९६ में महसाना (गुजरात) में उनका स्वर्गवास हुआ। वे हिंदी के सफल कवि थे। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में उनकी हिंदी में लिखी हुई अनेक कृतियां उपलब्ध हुई हैं, जिनमें प्राराधना प्रतिबोधसार णमोकारफलगीत श्रौर नेमीश्वर गीत का भक्ति से सम्बन्ध है |
वि०स० की १६ वी शती, जैन हिन्दी भक्ति काव्य की मुक्तक रचनाओं के लिए प्रसिद्ध है। मुनि चरित्रसेन (वि० सं० १६ वी शती पूर्वार्द्ध) की 'समाधि' नाम की रचना में समाधि और समाधि लगाने वालों के प्रति भक्तिभाव प्रकट किया गया है। यह कृति दिल्ली के मस्जिद खजूर के जैन पंचायती मन्दिर के शात्र भण्डार में मौजूद है । इन्ही के समकालीन अानन्द तिलक हुए है । उन्होंने 'आणंदा' का निर्माण किया था । इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रामेर शास्त्र - भण्डार में रक्खी है । इस रचना में ४३ पद्य है । यह परमात्म प्रकाश और पाहुड दोहा की परम्परा में गिनी जा सकती है। संत कवियों की भांति ही मुनि महानन्दिदेव ने जिनेन्द्र का निवास देह में माना, वैसे ही जैसे कुसुम में परिमल रहता है । देह के भीतर रहने वाले उस चिदानन्दरूप जिनेन्द्र की जो पूजा करता है, भी वह स्वयं भी श्रानन्द - मण्डल के भीतर स्थिर हो जाता है । अर्थात उसको चिरन्तन श्रानन्द की प्राप्ति होती है। उन्होंने तीर्थ भ्रमण को व्यर्थ प्रमाणित करते हुए लिखा है- प्रानन्द तीर्थों में नहीं, अपितु प्रात्मा में है, और वह श्रात्मा प्रत्येक के पास होती है । जो वस्तु अपने पास है, उसकी नोर न देखकर बाहर भटकना मूर्खता है। मुनि जी ने कबीर की भांति ही कहा
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कि चित्त में भरा पाप-मल बाह्य स्नान से नहीं, अपितु जिनेन्द्र के ध्यान रूपी तालाब में नहाने से गलेगा। तीर्थ क्षेत्र को व्यर्थता सम्बन्धी एक दृष्टान्त इस भांति है:
"अठसठि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहि भमंतु । अप्पा विदु न जाणही प्रानन्दा घट महिं देउ अरणंतु ।।"
कवि चतरूमल का जन्म श्रीमाल वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम जसवंत था। चतरूमल ने जैन पुराणों का अध्ययन किया और उनका मन नेमीश्वर के चरित्र में विशेष रूप से रमा । उन्होंने वि० सं १५७१ में 'नेमीश्वर गीत' को रचना की थी। यह एक गीतकाव्य है । भट्टारक ज्ञानभूषण मूलसंघ के सरस्वती गच्छ के बलात्कारगण की परम्परा में हुए हैं । 'जैन धातु प्रतिमालेख संग्रह' से स्पष्ट है कि वे वि० सं० १५३२ से १५५७ तक भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित रहे। वे संस्कृत, गुजराती और हिन्दी के विद्वान् थे। हिंदी में लिखी हुई उनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं-प्रादीश्वरफागु और पोसहरास । प्रादीश्वर फाग एक उत्तम कृति है । भट्टारक शुभचन्द्र पद्मनन्दि की परम्परा से संबंधित है। उनका रचना काल वि. सं. १५७३ से १६१३ तक माना जाता है। वे अपने समय के गणमान्य विद्वान् थे। उनका संस्कृत भाषा पर अधिकार था। वे 'षटभाषा कवि चक्रवर्ती' कहलाते थे। उन्होंने हिन्दी में तत्वसारदूहा की रचना की है। इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुर में ठोलियों के जैन मन्दिर में मौजद है। इस रचना में संत काव्य की ही भांति वर्ण और जाति के भेद को कृत्रिम माना गया है, गुरु की महिमा का उल्लेख है और चिदानन्दरूप प्रात्मा के चिन्तवन से मोक्ष का मिलना कहा गया है। इन्हीं की रची हुई एक दूसरी हिन्दी की कृति 'चतुर्विशति स्तुति' अभी प्राप्त हुई है।
विनयचन्द्रमुनि इसी शती के एक सामर्थ्यवान कवि थे। वे माथुरसंघीय भट्टारक बालचन्द्र के शिष्य थे। वे विनयचन्द्र सूरि से स्पष्टतया पृथक हैं। विनयचन्द्र सूरि चौदहवीं शती के रत्नसिंह सूरि के शिष्य थे। मुनि विनयचन्द्र गिरिपुरी के राजा अजेय नरेश के राज्यकाल में हुए हैं। उनका समय वि० सं० १५७६ माना जाता है। उनकी तीन कृतियां उपलब्ध हैं-चुनड़ी, निर्भर पंचमी कथा, पंचकल्याणकरासु । चूनड़ी एक रूपक काव्य है। इसमें कुल ३१ पद्य हैं। इसमें एक पत्नी ने पंचगुरु से प्रार्थना की है कि उसका पति ऐसी चूनड़ी लावे, जिसके सहारे वह भव समुद्र के पार हो सके । निर्भर पंचमी कथा में, भगवान जिनेन्द्र के परम भक्त भविष्यदत्त का चरित्र दिया हुआ है। कथा का मूल स्वर
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भक्ति से सम्बन्धित है । 'पंचकल्याणक रासु में जैन तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों के प्रति भक्तिभाव प्रदर्शित किया गया है ।
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afa ठक्करसी (वि० सं० १५७८) खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न हुए थे । उनका गोत्र पहाड्या था। उनके पिता का नाम होल्ह था, जो एक कवि थे । उनकी माता धर्मनिष्ठ थी । ठक्करसी की प्रसिद्ध रचना "कृपरण चरित्र" पहिले से ही विदित है । इस काव्य का मुख्य श्रंश कृपरण की कृपरगता से संबंधित होते हुए भी भक्ति से युक्त है । इसके अतिरिक्त इनकी नवीन कृतियां मेघमालाव्रतकथा, पंचेन्द्रिय बेलि, मिसुर की बेल, पार्श्वसकुन सत्ता बत्तीसी, गुणबेल, चिन्तामरिण, जयमाल और सीमान्धर स्वामी स्तवन, विविधशास्त्र भण्डारों से प्राप्त हुई हैं । इनमें काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से पंचेन्द्रिय बेल, नेमिसुर की बेल और गुणबेल उत्तम हैं ।
सत्रहवीं शती के जैन हिन्दी कवियों का भक्ति परक काव्य भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से प्रौढ़ है । इसी शर्तों के जैन कवि महाकवि हैं । उनकी गणना यदि एक ओर कबीर और जायसी की कोटि में होनी चाहिये, तो दूसरी श्रर वे सूर और तुलसी की पंक्ति में बैठने योग्य हैं । कुमुदचन्द्र इसी शती के प्रारम्भ में हुए थे । उनकी रचनाओं में ऋषभ - विवाहला और भरत बाहुबलिछंद उत्तम हैं । ब्रह्मरायमल्ल ( वि० सं १६१५ ) ने अनेकानेक हिन्दी काव्यों की रचना की । इनकी भाषा सरस है और प्रसाद गुरण से युक्त है। ये रायमल्ल, १६वीं शती के प्रसिद्ध पंडित राजमल्ल से पृथक हैं। इनका जन्म हूँबड़ वंश में हुआ था, उनके पिता का नाम मह्य और माता का नाम चम्पा था । उनकी माता जिनेन्द्र भक्त थीं, अतः वे भी 'जिनपादकंजमधुप' बन सके। इनके गुरु का नाम अनन्तकोति था । नेमीश्वररास, हनुवंतकथा, प्रद्युम्नचरित, सुदर्शनरास, श्री पालरास और भविष्यदत्त कथा, ब्रह्मरायमल्ल की हिन्दी की कृतियां हैं। इनमें नेमीश्वर रास और हनुवंतकथा की विशेष ख्याति है । हनुवंतकथा में बालक हनुमान के प्रोजस्वरूप का चित्र खींचा गया है । यह रूप बालक के उदात्ततापरक पक्ष को पुष्ट करता है। एक पद्य देखिए:
" बालक जब रवि उदय कराय । अधकार सब जाय पलाय ॥
बालक सिह होय प्रति सूरो । दन्तिघात करे चकचूरो ॥
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सघन वृक्ष बन प्रति विस्तारो। रत्ती अग्नि करे दह छारो॥ जो बालक क्षत्रिय को होय ।
सूर स्वभाव न छोड़े कोय ॥" कुशललाभ जैसलमेर के रावल हरराज के प्राश्रित कवि थे। रावल हरराज का समय सत्रहवीं शती का प्रथम पाद माना जाता है। कुशल-लाभ का रचनाकाल भी यही था। अनेक विद्वानों को विदित है कि कुशल-लाभ ने राजस्थानी के आदि काव्य 'ढोला मारू रा दूहा' के बीच में अपनी चौपाइयां मिलाकर प्रबन्धात्मक उत्पन्न करने का प्रयास किया था। कुशललाभ खरतरगच्छ के समर्थगुरु अभयदेव उपाध्याय के शिष्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उन्हें कवित्व शक्ति जन्म से ही मिली है। उन्होंने भक्ति, शृगार और वीर जैसे रसों पर अधिकार पूर्वक लिखा। उनकी रचनाओं में श्रीपूज्यवाहणगीत, स्थूलिभद्र स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवनम्, गौड़ी पार्श्वनाथस्तवनम् और नवकारछन्द, भक्ति से सबंधित हैं। श्री पूज्यवाहणगीत' की विशेषता है कि उसमें गुरु के विरह से उत्पन्न हुई अनुभूतियो का सरस वर्णन किया गया है। गुरु की महत्ता उद्घोषित करने वाले दोहो से हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है। किन्तु गुरु-विरह के ऐसे सरस भाव अन्यत्र देखने को नहीं मिलते ।
साधुकीर्ति (वि० सं० १६१८) खरतरगच्छीय अमरमाणिक्य के शिष्य थे। उन्होंने स्थान-स्थान पर जिनचन्द्रसूरि का स्मरण किया है। साधुकीर्ति भक्त कवि थे, उन्होंने अनेक स्तुतियों की रचना की है। उनकी कृतियों में पद्यसंग्रह, चूनड़ी, शत्रुञ्जयस्तवन ,विमलसिरिस्तवन, प्रादिनाथस्तवन, सुमतिनाथस्तवन, नेमिस्तवन और नेमिगीत मुख्य हैं। साधुकीर्ति मुक्तक काव्यों के रचने में सिद्धहस्त थे। उदयराज जती ने भी अनेक भक्तिपरक काव्यों का निर्माण किया है । उनका रचनाकाल वि० सं० १६६७ के प्रासपास माना जाता है। वे जोधपूर के समीप किसी स्थान के रहने वाले थे। उनके गुरु खरतरगच्छीय भद्रसार थे। उन्होंने भजन छत्तीसी, गुण बावनी, चौबीस जिन सवैया, मनः प्रशसा दोहा और वैद्यविरहिणी प्रबन्ध रचना की थी। इनमें 'वैद्यविरहिणी प्रबन्ध' एक रूपक काव्य है । हीरानन्द मुकीम आगरा के ख्याति प्राप्त जौहरी थे। शाहजादा सलीम से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। उन्होंने सम्मेद शिखर जी की यात्रा के लिए सघ निकाला था। शाह हीरानन्द कवि भी थे। उनकी अध्यात्मबावनी एक कृति है । उसका मूल स्वर रहस्यवाद से सम्बन्धित है । हेम विजय
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सूरि (वि० सं० १६७०) वृद्ध शाखा के प्राचार्य विजयसेन सूरि के शिष्य थे। सम्राट अकबर ने विजयसेन सूरि को प्रागरे में बुलाया था और उन्हें सवाई हरिविजय की उपाधि से सुशोभित किया था। हेमविजय अन्धे थे। उन्होंने हरिविजय और विजयसेन सूरि की भक्ति में छोटे-छोटे अनेक पद्य बनाये हैं । उन्होंने तीर्थकरों का भी स्तवन, छोटी-छोटी स्तुतियों से किया है । 'नेमिनाथ के पद' उनकी सफल रचना है। जब नेमीश्वर राजुल के विवाह द्वार से दीन पशुओं की करुण पुकार सुनकर, गिरिनार पर तप करने चले गये, उस समय राजूल की बेचैनी का एक चित्र देखिये । गिरिनार की ओर भागती हई राजुल को सखियों ने पकड़ लिया है। वह उनको सम्बोधन करके कहती हैं
"कहि राजमति सुमति सखियान कू, एक खिनेक खरी रहुरे । सखिरि सगिरि अंगुरी मुही बाहि करति बहुत इसे निहुरे ।। अबही तबही कबही जबही, यदुराय कू जाय इसी कहुरे। मुनिहेम के साहिब नेम जी हो, अब तोरन ते तुम्ह क्यू बहुरे ॥"
जैन कवि सुन्दरदास, हिन्दी के संत कवि सुन्दरदास से पृथक थे । जैन कवि वागड प्रान्त के रहने वाले थे। बादशाह शाहजहां ने उनको पहले 'कविराय' और फिर 'महाकविराय' की पदवी प्रदान की थी। उन्होंने सुन्दर शृंगार, पाखंड पंचासिका, सुन्दर सतसई और सुन्दर विलास का निर्माण किया था। इनकी प्रवृत्तियां हिन्दी के कबीर दादू, सुन्दरदास आदि संत कवियों से मिलती जुलती हैं। उनका समय वि० सं० १६७५ के पास-पास माना जाता है। पांडे रूपचन्द । संस्कृत के प्रख्यात विद्वान् थे। उन्होंने बनारस में शिक्षा प्राप्त की थी। प्रसिद्ध
कवि कबीरदास ने इन्हीं से गोम्मटसार-जीवकांड पढ़ा था। इसका उल्लेख 'अर्द्ध कथानक' में हुआ है। पांडे रूपचन्द एक प्रतिभा सम्पन्न कवि भी थे। विद्वत्ता
और कवित्व शक्ति का ऐसा समन्वय अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। उनके गीत काव्यों पर आध्यात्मिकता की छाप है । परमार्थी दोहा शतक, गीतपरमार्थी मंगलगीत प्रबन्ध, नेमिनाथ रासा, खटोलनागीत और अध्यात्म सवैया उनकी प्रसिद्ध कृतियां है । इसके अतिरिक्त जयपुर के शास्त्र भण्डारों से उनकी दो रचनाए सोलहस्वप्नफल तथा जिनस्तुति और प्राप्त हुई हैं । अर्धकथानक के अनुसार उनका देहावसान वि० सं० १६६४ में हुआ।
हर्षकीति (वि० सं० १६८३) की मुक्तक रचनाओं में अध्यात्म और भक्तिरस की अधिकता है । उन्होंने पंचगति बेल, नेमिनाथ राजुल गीत, नेमीश्वर
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गीत, बीस तीर्थंकर जखड़ी, चतुर्गतिबेल, भजन व पदों का निर्माण किया था । कनककीर्ति भी इन्हीं के समकालीन थे। उनकी हिन्दी कृतियों में गीत अधिक हैं । उनका सम्बन्ध किसी तीर्थ या ऋषि मुनि की भक्ति से है । उनकी कृतियां मेघकुमार गीत, जिनराजस्तुति, विनती, श्रीपाल स्तुति और पद हैं ।
कवि बनारसीदास जैन हिन्दी साहित्याकाश के जगमगाते सूर्य हैं । उन्होंने नाममाला, नाटक समयसार, बनारसी विलास, अर्धकथानक, मोहविवेक युद्ध, मांझा और स्फुट पदों का निर्मारण किया था। उन्होंने १४ वर्ष की अवस्था (वि० सं० १६५७) में "एक नवरस" नाम का ग्रन्थ भी लिखा था । उसमें एक हजार दोहा चौपाई थे, किन्तु बाद में उसे प्रत्यधिक प्रश्लील मानकर उन्होंने गोमती में बहा दिया था । नाममाला एक कोष ग्रन्थ है । उसकी रचना वि० सं० १६७० में हुई थी। नाटक समयसार बनारसीदास की सर्वोत्कृष्ट कृति है । यद्यपि इसका मुख्य प्रधार प्राचार्य कुंद-कुद का 'समयपाहुड' प्रौर उस पर लिखी गयी श्रमृतचन्द्राचार्य की 'आत्मख्याति' टीका है, किन्तु उसमें मौलिकता भी पर्याप्त है । सबसे बड़ा अन्तर यह है कि नाटक समयसार में कवि की भावुकता प्रमुख है। जबकि समयसारपाहुड़ में दार्शनिक पांडित्य । मैने अपने शोध निबंध में 'नाटक समयसार' की परीक्षा भक्ति-परक दृष्टि से की है। मुझे उसमें निर्गुण और सगुण दोनों ही भक्ति का समन्वय दिखाई दिया है । ' बनारसी विलास' बनारसीदास की ५० मुक्तक रचनाएं संग्रहीत हैं। इनका संकलन श्रागरे के दीवान जगजीवन ने वि० सं० १७०१ में किया था । बनारसी विलास बहुत पहले ही पं० नाथूराम प्रेमी के सम्पादन में बम्बई से प्रकाशित हो चुका है । 'अर्ध कथानक' की रचना वि० सं० १६६८ में हुई थी। इसमें बनारसीदास के ५५ वर्ष के जीवन की श्रात्मकथा है । पं० बनारसीदास चतुर्वेदी डा० माता प्रसाद गुप्त आदि बड़े-बड़े विद्वानों ने भी इसकी प्रशंसा की है। इसमें ६७५ दोहाचौपाइयां हैं। इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है। मोह विवेक युद्ध, मांझा और कतिपय पद नयी खोज में उपलब्ध हुए हैं । बनारसीदास के अध्यात्म-परक गीत में दाम्पत्य भाव की अभिव्यक्ति हुई है । उन्होंने आत्मा को पति और सुमति को पत्नी बनाया है। पत्नी, पति के वियोग में तड़फते हुए दर्शनाभिलाषा प्रकट करती है :
"मैं विरहिन पिय के श्राधीन । यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ||
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होहुं मगन मैं दरशन पाय । ज्यों दरिया में बूंद समाय ॥ पिय को मिलों अपनपो खोय । ओला गल पाणी ज्यों होय ।। "
इसी शती में मनराम, कुंवरपाल, यशोविजय उपाध्याय श्रौर महात्मा श्रानन्दघन प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । मनराम का 'मनराम विलास', कुअरपाल के 'पद', यशोविजयजी का 'जस - विलास' और श्रानन्दघन की 'श्रानन्दघन बहत्तरी', प्रौढ़ कृतियां हैं। सभी का सम्बन्ध या तो निराकार प्रात्मा श्रौर सिद्ध अथवा श्रहंत की भक्ति से है । पांडे हेमराज ( वि० सं० १७०३ - १७३०) एक प्रसिद्ध कवि माने जाते है । उनकी सितपट चौरासी बोल, हिन्दी भक्तामर और गुरुपूजा नाम की कृतियां पहले से ही ज्ञात थीं । किन्तु अब हितोपदेश दोहाशतक, उपदेश दोहाबावनी और नेमिराजीमती जखढी भी प्राप्त हुई हैं। इन्हें संत काव्य की परम्परा में गिनना चाहिये ।
जिनहर्ष (वि० सं० १७१३ - १७३८) अट्ठारहवीं शती के एक सामर्थ्यशाली कवि थे । इनके गुरु का नाम वाचक शान्तिहर्ष था । जिनहर्ष ने उन्हीं से शिक्षा प्राप्त की थी। जिनहर्ष एक जन्मजात कवि थे । उन्होंने पचासों स्तुतिस्तवन, रास और छप्पयों की रचना की है । वे मूलतः गुजराती लेखक थे। किन्तु इनका हिन्दी पर अधिकार था । उन्होंने हिंदी में जसराजबावनी, उपदेशछत्तीसी, चौबीसी, नेमि-राजीमती बारहमास सवैया, नेमि बारहमासा, महावीर छंद, सिद्धचक्रस्तवन और मंगलगीत का निर्माण किया था। जिनरंगसूरि (वि० सं० १७३१) का जन्म श्रीमाल जाति के सिन्धुणवंश में हुआ था । उन्होंने जैसलमेर में वि० सं० १६७८ फाल्गुन कृष्ण ७ को जिनराजसूरि से दीक्षा ली थी। शाहजहां के पुत्र दारा ने उन्हें 'युग-प्रधान' के पद से विभूषित किया था । उनकी रचनाओं में प्रबोधबावनी, रंगबहत्तरी, चतुर्विंशति जिन-स्तोत्र, चितामणि, पार्श्वनाथ - स्तवन प्रसिद्ध है । प्रथम दो में निष्फल और अन्तिम दो में सकल ब्रह्म की भक्ति है ।
इस समूची शती में भैया भगवतीदास अपनी श्रोजस्वी कविता के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में भी प्रोज को प्रमुखता दी है। भैया भगवतीदास आगरा के रहने वाले थे। उस समय श्रीरंगज़ ेब का राज्य था । उन्होंने उसके राज्य की प्रशंसा की है । 'भैया' का प्राकृत और संस्कृत पर अधिकार था । उनकी हिन्दी, गुजराती और बंगला में विशेष गति थी और वे उर्दू तथा फारसी
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के भी जानकार थे। उनकी ६७ रचनाओं का संकलन 'ब्रह्म-विलास' नाम से सन् १९०३ में हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित हुआ था। 'भैया' की सभी कृतियां निर्गुण अथवा सगुण भक्ति से सम्बन्धित हैं । एक भक्त भगवान जिनेन्द्र की पुष्पों से पूजा करता हुआ कहता है कि हे भगवन् ! इस कामदेव ने समूचे विश्व को जीत लिया है। उसे इसका घमण्ड भी बहुत है। मुझे विश्वास है कि आपके चरणों की शरण में जाने से प्रबल कामदेव की निर्दयता का शिकार मैं न हो पाऊँगा :
"जगत के जीव जिन्हें जीत के गुमानी भयो। ऐसो कामदेव एक जोधा जो कहायो है ॥ ताके शर जानियत फलनि के वृन्द बहु । केतकी कमल कुद केवरा सुहायो है ॥ मालती सुगंध चारू बेलि की अनेक जाति । चंपक गुलाब जिन चरण चढ़ायो है ।। तेरी ही शरण जिन जारे न बसाय याको।
सुमत सौ पूजे तोहि मोहि ऐसी भायो है ।" द्यानतराय एक प्रमुख कवि थे। इनका जन्म वि० सं० १७३३ में आगरे में हुआ था। उनकी शिक्षा विधिवत् हुई। उन्हे उर्दू फारसी का ज्ञान कराया गया, तो संस्कृत के माध्यम से धार्मिक शिक्षा भी दी गई । उनका गृहस्थ जीवन दुःखी रहा । वे वि० सं० १७८० में दिल्ली में आकर रहने लगे थे। उनकी प्रसिद्ध रचना 'धर्म-विलास' यहां पर ही पूरी हुई। इसमें पदों की संख्या ३२३ है, कुछ पूजायें हैं । ग्रन्थ के साथ विस्तृत प्रशस्ति भी निबद्ध है, जिससे आगरे की सामाजिक परिस्थिति का अच्छा परिचय मिलता है । इसके पदों में भक्ति-रस तो साक्षात् ही बह उठा है। द्यानतराय ने पूजा और प्रारतियों का निर्माण करके, जैन भक्ति की परम्परा में जैसा सरस योगदान किया है, वैसा उस समय तक अन्य कोई नहीं कर सका था। उनकी 'देव-शास्त्र-गुरु पूजा का तो प्रत्येक जैन मन्दिर में प्रतिदिन पाठ होता है । इसके अतिरिक्त बीसतीर्थङ्कर, पंचमेरु, दशलक्षण, सोलहकारण, रत्नत्रय, निर्वाणक्षेत्र, नन्दीश्वरद्वीप, सिद्धचक्र और सरस्वती पूजायें भी उन्ही की कृतियाँ हैं। उन्होंने पांच प्रारतियों का भी निर्माण किया था। उनका प्रारम्भ क्रमश: 'इह विधि मंगल प्रारति कीजै, 'प्रारति श्री जिनराज तिहारी', 'प्रारति कीजै श्री मुनिराज की', 'करो प्रारती वर्द्धमान की',
और 'मंगल प्रारती प्रातमरामा' से होता है । उनके स्वयम्भू, पार्श्वनाथ और एकीभावस्तोत्रों में पार्श्वनाथ स्तोत्र' मौलिक है। इनके अतिरिक्त समाधिमरण
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धर्मपचीसी, अध्यात्मपंचासिका, १०८ नामों की गुणमाला, दशस्थानचौबीसी और छहढाला (सद्यः प्राप्त) भी उन्हीं की रचनायें हैं। उनका समूचा साहित्य भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से खरा है।
द्रोणपुरी के शास्त्र भंडार में कवि विद्यासागर के हस्तलिखित ग्रन्थों का पता लगा है। विद्यासागर कारंजा के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम राखू साह था। वे बघेरवाल जाति में उत्पन्न हुए थे। उनकी रचनाए भक्तहृदय की प्रतीक हैं। उन्होंने सोलह स्वप्न-छप्पय, जिन-जन्म-महोत्सव षट्पद, सप्तव्यसन सवैया, दर्शनाष्टक, विषापहार छप्पय और भूपाल स्तोत्र छप्पय का निर्माण किया था । विनयविजय साधु थे। उनके गुरु का नाम कीर्तिविजय उपाध्याय था। विनय विजय यशोविजय के समकालीन थे। दोनों ने साथ रहकर ही काशी में विद्याध्ययन किया था। गुजराती साहित्य को इनकी देन बहुत बड़ी है । हिन्दी में लिखा हुआ उनका 'विनयविलास' उपलब्ध है । उसके पद संतकाव्यधारा के प्रतीक हैं । लक्ष्मीबल्लभ (वि० सं० १८वीं शती का दूसरा पद) उपाध्याय लक्ष्मीकीति के शिष्य थे। वे बनारस के रहने वाले थे। वे विद्वान थे और कवि भी। उनकी हिन्दी कृतियों के नाम ये हैं-चौबीस स्तवन, महावीर गौतम स्वामी छद, दूहा बावनी, सवैया बावनी, नेमि राजुल बारहमासा, भावना विलास, चेतना बत्तीसी, उपदेश बत्तीसी और छप्पय बावनी । सभी जैन भक्ति से सम्बन्धित हैं।
विनोदीलाल (वि० सं० १७५०) शाहजहाँपुर के रहनेवाले थे। उनका जन्म अग्रवाल वंश और गर्ग गोत्र में हुआ था। वे अपनी सरस और प्रसादगुण युक्त रचनाप्रो के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होने चौबीस तीर्थङ्करों की भक्ति में अनेक सवैयों का निर्माण किया है । वे नेमीश्वर के परमभक्त थे । विवाह द्वार से लौटते नेमीश्वर और विलाप करतो राजुल, उन्हें बहुत ही पसन्द हैं । उनका लिखा हुआ नेमि-राजुलबारहमासा, विरहकाव्य परम्परा की एक अमर कृति है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने नेमि व्याह, राजुल पच्चीसी, नेमजी रेखता, प्रभात-जयमाल, चतुर्विशंति जिन स्तवन सवैया और फूलमाल पच्चीसी की रचना की थी। विवाह के लिए सजे हुए नेमीश्वर का एक चित्र देखिये:
"मौर धरो सिर दूलह के कर कंकण बांध दई कस डोरी। कुण्डल कानन में झलके प्रति भाल में लाल विराजत रोरी। मोतिन की लड़ शोभित है छबि देखि लजै बनिता सब गोरी। लाल विनोदी के साहिब के मुख देखन को दुनियां उठि दौरी।।"
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भूधरदास (वि० सं० १७८१) एक प्रतिभासम्पन्न कवि थे। उनकी रचनाएं अपने प्रसाद, गुरण और भाव-लालित्य के लिये प्रसिद्ध हैं। जनशतक, भूधरविलास, पदसंग्रह, जखड़ी, विनतियाँ, बारह भावनाएं, बाईस परीषह और स्तोत्र उनकी मुक्तक कृतियां हैं । उन्होंने पार्श्वपुराण नाम के एक महाकाव्य का भी निर्माण किया था। यह एक उच्चकोटि का मौलिक काव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी गुरण सन्निहित हैं। इसकी रचना वि० स० १७८१ में हुई थी। कवि भवानीदास (वि० सं० १७६१) के लिखे हुए १८ मुक्तक काव्यों का पता चला है। इन रचनाओं के आधार पर सिद्ध है कि वे आगरे के रहने वाले थे, और उनका जन्म श्वेताम्बर जाति में हुआ था। इन कृतियों में चौबीस जिनबोल, चौबीसी के कवित्त, नेमि-हिण्डोलना और नेमिनाथ-राजमति गीत प्रसिद्ध हैं।
अजयराज पाटणी (वि० सं० १७६२-१७६४) आमेर के रहने वाले थे। उनकी जाति खण्डेलवाल और गौत्र पाटणी था। उन्होंने पार्श्वनाथ-सालेहा की रचना वि० सं० १७६३ में की थी। वे रूपक काव्यों के लिखने में सिद्धहस्त थे। उनके लिखे हुए चरखा-चउपई, शिवरमणी का विवाह और जिन जी की रसोई ऐसे ही गीत हैं।
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जैन अपभूश का हिन्दी के निर्गुण
भक्ति-काव्य पर प्रभाव
जिस भांति संस्कृत में 'श्लोक' और प्राकृत में 'गाथा' छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं, ठीक वैसे ही अप्रभ्रंश में 'दूहा' का सबसे अधिक प्रयोग किया गया। अपभ्रंश का तात्पर्य है-दूहा-साहित्य । यह दो भागों में बांटा जा सकता है-एक तो भाटों के द्वारा रचा गया जिसमें शृगार, वीर आदि रसों की भावात्मक अभिव्यक्ति है। इसके प्रचुर उदाहरण 'प्राचार्य हेमचन्द्र' के 'सिद्धहेमशब्दानुशासन'' में मौजूद हैं। दूसरा वह, जिसके रचयिता बौद्ध सिद्ध और जैन साधक थे। तिलोप्पाद, सरहपाद, कण्हपाद आदि का दूहा-साहित्य 'दोहाकोश' में प्रकाशित हो चुका है। जैन साधकों का साहित्य एक संकलित रूप में तो नहीं, किन्तु पृथक्-पृथक् पुस्तकाकार या पत्रिका में प्रकाशित होता रहा है । कुछ ऐसा है, जो हस्तलिखित रूप में उपलब्ध है !
परमात्मप्रकाश अपभ्रंश का सामर्थ्यवान् ग्रन्थ है । इसके रचयिता आचार्य योगीन्दु एक प्रसिद्ध कवि थे। उनका समय ईसा की छठी शती माना जाता
१. सिद्धहेमशब्दानुशासन, डॉ० पी० एल० वैद्य- सम्पादित तथा भण्डारकर मोरियण्टल
रिसर्च इन्स्टीट्यूट से सन् १६३६ ई० में प्रकाशित । संशोधित संस्करण सन् १९५८ ई० में पुनः छपा है।
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है।' उन्होंने इस ग्रन्थ का निर्माण, अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट को अध्यात्म-विषय समझाने के लिए किया था अतः उसमें एक अध्यापक की सरलता, मधुरता
और पुनरावृत्तिवाली बात मौजूद है । योगीन्दु ने स्वयं स्वीकार किया है कि शिष्य को समझाने के लिए शब्दों को बार-बार दुहराना पड़ा है । इसी उद्देश्य से उपमा और रूपकों का भी प्रयोग किया गया है। उनके पद्य कोमलता और माधुर्य से युक्त हैं। उनकी भाषा जनसाधारण की भाषा थी, अतः उसमें गेयपरकता अधिक है। उद्योतनसूरि (७७८ ई०) का यह कथन कि 'अपभ्रंश का प्रभाव बरसाती पहाड़ी नदियों की भाँति बेरोक होता है और प्रणयकुपिता नायिका की भाँति यह शीघ्र ही मनुष्यों के मन को वश में कर लेती है,२ परमात्मप्रकाश पर पर्णरूप से घटित होता है। जहाँ तक भावधारा का सम्बन्ध है. उसमें भी योगीन्दु की उदारता स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म-विशेष की संकुचित सीमामों में प्राबद्ध नहीं हुए। उन्होंने मुक्त प्रात्मा की भांति ही उन्मुक्तता का परिचय दिया। उनका 'जिन' शिव और बुद्ध भी बन सका । उनके द्वारा निरूपित परमात्मा की परिभाषा में केवल जैन ही नहीं अपितु वेदांती, मीमांसक और बौद्ध भी समा सके । उन्होंने प्रजन शब्दावली का भी प्रयोग किया। परमात्मप्रकाश अध्यात्म का ग्रन्थ है, जैन या बौद्ध नही । इसके दो अधिकारों में १२६ और २१६ दोहे हैं । इस पर ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका और प० दौलतराम की हिन्दी टीका महत्वपूर्ण है। 3 यह ग्रन्थ डा० ए० एन० उपाध्ये के सम्पादन में बम्बई से प्रकाशित हो चुका है।
योगसार नामक ग्रन्थ के रचयिता भी योगीन्दु ही थे । इसमें १०८ दोहे है। इसका विषय परमात्मप्रकाश से मिलता-जुलता है किन्तु, इसमें वैसी सरसता नहीं है । डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने इसका भी सम्पादन किया है । इसका प्रकाशन 'परमात्मप्रकाश' के साथ बम्बई में हुआ था।
सावयधम्मदोहा के रचयिता को लेकर दो भिन्न मत है । डॉ० ए० एन० उपाध्ये इसे लक्ष्मीचन्द की रचना बतलाते हैं और डॉ० हीरालाल जैन देवसेन की । इस समय देवसेनवाला मत ही प्रचलित है। डॉ० हीरालाल का सबसे बड़ा
१. परमात्मप्रकाश, डॉ० ए० एन० उपाध्ये-लिखित प्रस्तावना, पृ० ६७ । २. वही, प्रस्तावना, पृ० १०६ और अपभ्रंशकाव्यत्रयी, गायकवाड़ मोरियण्टल सीरीज,
बड़ौदा, श्री एल० बी० गांधी-लिखित प्रस्तावना, पृ० ६७-६८ । ३. श्री ब्रह्मदेव ईसा की तेरहवीं शती और पं० दौलतराम अठारहवीं शती में हुए ।
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तर्क यह है कि 'सावयधम्मदोहा' देवसेन के भावसंग्रह' से बिलकुल मिलताजुलता है । देवसेन मालवा-प्रान्त की धारा-नगरी के निवासी थे। उन्होंने वहाँ ही सन् ६३३ ई० में 'सावयधम्मदोहा' का निर्माण किया था। अब यह 'दोहक' डा० हीरालाल जैन के सम्पादन में कारंजा से प्रकाशित हो चुका है। इसका दूसरा नाम 'श्रावकाचारदोहक' भी है। इसमें श्रावकधर्म होने पर भी कवि की उन्मुक्तता स्पष्ट है ।
दोहापाड़ मध्यकालीन संतकाव्य की एक शक्तिशाली कृति है । इसके रचयिता मुनि रामसिंह के विषय में केवल इतना विदित है कि वे राजस्थान के निवासी थे । डॉ० रामकुमार वर्मा ने उनका समय वि० स० ६६० से ११५७ के मध्य निर्धारित किया है ।२ डॉ० हीरालाल जैन इन्हें सन् १००० के लगभग मानते हैं । इस ग्रन्थ में केवल २२२ दोहे हैं। डॉ० हीरालाल जैन के सम्पादन और विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ यह ग्रन्थ कारंजा से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ में एक अोर अात्मसाक्षात्कार के बिना बाह्म आडम्बर नितांत हेय और व्यर्थ बताये गये हैं, तो दूसरी ओर जीव के परमात्मा से प्रेम करने की बात कही गई है। वहां प्रात्मा और परमात्मा के तादात्म्य से उत्पन्न हुए समरस भाव के अनुपम चित्र पाये जाते हैं। दोहापाहुड़ एक रहस्यवादी कृति है। हिन्दी के भक्तिकालीन रहस्यवाद पर उसका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।
वैराग्यसार के रचयिता सुप्रभाचार्य हैं । कई दोहों में उनका नाम पाया है। यह काव्य सबसे पहले डॉ० वेलणकर द्वारा संपादित होकर 'एनल्स पाव भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट' से प्रकाशित हुआ था। यह संस्कृत टीका के साथ जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग १६, किरण, दिसम्बर, १६४६ ई० में भी छप चुका है। कवि ने संसार की क्रूरता और व्यर्थता दिखाकर जीव को आत्मदर्शन को ओर उन्मुख किया है। इस काव्य में धन की सार्थकता जिनेन्द्र की भक्ति में स्वीकार की गई है । काव्य में सरसता और आकर्षण की कमी नही है।
१. यह ग्रन्थ माणिकचन्द-दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से पन्नालाल सोनी के सम्पादन में,
विक्रमाब्द १९७८ में प्रकाशित हो चुका है । २. "हिन्दी-साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' : डॉ० रामकुमार वर्मा, पृ० ८३ । ३. पाहुड़दोहा, भूमिका, डॉ० हीरालाल जैन-लिखित, पृ० ३३ ।
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मुनि रामसिंह के 'दोहापाहुड़' के अतिरिक्त एक और दोहापाहुड़ उपलब्ध हुमा है । उसकी हस्तलिखित प्रति आमेर-शास्त्रभण्डार, जयपुर में मौजूद है। उसमें ३३३ दोहे हैं । इसके रचयिता कोई महचन्द्र नाम के कवि हैं। इससे स्पष्ट है कि ये महीचन्द्र नाम के तीनों जैन भट्टारकों से पृथक हैं। उन्होंने एक स्थान पर 'जोईद' का स्मरण किया है। उनका काव्य 'परमात्मप्रकाश' से प्रभावित है। उसमें 'परमात्मप्रकाश' की भांति ही 'निष्कल ब्रह्म के ध्यान से अनंत सुख की प्राप्ति की बात कही गई है । उसकी अन्य प्रवृत्तियां भी 'परमात्मप्रकाश' से हू-ब-हू मिलती-जुलती हैं । यह भी रहस्यवाद का उत्तम निदर्शन है ।
महात्मा प्रानन्द तिलक ने 'पारणंदा' नाम की एक मुक्तक स्चना का निर्माण किया था। इसकी हस्तलिखित प्रति भामेर-शास्त्र भण्डार, जयपुर में मौजूद है । इसके रचना-काल पर मतभेद हैं, किन्तु भाषा की दृष्टि से वह चौदहवीं शती की प्रतीत होती है । इतना निश्चित है कि इसका निर्माण कबीर प्रादि निर्गुणवादी संतों के पूर्व हुआ था। इसमें ४४ पद्य हैं। यह रचना आध्यात्मिक भक्ति का सरस उदाहरण है। इसमें 'अण्ण' को चिदानंदु, रिणरंजणु, परमसिउ आदि विशेषणों से युक्त किया गया है । इसमें लिखा है कि साधुजन तीर्थों में भ्रमण न करके, कुदेवों को न पूजकर अपने हृदय में भरे अमृत-सरोवर में स्नान करें और हृदय में ही विराजमान परमात्मा की उपासन करें, उन्हें परमानन्द मिलेगा । सद्गुरु की महिमा का स्थान-स्थान पर वर्णन किया गया है।
हिन्दी का भक्ति-काव्य दो भागों में विभक्त है-निर्गुण-भक्तिधारा और सगुण भक्तिधारा । निर्गुण-भक्ति के दो भेद हैं-ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेमाश्रयी शाखा। इसी भाँति सगुण-भक्तिधारा भी कृष्ण-काव्य-और राम-काव्य के रूप में बंटी हुई है। इनमें निर्गुण-भक्तिकाव्य जैन अपभ्रंश के दूहा-काव्य से प्रभावित है, ऐसा मै मानता हूँ। दोनों की अधिकांश प्रवृत्तियां समान हैं। इसलिए डॉ० हीरालाल जैन ने लिखा था-"इनमें वह विचार-स्रोत पाया जाता है. जिसका प्रवाह हमें कबीर की रचना में प्रचुरता से मिलता है। डॉ० रामसिंह 'तोमर' का भी कथन है कि 'जो हो, हिन्दी-साहित्य में इस रहस्यवाद-मिश्रित
१. महचन्द-कृत पाहुड़दोहा, आमेर-शास्त्रमण्डार, जयपुर की हस्तलिखित प्रति, दोहा
सं० ३२८ । २. डॉ. हीरालाल जैन, अपभ्रश-भाषा और साहित्य, काशी-नागरी-प्रचारिणी, पत्रिका
भाग ५०, अंक ३-४, पृ० १०७ ।
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परम्परा के आदि प्रवर्तक कबीरदास हैं श्रीर उनकी शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती
रूप जैन रचनाओं में प्राप्त होता है ।'
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ब्रह्म के उपासक थे । 'निर्गु'रंग' का अर्थ है - गुणातीत । गुरण का अर्थ है - प्रकृति का विकार-सत्त्व, रज और तम । २ संसार इस विकार से संयुक्त है और ब्रह्म इससे रहित । किन्तु कबीरदास ने विकार संयुक्त संसार के घट-घट में 'निर्गु' रंग' ब्रह्म का वास दिखाकर सिद्ध किया है कि 'गुण', 'निर्गुण' का और 'निर्गुण' 'गुण' का विरोधी नहीं है । इन्होंने 'निरगुन में गुन और गुन में निरगुन' को ही सत्य माना, अवशिष्ट सबको धोखा कहा । अर्थात्, कबीरदास सत्त्व, रज, तम के साहित्य की अपेक्षा ब्रह्म को निर्गुण और सत्त्व, रज, तम रूप विश्व के करण -करण में व्याप्त होने की दृष्टि से सगुरण कहा । उनका ब्रह्म ऐसा व्यापक था जो भीतर से बाहर और बाहर से भीतर तक फैला था । वह प्रभाव - रूप भी था और भावरूप भी, निराकार भी था और साकार भी, द्वत भी था और अद्वैत भी । स्पष्ट है कि कबीर का ब्रह्म अनेकान्तात्मक था । जैसे, अनेकान्त में दो विरोधी पहलू अपेक्षाकृत दृष्टि से निभ सकते है, वैसे कबीर ब्रह्म में भी थे । कबीर पर जाने और अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्ट । कबीरदास की सत्यान्वेषक बुद्धि ने उसको स्वीकार किया । उन्होंने अनुभूति के माध्यम से उसको पहिचाना । अनेकान्त पीछे छिपे सिद्धान्तों को न किसी ने समझाया, और न उनका उस सिद्धान्त से कोई अर्थ हो था । कवीरदास सिद्धान्तों के घेरे में बंधने वाले जीव नही थे । खैर, कबीरदास ने उस सुगन्धि को पसन्द किया, जो सर्वोत्तम थी । वह कहां से आ रही थी, किसकी थी, इसकी उन्होने कभी चिन्ता नही की। आज वह हमारे विचार का विषय अवश्य है ।
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कबीरदास पर वैसे तो न जाने कितने सम्प्रदायों का प्रभाव है, किन्तु उन में नाथ और सूफी सम्प्रदायो को प्रमुखता दी जाती है। मै नाथ सम्प्रदाय
१, डॉ० रामसह ' तोमर': जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, प्रेमी अभिनन्दनग्रन्थ, पृ० ४६७ ।
२. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी कबीर : प्र० हिन्दी - प्रथ रत्नाकार - कार्यालय, बम्बई,
नवम्बर, १९५५, ई० पृ० २०४ | ३. सतो, घोखा कांसू कहिये
गुण मे निरगुण निरगुरण में गुण बांट छांडि क्यूं बहिये ?
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कबीर, ग्रन्थावली, पद १८० ।
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का सम्बन्ध जैन परम्परा से मानता हूं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी माना है कि नाथ-सम्प्रदाय में जो बारह सम्प्रदाय अन्तम क्त किये गये थे, उनमें पारस और नेमी-सम्प्रदाय भी थे । दोनों जैन थे। इसी कारण नाथ सम्प्रदाय में अनेकान्त का स्वर अवश्य था, भले ही उसका रूप अस्पष्ट रह गया हो।
यही अनेकान्त का स्वर अपभश के जैन दूहा-काव्य में पूर्णरूप से वर्तमान है । कबीर ने जिस ब्रह्म को 'निर्गुण' कहा है, योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश' में उसे ही 'निष्कल' संज्ञा से अभिहित किया गया था। 'निष्कल' की परिभाषा बताते हुए टीकाकार ब्रह्मदेव ने 'पञ्चविधशरीररहितः' लिखा ।' महचन्द ने भी अपने दोहापाहुड़ में निष्कल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। शरीररहित का अर्थ है-निःशरोर, देहरहित, अस्थूल, निराकार, प्रमूत्तिक, अलक्ष्य । प्रारम्भ में योगीन्दु ने इसी 'निष्कल' को 'निरञ्जन' कहकर सम्बोधित किया है। उन्होंने लिखा है-“जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण, वह निरजन कहलाता है ।" २ निरञ्जन का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है । वैसे 'निष्कल' के अनेक पर्यायवाची हैं। उनमें आत्मा, सिद्ध, जिन और शिव का स्थान-स्थान पर प्रयोग मिलता है । मुनि रामसिंह ने समूचे दोहापाहुड़ में केवल एक स्थान पर निर्गुण' शब्द भी लिखा है। उन्होंने उसका अर्थ किया है- निर्लक्षण और निःसंग। वह 'निष्कल' से मिलताजुलता है।
___ कबीर की 'निर्गुण में गुण और गुण में निर्गुण' वाली बात अपभ्रंश के काव्यों में उपलब्ध होती है । योगीन्दु ने लिखा- जसु अभंतरि जगु वसई, जगअभंतरि जो जि। इस भाँति मुनि रामसिह का कथन है- तिहुयरिण दीसइ
१. परमात्मप्रकाश, ११२५ पर ब्रह्मदेव-कृत-संस्कृत-टीका, पृ० ३२ । २. जासु रण वण्णु ण गंधु रसु जासु रण सदुण फासु ।
जासु रण जम्मणु मरणु गवि गाउ निरंजणु तासु ॥ परमात्मप्रकाश १।१६, पृ० २७ । ३. हउ सगुणी पिउ णिग्गुणउ शिल्लक्खणु णीसंगु । एकहिं अंगी वसंतयह मिलिउ ण प्रगहि अगु ।।
-पाहुड़दोहा, १०० वाँ दोहा, पृ० ३० । ४. जसु अन्मंतरि जगु वसइ जग अभंतरि जो जि । जागे जि वसंतु वि जगु जिरण वि मुरिण परमप्पउ सो जि॥
-परमात्मप्रकाश, ११४१ पृ० ४५ ।
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देउ, जिण जिणवरि तिहुवरणु एउ।' अर्थात्, त्रिभूवन में जिनदेव दिखता है
और जिनवर में यह त्रिभुवन । जिनवर में त्रिभुवन ठीक वैसे ही दिखता है, जैसे निर्मल जल में ताराओं का समूह प्रतिबिम्बित होता है। किन्तु, त्रिभुवन में जिनदेव की व्याप्ति कुछ विचार का विषय है। त्रिभुवन का अर्थ है- त्रिभुवन में रहने वालों का घट-घट । उसमें निर्गुण या निष्कल ब्रह्म रहता है । निष्कल है पवित्र और घट-घट है अपवित्र-कलुष और मेल से भरा। कुछ लोगों का कथन है कि गन्दगी से भरी जगह में वह ब्रह्म नहीं रह सकता, अतः पहले उसको तप, साधना या संयम किसी भी प्रक्रिया से शुद्ध करो, तब वह रहेगा, अन्यथा नहीं । कबीर ने निर्गुण राम की शक्ति में पूरा विश्वास किया और कहा कि इसके बसते ही कलुष स्वतः ही पलायन कर जाता है । उन्होंने स्पष्ट ही लिखाते सब तिरे राम रसवादी, कहे कबीर बूड़े बकबादी। उनकी दृष्टि में विकार, की लहरों से तरंगायित इस संसार-सागर से पार होने के लिए राम-रूपी नैया का ही सहारा है । कबीर से बहुत पहले मुनि रामसिंह ने भीतरी चित्त के मैल को दूर करने के लिए निरञ्जन को धारण करने की बात कही थी। उन्होंने यह भी लिखा कि जिसके मन में परमात्मा का निवास हो गया, वह परमगति पा लेता है। उनके कथनानुसार जिसके हृदय में भगवान् 'जिनेन्द्र' मौजूद हैं
१. तिहुयरिण दीसइ देउ जिणु जिणवरि तिहुवणु एउ। जिरणवरि दीसइ सयलु जगु को विरण किज्जइ भेउ ।।
-पाहुड़दोहा, ३६ वाँ दोहा, पृ० १२ । २. नारायणु जाल बिबियउ णिम्मलि दीसइ जेम । अप्पए णिम्मलि बिबियउ लोयालोउ वि तेम ।।
-परमात्मप्रकाश, २११०२, पृ० १०६ । ३. रसना राम गुन रमि रस पीजं । गुन प्रतीत निरमोलिक लीजै ।।
निरगुन ब्रह्म कथौ रे माई । जा सुमिरत सुधि बुधि मति पाई ।। विष तजि राम न जपसि प्रभागे । का बूड़े लालच के लागे । ते सब तिरे रामरसवादी । कहै कबीर बूड़े बकबादी ।।
-कबीर-ग्रन्थावली, पद ३७५ ४. अन्भितर चित्ति वि मइलियई बाहरि काइ तवेण । चित्ति णिरंजणु को वि घरि मुच्चहि जेम मलेण ॥
-पाहुड़दोहा, ६१ वा दोहा, पृ० १८ । ५. जसु मरिण रिणवसइ धरमपउ सयलई चिंत चवेवि । सो पर पावइ परमगइ प्रठ्ठई कम्म हणे वि ।।
-वही, दोहा-सं ६६ ।
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वहां मानों समस्त जगत् ही संचार करता है । उनके परे कोई नहीं जा सकता ।" sarvari योगीन्दु का भी कहना है- "जिसके मन में निर्मल आत्मा नहीं बसती, उसका शास्त्र-पुराण और तपश्चरण से भी क्या होगा ? "२ प्रर्थात् निष्कल ब्रह्म के बसने से मन भी शुद्ध हो जायगा, उसकी गन्दगी रहेगी नहीं । विषयकषायों से संयुक्त मन जब निरञ्जन को पा लेता है, तब वह मोक्ष का हकदार बन जाता है। इसके अतिरिक्त तन्त्र और मन्त्र उसे मोक्ष नहीं दिला सकते । ३ महचन्द्र ने भी दोहा पाहुड़ में लिखा है- "निष्कल परम जिन को पा लेने से जीव सब कर्मों से मुक्त हो जाता है, श्रावागमन से छूट जाता है और अनंत सुख प्राप्त कर लेता है ।"
कबीर आदि संत कवियों ने 'साहिब' को घट के भीतर देखने के लिए कहा। उन्होंने स्पष्ट ही लिखा कि देवालय, मस्जिद, मूर्ति और चित्र भादि में 'वह' नहीं रहता । वहां उसका ढूंढा जाना व्यर्थ होगा । इसी भांति उन्होंने तीर्थयात्रा को भी निःसार माना । तीर्थों में भगवान नहीं रहता । 'भूम विषोंसरण कौ 'ग' कबीरदास ने लिखा है- "यह दुनिया मन्दिरों के आगे सिर झुकाने को जाती है, परन्तु हरि तो हृदय के भीतर रहते हैं, तू उसी में लौ लगा । ४" इसी भांति
१. केवलु मल परिवज्जियउ जहि सो ठाइ श्ररणाइ । तस उरि सब जगु संचरइ परइ ग कोइ वि जाइ ||
२ अप्पा यि मरिण निम्सलउ यिमें वसई एग जासु । सत्य पुराणइ तव चरणु मुक्खु वि करहि कि तासु ॥
--परमात्मप्रकाश, ११६८, पृ० १०२ ।
३. जेरण रिणरंजरिए मणु धरिउ विसय कसायहि जंतु । मोहं कारण एत्त प्रष्णु रण ततु रण मंतु ॥
-वही, दोहा - सं० ८६ ।
५. कबीर दुनियां देहुरे, सीस नवांवरण जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसे, तू ताही सौ ल्यो लाइ ||
-वही, १।१२३, पृ० १२५ ।
४. भार्या रिक्कुलु परम जिस्णु कम्मट्ठ हविरिण मुक्क । श्रावण गवरण विवर्जयऊ लहु श्रणंतु चउवकु ॥
- महचन्द : पाहुड़दोहा, भामेर-शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति, ६१ वाँ दोहा ।
— कबीर - प्रन्थावली, भ्रमविधोरण को प्रांग, ११ वाँ दोहा ।
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उन्होंने पत्थर की मूर्ति के पूजने को मझधार में डूबने के समान माना है । ' दादू का कथन भी मिलता-जुलता है-"कोई द्वारका दौड़ता है, कोई काशी श्रौर कोई मथुरा; किन्तु साहिब तो घट के भीतर मौजूद हैं।” २ संत कवि की यह मान्यता कवियों में अधिकाधिक देखी जाती है । 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है"आत्मदेव न तो देवालय में रहता है, न शिला में, न लेप्य में और चित्र में, वह तो समचित्त में निवास करता है ।" ३ योगीन्दु ने योगसागर में भी लिखा- "श्रुतः केवली ( सब विद्याओं का पूर्ण जानकार ) ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, वह तो देह - देवालय में विराजमान रहता है, इसे निश्चित समझो । यह सासारिक जीव उसके दर्शन मन्दिरों में करना चाहता है, यह उपहासास्पद है ।" ४ मुनि रामसह ने पाहुड़दोहा में उनको मूर्ख कहा है, जो शिव को देवालयों में ढूंढते फिरते हैं, अपने देह - मन्दिर को नहीं देखते, जहा वह है । श्रानन्दतिलक का कथन है
५
महात्मा
अठसटि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहि भमंतु । प्पा बिन्दु न जाणहीं, आणंदा घट महि देउ श्ररणंतु ॥
६
१. पाहा केरा पूतला
करि पूर्ज करतार | वूढे काली धार ॥
इसी भरोस जे रहे, ते
२. दादू केई दौड़े द्वारिका,
- देखिए वही, पहला दोहा । केई कासी जाहि ।
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कई मथुरा कों चले, साहिब घट ही मांहि ||
-- दादू की वारणी, यशपाल - संपादित, दिल्ली,
४. तिथहि देवलि देउ रवि इम सुइकेवलिवुत्त । देहा देवलि देउ जिणु एहउ जागि गिरत ||४२ ॥ देहा देवलि देउ जिणु जणु देवर्लाहि रिगएइ । हासउ मह पsिहाइ इहु सिद्ध भिक्ख ममेइ ||४३||
पृ० २६ का अन्तिम पद्य ।
३. देउ र देउले गवि सिलए बि लिप्पइ गवि चित्ति । श्रखउ गिरजुग गागमउ सिउ संठिउ समचिति ॥ -- परमात्मप्रकाश, १।१२३, पृ० १२४ ।
५. मूढा जोवइ देवलइ लोर्याह जाइ कियाई ।
देह ग पिच्छs जपरिणय जहि सिउ सत ठियाई ।। १५० ।।
६. देखिए 'आणंदा' की हस्तलिखित प्रति, ( आमेर - शास्त्र भंडार, जयपुर), पद-सं० ३ ।
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कबीरदास ने सबसे बड़ा काम यह किया कि उस अव्यक्त ब्रह्म को प्रेम का विषय बनाया। अभी तक वह केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्तब्य माना जाता था। पं० रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में निर्गुण ब्रह्म से प्रेम करने की बात सूफियों से आई, भारतीय परती में उसका बीज भी नहीं था। किन्तु, आत्मा से प्रेमपरक प्रणय की परम्परा जैनकाव्यों में उपलब्ध होती है और उसका प्रारम्भ अपभ्रंश के इस साहित्य से ही नहीं, अपितु उसके भी बहुत पूर्व से मानना होगा । यह तो स्पष्ट है कि मुनि रामसिंह के पाहुड़दोहा पर प्राचार्य कुन्द-कुन्द के भावपाहुड़ का प्रभाव है । प्राचार्य कुन्द कुन्द का समय वि० सं० को पहली शती माना जाता है। कबीरदास ने निर्गुण-भक्ति के क्षेत्र में दाम्पत्य-रति का रूपक घटित किया। उन्होंने ब्रह्म को पति और जीव को पत्नी बनाया । 'हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया' को लेकर प्रेम के विविध पहलुओं पर कबीर ने लिखा-तन्मय होकर लिखा । ब्रह्म को पति बनाने की बात पाहुड़दोहा में उपलब्ध होती है। मुनि रामसिह ने लिखा-मैं सगुण हूँ और पिय निर्गुण-निर्लक्षण और निःसंग, अतः एक ही देहरूपी कोठे में रहने पर भी अंग से अंग न मिल सका । ' आगे चलकर हिन्दी के जैनकाव्य में दाम्पत्य प्रेम का सरस उद्घाटन हुआ। उनमें सर्वोत्कृष्ट थे महात्मा अानन्दघन । उनकी आत्मारूपी दुलहिन ने परमात्मारूपी पिय से प्रेम किया; फिर दर्शन, मिलन और तादात्म्य-जन्य आनन्द का अनुभव किया। वैसे बनारसीदास, भगवतीदास, द्यानतराय, मनराम आदि हिन्दी के जैन कवियों ने आध्यात्मिक भक्ति में दाम्पत्य-रति को प्रमुखता दी किन्तु, रूपक के रूप में भी अश्लीलता नहीं आ पाई, यह उनकी विशेषता थी। पति-पत्नी का प्रेम चलता रहा और आध्यात्मिकता भी निभती रही।
ब्रह्म के प्रति प्रेम की भावनात्मक अभिव्यक्ति ही रहस्यवाद कहलाती है। कबीर के रहस्यवाद की सबसे बड़ी विशेषता है-'समरस भाव' । आत्मा और परमात्मा के तादात्म्य होने को समरस कहते हैं । रसता इसलिए कहा कि दोनों के एक होने से ब्रह्मानन्द मिलता है। उसे ही रस कहते हैं। प्रात्मा और परमात्मा के तादात्म्य को लेकर जैन परम्परा में कुछ भिन्नता है। जैन प्राचार्यों की 'पात्मा' एक अखण्ड ब्रह्म का खण्ड प्रश नहीं है, अतः उसके ब्रह्म में मिलने जैसी बात उत्पन्न ही नहीं होती। किन्तु, प्रात्मा शुद्ध होकर परमात्मा बनती है। मात्मा के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्य प्रात्मा इतनी मिथ्यावंत होती है कि वह पूर्ण शुद्धता प्राप्त ही नहीं कर सकती । अन्त
१. पाहुड़दोहा, १०० वो पद्य, पृ० ३० ।
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रात्मा में शुद्ध होने की ताकत होती है, किन्तु वह अभी पूर्ण शुद्ध है नहीं । परमात्मा आत्मा का पूर्ण शुद्ध रूप है । ' रहस्यवाद में आत्मा के दो ही रूप काम करते हैं - एक तो वह, जो अभी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह, जो परमात्मा कहलाता है। पहले में बहिरात्मा श्रौर अन्तरात्मा शामिल हैं और दूसरे में केवल परमात्मा । पहला अनुभूति कर्त्ता है और दूसरा धनुभूति
तत्व ।
२
चाहे श्रात्मा ही ब्रह्म बनती हो अथवा वह ब्रह्म में मिलती हो, समरसता र तज्जन्य अनुभूति का श्रानन्द जैनकाव्यों में उपलब्ध होता है । कबीर ने लिखा है- पाणी ही तें हिम भया, हिम है गया बिलाइ । जो कुछ था सोई भया, अब कछू का न जाइ ।। ठीक ऐसा ही जैन कवि बनारसीदास का कथन हैपिय मोरे घट मैं पिय माहिं, जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहि । द्विविधा के मिटने की बात भगवतीदास भैया ने भी कही - जब तें अपनो जिउ प्राप लख्यो, तब तें जु मिटी दुविधा मन की । ४ हिन्दी कवियों की यह समरसता अपभ्रंश के दूहा-काव्य में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है । श्राचार्य योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है - मरणु मिलियउ परमेसरहे परमेसरु वि मरणस्स, हि वि समरसि हूवाँह पुज्ज asia कस्स । अर्थात् मन परमेश्वर में और परमेश्वर मन में मिलकर समरस हो गये, तो फिर मैं अपनी पूजा किसे चढ़ाऊँ ? ५ एक-दो शब्दों के हेर-फेर से मुनि रामसिंह ने भी लिखा - मरणु मिलियउ परमेसरहो परमेसरु जि मरणस्स, विणि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चडावउ कस्स । दोनो की भाषा में यत्किञ्चित् श्रन्तर के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है । मुनि श्रानन्द तिलक ने भी समरस के रंग की बात लिखी है। उनका कथन हैसमरस भावे रंगिया अप्पा देखइ सोई, अप्पर जारणइ परहाई श्रारगंद करई रिगरालंब होई ।
१. परमात्मप्रकाश, १।११।१५, पृ० २० - २४ ।
२. कबीर ग्रन्थावली, परचा को अग, १७ वा दोहा ।
३. बनारसीदास : अध्यात्मगीत, १६ वा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १६१ ।
४. भगवतीदास 'भैया', शत- अष्टोत्तरी, ३५ वां कवित्त, ब्रह्मविलाम, जैन ग्रन्थरत्नाकर
कार्यालय, बम्बई, सन् १९२६ ई०, पृ० १६ ।
५. परमात्मप्रकाश, १।१२३, पृ० १२५ ।
६. पाहुडदोहा, ४६ वां दोहा, पृ० १६ ।
७. देखिए आमेर - शास्त्र भंडार, जयपुर की 'गंदा' की हस्तलिखित प्रति, ४० वां पद्य ।
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मात्मा और परमात्मा के तादात्म्य से उत्पन्न होने वाला आनन्द केवल कबीर के भाग्य में ही नहीं बदां था, बनारसीदास को भी मिला और उन्हें उसका स्वाद कामधेनु, चित्रावेलि और पंचामृत भोजन जैसा लगा । उनकी दृष्टि में राम रसिक और राम-रस पृथक् नहीं रह पाते, दोनों एक हो जाते हैं । " द्यानतराय ने उस प्रानन्द को गूंगे के गुड़ के समान कहा, जिसका अनुभव तो होता है, किन्तु कहा नहीं जा सकता। कबीर ने इसी को 'गूगे केरी शर्करा, बैठे ही मुसकाय' कहकर प्रकट किया था। समरसता से उत्पन्न होने वाले इस श्रानन्द की बात कबीर से कई शती पूर्व प्राचार्य योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में स्वीकार की थी । उन्होंने 'रिगच्चु गिरंजरणु रामउ परमारणंदसहाउ' कहकर अपने नित्य, निरंजन और ज्ञानमय परमात्मा को परमानन्द-स्वभाव वाला घोषित किया । एक दूसरे दोहे में - 'केवल सुक्ख सहाउ' लिखा, ' अर्थात् उसका स्वभाव पूर्ण सुखरूप है । 'परमसुख और परमानन्द' पर्यायवाची हैं। तात्पर्य हुआ कि परमानन्द और केवल - - सुख स्वभाव वाले ब्रह्म से जिसका तादात्म्य होगा, वह भी तदुरूप ही हो जायगा । इस आनन्द को पूर्णतया स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक पद्य में लिखा- " समभाव में प्रतिष्ठित योगीश्वरों के चित्त में परमानन्द उत्पन्न करता हुआ जो कोई स्फुरायमान होता है, वही परमात्मा है ।" अर्थात् आत्मा जब परमानन्द का अनुभव कर उठे, तब समझो कि परमात्मा मिल गया है । 'परमानन्द' के 'परम' की व्याख्या करते हुए उन्होंने उसे अद्वितीय का वाचक लिखा है । उनका कथन है- "शिव-दर्शन से जिस परमसुख की प्राप्ति होती है, यह इस भुवन में
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१. अनुमो के रस को रसायन कहत जग, अनुभो अभ्यास यहु तीरथ की ठौर है । अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि अनुभौ को स्वाद पच श्रमृत को कोर है ।।
- बनारसीदास : नाटकसमयसार, बम्बई, वि० सं० १९८६, पृ० १७ ।
२. देखिए वही ।
३. द्यानतविलास, कलकत्ता, ६० वां पद, पृ० २५ ॥ ४. रिणन्तु गिरंजणु गाणमउ परमाणंद सहाउ ।
जो एहउ सो संत सिउ तासु मुरिण ताहि माउ ॥ - २।१७ ।
५. केवल दंसरण गारणमउ केवल सुक्ख सहाउ ।
केवल afra सो मुहि जा जि परावरु भाउ ||२४|| ६. जो सम भाव परिखियह जोइह कोई फरेइ । परमाणंदु जणंतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ||३५||
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कहीं भी नहीं है । इस प्रनन्त सुख को इन्द्र करोडों देवियों के साथ रमरण करने पर भी प्राप्त नहीं कर पाता ।" " ठीक यही बात मुनि रामसिंह ने पाहुड़दोहा मैं लिखी है - तं सुइदु वि उ लहइ देविहिं कोटि रमंतु । २ उन्होंने यह भी लिखा कि 'जिसके मन में परमात्मा का निवास हो गया, वह परमगति को पा जाता है ।' यह परमगति, परमसुख और परम आनन्द ही है। मुनि श्रानन्द तिलक ने भी - 'अप्प गिर जगु परम सिउ अप्पा परमारगंदु' लिखकर प्रात्मा को 'निरञ्जन' और 'शिव' कहते हुए 'परमानन्द' भी कहा ।
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कबीरदास ने परमात्मा के मिलन को अमृत का धारासार बरसना कहा है । जिस प्रकार अमृत श्रमरत्व प्रदान करता है, उसी प्रकार मिलन की यह वर्षा जीव को परमपद देती है । इस अमृत का ज्ञान गुरु से प्राप्त होता है । कबीर इसके पारखी हैं । उन्होंने इस अमृत को छककर पिया है ।" जैनकवि विनयविजय ने भी घट में स्थित सुधासरोवर का उल्लेख किया है । उसमें स्नान करने से दुःख दूर हो जाते है, परम आनन्द उपलब्ध होता है। इस सरोवर को गुरुदेव दिखाता है, किन्तु वही देख सकता है, जिसका उसमें दिल लगा है। इस सुधा स्नान और सुधा पान की महिमा कवि बनारसीदास को भी विदित थी । कवि
१. ज सिव दसरिण परम सुहु पावहि झाणु करंतु ।
भुवरण विप्रथि गवि मेल्लिवि देउ श्ररणतु ।। ११६ ।। जं मुरिण लहइ प्रांत जग गिय अप्पा झायतु । तमुहुइ दु विउ लहइ देविहि कोडि रमंतु ॥ ११७।। २. ज सहु विसय परमुहउ यि अप्पा झायंतु ।
तं मुहु इदु विरणउ लहद देविहि कोडि रमतु || ३ || ३ जसु मरिण विसइ परमपउ सयलाई चित्त चवेवि ।
सो पर पावइ परमगइ अलइ कम्म हरोवि ।। ६६ ।।
४. प्रार--शास्त्र भण्डार, जयपुर की 'आगंदा' को हस्तलिखित प्रति, दूसरा दोहा ।
निपजै घंटा पड़े टकसाल । पारपू अन उतरया पार ।।
- कबीर वाणी । कबीरदास डा० द्विवेदी, पृ० २६० ।
५. अमृत बरिसं हीरा कबीर जुलाहा भया
६. सुधा सरोवर है या
घट में, जिसमें सब दुख जाय ।
विनय कहे गुरुदेव दिखाये, जो लाऊ दिल ठाय ||
प्यारे काहे कूं ललचाय ॥
-- पदसंग्रह, बड़ौत, शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति, पृ० १७ ।
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श्रानन्दसूरि ने भी अमृत का श्राचमन किया था। जिस अमृत के प्रानन्द की बात हिन्दी के जैन और अर्जन कवियों में इतनी प्रसिद्ध है, उसका पूर्वस्वाद अपभ्रंश कवि ले चुके थे। मुनि श्रानन्द तिलक ने लिखा है कि ध्यान रूपी सरोबर में अमृत रूपी जल भरा है, जिसमें मुनिवर स्नान करते हैं और भ्रष्टकर्मों को धोकर निर्वारण में जा पहुँचते हैं। इन्हीं मुनि ने एक दूसरे स्थान पर लिखा है कि परमानन्द-रूपी सरोवर में जो मुनि प्रवेश करते हैं, वे अमृतरूपी महारस को पीने में समर्थ हो पाते हैं; किन्तु गुरु के उपदेश से । २ मुनि रामसिंह ने ब्रह्म को श्रमर कहकर उसे अपनाने का आग्रह किया है । अर्थात् उसके प्रमृतरूप की महिमा गाई है । योगन्दु ने अमृत-सरोवर को दृष्टान्त के द्वारा प्रकट किया है । उन्होंने लिखा है- "ज्ञानियों के निर्मल मन में अनादिदेव उसी प्रकार निवास कर रहा है, जिस प्रकार सरोवर में हंस लीन रहता है । सभी कुछ अनादि हैं, हंस भी और सरोवर भी । ४ परमात्मप्रकाश में ब्रह्म का 'अजरामर' विशेषरण तो एकाधिक बार प्रयुक्त हुआ है । हृदयरूपी सरोवर में हंस के विचरण करने की बात तो महचन्द ने भी लिखी है ।
मध्यकालीन संत कवियों ने अपने बह्म को सभी पौराणिक देवों के नाम से पुकारा है । किन्तु उनका अर्थ पुराण-सम्मत नहीं था । कबीर का राम निरञ्जन है । वह निरञ्जन, जिसका रूप नहीं, आकार नहीं, जो समुद्र नहीं, पर्वत नहीं, धरती नहीं, श्राकाश नहीं, चन्द्र नहीं, पानी नहीं, पवन नहीं - अर्थात्
१. कारण सरोवरु अमिय जलु मुरिणवरु कहइ सव्हाणु । शुभ कर्म मल घोहि श्ररणंदा रे ; रिणयठा पांहु शिव्वाणु ॥
- श्रामेर - शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति ५ व पद ।
२. परमारणंद सरोवरह जे मुरिण करइ प्रवेसु । अमिय महारसु जइ पिवई आरणदा ! गुरु स्वामिहि उपदेसु || -- वही, २६ वाँ पद ।
३. देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बभु सो अप्पारण मुलेहि ॥
- पाहुड़दोहा, ३३ वाँ दोहा, पृ० १७ ।
४. यि मरिण रिणम्मलि पारिणयह रिणवसइ देउ भगाइ । हंसा सरवरि लीणु जिम मठ एहउ पsिहाइ ||
---परमात्मप्रकाश, १।१२२, पृ० १२३ । ५. महचन्द, दोहापाहुड़, धामेर-शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति ३२ व पद्य ।
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सभी दृश्यमान पदार्थों से विलक्षण ।' उनका विष्णु वह है, जो संसार रूप में विस्तृत है, उनका गोविन्द वह है, जिसने ब्रह्माण्ड को धारण किया है, उनका खुदा वह है, जो दस दरवाजों को खोल देता है, करीम वह है, जो इतना सब कर देता है, गोरख वह है, जो ज्ञान से गम्य है, महादेव वह है, जो मन को मानता है, सिद्ध वह है, जो इस चराचर दृश्यमान जगत् का साधक है, नाथ वह है, जो त्रिभुवन का एकमात्र पति या योगी है। जैन महात्मा मानन्दघन ने भी अपने ब्रह्म के ऐसे ही ऐसे अनेक पर्यायवाची दिये हैं। उन्होंने भी इनका पौराणिक अर्थ नहीं लिया है। उनका राम वह है, जो निज पद में रमे, रहीम वह है, जो दूसरों पर रहम करे; कृष्ण वह है, जो कर्मों का क्षय करे; महादेव वह है, जो निर्वाण प्राप्त करे; पार्व वह है, जो शुद्ध प्रात्मा का स्पर्श करे; ब्रह्म वह है, जो प्रात्मा के सत्य रूप को पहचाने । उनका आत्मब्रह्म निष्कर्म,निष्कलंक और शुद्ध चेतनमय है। इससे स्पष्ट है कि कबीर और प्रानन्दघन दोनों का ही राम दशरथ का पुत्र नहीं था। वह अवाड्. मनसगोचर था।
आत्मा को अनेक नाम से पुकार कर उसे अमूर्त, अलक्ष्य, अजर, अमर घोषित करने वाली जैन परम्परा अति प्राचीन है। प्राचार्य मानतुग ने 'भक्तामरस्तोत्र' में जिनेन्द्र को बुद्ध कहा, किन्तु वह बुद्ध नहीं, जिसने कपिलवस्तु में राजा शुद्धोदन के घर जन्म लिया था; अपितु वह, जो (विवुधाचितबुद्धिबोधात्) बुद्ध है। उन्होने शंकर भी कहा, किन्तु शंकर से उनका तात्पर्य 'श' करने वाले से था, प्रलयङ्कर शंकर से नहीं । उनका जिनेन्द्र धाता भी था, किन्तु शिवमार्गविरोधेविधानात् होने से धाता था। सब पुरुषों में उत्तम होने से ही उनका नाम भगवान् पुरुषोत्तम था ।२ प्राचार्य भट्टाकलक ने अकलंकस्तोत्र में ऐसे ही
१. कबीर-ग्रन्थावली, २१६ वा पद । २. कबीर-ग्रन्थावली, ३२७ वा पद । ३ निज पद रमे राम सो कहिये, रहिम करे रहेमान री।
करशे कर्म कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री ।। परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। इह विध साधो प्राप प्रानन्दघन, चेतनमय निःकर्म री ।।
-प्रानन्दघन-पदसग्रह, प्र० अध्यात्मज्ञान-प्रसारक-मंडल, बम्बई, पद ६७ वाँ। २. बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधा
स्त्व शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । घातासि धीर ! शिवमार्गविधेविधानाद्व्यक्त त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥
--भक्तामरस्तोत्र, २५ वा पद्य ।
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विचार व्यक्त किये हैं । अर्थात्, उन्होंने भी जिनेन्द्र को शंकर, विष्णु और ब्रह्मा कहा; किन्तु उनका शंकर शं'करनेवाला था,प्रलय करनेवाला नहीं।' उनका विष्णु वह नहीं था, जिसने नरसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकश्यप को मारा और अर्जुन का रथ हांककर कौरवों का विनाश किया; अपितु वह, जो समूचे संसार में फैला है और सब पदार्थों को हस्तामलकवत् देखता है। उनका ब्रह्मा 'क्षत्तृष्णारोगरहित' था, उर्वशी के मोह-जाल में फंसनेवाला नहीं । अन्त में जिनेन्द्र का रूप बताते हुए अकलंकदेव ने लिखा- "जिसके माथा नहीं, जटा नहीं, कपाल नहीं, मुकुट नहीं, माथे पर चन्द्र नहीं, गले में मुण्डमाल नहीं, हाथ में खट्वाङ्ग नही, भयकर मुख नही, काम-विकार नही, बैल नहीं, गीत-नृत्यादि नहीं, जो कर्मरूप अञ्जन से रहित निरञ्जन है, जिसका सूक्ष्म ज्ञान सर्वत्र व्याप्त है, जो सबका हितकारी है, उस देव के वचन विरोध-रहित, अनुपम और निर्दोष हैं।" वह राग-द्वेष प्रादि सब दोषों से रहित है। ऐसा देव पूजा करने योग्य है, फिर भले ही वह बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, बह्मा, विष्णु या शिव हो।
प्राचार्य योगीन्दु ने इस परम्परा का यथावत् पालन किया। उन्होंने लिखा कि परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, बुद्ध, जो चाहे सो कहो, किन्तु परमात्मा तभी
१. सोऽय कि मम शङ्करो मयतृषारोषात्तिमोहक्षयं
कृत्वा य. स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमङ्कर. शङ्करः ।।२।।
२. यत्राद्यन विदारित कररुहैदैत्येन्द्रवक्षःस्थलम् ।
सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽसारयत्कौरवात् ।। नासौ विष्णुरनेककाल विषयं यज्ज्ञानमव्याहतम्
विश्व व्याप्य विजृम्भते स तु महा विष्णु. सदेष्टो मम ।।३।। ३. उर्वश्यामुदपादि रागबहुल चेतो यदीयं पुनः ।
पात्री दण्डकमण्डलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ।। प्राविर्भावयितु भवन्ति स कथ ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् ।
क्षुत्त ष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ।।४।। ४. माया नास्ति जटाकपालमुकुटं चन्द्रो न मुर्दावली
खट्वाङ्ग न च वासुकिन च धनु. शूलं न चोग्रं मुखं । कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्य पुनः सोऽस्मान्पातु निरजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ॥१०॥
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है, जब वह परम आत्मा हो।' परम प्रात्मा वह है, जो न गौर हो, न कृष्ण हो, न सूक्ष्म हो, न स्यूल हो, न पण्डित हो, न मूर्ख हो, न ईश्वर हो, न निःस्व हो; न तरुण हो, न वृद्ध हो । २ इन सबसे परे हो, ऊपर हो, मूर्तिविहीन हो, अमन हो, अनिन्द्रिय हो, परमानन्द-स्वभाव हो, नित्य हो, निरञ्जन हो, जो कर्मों से छुटकारा पाकर ज्ञानमय बन गया हो, जो चिन्मात्र हो, त्रिभुवन जिसकी वन्दना करता हो। उसे सिद्ध भी कहते हैं । सिद्ध वह है, जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली है । सिद्धि का अर्थ है-निर्वाण । निर्वाण कर्मों से मुक्त विशुद्ध आत्मा कहलाती है । ऐसी आत्मा में सम्पूर्ण लोकालोक को देखता हुअा सिद्ध ठहरता है । सिद्ध और ब्रह्म के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। परमात्मा को शिव भी कहते हैं । शिव वह है, जो न जीर्ण होता है, न मरता है और न उत्पन्न होता है, जो सबसे परे है, अनन्त ज्ञानमय है, त्रिभुवन का स्वामी है, निधान्त है। तीन लोक तथा
१. जो परमप्पउ परमपउ हरि हरु बंभु वि बुद्ध । परम पयासु भणति मुणि सो जिरणदेउ विसुद्ध ।।
--परमात्मप्रकाश, २।२००, पृ० ३३७ । २. अप्पा गोरउ किण्हु गवि अप्पा रत्त ण होइ ।
अप्पा सुहुमु वि थूलु ण वि णारिणउ जारणे जोइ ।। अप्पा पंडिउ मुक्नु रणवि वि ईसरु णवि णीसु तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि काम विसेसु ।।
-परमात्मप्रकाश, १८६, ६१, पृ० ६०, ६४ । ३. अमणु अणिदिउ णाणमउ मुत्ति विरहिउ चिमित्त ।
मप्पा इंदिय विसउ गवि लक्खणु एहु णिरत्त ।। मुत्ति विहूणउ णाणमउ परमाणंद सहाउ । रिणयमि जोइय अप्पु मुरिण णिच्चु णिरजणु भाउ ।
-परमात्मप्रकाश, १।३१, २।१८, पृ० ३७, १४७ । ४. जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि शिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बभु परु देहहँ म करि भेउ ।।
-परमात्मप्रकाश, १।२६, पृ० ३३ । ५. जरइ ण मरइ ण सभवइ जो परि कोवि अणंतु । तिहुवरणसामिउ गाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ।।
-पाहुड़दोहा, ५४ वा दोहा, पृ० १६ ।
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तीन काल की वस्तुओं को नित्य जानता है । वह सदैव शांत स्वभाव रहता है ।" अपभ्रंश - साहित्य में परमात्मा के जिस पर्यायवाची का सबसे अधिक प्रयोग किया गया, वह है- निरञ्जन । योगीन्दु ने निरञ्जन की परिभाषा लिखी है, जिसका विवेचन पिछले पृष्ठों पर हो चुका है। योगीन्दु ने योगसार में भी परमात्मा के निष्कल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव श्रादि श्रनेक नाम दिये हैं। तात्पर्य वहां भी यही है कि परमात्मा को किसी नाम से पुकारो; किन्तु वह है निरञ्जन रूप ही । महात्मा श्रानन्द तिलक ने उसे हरि, हर, ब्रह्मा कहा, किन्तु साथ ही यह भी लिखा कि वह मन और बुद्धि से अलभ्य है; स्पर्श, रस, गन्ध से वाह्य है और शरीर से रहित है ।
जो परमात्मा निराकार है, अमूर्त है, अलक्ष्य है, उसकी भक्ति किस प्रकार सम्भव है ? मन को चारों ओर से हटाकर, देह - देवालय में बसने वाले ब्रह्म में तल्लीन करना, ब्रह्म से प्रेम करना और ब्रह्म का नाम लेना यदि भक्ति है तो वह भक्ति कबीर ने की और उनके भी पूर्व जैन भक्तों ने । उन्होंने किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपने मन को ब्रह्म में समर्पित नहीं किया— उनका समर्पण बिना शर्त था । उनका प्रेम भी अहेतुक था उसमें लौकिक अथवा पारलौकिक किसी प्रकार का स्वार्थ नही था । कबीर जैसा बिना शर्त प्रात्मसमर्पण - सगुरण परम्परा तो दूर, निर्गुण-धारा के भी अन्य कवियों में न बन पड़ा। उन्होंने कहा - " इस मन को 'विसमल' करके, संसार से हटा करके निराकार ब्रह्म के दर्शन करू ं । किन्तु यह मार्ग आसान नही है । इस पर चलने वाले को सिर देना
१. जो रिलय माउ रंग परिहरइ जो परभाउ ए लेइ । जाइ सय विरिच्चु पर सो सिउ सतु हवेइ ||
-- परमात्मप्रकाश, १1१८, पृ० २७ ।
२. रिणम्मलु रिणक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिरण मणिउ एहउ जागि मितु ||
-- योगसार, ६ वाँ दोहा, पृ० ३७३ ।
३. हरिहर संभुवि सिव ही मरण बुद्धि लक्खिउरण जाइ । मध्य सरीर है सो वसइ श्ररगंदा लीजइ गुरुहि पसाइ ॥ फरस रस गंघ बाहिरउ रूव विहरणउ सोइ । जीव सरीरहँ बिणु करि धरणंदा सहगुरु जारणइ सोइ ॥
- प्रामेर-शास्त्र भण्डार की 'प्रागंदा' की हस्तलिखित प्रति, पद्य सं०१८, १६ ।
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पड़ता है । यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उस पर अंगारे दहकाये जायेंगे ।"" कुछ का तात्पर्य है कि सभी सांसारिक सुख-सुविधाओं की बलि देकर मन को ब्रह्म में लीन करना चाहिए, अन्यथा विकृत विश्व में फंसे रहने के कारण उसे नारकीय दुख झेलने होगे । ब्रह्म में मन समो देने से मलीमस स्वतः ही रह जायगा । ऐसा नहीं है कि हमने मन दिया, तो ब्रह्म ने पवित्रता । कबीर में लेन-देन वाली बात नहीं थी । कबीर ने ऐसी शर्त कभी नहीं लगाई । 'मन दिया मन पाइये, मन बिन मन नहि होई । 2 में केवल मन के उन्मुख होने की बात है, शर्त की नहीं, मन को संसार से उन्मन करके निरंजन में खपाना मूलाधार है ।
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बिना शर्त मन निरञ्जन में लगाने की बात जैसी जैन परम्परा में देखी जाती है, अन्यत्र नही । जैन सिद्धांत के अनुसार शर्त का निर्वाह नहीं हो सकता । जैन भक्त जिस ब्रह्म की आराधना करता है, उसमें कर्त्तव्य - शक्ति नहीं है । वह विश्व का नियन्ता नहीं है । उसे किसी की पूजा और निन्दा से कोई तात्पर्य नही है । फिर भी, उसके गुणों का स्मरण चित्त को पवित्र बनाता है - पापों को दूर करता है । ब्रह्म के कुछ न करते हुए भी, उसके स्मरण मात्र से ही पवित्रता मिलती है और उसमें शुभ कर्म बनते हैं, जो इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की ही विभूति देने में समर्थ हैं । इस भांति जैन भक्त के ब्रह्म में केवल प्रेरणा देने वाला कर्त्तव्य होता है । अर्थात् उसके मूक और अकर्ता व्यक्तित्व में इतनी ताकत होती है, जिसके स्मरण या दर्शन मात्र से भक्त को वह सब कुछ
१. इस मन को बिसमल करो, दीठा करौं दीठ ।
जे सिर राखौ आपणों, तौ पर सिरिज अ गीठ ।।
२. मन दीयां मन पाइए, मन उनमन उम ग्रड
३. न
-- कबीर साखी -सुधा, मन को अंग, छठा दोहा || मन बिन मन नही होइ । ज्यू अनल अकासां जोई ||
- देखिये वही ६ वा दोहा ।
पूजार्थत्व वीतरागे
न निन्दया नाथ विवान्तवैरे ( ? ) ।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं
दुरिताञ्जनेभ्यः ||
- प्राचार्य समन्तभद्र स्वम्मूस्तोत्र, १२/२
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स्वतः ही मिल जाता है, जिसकी उसे प्राकांक्षा रहती है । किन्तु भक्त प्राकांक्षारहित होता है, निष्काम होता है, कुछ न देने वाले का दर्शनाकांक्षी निष्काम होगा ही, यह सत्य है । किन्तु उसे ब्रह्म को देखने की इच्छा तो रहती है । वह सांसारिक इच्छा में न गिनी जाने के कारण 'कामना' नहीं कहलायगी । श्रर्थ यह है कि पहले तो जैन भक्त के निष्काम होने से ही शर्त वाली बात नहीं टिक पायेगी, फिर यदि टिकाई भी जाय, तो किसके सहारे ? जो सब कुछ झाड़कर मोक्ष में जा बिराजा हो, उसे तुम्हारे भले बुरे से क्या तात्पर्य । उसके पास अपने गुण हैं, उन्हें तुम चाहो प्राप्त करलो, वे तुम्हारे पास भी हैं --छिपे पड़े हैं, ढूंढ लो । अर्थात् शर्त को कहीं स्थान नहीं, एक जैन भक्त ने खीझकर लिखा- तुम प्रभु कहियत दीनदयालु, श्रापन जाइ मुक्ति में बैठे, हम जु रुलत जग-जाल ।' जैन ब्रह्म क्या करे, जब उसे विदित है कि उसने तुम्हें जगजाल में नहीं रुलाया, फिर उसे जग जाल से निकलने की प्रेरणा दे सकते हैं, जो निकल चुके हैं, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । बताइये ऐसों से आप क्या शर्त लगायंगे । तो, शर्त का मूल हो जैन परम्परा में नहीं है ।
इसके विपरीत जो अपने मन को बिना शर्त निःस्वार्थ भाव से ब्रह्म में केन्द्रित करता है, वह भी वैसा ही हो जाता है । पिछले पृष्ठों पर परमानन्द, सुख और परमगति पाने की बात लिखी है, वह मन को परमात्मा में ध्यानस्थ करने से ही सम्भव हुआ था । परमात्मा परमानन्द का ही बना है । वह उसका स्वरूप है । योगीन्दु ने यहां तक लिखा कि जो परमात्मा है, वह ध्यान का विषय होगा ही । योगीवृन्द भी उस ज्ञानमय परमात्मा का ध्यान लगाता है । 3 ध्यान के बिना तो हरि-हर भी अपने ही अन्दर रहने वाले ब्रह्म को नहीं देख पाते । कबीर की भांति ही योगिन्दु ने लिखा था कि अन्य सब भावों को छोड़कर हे जीव ! अपनी आत्मा की ही भावना करो। वह श्रात्मा, जो आठ कर्म और सब
१ देखिये धानत पद संग्रह, कलकत्ता, ६७ वां पद, पृ० २८ ।
२. एयहि जुत्तउ लक्खराहि जो पर रिक्कुल देउ । सो तहि रिवस परम पइ जो तइलोयहँ भेउ ||
३. जोइय विदहिं गाणमउ जो मोक्खहं कारण अरणवरउ सो
-- परमात्मप्रकाश, १२५, पृ० ३२ । भाइज्जइ भेउ । परमप्पउ देउ ||
- वही, १1३६, पृ० ४३ ।
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दोषों से रहित है तथा दर्शन ज्ञान और चरित्र से युक्त है।' उसका ध्यान करने . से एक क्षण में स्वतः ही परमपद मिल जाता है । २ 'पाहुड़दोहा' में लिखा है कि योगियों को उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिए, जो त्रैलोक्य का सार है। उन्होंने उनको मूढ़ कहा, जो जगतिलक आत्मा को छोड़कर अन्य किसी का ध्यान करते हैं। मरकतमणि को पहचानने के उपरांत कांच की क्या गणना रहती है।
आत्मा की भावना से पाप एक क्षरण में नष्ट हो जाते हैं । सूर्य एक निमेष में अधकार के समूह का विनाश कर देता है । ४ उसके अनुसार जो परम निरंजन देव को नमस्कार करता है, वह परमात्मा हो जाता है। जो अशरीरी का सन्धान करता है, वही सच्चा धनुर्धारी है। महात्मा आनन्द तिलक ने लिखा हैपरमप्पद जो झावई सो सच्चउ विवहारु । अर्थात् जो परमात्मा का ध्यान करता है, वही सच्चा व्यवहार है।
जहां तक अहेतुक प्रेम का सम्बन्ध है, वह भी जैन परम्परा में ही अधिक खपता है । जो वीतराग है, वह राग को पसद करेगा ? किन्तु, जैन भक्त उसकी वीतरागता पर रीझकर ही भक्ति करता है । वीतराग से राग करने वाले के हृदय में प्रतिकार-स्वरूप प्रेम पाने की आकांक्षा न रही होगी, यह सत्य है । कितु, जैन
१ अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुं मावहि अप्प सहाउ ।। अट्ठह कम्महं बाहिरउ सयलह दोसह चत्त । दसरण पारण चरित्तमउ अप्पा भावि गिरत्त ।।
-वही, ११७४, पृ० ८०, ८१ । २. अप्पा झायहि हिम्मलउ कि बहुए अमोण । जो झायतह परम पर लब्मड एक्क खणेगा ।
-वही, १।६७, पृ० १०१। ३ अप्पा मिल्लिवि जगतिउ मूढ य झायहि अण्णु ।
जि मरगउ परियाणियउ तहु कि कच्चहु गष्णु ।। ७१ ।। ४. अप्पाए वि विभावियइ णासइ पाउ खणेण । - सूरु विणासई तिमिरहरु एक्कल्लउ णिमिसेण ।। ७२ ।। ५. परमणिरजणु जो णवइ सो परमप्पउ होइ ।। ७७ ।। ६. प्रसरीरह सधाणुकिउ सो धाणुक्कु णिरुत्त ॥ १२१ ।। ७. देखिये 'पाणंदा' की हस्तलिखित प्रति, २४ वां पद्य ।
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हो या अजेन, एक प्रेमी अपने दिल का क्या करे ? भगवान चाहे निर्मोह हो या निर्गुण या शून्य-सनेही, जब उससे प्रेम किया है, तब प्रेमी का हृदय उसके साथ रभस प्रालिंगन को मचलेगा ही। कबीर का तो बाद में मचला, किन्तु मुनि रामसिंह का पहले ही मचल चुका था। जैन प्राचार्यों ने सिद्धांत की दृष्टि से लिखा है कि मचलना बुरा नहीं, अच्छा होता है । भगवान के प्रति किया गया राग पाप के बन्धका कारण नहीं बनता। इसी कारण तो जिस भांति कबीरदास की प्रात्मा पिय-मिलन के लिए बेचैन हुई, प्रिय-प्रागमन के लिए सन्चित बनी उसी भांति मुनि रामसिंह को आत्मा ने अपनी सखी से कहा थाप्रियतम को बाहर पांच इन्द्रियों का स्नेह लग गया है, अत: ऐसा प्रतीत होता है कि उसका पागमन नहीं होगा।"२ प्रिय-प्रागमन के लिए दोनों की बेचैनी समान है, दोनों का संदेह समान है, दोनों की चिन्ता समान है। कबीर का प्रेम अहेतुक न बनता, यदि उन पर रामानन्दी भक्ति का प्रभाव होता-उन्हें वह योगधारा भी जन्म से मिली थी, जिसमें फक्कड़पन था और थी मस्ती। और, उस योगधारा में जो अहेतुक वाला पुट था, वह अवश्य ही जैन परम्परा में जाने या अनजाने कैसे भी आया होगा । मैं नाथ-सम्प्रदाय को अनेक सम्प्रदायों का संकलन कह चुका हूँ । जैनों में योग वाली बात अधिक थी। इसलिए अहेतुकता भी अधिक थी।
__ अहेतुक प्रेम का निर्वाह हिन्दी के जैन कवियों ने खूब किया। पत्नी प्रिय के वियोग में इस भांति तड़प रही है, जैसे जल के बिना मछली। उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है । वह अपनी समता नाम को सखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह समा जाऊंगी, जैसे
१. देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरत्तो । सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरमो होइ जोई सो ॥
-प्राचार्य कुन्दकुन्द मोक्षपाहुड़, ५२ वी गाथा । २. पंचहि बाहिरु णेहडउ हलि सहि लग्गु पियस्स । ___तासु ण दीसइ पागमणु जो खलु मिलउ परस्स ।।
-पाहुड़दोहा, ४५ वां दोहा, पृ० १४ । ३. मै बिरहिन पिय के अधीन । यो तलफों ज्यों जल विना मीन ।
-बनारसीदास : प्राध्यात्मगीत, तीसरा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर पृ० १५६ ।
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बूद दरिया में समा जाती है। मैं अपनापा खोकर पी से मिलूगो, जैसे प्रोला गलकर पानी हो जाता है। और जब पति उसे मिला, तब रमस आलिंगन कौन कहे, एकमेक हुए बिना चैन न पड़ा। उन दोनों के 'एकमेक' को लेकर बनारसी दास ने लिखा-वह करतूति है और प्रिय कर्ता । "वह सुखसींव है और प्रिय सुखसागर । वह शिव नीव है और प्रिय शिव मन्दिर । वह सरस्वती है और प्रिय ब्रह्मा । वह कमला है और पिय माधव । वह भवानी है और पिय शंकर । वह जिनवाणी है और पति 'जिनेन्द्र ।२ 'भैया' का पति कहीं भटक गया है, तो वह दुलारते हुए कहते है-'हे लाल । तुम किसके साथ लगे फिरते हो तुम अपने महल में क्यों नहीं आते, वहां दया, क्षमा, समता और शांति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा में खड़ी हुई हैं । एक-से-एक अनुपम रूपवाली हैं।"3 दुलारना सफल हुआ, पिय घर वापस आगया, तो सुमति का ठिकाना न रहा । वह पिय के साथ परमानन्द की अनुभूति में डूब गई । महात्मा मानन्दघन की सुहागिन नारी के पति भी लम्बी प्रतीक्षा के बाद स्वयं आगये हैं । उसकी
१. होहुँ मगन मै दरसन पाय, ज्यो दरिया में बूद समाय । पिय को मिलों अपनपो खोय, प्रोला गल पाणी ज्यों होय ॥
-देखिए वही, ६ वां पद्य पृ० १६० । २. पिय मों करता में करतूति,
पिय ज्ञानी मै ज्ञान विभूति । पिय सुखसागर मैं सुखसीव,
पिय शिवमन्दिर में शिव नीव । पिय ब्रह्मा मै सरस्वती नाम,
पिय माधव मो कमला नाम । पिय शकर मै देवि भवानि, पिय जिनवर मै केवल बानि ।।
-देखिये वही, पृ० १६१ ३. कहां कहां कौन सग लागे ही फिरत लाल,
प्रावो क्यों न प्राज तुम ज्ञान के महल मे। नकह विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेती, कैसी-कैसी नीकी नारी ठाडी हैं टहल मे एक ते एक बनी सुन्दर सुरूप धनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल में ।
-मैया भगवतीदास : शतप्रष्टोतरी, २७ वां पद्य, ब्रह्मविलास पृ० १४ ।
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प्रसन्नता अगाध है । उसने इस उपलक्ष्य में श्रृंगार किया है। सहज स्वभाव की चूड़ियां और थिरता का कंगन पहना है, ध्यान रूपी उरबसी गहना उर पर धारण किया है, सुरत के सिन्दूर से मांग सजाई है, निरत की वेणी को प्राकर्षक ढंग से गूंथा है और भक्ति की मेंहदी रची है ।"
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शिव - रमणी कुमारी है । कुप्रारियों के विवाह होते ही हैं । शिव- रमणी का विवाह तीर्थकर शांतिनाथ ( १६ वें तीर्थकर ) के साथ होने वाला है । अभी विवाह मण्डप में दूल्हा नहीं आ पाया है, किन्तु वधू की उत्सुकता दबती नहीं और वह अपने मनभाये के अभी तक न आने से उत्पन्न हुई बेचैनी सखी पर प्रकट कर देती है । उसका कथन है कि उसका पति सुखकन्द चन्द्र के समान है, तभी तो उसका मन उदधि श्रानन्द से आन्दोलित हो उठा है और उसके नेत्रचकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं। यह सच है कि अभी उसे आनन्द हो रहा है, किन्तु जब पति से मिलने जायगी, तब प्रानन्द के साथ-साथ भय भी उत्पन्न होगा । पति अनजाना है, अनजाने से मिलने में भय तो है ही । कबीर की नायिका काप रही है - थरथर कम्पै बाला जीव ना जाने क्या करसी पीव । ३ जायसी की नायिका घबरा रही है - प्रनचिन्ह पिउ कांपै मन मांहां, का मै कहब गहब जौ बाहां । इसी प्रकार बनारसीदास की नवयौवना भी भड़भड़ा गई है— बालम तुहुं तन चितवन गागर फूटि, अंचरा गौ फहराय सरम गह छूटि । इस
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सहज स्वभाव चूरिया पेनी, थिरता कगन भारी । ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुन माल अधारी । सुरत सिन्दूर माग रंग राती, निरते बेनी समारी उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, प्रारसी केवल कारी । महिदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी ॥
- आनन्दघन पद संग्रह, २० वां पद पृ० १० |
२. सहि एरी ! दिन प्राज सुहाया मुझ माया आया नही घरे । सहि एरी ! मन उदधि अनन्दा सुखकन्दा चन्दा देह धरे ।। चन्द जिवा मेरा वल्लभ सोहे, नैन चकोरहि सुक्ख करें।
- बनारसीदास : शांतिजिनस्तुति, प्रथम पद्य, बनारसीविलास, पृ० १८६ |
३. कबीरदास : सबद, ६१ वां पद, संतसुधासार, दिल्ली, पृ० ८५ ।
४. जायसी : पद्मावती -रत्नसेन भेंट खण्ड पद्मावत, काशी, पृ० १३२ ।
५. बनारसीदास श्रध्यात्मपदपंक्ति, १० व राग-विरवा, पहला पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० १५४ ।
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विवेचन से सिद्ध है कि निर्गुणवादी संतों के अहेतुक प्रेम पर सूफियों का नहीं, अपितु उस श्रमणधारा का प्रभाव था, जो कबीर से सदियों पूर्व चली आ रही थी।
जैन साहित्य में 'सतगुरु' पूर्णरूप से प्रतिष्ठित है । उसकी महिमा यहां तक बढ़ी कि पंचपरमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, और साधु ) को 'पंचगुरु' की संज्ञा से अभिहित किया गया है । जहां कबोर ने गोविन्द और गुरु को दो बताया, वहां जैन प्राचार्यों ने दोनों को एक कहा । उनकी दृष्टि में गोविंद ही गुरु है । एक शिष्या ने कहा कि मैं उस गुरु की 'शिष्यानी' हूँ, जिसने दो को मिटाकर एक कर दिया ।' प्रात्म और अनात्म के भेद को मिटाने वाला ही गुरु है ।२ केवल ग्रंथों का पारायण करने वाला गुरु नही है। कबीर ने भी केवल ग्रन्थ पढ़कर गुरु बनने वाले की निर्रथकता घोषित की है । गरु वह है जो ब्रह्म तक पहुंचने का रास्ता दिखाये अथवा जिसके प्रसाद से ब्रह्म प्राप्त किया जा सके । रास्ता वही दिखा सकता है, जिसके पास ज्ञान का दीपक हो यह दीपक कबीर के गुरु के पास था और जैन गुरु तो दीपक रूप ही था । जीव लोक और वेद के अन्धकार से ग्रस्त पथ पर चला जा रहा था, आगे 'सत्गुरु' मिल गया, तो उसने ज्ञान का दीपक दे दिया, मार्ग प्रकाशित हो उठा और वह अभीष्ट स्थान तक पहुंचने का रास्ता पा गया । आचार्य देवसेन का भी कथन है कि अन्धकार में क्या कोई कुछ पहचान सकता है ? गुरु के वचन-रूपी दीपक के बिना प्रकाश ही न होगा, तो फिर देखना कैसे हो सकेगा, पहचानना तो दूर रहा ।' अनदेखा
१. वे भजे विणु एक्कु किउ मणह ण चारिय विल्लि । तहि गुरुवहि हउं सिस्सणी अण्णहि कमिण लल्लि ।।
-पाहुडदोहा, १७४ वां दोहा, पृ० ५२ । २. गुरु दिणयरु गुरु हिमकर णु गुरु दीवउ गुरु देउ । अप्पापरहं परपरह जो दरिसावइ भेउ ।
-वही, प्रथम दोहा, पृ० १ । ३. पीछ लागा जाइ था, लोक वेद के माथि । प्रागं थे मतगुरु मिल्या दीपक दीया हाथि ।।
-गुरुदेव को अग, १२ वा दोहा, कबीर-साखी-सुधा, पृ०६। ४. तं पायडु जिणवरवयणु, गुरुउवएसई होइ । अधार विगु दीवडई अहव कि पिछइ कोइ ।।
–सावयधम्मदोहा, छठा दोहा, पृ० ।।
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मनचीन्हा लक्ष्य उपलब्ध भी न हो सकेगा। किन्तु गुरु के दीपक के साथ भी शर्त है कि वह ज्ञान का होना चाहिए । साधारण दीपक तो ६४ जला दिये जायें, तो भी अन्धकार दूर नहीं होगा । अन्धकार तो लाखों चन्द्रों के साथ होने पर भी हटेगा नहीं, जब तक उसमें ज्ञान का प्रकाश न होगा।' ज्ञान का प्रकाश ही मुख्य है-वह प्रकाश, जो प्रात्मब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग दिखाता है। इस प्रकाश का प्रदाता ही गुरु है, फिर चाहे सूर्य से, चाहे दीपक से और चाहे किसी देव से ।।
कबीर के गुरु के प्रसाद से गोविन्द मिलते हैं । सुन्दरदास के गुरु भी दयालु होकर प्रात्मा को परमात्मा से मिला देते हैं। 3 दाद के मस्तक पर तो गुरुदेव ज्यों ही पार्शीवाद का हाथ रखते हैं कि उसे 'अगम-अगाध' के दर्शन हो जाते हैं। जैन कवियों ने भी गुरु के प्रसाद को महत्ता दी है। कवि कुशललाभ को भी गुरु की कृपा से ही शिव-सुख उपलब्ध हुआ है। सोलहवीं शती के कवि चतरूमल ने पचगुरुत्रों के प्रणाम करने से मुक्ति का मिलना स्वीकार किया है । इसी शती के ब्रह्मजिनदास ने आदि पुराण में गुरु के 'प्रसाद' से 'मुगति रमणी' के मिलने की बात लिखी है । पाण्डे रूपचन्द के मत से गुरु की कृपा से ही 'अविचल स्थान प्राप्त होता है । यह परम्परा विकसित और पुष्ट रूप में अपभ्रंश-युग से चली आ रही थी। जैन अपभ्रंश-काव्य में सतगुरु की जी खोलकर प्रशंसा की गई है। उनसे गुरु के प्रसाद का परम सामर्थ्य भी प्रकट हो जाता है । मुनि राम
१. चौसठि दीवा जोइ करि, चौदह चदा महि । तिहि धरि किसको चानिणी जिहि घरि गोविन्द नाहि ।।
-गुरुदेव को अंग, १७ वा दोहा, कबीर-साखी-साखी-सुधा पृ० १८७ । २ देखिए पाहुड़दोहा, प्रथम दोहा पृ० १ । ३. परमातम सो आत्मा जुरे रहे बहु काल । सुन्दर मेला करि दिया सद्गुरु मिले दयाल ।
-सुन्दरदर्शन, इलाहबाद, पृ० १७७ ४. दादू गैब माहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद । मस्तक मेरे कर घऱ्या देख्या अगम अगाध ।। .
-दादू, गुरुदेव, को अग, पहली साखी, संत सुधासार पृ० ४४६ । ५. दिन-दिन महोत्सव प्रतिघणा, श्री संघ भगति सुहाइ । मन शुद्धि श्री गुरुसेवी यह, जिणि सेव्यइ शिव सुख पाइ ।।
-जन ऐतिहासिक काव्यसंग्रह, पूज्यवाहणगीतम् ५३ वा पद, पृ० ११५
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सिंह ने लिखा है - " तू तभी तक लोभ से मोहित हुआ विषयों में सुख मानता है, जब तक कि गुरु के प्रसाद से अविचल बोध नहीं पा लेता ।"" उन्होंने यह भी कहा कि लोग तभी तक धूर्तता करते हैं जब तक गुरु के प्रसाद से देह के देव को नहीं जान लेते । मुनि महचन्द का कथन है-- "यह जीव गुरु के प्रसाद से परमपति ब्रह्म को अवश्य ही उपलब्ध कर लेता है ।" महात्मा आनन्दतिलक ने असीम श्रद्धा के साथ लिखा कि यदि शिष्य निर्मल भाव से सुनता है तो गुरु के उपदेश से उसमें असीम ज्योति उल्लसित हुए बिना नहीं रहती । यह सच है कि शिष्य का भाव निर्मल होना चाहिए, अन्यथा गुरु का उपदेश निरर्थक ही होग। । कबीर के अनुसार ' बपुरा सतगुरु' क्या कर सकता है, यदि शिष्य में ही चूक हो उसे चाहे जैसे समझाश्रो, सब व्यर्थ जायगा । ठीक वैसे ही जैसे वंशी में फूक ठहरती नहीं, बाहर निकल जाती है । पाँडे रूपचन्द ने लिखा है कि अमृतमय उपदेश भी शिष्य को रुच नही सकता, यदि उसकी ज्ञानी श्रात्मा मिथ्यात्व से आवृत है । बनारसीदास का कथन है -- सहजमोह जब उपशमै रुचै सुगुरु उपदेश, तब विभाव भवतिथि घट, जगै ज्ञानगुण लेश ।
भारतीय धरती सद्गुरुत्रों की महिमा से सदैव धन्य होती रही । उसका प्राचीन साहित्य, पुरातत्व और इतिहास साक्षी है । किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि शनैः शनैः वह महिमा निःशेषप्रायः हो गई, कुगुरु बढ़ते गये और उनका अपयश भी । किन्तु उस समय के संत दोनों के अन्तर को स्पष्ट घोषित करते रहे, जिससे जनसाधारण को उनकी पहचान बनी रहती थी ।
१. लोहि मोहिउ ताम तुहुं विसयह सुक्ख मुहि । गुरुह पासा जाम गवि अविचल बोहि लहेहि ॥
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२. ताम कुतित्थइ परिभमइ, घुत्तिम ताम करति । गुरुह पसाए जाम गवि देहह देउ मुति ॥
-- पाहुडदोहा, ८१वा दोहा, पृ० २४ ।
३. छु तर परियारिगजइ, बाहिरि तुट्टइ नेहु । गुरुह पसाइ परम पऊ, लब्भइ निस्सदेह ||
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-वही, ८० वां दोहा, पृष्ठ २४ ।
-महीचन्द पाहुड़दोहा, हस्तलिखित प्रति, ७१ वां दोहा
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हिन्दी के आदिकाल मे जैन भक्तिपरक कृतियाँ
पं० रामचन्द्र शुक्ल ने जिस युग को 'वीर गाथाकाल' कहा, उसी को महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने 'सिद्धकाल' और डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'आदिकाल' नाम से अभिहित किया है। मुझे 'आदिकाल' प्रिय है, क्योंकि उसमें 'वीर', 'धर्म', 'भक्ति' और 'सिद्ध' आदि सभी कुछ खप सकता है । वह एक निष्पक्ष शब्द है । यह तो अभी खोज का ही विषय बना हुआ है कि इस काल में वीरगाथाए अधिक लिखी गयीं अथवा धामिक कृतियाँ । साम्प्रतिक खोजों से जो कुछ सिद्ध हुआ है, उसके आधार पर धार्मिक कृतियों की संख्या अधिक है। उनमें जैन भक्ति-सम्बन्धी रचनाए भी हैं । भक्ति और धर्म का भावगत सम्बन्ध है, अतः वे कृतियाँ धार्मिक है और साहित्यिक भी । मूल प्रवृत्तियों का भावोन्मेष ही साहित्य है, फिर भले ही उसका मुख्य स्वर धर्म या अन्य किसी विषय से सम्बन्धित हो।
पं० रामचन्द्र शुक्ल के मत से वि० सं० १०५० ( सन् ६८३ ) से संवत् १३७५ ( सन् १३१८ ) के काल को हिन्दी का प्रादिकाल कहना चाहिए। किन्तु इसके पूर्व ही देशभाषा का जन्म हो चुका था । देश-भाषा का अर्थ है पुरानी
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हिन्दी । धर्मशास्त्री नारद ने लिखा है कि "संस्कृतैः प्राकृतक्यैिर्यः शिष्यमनुरूपतः । देषभाषाधुपायैश्च बोधयेत् स गुरुः स्मृतः ॥" डा० काशीप्रसाद जायसवाल का कथन है कि देशभाषा आचार्य देवसेन ( वि० सं० १६० ) के पहले ही प्रचलित हो चुकी थी। प्राचार्य देवसेन ने अपने 'श्रावकाचार' में जिन दोहों का उपयोग किया है, उनकी रचना देशभाषा में हुई है । इस श्रावकाचार की एक हस्तलिखित प्रति कारंजा के सेनगण मन्दिर के पुस्तक भण्डार में प्रस्तुत है। इसमें प्रयुक्त शब्दरूप, विभक्ति और धातुरूप प्रायः सभी हिन्दी के हैं। कहीं-कहीं छन्द सिद्धि के लिए प्राकृत रूप रह गये हैं। हिन्दी काव्यों में उनका प्रयोग आगे चलकर भी होता रहा । श्रावकाचार में जिनेन्द्र और पंचगुरु-भक्ति के अनेक उद्धरण हैं । एक स्थान पर लिखा है,
"जो जिण सासरण भासियउ सो भइ कहियउ सार । जो पालेसइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु ।।"
कुछ विद्वानों ने अपभ्रश और देशभाषा को एक मान लिया, परिणामतः उन्होंने अपभ्रंश कृतियों को भी हिन्दी में ही परिगणित किया है। महा पण्डित राहल सांकृत्यायन की 'हिन्दी काव्यधारा' इसका निदर्शन है। यह सच है कि 'कथासरित्सागर' के आधार पर 'अपभ्रंश' और 'देशी' समानार्थक शब्द थे, 3 किन्तु यह वैसा ही था जैसा कि पतञ्जलि के महाभाष्य में प्राकृत और अपभ्रश को समानार्थक माना गया है। भाषा-विज्ञान के अध्येता जानते है कि भाषाओं का स्वभाव विकसनशील है। मुखसौकर्य के लिए भाषाए निरन्तर समासप्रधानता से व्यासपरकता की ओर जाती रही हैं। प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रश से देशीभाषा अधिकाधिक व्यासप्रधान होती गयी है । यह ही दोनो में अन्तर है । अतः दोनों को एक नही माना जा सकता । स्वयम्भू ( ६ वी शताब्दी वि० सं० ) का 'पउमचरिउ' नितान्त अपभ्रश ग्रन्थ है । उसमें कहीं देशी भाषा का एक भी शब्द प्रयुक्त नही हुआ है । कवि पुष्पदन्त (वि०सं० १०२६) ने 'रणायकुमारचरिउ' में अपनी सरस्वती को नि:शेष देश भाषाओं का बोलने वाला भले ही कहा
१ वीर मित्रोदय से उद्धृत । २. डा. काशीप्रसाद जायसवाल का लेख 'पुरानी हिन्दी का जन्मकाल', नागरी प्रचारिणी
पत्रिका, भाग ८, पृ० २२० । ३. कथासरित्सागर, १।६, पृ० १४८ । ४ पातञ्जल महाभाष्य, १११, पृ० १
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हो,' किन्तु वह केवल विविध अपभ्रंश भाषाओं के बोलने में ही निपुण है । पुष्पदन्त अपभ्रंश को ही देशभाषा कहते थे ।
पुष्पदन्त के चालीस वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्द का 'कथाकोष' देशभाषा में लिखा गया है । इस ग्रन्थ में ५३ सन्धियां हैं । प्रत्येक सन्धि में एक कथा कही गयी है | कथा भक्ति से सम्बन्धित हैं । ग्रन्थ की प्रशस्ति से स्पष्ट है कि श्रीचन्द के गुरु वीरचन्द थे, जो कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में हुए हैं। एक उदाहरण इस प्रकार हैं,
"लहेवि सिद्धि च समाहिकारणं
समत्थ संसार डुहोह वारणं । पहुं जए जं सरसं निरंतरं ।। सुह सयात फलजं श्रणुत्तरं तेरणा माउ वद्धिउ पयाउ । सम्मत्त गारण तव चरण थारण || "
धनपाल धक्कड ( १० वी शती ईसवी) की 'भविसयत्त कहा' २ में यत्रतत्र अनेक स्थानो पर देशभाषा का प्रयोग हुआ है । डा० विण्टरनित्स और प्रो० जैकोबी प्रभृति विद्वानों ने इस काव्यकथा के रचना - कौशल की प्रशंसा की है । कथा का मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्र की भक्ति से सम्बन्धित है ।
यद्यपि श्राचार्य हेमचन्द्र ( सन् १०८८-१९७९ ) ने देशी नाममाला ( कोश) का ही निर्माण किया था, किन्तु जहां तक भक्ति का सम्बन्ध है, उनका कोई स्तोत्र या काव्य देशभाषा में लिखा हुआ उपलब्ध नहीं है । विनयचन्द सूरि ( १३ वी शती ईसवी) ने 'नेमिनाथ चउपई' का निर्माण किया था । यह देश
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१. गायकुमारचरिउ, डा० हीरालाल जैन सम्पादित, कारजा, १९३३ ई० पहली सन्धि, पृ० ३ ।
२. इसका प्रकाशन सन् १९१८ मे प्रो० जंकोबी के सम्पादन में म्यूनिक से हुआ था । बाद में डा० पी. डी. गुणे ने इसका सम्पादन किया और सन् १९२३ में G.O.S.XX. में इसे प्रकाशित किया। दोनों की भूमिकाएं विद्वत्तापूर्ण हैं ।
३. 'देशी नाममाला' जर्मन विद्वान् पिशेल द्वारा सम्पादित होकर B. S. S. XVII में
दो बार प्रकाशित हो चुकी है ।
४. 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' में इसका प्रकाशन सन् १९२० में हुआ है ।
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भाषा में लिखी गई है। इसमें राजीमती के वियोग का वर्णन है । नेमिनाथ तीर्थङ्कर थे, अतः उनसे किया गया प्रेम भगवद्विषयक ही कहलायेगा । जब नेमिनाथ ने पशुओं के करुणक्रन्दन से प्रभावित होकर तोरण-द्वार पर ही वैराग्य ले लिया, तो राजीमती विलाप कर उठी। इस काव्य में उसके वियोग का चित्र खींचा गया है। कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं,
"भरणइ सखी राजल मन रोइ, नीठुरु नेमि न अप्पणु होई । साँचउ सखि वरि गिरि मिजंति,
किमइ न मिज्जइ सामलकति ॥" शालिभद्रसूरि (सन् ११८४) का 'बाहुबलिरास'' एक उत्तम कोटि का काव्य है । उसका सम्बन्ध महाराज बाहुबलि की वीरता और महत्ता से है। बाहुबलि प्रथम चक्रवर्ती थे। दोनों भाइयों में साम्राज्य को लेकर युद्ध हुआ था। भरत को पराजित करने के उपरान्त बाहुबलि ने वैराग्य ले लिया। उन्ही की भक्ति में इस काव्य की रचना हुई है । भाषा दुरूह अपभ्रंश है, कहीं देशभाषा के दर्शन नहीं होते ।
विक्रम की तेरहवी शताब्दी के अन्त में श्री जिनदत्तसूरि (वि०सं०१२७४) के रूप में एक सामर्थ्यवान् व्यक्तित्व का जन्म हुआ। वे विद्वान थे और कवि भी। उन्होंने 'चर्चरी', 'कालस्वरूपकुलकम्' और 'उपदेशरसायनरास' का निर्माण किया ।२ 'उपदेश रसायनरास' में सतगुरु के स्वरूप का विशद वर्णन हुआ है। ये तीनों ही काव्व अपभ्रंश भाषा में लिखे गये हैं। गुरु के सम्बन्ध में एक पद्य इस प्रकार है,
"सुगुरु सुवुच्चइ सच्चइ मास इ पर पखायि - नियरु जसु नासइ । सव्वि जीव जिव अप्पउ रक्खइ मुक्ख-मग्गु पुच्छियउ जु अक्खइ ।"
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१. श्री मुनि जिनविजय ने 'बाहुबलिरास' पर 'भारतीय विद्या', बर्ष २, अंक १ में प्रकाश
डाला है। २. लालचन्द भगवानदास गान्धी ने इनका सम्पादन कर, शोधपूर्ण संस्कृत प्रस्तावना
सहित G.O. S. XXXVII में प्रकाशित किया है।
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जनपदमसूरि ( वि० सं० १२५७) ने 'थूलिभद्दफाग' की रचना की थी। भाचार्य स्थूलभद्र, भद्रबाहु स्वामी के समकालीन थे । उनका निर्वारण वी० नि० सं० २१६ में हुआ । उनका समाधिस्थल गुलजार बाग, पटना स्टेशन के सामने कमल- हृद में बना हुआ है। इस फाग की गणना उत्तम कोटि के काव्य में की जाती है। इसमें स्थूलभद्र की भक्ति से सम्बन्धित अनेक सरस पद्यों की रचना हुई है । पावस वर्णन की कतिपय पंक्तियाँ देखिए,
"सीयल कोमल सुरहि बाय जिस जिम वायंते । मारग - मडफ्फर मारणरिय तिम तिम नाचते || जिम जिम जलधर मरिय मेह गयगरि मलिया । तिम तिम कामीतररणा नयरण नीरहि भल छलिया ||
नेमिचन्द्र भण्डारी, खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि के पिता थे । उन्होंने वि० सं० १२५६ के लगभग 'जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन' के नाम से एक स्तुति लिखी थी, जो 'जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में प्रकाशित हो चुकी है । यह स्तुति प्राचार्य भक्ति का निदर्शन है। इसमें ३५ पद्य हैं। एक पद्य इस भाँति है,
"पणमवि सामि वीर जिरगु, गरगहर गोयम सामि । सुधरम सामिय तुलनि सररणु, जुग प्रधान सिवगामि || "
महेन्द्रसूरि के शिष्य श्री धर्मसूरि (वि०सं० १२६६ ) ने 'जम्बूस्वामी चरित्र' 'स्थूलभद्ररास' और 'सुभद्रासती चतुष्पदिका' का निर्माण किया था ।' तीनों में क्रमशः ५२. ४७ और ४२ पद्य हैं । भगवान् महावीर के निर्वारण के उपरान्त केवल तीन केवली हुए, जिनमें जम्बूस्वामी अन्तिम थे । सुभद्रासती जिनेन्द्र की भक्त थी । तीनों ही रचनाएं पुरानी हिन्दी में लिखी गयी हैं । यद्यपि कुछ लेखक इन कृतियों की भाषा को गुजराती कहते हैं, किन्तु वह हिन्दी के अधिक निकट है। तीनों का एक-एक पद्य निम्न प्रकार से है,
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" जिरण चउ वीसइ पथ नमेवि गुरु चरण नमेवि । जम्बू सामिहि तरणउ चरिय भविउ निसुणेवि ।। " - जम्बू स्वामी चरित्र
१. तीनो की हस्तलिखित प्रतियाँ बीकानेर के बृहद ज्ञान भण्डार में मौजूद हैं ।
२. लायब्रेरी मिसेलेनी, त्रैमासिक पत्रिका, बड़ौदा महाराज की सेण्ट्रल लायब्रेरी का
प्रकाशन, अप्रैल १९१५ के श्रंक में श्री सी. डी. दलाल का, पाटण के सुप्रसिद्ध जैन पुस्तकालयों की खोज में प्राप्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन गुजराती के ग्रन्थों का विवरण ।
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"पणमवि सासरणदेवी अनइ वाएसरी। लिभद्र गुरण गहण, सुरिण सुरिणव रहज्जु केसरी ।।"
-स्थूलभद्ररास "जं फलु होइ गया गिरणारे, जं फलु दोन्हइ सोना भारे । जं फलु लक्वि नवकारिहि. गुरिणहिं तं फल सुभद्रा चरितिहिं सुरिणहि ।।'
-~-सुभद्रासती चतुष्पदिका शाहरयण, खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि के शिष्य थे। उन्होंने वि० सं० १२७८ में 'जनपतिसूरि धवलगीत'' का निर्माण किया था। यह कृति गुरु-भक्ति का दृष्टान्त है । इसमें बीस पद्य हैं । रचना सरस है । पहला पद्य देखिए,
"वीर जिणेसर नमइ सुरेसर तसपट्ट पणमिय पय कमले ।
युगवर जिनपति सूरि गुग्ग गाइ सा भत्ति भर हरसि हिम निरमले ।।"
विजयसेनमूरि, नागेन्द्रगच्छीय हरिभद्रसूरि के शिप्य और मन्त्रिप्रवर वस्तुपाल के धर्माचार्य थे। उन्होंने वि० सं० १२८८ के लगभग 'रेवन्तगिरि रासो'२ की रचना की थी। इसमें ७२ पद्य है। इसमें गिरिनार के जन मन्दिरों का वर्णन है । इसकी भाषा प्राचीन गुजराती की अपेक्षा हिन्दी के अधिक निकट है । प्रारम्भ के दो पद्य इम भॉति है,
“परमेसर तित्थेसरह पय पकज पणमेवि, भरिणसु रासु रेवत गिरे, अविक देवी सुमरेवी। गामागर--पुर--वा--गहरण सरि-सरवरि-सुपएसु,
देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु ।।" विक्रम सवत् को १४ वी शताब्दी में अनेक जैन कवि हुए। उनकी भाषा हिन्दी थी। उनकी कविताओं का मूलस्वर भक्तिपूर्ण था। खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वरमूरि ने वि० म० १३३१ के लगभग अनेक भक्तिपूर्ण स्तुतियों की रचना की, जिनमें से एक का नाम है 'बाबरो'। उसमें तीस पद्य है । आदि का एक पद्य देखिए,
१. 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित हो चुका है। २. 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' मे प्रकाशित हुआ है। ३. श्री अगरचन्द नाहटा के निजी सग्रह मे मौजूद है ।
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"भगति करवि बहु रिसह जिरण, वीरह चलरण नमेवि । हउं चालिउ मरिण भाव घरि दुइरिग जिरगमरिण समरेवि ||
इन्हीं जिनेश्वरसूरि के शिष्य अभयतिलक ने वि० सं० १३०७ वैसाख शुक्ला १० को 'महावीर रास' लिखा था। उसमें २१ पद्य हैं। इसे भगवान् महावीर की स्तुति ही कहना चाहिए। लक्ष्मीतिलकका 'शान्तिनाथ देवरास'" और सोममूर्ति का 'जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाहवनरास', २ भक्ति से सम्बन्धित प्रसिद्ध काव्य हैं ।
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श्रम्बदेवसूरि, नागेन्द्रगच्छ के प्राचार्य पासडसूरि के शिष्य थे । उन्होंने वि० सं० १३७१ के लगभग संघपति 'समरारास' का निर्मारण किया था । श्रोसवाल शाह समरा सघपति ने वि० स० १३७१ में शत्रु जय तीर्थक्षेत्र का उद्धार करवाया था । इस रचना में उसी का वर्णन है । इसकी भाषा में राजस्थानी के शब्द अधिक हैं । इससे अम्बदेव का जन्म राजस्थान में कही हुआ था, ऐसा अनुमान होता है । इस रास की भाषा का सादृश्य गुजराती की अपेक्षा हिन्दी से अधिक है । जब समरा शाह ने पट्टन से संघ निकालकर शत्रु ंजय की और प्रयाग किया, उस समय का एक पद्य देखिए,
"बाजिय संख प्रसख नादि काहल दुदु दुडिया, घोड़े चड़इ सल्लारसार राउत सीगड़िया । तउ देवालउ जोत्रि वेगि धाधरि रवु भमकइ, सम विसम नवि गरइ कोई नवि वारिउ थक्कइ ॥ '
जिनप्रभसूरि ( १४ वी शताब्दी वि० स० ) खरतरगच्छीय जिनसिहसूरि के शिष्य थे । उन्होंने 'पद्मावतीदेवी चौपई' की रचना की थी । यह कृति अहमदाबाद से प्रकाशित 'भैरव पद्मावती कल्प' में छप चुकी है । यह देवी पद्मावती की भक्ति से सम्बन्धित है । एक पद्य इस प्रकार है
"श्रीजिन शासरण वधाकरि, क्षायहु सिरि पउमावइ देवि । भविय लोय आणंद वरि, दुल्हउ सावयजम्म लहेवि ॥'
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१. महावीररास प्रोर शान्तिनाथ देवरास, श्री अगरचन्द नाहटा के निजी संग्रह मे मौजूद है ।
२. जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह मे छप चुका है । ३. प्राचीन जैन गुर्जरकाव्य संग्रह मे संकलित है ।
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चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि रल्हने 'जिरणदत्त चौपई' की रचना वि० सं० १३५७ में की थी । इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के पाटोदी के मंदिर में मौजूद है । इसमें पांच सौ पचपन पद्य हैं। इसमें जिनदत्त से सम्बन्धित भक्तिपरक भाव प्रकट किये गये हैं । काव्यत्व की दृष्टि से भी कृति महत्वपूर्ण है । इसी शताब्दी के कवि घेल्हने 'चउवीसी गीत' की रचना वि० सं० १३७१ में की। यह सरस रचना है । इसमें चौबीस तीर्थङ्करो की स्तुति की गयी है ।
इस शताब्दी में श्रानन्दतिलक ने 'महारणंदिदेउ' नाम की रचना का निर्माण किया । इसकी एक हस्तलिखित प्रति ग्रामेर-शास्त्र भण्डार जयपुर में मौजूद है । अब तो उसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी पत्रिका में हो चुका है। इसमें ४३ पद्य हैं । यह काव्य श्राध्यात्मिक भक्ति का निदर्शन है । गुरु महिमा के दो पद्य देखिए,
"गुरु जिरणवरु गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयग्गत्तय सारु । सो दरिसाव अप्प परु आरणदा भवजल पावइ पारु ।। ३६ ।। सिक्व सुरगइ सद्गुरु भगइ परमाणंद सहाउ । परम जोति तमु उल्ह्सई प्राणदा कीजइ रिगम्मलु भाउ ||२६|| "
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जैन परिप्रेक्ष्य में मध्य युगीन हिन्दी काव्य
मध्यकालीन हिन्दी का प्रारम्भ सत काव्य से होता है । उस पर नाथ और सूफी सम्प्रदायों का प्रभाव माना जाता है, किन्तु इस युग का जैन संत-काव्य अपनी पूर्व परम्परा से अनुप्राणित है । जैन अपभ्रंश में वे सभी मूल बीज प्रस्तुत थे, जो हिन्दी के मंत काव्य में परिलक्षित होते हैं । यह आश्चर्य की बात है कि कबीर और जायसी के साहित्य की प्रवृत्तियों जैन अपभ्रंश से मिलती है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि नाथ-सम्प्रदाय में उस समय प्रचलित १२ सम्प्रदाय अन्तर्भूक्त किये गये थे। उनमें 'नेमि' और 'पारस'-सम्प्रदाय भी थे। नवीन खोजों से सिद्ध है कि नेमि-सम्प्रदाय एक शक्ति सम्पन्न सम्प्रदाय था। यह सौराष्ट्र में तो प्रचलित था ही, दक्षिरणी और उत्तरी भारत तक में भी विस्तृत था। यह २१ वें तीर्थङ्कर नेमीश्वर के नाम पर विख्यात हया था । नेमीश्वर कृष्ण के छोटे भाई थे।
पारस-सम्प्रदाय ईसा से ८०० वर्ष पूर्व प्रतिष्ठित सम्प्रदाय था। यह २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ से सम्बद्ध था। भगवान् महावीर के माता-पिता इसी सम्प्रदाय के अनुयायी थे । प्रागम-साहित्य से सिद्ध है कि दीक्षा लेने के उपरान्त
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वीतराग महावीर द्वीपालसा नाम के चैत्य में ठहरे थे, जो तीर्थकर पार्श्वनाथ के नाम पर पार्श्वचैत्य कहलाता था।'
___ इसके अतिरिक्त नाथ सम्प्रदाय में 'पाई-पंथ' भी समाविष्ट हुआ था। इस पंथ के अनुयायियों का एक दल पीर-पारसनाथ की पूजा करता था । ये पीर पारसनाथ 'पार्श्वनाथ' ही हैं। मेरा दृढ विश्वास है कि नाथ-सम्प्रदाय' का नाम जैन तीर्थकरों के अन्तिम 'नाथ' शब्द के आधार पर ही रखा गया होगा। इससे प्रमाणित है कि जैन अपभ्रंश और नाथ पंथियों का सुदूरवर्ती मूल स्रोत एक ही है ।
मूल स्रोत को एक मानने पर भी जैन और अजैन सत कवियों में अन्तर है । अधिकांशतया अजैन संत निम्नवर्ग में उत्पन्न हुए थे, किन्तु जैन संतों का जन्म और पालन-पोषण उच्चकुल में हुआ था । अत. जैन सतो के द्वारा जाति-पाति के खंडन में अधिक स्वाभाविकता थी। उन्होने जन्मत. उच्च गोत्र पाकर भी, समता का उपदेश दिया। यह उस समय के उच्चकुलीन अह के प्रति एक प्रबल चुनौती थी। अजैन संत आजीविका के लिए कुछ-न-कुछ अवश्य करते थे; किन्तु जैन सतों में मूरि, उपाध्याय और भट्टारकों की प्रधानता थी। जैन-सत पढ़े-लिखे थे, उन्होने जैन साहित्य का विधिवत् अध्ययन किया था । निर्गुरणवादी सतो की भाँति न तो उनकी बानी अटपटी थी और न भाषा विखल । उनका भाव-पक्ष सबल था और बाह्यपक्ष भी पुष्ट ।
कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और जैन मत भगवान् सिद्ध के । कबीर ने ब्रह्म को निर्गुण कहकर उसकी निराकारता और अव्यक्तता सिद्ध की है। वैसे वे भी निर्गुण ब्रह्म में गुरणों की प्रतिष्ठा स्वीकार करते है । किन्तु उन्होने ब्रह्म के गुणों का न तो मयुक्तिक विभाजन किया है और न वे एक अनुक्रम में उनकी भावात्मक अभिव्यक्ति हो कर सके है। जैन हिन्दी कवियो ने सिद्ध को निराकार और अव्यक्त मानते हुए भी, उनके पूर्व-निरूपित आठ गुणों का काव्यात्मक भावोन्मेष किया है। बनारसीदास और भैया भगवतीदास ने सिद्ध को ही ब्रह्म कहा है । 'भैया' का कथन है
जेई गुग सिद्ध माहि तेई गुण ब्रह्म पांहि । सिद्ध ब्रह्म फेर नाहि निश्चय निरधार कै ।।
I. Dr. Hermann Jacobi, stules in Jainism, Jinvijai Muni Edited,
Jaina Sahitya Samsodhaka Karyalaya, Ahmedabad 1946, P. 5, F. 8.
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सिद्ध के समान है विराजमान चिदानन्द ।
ताही को निहार निज रूप मान लीजिये ।।' कवि बनारसीदास ने लिखा हैपरम पुरुष परमेसर परम ज्योति,
परब्रह्म पूरण परम परधान है । सरब दरसि, सरबस सिद्ध स्वामी शिव,
धनी नाथ ईश जगदीश भगवान् है ।।२ हिन्दी-कवियों का यह कथन विक्रम की सातवी शताब्दी में होने वाले प्राचार्य योगीन्दु के परमात्म-प्रकाश के आधार पर प्रतिष्ठित है। उन्होंने भी सिद्ध को ब्रह्म संज्ञा से अभिहित किया है। उनकी दृष्टि में शुद्ध प्रात्मा ही ब्रह्म है, और उसी को ब्रह्म कहते हैं । कबीर ने जिस आत्मा का निरूपण किया है, वह विश्वव्यापी ब्रह्म का एक अंश-भर है। किन्तु जैन कवियों को प्रात्मा कर्ममल को धोकर स्वयं ब्रह्म बन जाती है, वह किसी अन्य का अंश नहीं है । इस भाँति कबीर का ब्रह्म एक है, और जैनों के अनेक । किन्तु स्वरूपगत समानता होने से उनको भी एक ही कहा जा सकता है।
कबीर ने जिस ब्रह्म की उपासना की है, उस पर केवल उपनिषदों के ब्रह्म का ही नहीं, अपितु सिद्धों, योगियों, सहजवादियों और इस्लामिक एकेश्वरवादियों का भी प्रभाव पड़ा है। आचार्य क्षितिमोहन सेन की दृष्टि में कबीरदास ने अपनी आध्यात्मिक क्षुधा के उपशम के लिए ही ऐसा किया। जैनों का ब्रह्म तो आध्यात्मिकता का माक्षात् प्रतीक है । उनका ब्रह्म अपनी पूर्व परम्परा से अनुप्राणित है । उस पर किसी का प्रभाव नही है।
कबीर के ब्रह्म पर प्रभाव किसी का भी हो, किन्तु उसमें दार्शनिकों को शुष्कता नही है । यदि ऐसा होता तो लाल को लालो देखनेवाली भी लाल कैसे
१. भैया भगवतीदास, सिद्धचतुर्दशी, पद्य २, ३, ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्या
लय, बम्बई, द्वितीयावृत्ति, सन् १९२६ ई०, पृ० १४१ । २. कवि बनारसीदास, नाममाला, देखिए 'ईश' के पर्यायवाची नाम । ३. योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश में अनेक स्थानों पर शुद्ध प्रात्मा को 'ब्रह्म' सज्ञा से
अभिहित किया है । एतदर्थ १-२६ दोहा देखिए । ४. प्राचार्य क्षितिमोहन सेन, कबीर का योग, कल्याण, योगांक, पृ० २६६ ।
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हो जाती । कबीर के ब्रह्म में रमणीयता है और सरसता भी । इसमें 'पीउ' का सौंदर्य है, इसलिए कबीर की आत्मा ने स्वयं 'बहुरिया' बनने में चरम आनन्द का अनुभव किया है । वह 'पिउ' जब उसके घर पाया, तब उसके घर का आकाश मंगल-गीतों से भर गया और चारों ओर प्रकाश छिटक उठा। 3 जायसी ने ब्रह्म को 'पीउ' के नहीं, अपितु 'प्रियतम' के रूप में देखा । उसमें कबीर के ब्रह्म से मादकता अधिक है और जायसी के प्रियतम में स्वतन्त्रता तथा सौंन्दर्य । कबीर के लाल को देखने वाली ही लाल हो गई है, किन्तु जायसी के प्रियतम को देखने वाली स्वयं लाल होती है और उसे समूचा विश्व भी लाल दिखाई देता है । 'नयन जो देखा कंवल भा, निरमल नीर सरीर'४ में यही बात है । जैन कवि द्यानतराय ने भी ब्रह्म के दर्शन से चारों ओर फैला बसंत देखा है। 'तुम ज्ञान विभव फूली बसंत, यह मन मधुकर सुख सों रमंत'' इसी का निदर्शन है। कवि बनारसीदास ने भी, "विषम विरप पूरो भयो हो, आयो सहज बसंत" के द्वारा इसी भाव को स्पष्ट किया है । कबीर में व्यष्टिमूलकता और जायसी में समष्टिगतता अधिक है, किन्तु जैन कवियो में दोनों ही समान रूप से प्रतिष्ठित है।
हिन्दी के सत-काव्य का अधिकाश भाग बाह्य आडम्बरो के विरोध में केन्द्रित है। मध्ययुग के जैनों में भी बाह्य कर्म-कलाप इतने अधिक बढ़ गये थे कि उन्ही को जैन धर्म की सज्ञा दे दी गई, हालाँकि महावीर की क्रांति उनके
२. 'हरि मेरा पीउ मै हरि की बहुरिया' । कबीरदास. मबद, २१ वा पद्य, मनमुधासार,
वियोगी हरि-सम्पादित, दिल्ली, पृ० ६६ । ३ . दुलिहिनी गावहु मगलचार
हम घर आये हो गजा राम भरतार ।
मन्दिर माहि भया उजियारा ले सूती अपना पीव प्यारा ।
--कबीर ग्रन्थावली, चतुर्थ मस्करण, काशी, पृ० ८७ । ४ . जायमी-ग्रन्थावली, द्वितीय सस्करण, काशी, मानसरोवर खड, ८वी चौपाई का
दोहा, पृ० २५। ५ . द्यानतराय, द्यानतपद --संग्रह, जिनवारणी-प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ५८ वां
पद, पृ. २४ । ६ . बनारसीदास, अध्यात्म काग, बनारसी बिलास, जयपूर, पृ० १५४ ।
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विरोध में प्रारम्भ हुई थी। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के जैन संतों ने अपभ्रंश भाषा के माध्यम से उन बाह्य माडम्बरों का निर्भीकता के साथ विरोध किया; किन्त उनमें न तो कबीर जैसी अक्खडता थी और न मस्ती । तेजस्विता दोनों में समान थी। हिन्दी के जैन कवियों ने कबीर के साथ-साथ तीर्थ-भ्रमण, चतुवर्णी व्यवस्था, सिर मुंडाना, बाह्य शुद्धि, चौका प्रादि का विरोध किया, किन्तु दोनों में अन्तर भी स्पष्ट था । कबीर, दादू और सुन्दरदास ने इन उपर्युक्त कर्मकलापों को नितांत हेय और अनुपयुक्त माना। किन्तु, महानन्दिदेव, उदयराज जती, महात्मा आनन्दघन आदि जंन कवियों ने उनको तभी व्यर्थ माना, जब उनमें भाव शुद्ध न हो। यदि भाव शुद्ध हों तो ये सब कर्म न तो हेय हैं और न अनुपयुक्त । हां, चतुर्वर्णी व्यवस्था के प्रति उनका स्वर तीखा था और पैना भी। उनका यह स्वर जीवमात्र की समान प्रारमा की स्वीकृति पर निर्भर था।
संतकाव्य में गोविन्द से भी अधिक सतगुरु की महत्ता है । मध्यकालीन संत काव्य-धारा के विशेषज्ञ प्राचार्य क्षितिमोहन सेन ने हिन्दी के सतगुरु पर जैन सतगुरु का प्रभाव स्वीकार किया है।' रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी लिखा है कि मध्य युग के साधु-संतों ने अपनी वाणियों के द्वारा ढाई सहस्त्र वर्ष पूर्व हुए भगवान् महावीर के वचनों को ही दुहराया है ।२ जेन परम्परा पंचपरमेष्ठी को 'पंचगुरु' भी कहती है और वे सम्यक्त्व के बिना गुरुपद के अधिकारी नहीं हो सकते, अत: उन्हें सतगुरु कहते हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रष्ट पाहुड में, मुनि देवसेन ने दर्शनसार और सावयधम्म दोहा में, प्राचार्य जिनदत्त सूरी ने उपदेशरसायनरास में तथा प्राचार्य हेमचन्द्र ने योग-शास्त्र में गुरु का विस्तृत वर्णन किया है। इन ग्रन्थों में जैन गुरु केवल ज्ञानी-नपस्वी ही नहीं, अपितु भक्तों के श्रद्धा-भाजन भी हैं। संत-काव्य के सतगुरु की भक्ति पर जैन सतगुरु की भक्ति का प्रभाव है, ऐसा डॉक्टर रामसिह 'तोमर' ने भी स्वीकार किया है। हिन्दी के जैन और अजैन दोनों ही कवि सतगुरु के चरणों में अपनी भक्ति के पुष्प बिखेरते रहे हैं । जहाँ तक श्रद्धा का सम्बन्ध है, दोनों में समान थी, किन्तु गुरु-भक्ति में जैसे सरस गीतों का निर्माण जैन कवियों ने किया, निर्गुणवादी सत न कर सके । उन्होंने गुरुमहिमा की बात तो बहुत की, किन्तु उसकी भक्ति में वैसी भाव-विभोरता न
१. प्राचार्य क्षितिमोहन सेन, Medieaval Mysticism of India, पृ० २। २ . देखिए वही, रविन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा हुमा 'Forward' । ३ . डा० रामसिंह तोमर' : 'जनसाहित्य की हिन्दी-साहित्य को देन', प्रेमी अभिनन्दन. ग्रन्थ, पृ० ४६७ ।
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ला सके। कवि कशललाभ ने अपने गुरु पूज्यवाहन के आगमन पर प्राकृतिक आल्हाद का चित्र खींचा है
"प्राव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे । जोवइ प्रीयडा वाट सुकोमल कामिनी रे ।। चातक मधुरइ सादिकि पिऊ-पिऊ उचरइ रे । बरसह घण बरसात सजल सरवर भरइ रे ।। इस अवसरि श्री पूज्य महामोटा जतीरे ।
श्रावकना सुख हेत आया त्रम्बावती रे ।।"१ श्री साधूकीति का, गुरु भक्ति से सम्बन्धित एक सरस गीत उपलब्ध है। उसमें एक शिष्य पाने वाले गुरु को देखने के लिए वैसे ही बैचेन है , जैसे कोई प्रोषितपतिका अपने पति को देखने के लिए। उसका कथन है-“हे सखि ! मेरे लिए तो वही अत्यधिक सुन्दर है, जो यह बतादे कि हमारे गुरु किस मार्ग से होकर पधारेगे। श्री गुरु मभी को सुहावने लगते हैं । वे जिस पुर में प्राजाते हैं, शोभा का घाम ही बन जाता है। उनको देखकर हर कोई जयजयकार किये बिना नही रहता। जो गुरु की आवाज को भी जानता है, वह मेरा साजन है। गुरु को देखकर ऐसी प्रसन्नता होती है, जैसे चन्द्र को देखकर चकोर को और सूर्य को देखकर कमल को । गुरु के दर्शन से हृदय संतुष्ट और मन प्रसन्न होता है।"२
गुरु-विरह की ऐसी व्याकुलता जैन हिन्दी रचनाओं के अतिरिक्त और कहीं देखने को नहीं मिलती। जायसी और कबीर ने ब्रह्म के विरह का वर्णन तो किया है, किन्तु उनकी रचनाओं में कहीं भी गुरु-विरह का उल्लेख भी नहीं है।
गुरु के 'ज्ञानप्रदाता'-रूप की महिमा और शिष्य को अज्ञानता का सम्बन्ध है, उसे जैन और अजैन कवियों ने समान रूप से कहा है, किन्तु इस कथन में भी जैसी मरसता जैन रचनायो में देखी जाती है, निर्गुण काव्य में
१. कुशललाम, पूज्यबाहगगीत, ऐतिहासासिक जैन काव्य-संग्रह, अगरचन्द नाहटा
सम्पादित, कलकत्ता, पृ० ११६-११७ । २. साधुकोति-- श्री जिनचन्दसूरि गीत, ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह, कलकत्ता,
पृ०६१।
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नहीं । एक स्थान पर पांडे रूपचन्दजी ने चेतन को सम्बोधित करते हुए लिखा है -- "हे चेतन । मुझे प्राश्चर्य है कि सतगुरु अपने हितकारी अमृत-वचनों से चित्त देकर तुम्हें पढ़ाता है और तुम भी ज्ञानी हो, फिर भी, न जानें क्यों चेतन तत्वकहानी तुम्हारी समझ में नहीं प्राती ।”
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चेतन अचरज भारी, यह मेरे जिय आवे । अमृत वचन हितकारी, सतगुरु तुमहिं पढ़ावै ।
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सतगुरु तुमहि पढ़ावै चित दे, और तुमहुँ हो ज्ञानी । तबहुँ तुमहि न क्यों हूँ श्रावै, चेतन तत्व कहानी || "
इसीको कबीर ने इस प्रकार कहा है-सतगुरु बपुरा क्या करे, जो सिषही माहे चूक । भाव त्यू प्रमोधि ले, ज्यू बंसि बजाई फूँकि ॥ २
इससे स्पष्ट है कि 'तत्रहूँ तुमहिं न क्यों हूँ श्रावै, चेतन तत्व कहानी' के प्रश्न वाचकत्व में जो सौंदर्य है, 'बंसि बजाई फूं कि में नहीं है ।
यदि श्रात्मा और परमात्मा के मिलन की भावात्मक अभिव्यक्ति ही रहस्यवाद है, तो वह उपनिषदों से भी पूर्व जैन - परम्परा में उपलब्ध होती है । यजुर्वेद में जैन तीर्थकर ऋषभदेव और अजितनाथ को गूढ़वादी कहा गया है। महामना रानाडे ने अपनी पुस्तक 'Mysticism in Maharashtra, में ऋषभदेव को गूढ़वादी कहा है । डा० ए० एन० उपाध्ये ने भी 'परमात्मप्रकाश योगसार' की भूमिका में जैन तीर्थकरो को गूढ़वादी कहा है । कर्मों के मल से विकृत हुई श्रात्मा को जीवात्मा कहते हैं । जीवात्मा चौदह गुण-स्थानों पर चढ़ते चढ़ते शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेती है । आत्मा और परमात्मा के मिलन की यही कहानी है । प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के अनेकानेक जैन ग्रन्थों को रहस्यवादी
१. पाण्डे रूपचन्द, परमार्थ जकड़ी, परमार्थ जकड़ी-संग्रह, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, जनवरी १९११ ई०, पहला पद्य, पृ० १ ।
२. कबीरदास, गुरुदेव को अग, २१ वी साखी, कबीर ग्रन्थावली पृ० ३ ।
३. यजुर्वेद, २० - २६ ।
४. R. D. Ranade, 'Mysticism in Maharashtra', पृ० १ । ५. परमात्मप्रकाश - योगसार की भूमिका, डॉ० ए० एन० उपाध्ये- लिखित, पृ० ३६ ।
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कहा जाता है । उनमें रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। डॉ० हीरालाल जैन ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के भावपाहुड का मुनि रामसिंह के दोहापाहुड पर स्पष्ट प्रभाव स्वीकार किया है । कबीर की भाँति ही जैन हिन्दी कवियों में भी अनुभूति, प्रेम, विरह, माया, मिलन और तादात्म्य के रूप में रहस्यवाद के विशद दर्शन होते है । विरह और माया जन्य सरसता जैन कवियों में अधिक है। कबीर के 'विरह भुजगम पेसि कर किया कलेजे घाव, साधू अंग न मोडही ज्यों भावे त्यों खाय' से प्रानन्दधन के 'पिया बिन सुध-बुध खूदी हो, विरह भुजंग निशासमे, मेरी सेजड़ी ख दी हो' में अधिक संवेदनात्मक अनुभूति है । इसी भाँति 'जैसे जल बिन मीन तलफै ऐसे हरि बिन मेरा जिया कलपै' से बनारसीदास के, 'मैं विरहिन पिय के अधीन, यों तलफों ज्यों जल बिन मीन' में अधिक सबलता है और दृश्य को उपस्थित करने की शक्ति । जैन हिन्दी-रचनाओं में तन्त्रात्मक रहस्यवाद के उतने शब्द और प्रयोग नही पाये जाते, जितने जैन अपभ्रंश में उपलब्ध होते हैं। जैन हिन्दी कृतियो में भावात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। जहाँ कहीं तन्त्रात्मक रहस्यवाद के दर्शन होते हैं, उसमें वज्रयानी सम्प्रदाय के गृह्य समाज की विकृति नहीं पा पाई है।
कुछ विद्वानों ने लिखा है कि जैनों के भगवान् प्रेमास्पद नहीं होते, प्रत उनकी रचनायो में अनुरागात्मक भक्ति का अभाव है। किन्तु. विक्रम की पाँचवीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य पूज्यपाद ने 'अहंदाचार्येषु बहुश्र तेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:' कहा है। वीतराग भगवान् में अनुराग असम्भव नहीं है। आचार्य योगीन्दु का कथन है कि 'पर' में किया गया राग पाप का कारण है । वीतराग परमात्मा 'पर' नहीं, अपितु 'स्व' प्रात्मा ही है । अतः जिनेन्द्र में किया गया राग 'स्व' का राग कहलायेगा। इसी कारण जिनेन्द्र का अनुराग मोक्ष देता है । प्राचार्य कुन्दकन्द ने भावपाहुड, प्राचार्य समन्तभद्र ने स्वयभूस्तोत्र और शिवार्यकोटि ने भगवती आराधना में इसका समर्थन किया है। इससे सिद्ध है कि जैन हिन्दी कवियों को भगवान् के प्रति प्रेम-भाव विरासत के रूप में मिला है। हिन्दी के ख्यातिलब्ध कवि वनारसीदास ने 'पाध्यात्मगीत' में आत्मा को नायक और सुमति को पत्नी बनाया है । उन्होंने एक स्थान पर
१ . पाहुडदोहा की भूमिका, डॉ० हीरालाल जैन लिग्वित, पृ० १६ । २ . प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थमिद्धि, काशी, ६-२४, पृ० ३३६ । ३. योगीन्दुदेव (छठी शताब्दी ईसवी), परमात्मप्रकाश, बम्बई, १६३७ ई०, २६ वाँ
दोहा, पृ० ३३ तथा १७४ वो दोहा, पृ० ३१७ ।
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लिखा है-"पत्नी करतूति है और पिय कर्ता, पत्नी सुख-सोंव है और पिय सुखसागर, पत्नी सुख-सींव है और पिय सुख-सागर, पत्नी शिव-नींव है और पिय . शिव-मन्दिर, पत्नी सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, पत्नी कमला है और पिय माधव, पत्नी भवानी है और पति शंकर, पत्नी जिनवारणी है और पति जिनेन्द्र ।"१ बहुत दिन उपरान्त पति घर पा रहा है, तो सुमति ललक कर कहती है-“हे सखि ! देखो, आज चेतन पर पा रहा है । वह अनादिकाल तक दूसरों के वश में होकर घुमता फिरा, अब उसने हमारी सुध ली है।"२ पति को देखते ही पत्नी के अन्दर से परायेपन का भाव दूर हो जाता है । द्वैध हट जाता है और अद्वैत उत्पन्न होता है। सुमति चेतन से कहती है-“हे प्यारे चेतन ! तेरी ओर देखते ही परायेपन की गगरी फूट गई, दुविधा का अचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गई।" इसी प्रेम के अन्तर्गत प्राध्यामिक विवाह और प्राध्यात्मिक होलियाँ भी पाती हैं । ये रचनाएँ जैन कवियों की मौलिक देन हैं । हिन्दी के किसी भी क्षेत्र में इस प्रकार की रचनाओं का उल्लेख नहीं है। प्राचार्य जिनप्रभ सूरि का अंतरंग--विवाह, अजयराज पाटणी का शिवरमरणी-विवाह, कुमुदचन्द का ऋषभ-विवाहला, श्रावक ऋषभदास का प्रादीश्वर - विवाहला, विनयचन्द्र और साधुकोत्ति की 'चूनड़ी' ऐसी ही कृतियाँ हैं । कवि बनारसीदास, द्यानतराय और भूधरदास के प्राध्यात्मिक फाग अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। जैन
१. पिय मो करता मैं करतूति
पिय जानी मैं ज्ञान विभूति । पिय मुखसागर में सुख सीव
पिय शिवमदिर मै शिवनीव ।। पिय ब्रह्मा मै सरस्वनि नाम
पिय माधव मो कमला नाम । पिय शकर मैं देवि भवानि
पिय जिनवर में केवल बानि ।।
-बनारसी विलास, जयपुर, १९५४ ई०, अध्यात्मगीत, पृ० १६१ । २. देखो मेरी सखीये अाज चेतन घर प्राबे, काल अनादि फिर्यो परवश ही अब निज मुहि चितावै ॥१॥
-देखिए वही. परमार्थपद-पंक्ति, १४ वा पद, पृ० ११४ । ३. बालम तुहु नन चितवन गागरि गै फूटि । अचरा गौ फहराय सरम गै छूटि ।। बालम० ॥१॥
-देखिए वही, अध्यात्मपद पक्ति, पृ० २२८-२२६ ।
ॐफ955555फफफफक
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कवियों ने नेमिनाथ और राजुल के सम्बन्ध में अनूठे पद्यों की रचना की है, नेमीश्वर मूक पशुनों के करुरण ऋन्दन को सुनकर तोरण द्वार से वापस लौट गये । उस समय की राजीमती की बेचैनी का सफल चित्र हेमविजय ने खींचा है
कहि राजीमती सुमती सखियानकू, एक खिनेक खरी रहुरे । सखिरी सगिरी गुरी मुही बाहि करति बहुत इसे निहुरे ||
ही तब कही जबही, यदुराय कू जाय इसी कहुरे । मुनि 'म' के साहिब नेमि जी हो, अब तोरन तें तुम्ह क्यू' बहुरे || "
राजशेखरसूरि का नेमिनाथफागु, हर्षकीत्ति का नेमिनाथ राजुलगीत, विनोदीलाल का नेमिराजुल बारहमासा, नेमिव्याह, राजुलपच्चीसी, नेमजी रेखता और लक्ष्मीवल्लभ का नेमिराजुल बारहमासा प्रसिद्ध कृतियाँ हैं । बारहमासा विरह के सच्चे निदर्शन हैं। उनमें हिन्दी के बारहमासों की भाँति न तो परम्परानुसरण की जड़ता है, न अतिरंजना की कृत्रिमता और न उबा देनेवाली भावfगमा । विरहिणी के पवित्र भावों की व्याकुलतापरक अभिव्यक्ति ही जैन बारहमास की प्रमुख विशेषता है ।
अरहंत के रूप में जैन कवियों ने सगुण ब्रह्म की उपासना की है। अरहंत समवशरण में विराजकर, अपनी दिव्यध्वनि से विश्व के लोगों का उपकार करते है, अत: जैन श्राचार्यो ने अपने प्रसिद्ध 'मोकारमत्र' में श्ररहत को सिद्ध से भी पहले स्थान दिया है। अरत की भक्ति में सहस्रों स्तुति स्तोत्रो की रचना हुई है । भद्रबाहुस्वामी का रचा हुआ' उवसग्गहर स्तोत्त' अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है । भद्रबाहुस्वामी का समय वी० नि० मं० १७७ माना जाता है । अभी तक हिन्दी के विद्वानों की धारणा थी कि अपभ्रंश में स्तुति स्तोत्रों का निर्माण नही हुआ और इसी आधार पर उन्होंने हिन्दी के सगुण साहित्य को अपभ्रंश से यत्किचित् भी प्रभावित नहीं माना है । अव जैन भण्डारों की खोज के फलस्वरूप अपभ्रंश के अनेक स्तोत्र-स्तवनों का पता चला है। इससे हिन्दी भक्ति-काव्य की पूर्व परम्परा के अनुसन्धित्सुओं को सोचने के लिए नई सामग्री उपलब्ध हुई है ।
१. मिश्रबन्धु - विनोद, प्रथम भाग, लखनऊ, पृ० ३६८ ।
२. भगवत् पुष्पदंत भूतबलि, पटवडागम, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, अमरावती, वि० स० १६६६, पृ० ५३-५४ ।
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यह सिद्ध है कि हिन्दी का जन मुक्तक-काव्य, अपभ्रंश के भक्तिपरक साहित्य से प्रभावित है ।
अभी तक भगवद्विषयक वात्सल्य रस के निरूपण में, हिन्दी के सूरदास एकमात्र कवि थे । अब जैन हिन्दी साहित्य के प्रालोडन से प्रमाणित हुआ है कि वात्सल्य रस से सम्बन्धित जैन हिन्दी-कवियों की रचनाएँ भी अनूठी हैं । यद्यपि यह सच है कि जैन कवि बाल-तीर्थङ्कर की विविध मनोदशाओं का वैसा निरूपण नहीं कर सके हैं, जैसा सूर ने बालकृष्ण का किया है। किन्तु, इसके साथ यह भी सत्य है कि बालक के गर्भ और जन्म-सम्बन्धी दृश्यों को जैन कवियों ने जैसा चित्रित किया है, सूरदास छू भी नहीं सके हैं। मैं भूधरदास को इन चित्रों का सबसे बड़ा कलाकार मानता हूँ । उपमा, उत्प्रेक्षा और निरंग रूपकों को छटा से उनके चित्रों
सजीवता प्रा गई है । इन्द्र की प्राज्ञा से धनपति ने महाराज अश्वसेन के घर में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा की । श्राकाश से गिरती मरियों की चमक ऐसी मालूम होती थी, जैसे स्वर्गलोक की लक्ष्मी ही तीर्थङ्कर की मां की सेवा करने चली प्राई हो ।' दुन्दुभियों से गम्भीर ध्वनि निकल रही थी, मानों महासागर ही गरज रहा हो । २ सद्यः प्रसूत बालक को लिये मां ऐसी प्रतीत होती थी, मानों बालक भानु सहित संध्या ही हो। तीर्थङ्कर की मां की सेवा करती हुई रुचिकवासिनी देवियों का व्यस्त जीवन, जन्मोत्सव मनाने के लिए इन्द्र-दम्पति का प्रयाग, पांडुकशिला पर स्नान, फिर तीर्थंङ्कर के मां-बाप के घर में नाटकादि के प्रायोजन का दृश्य, भूधरदास के पार्श्वपुराण में ऐसा श्रकित किया गया है कि पाठक भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह पाता । पांडे रूपचंदजी ने भी इन्हीं बातों का वर्णन गर्भ और जन्म कल्याणकों में किया है। किन्तु, कल्पनागत सौन्दर्य भूधरदास में अधिक है । कवि द्यानतराय, बनारसीदास, कुशललाभ और मेरुनन्दन उपाध्याय ने भी वात्सल्य रस का यत्र-तत्र वर्णन किया है ।
१.
२.
३.
नमसों श्रावै लकती, मनिधारा इहि भाय । सुरगलोक लछमी कधी, सेवन उतरी माय ॥
- पार्श्वपुराण, कलकता, ५-५८, पृ० ४४ । प्रतिदिन देव दुदमी बजे,
कियों
महासागर यह गजे ।
- देखिए पाश्पुराण, कलकत्ता, पृ० ४४ । सुतराग रंगी सुखसेज मांझ,
ज्यों बालक भानु समेत सांझ ।
- देखिए वही, पृ० ५० ।
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सूरदास के काव्यों का मूल आधार श्रीमद्भागवत के होने से उनके वर्णन में मधुरतापरक रूप को ही प्रधानता है । उनके समूचे साहित्य में दो-एक स्थलों को छोड़कर कहीं भी बालक के उदात्ततापरक रूप के दर्शन नही होते । सत्रहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैन कवि ब्रह्म रायमल्ल ने 'हनुवंतचरित्र' का निर्माण किया था. उसमें बालक हनुमान् का प्रोजस्वी वर्णन है । इसके अतिरिक्त सूरदास का जितना ध्यान बालक कृष्ण पर जमा, बालिका राधिका पर नहीं। बालिकाओं का मनोवैज्ञानिक वर्णन सीता और अंजना के रूप में जैन भक्ति काव्यों में उपलब्ध होता है। रायचन्द के 'सीता-चरित्र' में बालिका सीता की विविध चेष्टानों का सरस चित्र खींचा गया है । 'अजनासुन्दरीरास' में अंजना का बालवर्णन भी हृदयग्राही है।
गोस्वामी तुलसीदास की रचनामों में 'रामचरितमानस' और 'विनयपत्रिका' अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । यद्यपि प० राहुल सांकृत्यायन ने जैन कवि स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' का 'रामचरितमानस' पर प्रभाव स्वीकार किया है, तथापि अभी तक दोनों का पूर्ण रूप से तुलनात्मक विवेचन किसी ने नही उपस्थित किया है । यह सच है कि 'रामचरितमानस' की लोकप्रियता को 'पउमचरिउ' नहीं पा सका है। इसका बहुत बड़ा कारण ‘पउमचरिउ' का जैन शास्त्रों पर प्राधृत होना ही है। वैसे प्रबन्ध-सौष्ठव और काव्यत्व की दृष्टि से 'पउमचरिउ' एक उत्तम काव्य है। इसमें उस भावूकता को भी कमी नही है, जो कल्पना के बल पर कथानक की प्रमुख घटनाओं को अनुभूत कराने में सहायक होती है। इसके अतिरिक्त रायचन्द का सीताचरित्र, लब्धोदय का पद्मिनीचरित्र और भूधरदास का पार्श्वपुराग प्रबंध काव्य होते हुए भी रामचरितमानस की समता नही कर सकते। उनमें उस तन्मयता का अभाव है, जिसने मानस के रचयिता को अमर बना दिया है। फिर भी भाव, शैली, भाषा, अलकार,छद और रस-विवेचन की दृष्टि से जैन महाकाव्यो का अध्ययन करने पर, हिन्दी के भक्ति-काव्य में अनेक नये अध्याय जोड़ने होगे। छोटे-छोटे भव-वर्णनो के समावेश से जैन महाकाव्यों का कथानक एक क्षण के लिए भी जड़ता को प्राप्त नहीं कर पाता । उसमें निरन्तर एक ऐसी गतिशीलता और नवीनता रहती है, जो रस-सिक्तता का मूल कारण है । इन पूर्व भव-वर्णनों को 'अवातरकथाओं' की संज्ञा दी जा सकती है । पंडित रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार अवातर कथाए ‘महाकाव्य' में रस की पिचकारियों का काम करती है । इन कथाओं में जितनी हो मूल कथाओं के साथ तादात्म्य होने की शक्ति होगी, उतनी ही उनमें रस उत्पन्न करने की ताकत पायेगी । जैन महाकाव्यों के रचयिता पूर्व भव-वर्णन-रूप अवातर कथा को मूल कथा के साथ
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एकमेक करने में भले ही न हो, उतरती हैं।
द्वितीय थे । उनमें तुलसी जैसी भावुकता और तन्मयता किन्तु उनकी रचनाएँ महाकाव्य की कसौटी पर खरी ही
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विनयपत्रिका मुक्तक पदों में लिखी गई है । तुलसीदास राग-रागनियों के विशेष जानकार कहे जाते हैं । किन्तु, अभी जयपुर आदि के जैन शास्त्र भण्डारों की खोज से पता चला है कि जैन कवियों का रखा हुआ पद-साहित्य भी विपुल है । मध्यकालीन भारत में जयपुर, ग्वालियर और आगरा संगीत के केन्द्र थे । अधिकांशतया जैन कवि इन्हीं स्थानों पर उत्पन्न हुए प्रथवा यहाँ उन्होंने अपना साहित्यिक जीवन व्यतीत किया । उनके पदों में अनेक राग-रागनियों का समावेश हुआ है । उनके पद भाव, भाषा और संगीतात्मकता के कारण गमलों में सजे गुलदस्तों की भाँति प्रतीत होते हैं । विनयपत्रिका के पदों में वह सौंदर्य नही है ।
जैन पद - साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें निर्गुण और सगुण दोनों ही प्रकार के भक्ति-भावों का समन्वय किया गया है । सिद्ध और अरहंत को क्रमशः निर्गुण और सगुण कहा जा सकता है। इन्हीं को प्राचार्य योगीन्दु ने 'निष्कल' और 'सकल' संज्ञा से प्रभिहित किया है ।" श्रात्मा और जिनेन्द्र के रूप को एक मानने के कारण ही यह समन्वय संभव हुआ है । यद्यपि विनयपत्रिका के अधिकांश पदों की शैली निर्गुण काव्य-जैसी प्रतीत होती है, तथापि उनका मूल स्वर सगुण-भक्ति से ही सबद्ध है। ऐसा मालूम होता है, जैसे तुलसी निर्गुण ब्रह्म की ओर ललककर देखने का चाव बारम्बार रखते हैं, किन्तु किसी अनिवार्य विवशता के कारण वे पकड़ते हैं सगुण ब्रह्म को ही । दोनों के मध्य में वे सफलतापूर्वक मध्यस्थता नही कर सके हैं। इस अन्तर के होते हुए भी जैन और तुलसी दोनों के ही पदों में विनयवाली बात समान है । तुलसी की भाँति ही जैन कवियों ने भी अपने श्राराध्य देव से भव-भव में भक्ति की याचना की है । १५ वीं शताब्दी के उपाध्याय जयसागर ने 'चतुविशति जिनस्तुति' में लिखा है
करि पसाउ मुझ तिम किमई, महावीर जिरणराय । stu भवि ग्रहवा अन्न भवि, जिम सेवउ तु पाय ।।
१, परमात्मप्रकाश, १-२५, पृ० ३२ ।
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१६ वीं शताब्दी के कवि जयलाल ने तीर्थङ्कर विमलनाथ से प्रार्थना की है
तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोरा जी। राजरिधि मांग नहीं, भवि भवि दरसन तोरा जी ।।
भूधरदास ने जैसी दीनता दिखाकर भक्ति का वर मांगा है, अन्य कोई नहीं मॉग सका
भर नयन निरखे नाथ तुमको और वांछा ना रही। मन ठठ मनोरथ भये पूरन रंक मानो निधि लही ।। अब होउ भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसो कीजिये। कर जोरि भूधरदास बिनवै. यही वर मोहि दोजिये ।।
जन भक्त-कवियों का यह भी विश्वास है कि भक्ति से मुक्ति मिलती है। कवि बनारसीदास ने लिखा है कि जिनेन्द्र देवों के देव हैं, उनके चरणों का स्पर्श करने से मुक्ति स्वयमेव मिल जाती है । कवि द्यानतराय और भूधरदास का भी ऐसा ही कथन है : जैन कवियों ने ज्ञान को भी भगवत्कृपा से ही उपलब्ध होना स्वीकार किया है । इससे जैनों के मूल सिद्धांत में कोई बाधा नहीं पाती; क्योंकि जैन-भक्ति भगवान् में सीधा कर्तृत्व स्वीकार नही करती, अपितु प्रेरणा-जन्य कर्तृत्व मानती है । भगवान् के सान्निध्य मात्र से ही शुद्ध भावों का उदय होता है और उससे चक्रवर्ती की विभूति तथा तीर्थङ्करत्व नाम-कर्म तक का बंध होता है। जहाँ तुलसीदास ने केवल भगवत्कृपा से ज्ञान और मोक्ष को स्वीकार किया है, वहाँ जैन कवियों ने भगवत्कृपा के साथ-साथ स्व-प्रयास को भी यथोचित रूप में मान लिया है।
मध्यकाल के सभी कवियों ने अपने-अपने आराध्य को अन्य देवी से बड़ा माना है। उनका ऐसा मानना राजसिकता का नहीं, अपितु अनन्यता का द्योतक है। अपने आराध्य में ध्यान के केन्द्रित होने से ही उन्हे अन्य देव फीके जंचते हैं। जैन कवियों ने भी जिनेन्द्र को मर्वोत्तम कहा है; किन्तु अन्य देवों के प्रति वे कटु नहीं हो सके हैं । सूरदास ने 'हय गयंद उतरि कहा गर्दभ चढ़ि धाऊँ' कहकर अन्य देवों को 'गधा' तक बना दिया है । भूधरदास ने केवल इतना कहा- कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध गाय दूध अन्तर घनेर है।' इसी भांति भगवान् को उपालम्भ देने में भी जैन कवियों ने उदारता का परिचय दिया है। सूरदास
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की फटकार यद्यपि मधुरता से प्रोत-प्रोत है, किन्तु कहीं-कहीं उन्होंने भक्ति की मर्यादा का प्रतिक्रमण किया है। एक उदाहरण देखिए
पतित पावन हरि, विरद तुम्हारो, कौने नाम धर्यो।
हों तो दीन, दुखित, मति दुरबल, द्वारे रटत पर्यो । किन्तु, बानतराय के उपालम्भ में कैसी शालीनता है
तुम प्रभु कहियत दीनदयाल । प्रापन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ।। तुमरो नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल ।
तुम तो हमको कछू देत नहिं, हमरो कोन हवाल ।।
तुलसी और जैन कवि दोनों ने ही भगवान् के लोकरंजनकारी रूप की महत्ता स्वीकार की है । रूप लोकरंजनकारी तभी हो सकता है, जब सौंदर्य के साथ-साथ शक्ति और शील का भी समन्वय हो। जिनेन्द्र में राम के समान ही सौन्दर्य और शील की स्थापना हुई है, किन्तु शक्ति-सम्पन्नता में अन्तर है। राम का शक्ति-सौन्दर्य असुर तथा राक्षसों के संहार में परिलक्षित हुआ है, किन्तु जिनेन्द्र का प्रष्टकर्मों के विदलन में । दुष्टों को दोनों ने जीता है, एक ने बाहुबल से और दूसरे ने अध्यात्मशक्ति से । एक ने असत् के प्रतीक मानव को समाप्त किया है और दूसरे ने उसे सत् में बदला है ।
जैन कवियों के मध्यकालीन काव्य में शांत-भाव प्रधान है । जैन आचार्यों ने नौ रसों में शृगार के स्थान पर 'शांत' को रसराज कहा है । उनका कथन है कि अनिर्वचनीय प्रानन्द की सच्ची अनुभूति राग-द्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जाने पर ही होती है । राग-द्वेष से सम्बद्ध अन्य आठ रसों के स्थायी भावों से उत्पन्न आनन्द में वह गहरापन नही होता, जो 'शांत' में पाया जाता है। स्थायी प्रानन्द की दृष्टि से शांत ही एकमात्र रस है। कबि बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' में 'नवमों सान्त रसनि को नायक' माना है। उन्होंने तो पाठ रसों का अन्तर्भाव भी शांत रस में किया है। डॉक्टर भगवानदास ने भी अपने 'रस-मीमांसा' नाम के निबध में, अनेकानेक संस्कृत उदाहरणों के साथ शांत को 'रसराज' सिद्ध किया है । भक्ति के क्षेत्र में तो अजैन प्राचार्यों ने भी शांत को ही प्रधानता दी है । उन्होंने अपनी भक्ति-परक रचनामों में प्रेम और सौन्दर्य का भी प्रयोग किया है, किन्तु प्रधानता शांत को ही दी है । कवि बनारसीदास ने शांत
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रस के स्वाद को कामधेनु, चित्रावेलि और पंचामृत के समान आनन्ददायक माना है ।" भैया भगवतीदास, भूधरदास, बानतराय, विनयविजय आदि की शांत भाव को द्योतित करने वाली मनमोहक रचनाएँ उपलब्ध हैं ।
भाषा की दृष्टि से मध्ययुग के जैन हिन्दी कवियों की रचनाएँ दो भागों में विभक्त की जा सकती हैं- पहला भाग वि० सं० १४००-१६०० और दूसरा १६००-१८०० | पहला भाग 'अपभ्रंश' के निकट है और उसमें हिन्दी का क्रमशः विकास सन्निहित है । उस पर गुजराती और राजस्थानी का प्रभाव भी स्पष्ट है । दूसरे भाग में हिन्दी का पूर्ण विकास देखा जाता है। इस युग के जैन हिन्दी कवियों की विशेषता यह है कि वे संस्कृत और फारसी दोनों के जानकार थे । उस समय फारसी राज-भाषा थी । व्यापार तथा काम-काज की दृष्टि से उसका जानना श्रावश्यक था । इसके साथ जैन शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए संस्कृत का ज्ञान भी अनिवार्य था। जैन हिन्दी-कवियों ने अपनी रचनात्रों में उर्दू-फारसी के केवल शब्दों का ही नहीं, अपितु वाक्यों का भी सफल प्रयोग किया है। भैया भगवतीदास फारसी के विशिष्ट जानकार थे । उनके कवित्तों में यदि एक ओर संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है, तो दूसरी ओर फारसी के शब्दों के प्रयोग से अनेक कवित्तों का 'टोन' ही फारसीमय हो गया है । 'मान यार मेरा कहा दिल की चशम खोल, साहिब नजदीक है तिसको पहिचानिये', जैसे अनेक कवित्त उपर्युक्त कथन के दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। डॉ० हीरालाल जैन ने बनारसीदास की भाषा पर उर्दू-फारसी का प्रभाव स्वीकार किया है । "
-
जैन कवि विविध छंदों के प्रयोग में भी निपुण थे। उन्होंने अनेक नये छंदों का प्रयोग किया है । उनमें वस्तु, आभानक, रोडक, करिखा, वेसरी, पद्मावती, नरेन्द्र और व्योमवती प्रमुख हैं । कवि बनारसीदास ने 'पद्मावती' में बलाघात के द्वारा लयात्मकता उत्पन्न की है और भूधरदास ने नरेन्द्र तथा व्योमवती का, संगीत
१. अनुभो की केलि यह कामधेनु चित्रावेलि । अभी को स्वादु पच
अमृत को कौर है ।
- बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई, उत्थानिका
१० वां पद्य, पृ० १७-१८ ।
२. अर्धकथानक, संशोधित संस्करण, बम्बई, १६५७ ई०, भूमिका, अर्धकथानक की भाषा, डॉ० हीरालाल - लिखित, पृ० १६ ।
5 5 5 5 5 5 १०55555555
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ስለሰላ
की लय के साथ, प्रयोग किया है। जैन कवि मानों पदों के राजा थे। उनके पदों में यदि एक शोर भावुकता है, भक्ति है, कवित्व है, तो दूसरी ओर संगीतात्मकता भी है ।
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लंकारों के क्षेत्र में जैन कवियों को 'चित्र- बंध' से विशेष प्रेम था । उन्होंने इतने कठिन अलंकारों का प्रयोग श्रासान और स्वाभाविक ढंग से ही किया है । उन्हें यह परम्परा संस्कृत काव्यों से मिली थी। इसके अतिरिक्त वे यमक, रूपक, उत्प्रेक्षा और विरोधाभास के प्रयोग में तो असाधारण रूप से सफल हुए हैं। उनके अलंकारों में स्वाभाविकता, कुशलता और कवि प्रतिभा तीनों का ही समन्वय है ।
जैन कवियों की मुक्तक और प्रबंध- दोनों प्रकार की रचनाओं में प्राकृतिक दृश्यों का सरस चित्रण देखने को मिलता है। जैन कवि, जो मुनि या साधु थे, प्रकृति के सन्निधान में ही रहते थे, अतः उन्हें प्रकृति-गत सूक्ष्म जानकारी भी थो और प्रकृति से प्रेम भी था । उनके प्रकृति-वर्णन में जो सौंदर्य प्र सका है, इस युग की अन्य रचनाओं में नहीं देखा जाता ।
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कवि बनारसीदास की
भक्ति-साधना
बनारसीदास सत्तरहवीं शताब्दी के एक सामर्थ्यवान कवि थे। उन्हे कविप्रतिभा जन्म से ही प्राप्त हुई थी। उन्होंने १५ वर्ष की आयु में 'नवरस रचना' नाम के ग्रन्थ का प्रणयन किया था। आज वह रचना उपलब्ध नहीं है। बनारसीदास ने उसे स्वयं गोमती के खर प्रवाह में बहा दिया था। जब उन्होंने ऐसा किया, मित्रगण हा-हा करते रह गये ।' उसमें 'विसेस आसिखी का बरनन' था। और अब बनारसीदास ने भानुचन्द्र नाम के साधु से शिक्षा लेना प्रारम्भ किया था, जिसके परिणामस्वरूप उनका रूप बदल चुका था । वे उस 'नवरस रचना' को अपने ऊपर एक कलंक मान रहे थे, फिर तो जल-मग्नता के रूप में उसकी परिणति होनी ही थी। इस कृति में एक हजार दोहा-चौपाई थे। कोई मामूली रचना न थी । इससे सिद्ध है कि प्रणेता भले ही किशोर बालक हो, किन्तु वह महान् कवित्व शक्ति का धनी था।
१. अर्घकथानक, नाथूराम प्रेमी सम्पादित, सशोधित सस्करण, पद्य २६७-६८, पृष्ठ
२. 'तामैं नवरस-रचना लिखी । पं विसेस बरनन मासिखी' वही, पद्य १७६ वाँ।
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उनका दूसरा ग्रन्थ ' बनारसी विलास' है ।" इसमें बनारसीदास की ५० रचनाओं का संकलन है। सभी मुक्तक हैं। उनमें 'कर्मप्रकृतिविधान' नाम की अन्तिम कृति भी है, जो फागुन सुदी ७, वि० सं० १७०० को समाप्त हुई थी। 'सूक्त मुक्तावली" संस्कृत के सिन्दूर प्रकरण का पद्यानुवाद है । इसमें कुछ पद्य बनारसीदास के मित्र कुरपाल के रचे हुए हैं। 'ज्ञान बावनी' पीताम्बर नाम के किसी कवि की रचना है। उसमें बनारसी का गुण-कीर्तन किया गया है। अवशिष्ट पूर्ण रूप से बनारसीदास की रचनाएँ हैं। इस ग्रंथ का संकलन मागरे के दीवान जगजीवन ने वि० सं० १७०१ में किया था। समस्त भारतवर्ष के जैन सरस्वती भण्डारों में 'बनारसी विलास की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । ऐसा लोकप्रिय था यह ग्रन्थ । श्राज भी उसकी ख्याति प्रक्षुण्ण है ।
'नाटक समयसार' बनारसीदास की एक समर्थ रचना है । यद्यपि यह प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार ( प्राकृत) और उस पर रचे गये प्रमृतचन्द्राचार्य के संस्कृत कलशों को आधार बनाकर लिखा गया है, किन्तु उसकी मौलिकता भी सन्देह से परे है । मैं इस विषय पर अपने निबन्ध 'नाटक समयसार' में पर्याप्त रूप से लिख चुका हूँ। इसका अन्तः अनुपम था तो बाह्य भी कम सुन्दर न था। दोनों गुलाब की सुगन्धि और पंखुड़ियों से एक-दूसरे के पूरक हैं । बनारसीदास की लेखनी में शक्ति थी । 'नाटक समयसार' उसका सच्चा निदर्शन है । उन्होंने 'नाममाला', 'मोह-विवेक-युद्ध', 'माझा' आदि अन्य कृतियों का भी निर्माण किया । इधर उनके रचे कुछ नये पद्य भी भंडारों में उपलब्ध हो रहे हैं । 'मोह-विवेक -युद्ध' बनारसीदास की रचना है या नहीं, एक विवाद ग्रस्त प्रश्न है । अभी तक वह बनारसीदास की कृति ही मानी जाती है । मेरी दृष्टि में वह बनारसीदास की कृति नहीं है । पृथक निबन्ध का विषय है, फिर लिखूं गा ।
उस समय प्रागरे में एक अध्यात्मियों की सैली ( गोष्ठी) थी, जिसमें सदैव अध्यात्म चर्चा हुआ करती थी । बनारसीदास उसके सदस्य बने । उनके ५ साथी
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१. हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई और नातूलाल स्मारक ग्रंथमाला, जयपुर प्रकाशित हो चुका है ।
२. पं० नाथूराम प्रेमी के सम्पादन के साथ बम्बई से और स्व० पं० जयचन्द्रजी की Her cer के साथ, सस्ती ग्रन्थमाला, देहली से प्रकाशित हुआ है । ३. सम्मेलन पत्रिका, वर्ष ४९, भाग ३-४, पृष्ठ ५८-७१ ।
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थे-पं० ० रूपचन्द, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुअरपाल, भौर धमदास ।' प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' की राजमल जी कृत बाल-बोध टीका पढ़कर उन्हें अध्यात्म चर्चा में रुचि उत्पन्न हुई थी, वह वि० सं० १६६२ में पाण्डे रूपचन्द जी से गोम्मटसार पढ़ने के उपरान्त परिष्कृत हुई। परिणाम स्वरूप वे अध्यात्म मत के पक्के समर्थक बन सके । किन्तु इन्होंने 'आत्मा' पर केवल चिन्तन और मनन नहीं किया, श्रपितु उसे अपनी अनुभूति का विषय बनाया। उनकी दृष्टि में आत्मा अनुभव थी और उसका रस पंचामृत- जैसा स्वादिष्ट । वे मूलत: साहिfore थे। उन्होंने 'अध्यात्मवाद' को भावोन्मेष के सांचे में ढाला । अतः वे ज्ञान क्षेत्र के प्राध्यात्मवादियों से पृथक् रहे । उन्हें श्रात्मा का रस प्राप्त करने के लिए अपना मन किसी ब्रह्मरन्ध्र पर केन्द्रित नहीं करना पड़ा। वे न योगी थे, न तपी और न ध्यानी । उनमें अनुभूति प्रमुख थी । उसकी अन्तश्चेतना ने श्रध्यात्म और भक्ति को सन्निकट ला दिया था। यदि यह कहें कि बनारसीदास प्रध्यात्मिक भक्ति के प्रणेता थे, तो अनुपयुक्त न होगा ।
प्राध्यात्मिक भक्ति का अर्थ है, आत्मा को आधार मानकर की गई भक्ति । जैनदर्शन में प्रात्मा ज्ञान को कहते है । इसका तात्पर्य निकला कि बनारसीदास ज्ञानमूला भक्ति मानते थे । ज्ञान-भक्ति का जैसा समन्वय जैन काव्यों में निभ सका, अन्य किसी मे नहीं। इसका कारण है कि निराकार, श्रदृश्य और श्ररूपी श्रात्मा तथा साकार और रूपी तीर्थंकर या केवलज्ञानी मुनि में, जैन प्राचार्य कोई तात्त्विक भेद नहीं मानते । यहाँ जो ब्रह्म ज्ञान क्षेत्र का विषय है, वह ही भाव क्षेत्र का भी । दोनों के रूपों में कोई अन्तर नहीं है । दूसरी बात है कि जैन दार्शनिक 'सुश्रद्धा' के समर्थक रहे हैं। 'सुश्रद्धा' उसी को कहते हैं, जो परीक्षापूर्वक की जाती है। आचार्य समन्तभद्र ने जिनेन्द्रदेव की भली भाँति परीक्षा की थी, तब उन्होंने जिस श्रद्धा के फूल चढ़ाये, वह सुश्रद्धा ही थी । यहाँ सिद्ध है
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१. रूपचन्द पण्डित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम ।
तृतीय भगौतीदास नर, कौरपाल गुन धाम || धर्मदास ये पंच जन, मिलि बैठें इक ठोर । परमारथ चरचा करें, इनके कथा न भोर ॥ -- नाटक समयसार, बम्बई, अन्तिम प्रशस्ति, दोहा २६-२७ ।
२. धनुमो की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, अनुभो को स्वाद पंच प्रमृत को कौर है । वही, पृ० १७ ।
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कि 'सु' शब्द ज्ञान का द्योतक है। और श्रद्धा का घनारूप ही भक्ति कहलाता है । अतः 'सुश्रद्धा' में यदि एक ओर ज्ञान समाता है तो दूसरी प्रोर भक्ति । ज्ञान र भक्ति का समन्वित रूप ही हिन्दी भक्ति काव्य की प्रन्तश्चेतना का मुख्य स्वर है । बनारसीदास तो उसके निदर्शन ही हैं ।
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जिस आत्मा की बात ऊपर कही गई है, वह परमात्म रूप धारण कर चुकी है। जैन शास्त्रों में आत्मा के तीन रूप माने गये हैं--बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमें बहिरात्मा नितांत मिध्यात्व से ओत-प्रोत रहती है । उसमें परमात्मा को भी देखने की शक्ति नहीं होती । अन्तरात्मा शुद्ध होती ।' उसे 'परमात्मपद' के सन्निकट ही समझिये । परमात्मा श्रात्मा का विशुद्धतम रूप है । उसको ब्रह्म भी कहते हैं। योगीन्दु ने उसको 'निष्कलब्रह्म' की संज्ञा से अभिहित किया है । 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य' में वही ब्रह्म आराध्य है। और साधारण प्रात्मा भक्त । अर्थात् एक ही आत्मन् के दो रूपों में एक सेवक है तो दूसरा सेव्य, एक भक्त है तो दूसरा भगवान्, एक पुजारी है तो दूसरा पूज्य । यहाँ उपनिषदों की भाँति आत्मा परमात्मा का खण्ड प्रश नही है, अपितु वह स्वयं विशुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है । फिर भी उसके रूपों में तो भेद है ही । इसी कारण उनमें भक्त और भगवान् वाली संघटना बन पड़ती है । बनारसीदास ने 'अध्यात्मपद पंक्ति' में आत्मा और परमात्मा को इसी रूप में प्रस्तुत किया है।
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भक्ति - प्रेम और श्रद्धा का समन्वित रूप है । बनारसीदास ने भक्ति के श्रद्धा वाले पहलू को ही नही, किन्तु प्रेम को भी समरूप से ही अपनाया । उन्होंने श्रात्मा को पत्नी और परमात्मा को पति बनाकर दाम्पत्यरति का रूपक घटित किया है । जव दो में प्रेम होता है तो एक-दूसरे का वियोग असह्य हो जाता है । वियोग के दिन तड़फते - तड़फते ही बीतते है । बनारसीदास के 'अध्यात्मगीत' में इस तड़फन का एक चित्र ही उपस्थित किया गया है । श्रात्मा रूपी पत्नी परमात्मा रूपी पति के वियोग में इस भाँति तड़फ रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है । वह
१. परमात्मप्रकाश, योगीन्दु, डा० ए० एन० उपाध्ये सम्पादित, रायचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, १।११।१५, पृ० २०-२४ ।
२. देखिये बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २२२ ।
३. मैं बिरहिन पिय के आधीन ।
यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ||
- श्रध्यात्मगीत, तीसरा पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० १५६
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अपनी 'समता' नाम की मखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह लीन हो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है। मैं अपनपा खोकर पियस मिलूँगी, जैसे घोला गलकर पानी हो जाता है ।" अन्त में पति तो उसे घर में ही मिल गया और वह उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गई कि द्विविधा तो रही ही नहीं । उसके एकत्व को कवि ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों से पुष्ट किया है । वह करतूति है और पिय कर्त्ता, वह सुख-सींव है और पिय सुखसागर, वह शिवनींव है और पिय शिव मन्दिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है और पिय शंकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र ।
पिय मोरे घट मै पिय माहिं । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि || पिय मो करता मैं करतुति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ।। पिय सुख सागर मै सुख-सींव । पिय सुख मन्दिर मै शिव-नीव ।। पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ॥ पिय शंकर मै देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवल वानि ॥ ३
एक दूसरे स्थान पर बनारसीदास ने 'सुमति' को पत्नी और 'वेतन' को पति बनाया है । दोनों में प्रेम है-प्रटूट, एकनिष्ठ । एक बार चेतन कही गया तो भटक कर रह गया । बहुत दिनों तक घर न लोटा । समय की सीमाएँ टूट गई । पथ निहारते-निहारते लोचन क्षीण हो गये । विरह की असह्य दशा कैसे सही जाय ? अन्त में पत्नी चल पड़ी पिय की खोज में। वह किसी मार्ग-दर्शक के अभाव में रुकी नही । जो पति को ढूँढने के लिए राजसी वस्त्र उतार कर कंथा धारण कर सकती है, उसे रास्ता दिखाने वाले की क्या आवश्यता । यदि उसके
१. होहु मगन में दरसन पाय, ज्यों दरिया में बूंद समाय । पिय कों मिलों अपनपो खोय, प्रोला गल पारगी ज्यो होय ||
वही, वाँ पद्य, पृ० १६० ।
२. देखिये वही, पृ० १६१ ।
३, फारि पटोरहि, पहिरों कथा । जो
मोहि कोउ दिखावे पथा ||
वह पथ पलकन्ह जाइ बोहारी। सीस चरन के तहाँ सिधारी ।।
जो गुरु अग ुवा होइ, सखि मोहि लावे पथ माँहा ।
तन मन धन बलि बलि करी, जो रे मिलावं नाहा ॥
जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल सम्पादित, पद्मावत, पद्मावती - नागमती विलाप खण्ड, चौथी चौपाई, पृ० २६५ ।
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प्रभाव में रुक सकती है, तो एक बहाना-मात्र है । जब साधक की लौ ब्रह्म की मोर मुड़ गई तो फिर किसी गुरु या सद्गुरु की जरूरत नहीं। वह स्वयं वहाँ तक पहुंच जायेगा, भले ही विपत्तियों के प्रम्बार टूट पड़ें। उसे विश्वास होता है वहां पहुंचने का । यदि ऐसा न हो तो कहाँ टिके उसकी साधना। बनारसी की नायिका भी ऐसी ही प्रतीति वाली है । उसने खोजा तो खोज लिया । पिय मिला भयावह कान्तार में । उसे देखते ही परायेपन की गागर फूट गई, दुविधा का मांचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गई । पत्नी का यह तादात्म्य का भाव शील-सना है, तो सुन्दर भी कम नही है। उसके बिना तो 'देखना' सार्थक ही नहीं हो सकता । यदि साधक ब्रह्म को केवल देखकर रह जाय, उसमें लीन होने का भाव न जागे, तो 'वैध' कैसे हटे । देखने के साथ तादात्म्य होने की भावना तीब्रगति से बढ़ती है । बनारसी की नायिका का स्पन्दन इस दिशा में हुआ।
"बालम तुहुँ तन चितवन गागरि फूटि, अचरा गौ फहराय सरम गै छूटि, बालम ।। १ ।। पिउ सुधि पावत बन में पैसिउ पेलि, छाडत राज डगरिया भयउ अकेलि, बालम ।।२।। काय नगरिया भीतर चेतन भूप, करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम ।।३।। चेतन बूझि विचार धरहु संतोष, राग दोष दुइ बन्धन छूटत मोष, बालम ।।४॥'
कभी-कभी ऐसा हुआ कि सुमति खोजने नहीं गई-न जा सकी। किन्तु इसका अर्थ यह नही था कि उसकी विरह-वेदना प्रल्प थी अथवा उसका प्रेमसान्द्र नहीं था। इसके विपरीत विरह ने उसे मार-मार कर लञ्ज बना दिया था। वह चलने में भी समर्थ नहीं थी। बेचैनी और आकुलता बढ़ गई थी। विरह में प्रेम और भी पुष्ट हो गया था। यदि प्रेम सच्चा है तो उसके आकर्षण में असीम शक्ति होती है । सुमति का प्रेम भी ऐसा ही था । भटका हुआ पति स्वयं लौटा, या उसे स्वयं लौटना पड़ा। यदि न लौटता तो आकर्षण की चुम्बकीय शक्ति सन्देहास्पद बन जाती । भगवान् को भी भक्त के पास जाना पड़ता है। भक्त की अनुरक्ति उनको खींचे बिना नहीं रहती । भगवान् पाते है तो समाँ ही
१. अध्यात्मपद पंक्ति, १० वा राग-बिरवा, बनारसी विलास, पृ० २२८ ।
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दूसरा हो जाता है । भक्त का दिल तो खुश होता ही है, चारों मोर की हवा भी खुशी का पैगाम ले दौड़ उठती है । कबीर की बहुरिया के घर, उसके पति राजा राम स्वयं प्राये, तो उसके पुलक का ठिकाना न रहा । प्रकृति महक उठी, मंगल गीतों की ध्वनियाँ निनादित होने लगीं ।' सुमति के प्रिय भी पाये । वे निरंजननाथ कहे जाते हैं-कामदेव-से सुन्दर और सुधारस-से मधुर हैं। उनके पाते ही सुमति पाल्हादित हो उठी । खञ्जन-जैसे उसके चपल नयन स्थिर हो निरखने लगे रूप के समुद्र को। ऐसा लगा जैसे कि प्रकृति मधुर गीतों से भर गई है । भय मौर पाप रूपी मल, जिसकी दुर्गन्धि अन्तः से बाहर तक विस्तृत होकर अपवित्रता का संचार करती ही रहती थी, न जाने कहाँ विलीन होगया ।
"म्हारे प्रगटे देव निरजन । अटको कहा सर भटकत कहा कहूँ जन रंजन ।।१।। खंजन दृग-दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रजन सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय खंजन ।। २ ।। वो ही कामदेव होय कामघट वो ही सधारस मंजन ।
और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन ।। ३ ।। जायसी का रतनसेन भी जब लौटा तो जो पवन नागमती के शरीर को भूने डाल रहा था, शीतल होकर बहने लगा। सब संसार हरा-भरा हो गया, नदी
और तालाब जल से प्रापूर भर गये, स्थान-स्थान पर जमी हुई दूब देखकर ऐसा लगा, जैसे पृथ्वी हर्ष-मग्न हो लहक रही हो । दादुर, मोर और कोकिल सब बोल उठे। अभी तक न जाने कहा अलोप हो गये थे। जब 'मानसर' को उसका पिय पद्मावती के रूप में मिल गया तो "देखि मानसर रूप सुहावा हिय हुलास पुरइन होइ छावा । अन्धियार रैनि मसि छूटी, भा भिनिसार किनर रवि फटी ।।" ४ उस शशि रेखा को देखकर कुमुद विकसित हो गये। उसने जहाँ देखा चमक फैल गई, "नयन जो देखा कॅवल भा निरमल नीर सरीर । हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर" ।।५ अर्थात् उस तालाब का अंग-अंग
१. कबीर ग्रन्थावली, डा. श्याममन्दरदास सम्पादित, का० ना०प्र० सभा वाराणसी, चतुर्थ
सस्करगण. पद भाग, पहला पद्य, पृ० ८७ । २. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० २४० क । ३ . पदमावत, चित्तौड़-पागमन बण्ड, तीसरी चौपाई, पृ० १८७ । ४. वही, मात समुद्र ग्वण्ड, दमवी चौपाई, २-३ पक्ति, पृ० ६७ । ५. वही, मानमरोदक ग्वण्ड, ८ वी चौपाई का दोहा, पृ० २५ ।
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मानन्द-विमोहित हो उठा। जैन कवि द्यानतराय की प्रात्मारूपी दुलहिन ने ज्यों ही ब्रह्म के दर्शन किये कि चारों ओर फूला हुआा बसन्त देखा, जिसमें उसका मनमधुकर सुखपूर्वक रमने लगा ।' पिय के साथ ही बसन्त के माने और चतुर्दिक में is a fart होने की बात बनारसीदास ने 'अध्यात्मफागु' में भी लिखी है ।
" विषम विरष पूरो भयो हो, प्रायो सहज बसन्त । प्रगटी सुरुचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयमन्त ॥ "
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बनारसीदास का प्रेम भाव 'प्राध्यात्मिक विवाह' के रूप में भी प्रस्फुटित हुआ है । ये विवाह दो तरह के होते हैं-एक तो जब किसी श्राचार्य का दीक्षाग्रहण के समय दीक्षाकुमारी या संयमश्री के साथ सम्पन्न होता है और दूसरा वह जब आत्मारूपी नायक साथ उसी के किसी गुरण रूपी कुमारी की गाँठें जुड़ती हैं । प्रथम प्रकार के विवाहों का वर्णन करने वाले कई रास ऐतिहासिक काव्य संग्रह ' " में संकलित है। दूसरे प्रकार के विवाहों में सबसे प्राचीन जिनप्रभसूरि का 'अन्तरंग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। इसी के अन्तर्गत वह दृश्य भी आता है जबकि प्रात्मा रूपी नायक 'शिवरमग्गी' के साथ विवाह करने जाता है । अजयराज पाटणी का 'शिवरमणी विवाह' १७ पदों का एक सुन्दर रूपक काव्य है । कवि बनारसीदास ने भी तीर्थङ्कर शान्तिनाथ का शिवरमरणी से विवाह दिखाया है । शान्तिनाथ 'विवाह मण्डप' में प्राने वाले हैं । होने वाली वधू की उत्सुकता दबाये नही दबती । वह अभी से उनको अपना पति मान उठी है । वह अपनी सखी से कहती है, "हे सखी ! आज का दिन अत्यधिक मनोहर है, किन्तु मेरा मन भाया अभी तक नही आया । वह मेरा पति सुख-कन्द है, और चन्द्र के समान देह को धारण करने वाला है, तभी तो मेरा मन - उदधि आनन्द से प्रान्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं। उसकी सुहावनी ज्योति की कीर्ति ससार में फैली हुई है। वह दुःख-रूपी अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाली है। उनकी वाणी से अमृत भरता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए ।"
१. तुम ज्ञान विभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर मुख सों रमन्त ।
-द्यानत पद संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ५८ वाँ पद, पृ० २४ । २. श्राध्यात्मफाग, दूसरा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १५४ ।
३. 'जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह' श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा सम्पादित होकर कलकत्ता से वि० सं० १६६४ में प्रकाशित हुआ था ।
४. इसकी हस्तलिखित प्रति, जयपुर के श्री बधीचन्द जी के जैन मन्दिर के गुटका न० १५८, वेस्टन नं० १२७५ में निबद्ध है ।
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"सही ए री ! दिन आज सुहाया मुझ भाया पाया नहीं घरे। सहि ए री! मन उदधि अनन्दा सुख-कन्दा चन्दा देह धरे ।। चन्द जिवां मेरा बल्लभ सोहै, नैन चकोरहिं सुक्ख कर। जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमिर-वितान हरै।। सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग-लांछन कहिए। श्री शान्ति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, आज मिला मेरी सहीए ॥"'
जगराम, देवाब्रह्म, कुमुदचन्द्र, द्यानतराय और रूपचन्द प्रादि के पदसाहित्य में ऐसे 'विवाहला' बिखरे हुए है। उनका संकलन मैंने किया है। 'गुजराती और राजस्थानी के जैन साहित्य में भी इस प्रकार के अनेक विवाह-काव्य रचे गये । गुजराती के प्रसिद्ध लेखक मोहनलाल दुलीचन्द देशाई के 'जैन गुर्जर कविप्रो' में ऐसे अनेक 'विवाहलों' की चर्चा की गई है। इस विवेचन से, पं० परशुराम चतुर्वेदी की यह मान्यता कि भारतीय मधुरोपासना में उपासक और उपास्य केवल प्रेमिका और प्रेमपात्र वाले रूप तक ही सीमित थे, उसमें वैध विवाह प्रावश्यक नही माना जाता था, निराधार प्रमाणित हो जाती है। यहाँ तो सुमति का चेतन से विवाह ही नही हुप्रा, अपितु उसने एक पतिव्रता-सा जीवन भी बिताया । दोनो में भावात्मक पहलू पर अधिक बल दिया गया है, किन्तु इससे पति-पत्नी वाले सम्बन्ध का निराकरण नही हो जाता।
वनारसीदास ने जिस प्रेम की प्रतिष्ठा की, वह नितान्त अहैतूक था। 'अहैतुक' का अर्थ है-बिला शर्त का समर्पण । ऐसा किये बिना परमात्मा मिलता नहीं। एक बार बसन्त ने एक साधु से पूछा-महात्मन् ! यदि भगवान का सब जगह संचरण है तो हमें उसकी पद-ध्वनि क्यों सुनने को नहीं मिलती ? साधू ने उत्तर दिया कि वह चीटी के पैर से भी अधिक धीमी होती है । और, तुम में कहीं कोयल कूकती है, कही भ्रमर गूजते हैं, कही हंस किलोल करते है तथा कही कलियाँ चटखती हैं, इस शोर-गुल में तुम भगवान् को कैसे सुन सकते हो । इस सबको बन्द करो । भगवान् की पद चापे, तुम्हारे कानां में आने लगेंगीं । बसन्त ने कहा-साधो! इस आयोजन की समाप्ति तो मेरा अन्त है । इनसे मिलकर ही तो जन्मा हैं। इनके बिना मै क्या हूँ-क्या रहूँगा? तो साधु ने मुसुकरा कर कहा-जव तुम
१, श्री शान्ति जिन स्तुति, प्रथम पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १८६ । २. देखिये, 'रहस्यवाद',पं० परशुराम चतुर्वेदी,पृ० ८५,बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद्,पटना-४।
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कुछ न रहोगे, अर्थात् जब तुम्हारा ग्रहं मिट जायेगा, तभी तो भगवान् को पा सकोगे । तात्पर्य है कि बिला शर्त के पूरा समर्पण हो तभी परमात्मा मिल सकता है, अन्यथा नहीं। कबीर ने भी ब्रह्म को प्राप्त करने के लिये मन को 'बिसमिल' करने और सिर देने की बात स्वीकार की थी। उन्होंने सिर दिया और नाना प्रकार से दिया । कभी कहा "सीस उतारं भुइ धरै, तब पेठं घर माहि", तो कभी बताया कि प्रभु का प्रेमरस रसायन की भाँति रसीला होता है, किन्तु, "कबीर पीवरण दुर्लभ है, मांगे सीस कलाल ।" कलाल की भट्टी जल रही है, उस पर प्रभु भक्ति रूपी मदिरा तैयार हो रही है, बहुत जन माकर बैठ गये हैं पर, "सिर सौंपे सोई पिर्व, नहीं तो पिया नहीं जाय ।"" सिर सौंपने का अर्थ है कि दिव्य वस्तु पाने के लिये निःशेष हो जाना, फिर 'शर्त' तो स्वतः ही रह गई । उसके लिये स्थान ही नहीं बचा ।
बनारसीदास की आत्मा भी अपना खोकर ही पियसों मिली । ऐसे मिली जैसे प्रोला गलकर पानी में मिल जाता है । ऐसे मिली जैसे बूंद दरिया में समा जाती है। प्रोला ने अपना अस्तित्व खोया और बूंद ने भी ऐसा किये बिना वे उसमें न समा पाते । उनमें समाने की चाहना ही मुख्य थी । वहाँ बदले की भावना कभी न आ पाई। उन्होंने यह कभी न कहा कि हम अपना कुछ अंश तुम्हें देते हैं उसके बदले में हे शिव ! तुम हमें सांसारिक सुख दे दो । सांसारिक सुख तो जहाँ-तहाँ रहा, उन्होंने तो मुक्ति भी न माँगी । भव भव में भक्ति की ही याचना की, अर्थात् भव भव में अपना पूर्ण समर्पण ही उन्होंने करना चाहा । यह बात केवल बनारसीदास ने ही नहीं, अपितु हिन्दी के अन्य जैन कवियों ने भी कही । उपाध्याय जयसागर ( १५ वीं शती) ने 'चतुविशति जिन स्तुति' में भगवान् महावीर से प्रार्थना की है, "करि पसाउ मुझ तिम किमई, महावीर freeराय । इरिण भवि हवा अन्न भवि, जिम सेवउंतु पाय ॥' - कवि जयलाल (१६ वीं शती) ने तीर्थकर विमलनाथ की स्तुति में लिखा है, “तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोर जी । राजरिधि मांगउं नहीं, भवि भवि दरसन तोरा जी" ||" भूधरदास भगवान् को देखकर ऐसे मुग्ध हुए कि
भव भव में भक्ति की
१. कबीर ग्रन्थावली, डा० श्यामसुन्दरदाम सम्पादित, का० ना० प्र० सभा, बाराणसी, १३६, ४५/१६, ६२, ६३ ।
२. जैन गुर्जर कविप्रो, तीजो माग, पृष्ठ १४७६ ।
३. मुनि जयलाल, विमलनाथ स्तवन, १३ व पद्य, श्री कामता प्रसाद जैन के संग्रह की हस्तलिखित प्रति ।
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ही याचना की, "अब होउ भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोरि भूधरदास विनवे, यही बर मोहि दीजिये' ।" तुलसी की विनय पत्रिका और सूरदास के सूरसागर का मूल स्वर भी यह ही है ।
जैन काव्य में अहैतुक प्रात्म-समर्पण का अवसर अधिक था । यहाँ जीवात्मा को समर्पण करने कहीं अन्यत्र नही जाना पड़ा। उसमें जब यह भाव प्रादुर्भूत हुआ, तभी वह परमात्म रूप में परिणत हो गई । जैसे सूर्य के प्रतापवान होने पर धन-समूह को विदीर्ण होना ही पड़ता है और सूर्य निराबाध ज्योतिवन्त हो उठता है, जैसे द्वितीया के चन्द्र के आगमन की इच्छा होते ही अमा की निशा को मार्ग देना ही पड़ता है और उसकी शीतल किरणे चतुर्दिक में विकीर्ण हो जाती हैं, जैसे नदी की धार में मरोड़ पाते ही पत्थरों को चूर्ण-चूर्ण होना ही पड़ता है और वह एक स्वस्थ प्रवाह लिये बह उठती है, वैसे ही आत्मा में 'समर्पण' के भाव के उगते ही परमात्म-प्रकाश उदित हो उठता है। ऐसा नहीं है कि अपना समर्पण करने के लिये उसे किसी अन्य ब्रह्म के पास जाना पड़ा हो। जब समर्पण के सहारे प्रात्मा स्वयं ब्रह्म बन सकती है तो उसे अपना समर्पण सहैतूक बनाने की क्या आवश्यकता । सहैतुक तो वहाँ हो जहाँ द्वित्व हो, भेद हो, पृथक्करण हो । यहाँ तो एक ही चीज है । 'स्व' के प्रति 'स्व' का यह समपण जितना 'अहैतुक' हो सकता है, अन्य नही । यदि यह कहा जाय कि 'परमात्मा' जीवात्मा से किसी न किसी रूप में तो भिन्न है ही, अत: 'स्व' का 'स्व' के प्रति 'अहैतक समर्पण' कैसा ? तो आप जिनेन्द्र को जीवात्मा से पृथक मानिये, फिर भी 'अहैतुक समर्पण' में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। जिनेन्द्र वीतरागी हैं, वे किसी से राग नहीं करते, अर्थात् न किसी को पुत्र देते हैं, न धन
और न मोक्ष । ऐसे भगवान् से जो प्रेम करेगा, वह यह सोचकर ही करेगा कि प्रेम के उपलक्ष्य में भगवान् से लौकिक अथवा पारलौकिक किसी भी प्रकार की उपलब्धि न हो सकेगी। यहाँ 'दोनों ओर प्रेम पलता है' वाली बात नहीं निभ पाती। प्रेमी प्रेमास्पद की वीतरागता पर रीझ कर ही प्रेम करेगा। उसे बदले में कुछ न चाहिये । न कोई शर्त होगी, न कोई स्वार्थ । तो जैन परम्परा के मूल में ही कुछ ऐसा दर्शन सन्निहित है, जहाँ सहैतुक प्रेम को स्थान ही नहीं है। यहाँ प्रेमी का प्रेम एकान्तिक है-एकनिष्ठ है । किन्तु प्रश्न तो यह है कि जब पालम्बन
१. भूधरदास, दर्शन स्तुति, चौथा पद्य, वृहज्जिनवाणी संग्रह, प० पन्नालाल बाकलीवाल
सम्पादित, सम्राट संस्करण, मदनगंज, किशनगढ़, सन् १९५६ ई०, पृष्ठ ४० । २. देखिये 'जन मक्ति काव्य की पृष्ठ भूमि', प्रथम अध्याय, पृष्ठ १७ ॥
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निष्क्रिय है तो प्रेम में उद्दीपन कैसे हो ? उसमें वह गुरण तो है, जिस पर प्रेमी का प्रेम टिका है अर्थात् वीतरागता । वह प्रकाश-पुञ्ज के अलातचक्र की भाँति प्रेम को उमंगित बनाये रखेगा ।
परमात्मा रूपी पति के माने से श्रात्मा रूपी पत्नी को प्रसन्नता होती है । प्रसन्नता होना तो स्वाभाविक ही है; किन्तु ज्ञातव्य तो यह है कि पति - श्रागमन के लिये पत्नी अपने घर को निर्मल बनाती है या जैसा हैं वैसा ही पड़ा रहने देती है ? कुछ ने कहा कि जब तक अपने घट रूपी घर को शुद्ध न करोगे परमात्मा नहीं आयेगा। बिहारी का विचार है, "तौ लगु या मन सदन में हरि कहि बाट । बिकट जटे जौ लगु निपट खुलें न कपट- कपाट ||" किन्तु कबीर की कुछ दूसरी ही मान्यता प्रतीत होती है। उन्हें यह शर्त रुचिकर न थी । वे शर्त के घेरे में बंधने वाले जीव नहीं थे । उन्हें दृढ़ विश्वास था कि राम के नाते ही मलीमस स्वतः ही हट जायगा ।' कबीर से बहुत - बहुत पहले प्राचार्य योगीन्दु ने लिखा था कि जो मन शास्त्र-पुराण और तपश्चररण से शुद्ध नहीं हुआ, वह परमात्मा के आने से निर्मल हो दमक उठा । परमात्मा के आने से मैल स्वतः हट जाता है, यदि न हटे तो वह परमात्मा हो क्या ? मुनि रामसिंह के निरञ्जन देव भी ऐसे ही हैं, उनके धारण करने से चित्त के भीतरी भाग में जमी मैल की परतें विलीन हो जाती हैं । बनारसीदास पर अपभ्रंश की इसी परम्परा का प्रभाव है । जब साजन आया तो सजनी का भय पाप रूप मलीमस हट गया । अद्रा नक्षत्र के लगते ही शुष्क वृक्ष स्वत: पलुहा उठते हैं । मूर्च्छित लतायें लहलहा उठती हैं । जायसी की नागमती तो इसी आश्वासन पर जीवित
१. " निरगुन ब्रह्म कथौ रे भाई । जा सुमरि सुधि बुधि मति पाई ||" कबीर ग्रन्थावली, काशी, पद ३७५ ।
२. प्रप्ारिणय मरिण गिम्मलउ रियमे वसइ रग जासु । सत्य पुराणइ तव चरणु मुक्खु वि करहि कि तासु ॥ परमात्म प्रकाश, १६८, पृष्ठ १०२ ।
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३. भितर चित्ति वि मइलियइ बाहरि काइ नवेरण । चित्ति गिरंजणु को वि घरि मुम्बइ जेम मलेग ||
पाहुड़ दोहा, ६१ वाँ दोहा, पृष्ठ १५ ।
४. "सजन घट मन्तर परमात्मा सकल दुरित भयभंजन ।” बनारसीविलास, जयपुर, पृष्ठ २४० क ।
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रही।' उसे विश्वास था कि रतनसैन के पाते ही मेरा वियोग-जन्य कलुष मिट जायगा। बनारसीदास को इस परम्परा का स्तम्भ कहना चाहिये ।
बनारसीदास ने केवल प्रेम की ही नहीं श्रद्धा की भी बात कही। उन्होंने जिस श्रद्धा को संजोया वह अंध नहीं थी। अर्थात् उसमें देखने वाली आँख थी। आचार्य समन्तभद्र ने उसे सुश्रद्धा कहा है । इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। बनारसीदास की सुश्रद्धा सद्बुद्धि को पर्यायवाची थी। उन्होंने लिखा कि जिनवाणी को बुद्ध देख सकता है, दुरबुद्ध नही---- "बुद्ध लखै न लखै दुरबुद्ध । सदा जग माहि जगै जिनवानी ॥"२ 'बुद्ध' का अर्थ है 'बुद्धि सहित' । बुद्धि अच्छे और बरे दोनों ही प्रकार के तन्तुनों से बनी जा सकती है, किन्तु यहाँ 'बद्ध' में सन्निहित बुद्धि से ध्वनित होता है कि उसका निर्माण सुश्रद्धा से हुआ है। जिनवाणी विश्व-व्यापी है और सदैव जगमगाती रहती है, किन्तु उसे देखने के लिए 'एक अाँख' चाहिए, वह जिसके पास नहीं है, वह नहीं देख सकता। यह आँख मुश्रद्धा की बनी होनी है । मुश्रद्धा को श्रेष्ठ लगन भी कहते है, उसका स्वभाव है कि जिसके प्रति होती है, उससे पाश्लिष्ट और धनाश्लिष्ट होती जाती है। ऐसा करने से उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। यह ही वह आँख है जो जिनवाणी को देखती है । देखकर ही नहीं रह जाती, तन्मय हुए बिना उसे चैन नहीं मिलता। अनुखन माधव-माधव सुमरते राधा, माधव के दर्शन-मात्र से ही तृप्त नहीं हुई, अपित माधव हो गई।३ श्रद्धा की भावभूमि पर, साधक और साध्य तथा प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते रहे हैं-होते रहेंगे, उन्हें कोई शक्ति रोक नहीं सकती।
१. जिनि भस जीव करसि तू बारी।
यह तरिवर पुनि उहि सँवारी ।। दिन दस बिनु जल मूग्वि विधसा । पुनि सोइ मरवर, मोइ हसा ।। मिर्लाह जो बिहुरे साजन, अंकम भेटि गहता । तपनि मृगसिरा जे महे. ते यद्रा पलुहंत ।।
पद्मावत, नागमती-वियोग ग्वण्ड, तीसरी चौपाई, अन्तिम पंक्तियाँ, पृष्ठ १५२ । २. नाटक समयसार, जीव द्वार, तीसरा पद्य । ३. “अनुखन माधव-माधव मुमरइत मुन्दरि भेलि मधाई ।" विद्यापति का प्रमर काव्य', गुरणानन्द जुयाल सम्पादित, कानपुर,
७० वो पद, पृष्ठ ४५ ।
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सुश्रद्धा ही दिव्य दृष्टि है । जिन्हें वह प्राप्त नहीं, वे ब्रह्म को पाने में भी समर्थ नहीं। दिव्य दृष्टि की भूमिका में ज्ञान महत्वपूर्ण पार्ट अदा करता है; किन्तु वह भी सुश्रद्धा से समन्वित होता ही है, ऐसा हुए बिना ज्ञान 'सम्यक्' पद air afrकारी नहीं हो पाता । 'सम्यक्' ही 'दिव्य' है, यदि वह है तो वह है, वह नहीं तो वह भी नहीं। दोनों एक हैं। जैन दर्शन के प्रसिद्ध सूत्र 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रारिण मोक्षमार्गः' में 'सम्यग्दर्शन' पहले है, 'सम्यक्ज्ञान' बाद में । दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और दर्शन का अर्थ है श्रद्धान् । श्रतः श्रद्धा के बिना ज्ञान नहीं होता और सुश्रद्धा के बिना सुज्ञान नही । सुज्ञान ही दिव्य दृष्टि है । ऐसे ज्ञान की बात महात्मा तुलसीदास ने भी स्वीकार की थी। उन्होंने गीतावली में लिखा है कि रावरण के साथ युद्ध में घायल जटायु को गोद में रख कर राम विलाप कर उठे । राम चाहते थे कि पितृ-तुल्य जटायु जीवित रहे । वे उसे अधिक जीवन-दान देने को तैयार थे। किन्तु जटायु ने कहा, "जिस भगवान् को, बड़े-बड़े वेदाध्यीती- ज्ञानी मुनि, योगी और शत-शत वर्षों से तप में निरत तपी अपने ध्यान में एक क्षरण को भी नहीं देख पाते, उसे मरते समय प्राप्त करना मुझ जैसे जन के लिये दुर्लभ ही है, अतः मुझे मृत्यु श्रेयस्कर है ।"" और वह जटायु भगवान् के अश्रु-जल से अभिषिक्त होता स्वर्ग की राह लगा । इससे स्पष्ट है कि एक हीन जाति का जीव भगवान् को पाने में समर्थ हो सका, जबकि उच्च व के मुनि उसे एक पल के लिये ध्यान में भी न ला सके। इसका तात्पर्य है कि जो पावन श्रद्धा जटायु में थी वह ज्ञानी ध्यानी मुनियों में नही थी, इसी कारण वे ज्ञान की गरिमा और तप की ऊष्मा के बल पर भी आराध्य को उपलब्ध न कर सके । सुश्रद्धा के अभाव में उनका ज्ञान कोरा प्रमाणित हुआ । उसकी निरर्थकता स्पष्ट ही है । यहाँ पर भी बनारसी का “बुद्ध लखे न लखे दुरबुद्ध" जैसे मुखर हो उठा है । कबीर का “पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुना पण्डित भया न कोइ " में 'पण्डित' बनारसी के 'बुद्ध' का पर्यायवाची है। पोथियाँ पढ़कर कोई पण्डित नहीं हो सकता । पण्डित बनने के लिये ' राम ' के दो श्राखर दिल में लाने होंगे । इस प्रकार कबीर ने भी सुश्रद्धा की ही बात की है ।
बनारसीदास ने 'सद्बुद्धि' को 'राधिका' कहा है। राधा कृष्ण की प्रेमिका श्री । वह उनके साथ रासलीला रचाती थी, गौयें चराने बन में जाती थी, मुरलीवादन में शामिल होती थी । जब कृष्ण मधुरा चले गये तो विरह-प्रपीड़िता राधा दिन-रात कृष्ण-कृष्ण की सुध में बे-सुध रहने लगी। विरह ने उसके प्रेम
१. देखिये तुलसीकृत गीतावली ।
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को और भी पुष्ट किया। राधा रस की प्रतीक ही थी। उसके नाम पर न-जाने कितने रस-पंथों और ग्रन्थों की रचना हुई । चैतन्यचरितामृत, गीतगोबिन्द, विद्यापति की पदावली और सूरसागर राधा के जयगीत हैं । रीतिकाल के अनेक कवियों ने अपनी शृङ्गारपरक रचनाओं का प्रारम्भ राधा की चरण-वन्दना से ही किया। बिहारी के 'मेरी भव-बाधा हरी राधानागरि सोइ" से सब परिचित है । राधा को सन्त कवियों ने 'प्राध्यात्मिक सुषमा' के रूप में स्वीकार किया है। उनकी सुन्दरी राधा, उनके हृदय में स्थित राम के साथ रमण करती है। वे दोनों एक हैं। अत: राधा 'निरवानी' है, अर्थात् निर्वाण की अलौकिकता का चिह्न है । जब तक राधा अबोध है, रीझी नहीं, तब तक उसे राधा नही कहा जाता । अर्थात् राधा तभी राधा है, जब वह राम पर रीझ कर तन्मयता की धुनि में मूच्छित हो-हो उठे । तद्रूप हुए बिना उसे चैन न मिले । गोकुल में, ऊधौ ने ऐसी ही बेचैन राधा के दर्शन किये थे । उसी को सन्त कवियों ने 'सुमति' की संज्ञा से अभिहित किया है। 'सुमति' और 'सबुद्धि' पर्यायवाची हैं। इसका अर्थ हुआ कि राधा की भाँति मबुद्धि उसी को कहा जायेगा, जिसकी शक्ति राम-मय होने में तल्लीन रहती हो । यदि ऐसा नहीं है तो वह बुद्धि तो कहला सकती है; किन्तु उसका सविश्लेषण निरर्थक ही रह जायेगा । आराध्य के चरणों में चढ़ने से ही उसकी कृतार्थता है। बनारसीदास इसी मत के समर्थक थे उनकी राधा की एक झलक देखिये
"धाम की खबरदार राम की रमन हार,
राधा रस पंथनि में ग्रन्थनि में गाई है । सन्तन की मानी निरवानी रूप की निसानी,
यात सद्बुद्धि रानी राधिका कहाई है ।।'
"भैया भगवतीदास' ने भी सद्बुद्धि को मस्तिष्क का विलास नहीं, अपितु भक्ति-रस का प्रतीक माना है । बनारसीदास की सद्बुद्धि की भाँति वह भी मोह और काम को विडार कर राम की रट लगाया करती है। वह कर्म रूपी घटाओं को फाड़कर चन्द्ररूपी राम से सुधामयी हो गई है। उसने सतत श्रद्धा-प्रसून समपित कर जिनेश की प्रतीति प्राप्त कर ली है और स्वयं भी चिदानन्द वन गई है ।२ पण्डित दौलतराम ने 'प्राध्यात्म बारहखड़ी' में इसी सद्बुद्धि को 'राधा'
१. नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार, १४ वॉ पद । २. 'प्राचीन हिन्दी जैन कवि', पं० मूलचन्द्र वत्सल, दमोह, पृष्ठ १४२ ।
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कहा है । वह भगवान् के चरणों में लो लगाये रहती है । लौ लगाने से उसे तृप्ति मिलती है। और इस प्रकार वह अपने जीवन को सार्थक समझती है। कवि जगराम के अनेक पद सुमति रूपी राधा की जिनेन्द्र-निष्ठा को प्रगट करते हैं। उनकी राधा जिनेन्द्र के साथ रमण करती है। इसी कारण उन्हें 'राधा-रोन कहा जाता है। राधा-रोन की बात कवि बनारसीदास ने भी की है। उन्होंने 'अब अन्तरगति भई हमारी, परचे राधा-रौन सौं' लिखकर 'राधा-रोन' से परिचित होना स्वीकार किया है। इससे सिद्ध है कि बनारसीदास के पाराध्य 'राधारमण' थे। केवल राधा का नाम उन्हें अभीष्ट नहीं था। उन्होंने राधा की सार्थकता इसी में समझी कि वह कृष्ण के साथ रमण करे । रमण का अर्थ है-द्वित्त्व मेट कर एकत्त्व स्थापित करे। यह तभी सम्भव है, जब वह एकमेक होने की भावना भाये। इसी को भक्ति कहते हैं। भक्ति का प्रतीक बने बिना 'सुमति' की सुष्ठु मति भी निरर्थक ही है । अतः सद्बुद्धि वह ही है जो भक्ति की धार पर सघ सके।
बनारसीदास ने सुमति को राधा ही नहीं, सीता, भवानी और गंगा भी कहा। "यहै राम रमणी सहजरूप सीता सती ४' के द्वारा उन्होंने सीधे-सीधे ही सती सीता की सार्थकता राम के साथ रमण करने में स्वीकार की। उनकी एक पंक्ति, “यहै भवभेदिनी भवानी शम्भु घरनी"५ में भवानी का शम्भु को घरवाली होना ही प्रमुख है । "यह गंगा त्रिविध तीरथ की धरनी'' से स्पष्ट प्रगट है कि गंगा की महिमा त्रिविध तीर्थ धारण करने में ही है। इसे 'जिन महिमा कहकर बनारसीदास ने माना कि 'सुमति' का सौन्दर्य तभी है, जब जिनेन्द्र उसे अपनी महिमा के रूप में अंगीकार कर सकें । जिन-शासन में वह इसी रूप में विख्यात है। 'जिनेन्द्र की महिमा' कहलाने का गौरव उसे जिनेन्द्र की कृपा के बिना न मिला होगा, यह सुनिश्चित है । और भगवान् की कृपा भक्ति के बिना
१. पं० दौलतरामः आध्यात्म बारहखड़ी, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत की पाण्डु
लिपि, पृष्ठ २५३, १७ वा पद्य । २. पद संग्रह, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत की पाण्डुलिपि, पृष्ठ १७,८ वां पद । ३. प्राध्यात्मपद पंक्ति, १४ वा पद, बनारसी विलास, पृष्ठ २३२ । ४. नव दुर्गा विधान, ७ वो पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृष्ठ १६६ । ५. वही, पाठयाँ पद्य, पृष्ठ १७० । ६. वही, पाठवा पध, पृष्ठ १७० । ७. वही, ९ वा पद्य, पृष्ठ १७० ।
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कहाँ मिलती है ? इसीलिये सुमति 'जिन महिमा' तभी कहलाई जब पहले जिनभक्ति बन सकी । जिन-भक्ति ही 'जिन महिमा' है।
समति ने भक्ति बनकर जिस आराध्य को साधा वह निराकार था और साकार भी, एक था और अनेक भी, निर्गुण था और सगुण भी । इसी कारण जैन कवियों ने सूरदास की भाँति 'सगुण' का समर्थन करने के लिये 'निर्गुण' का खण्डन नहीं किया और निर्गुण की अराधना के लिये सगुण राम पर रावण की हत्या का आरोप नहीं लगाया। वे निर्द्वन्द्व हो दोनों के गीत गा सके। कवि बनारसीदास ने "निराकार चेतना कहावै दरसन गुण, साकार चेतना शुद्ध ज्ञान गुण-सागर है । चेतना अद्वैत दोउ चेतन दरब माहि, सामान्य-विशेष सत्ता ही को गुणसार है" ।' कहकर एक ही चेतन को दर्शन गुण से युक्त होने के कारण निराकार और ज्ञान गुरण-सागर होने से साकार माना। उन्होंने दूसरे स्थान पर "नाना रूप भेष धरे भेष को न लेस धरे, चेतन प्रदेस धरे चेतना को खंध है।"२ लिखते हए भी वह ही बात कही। उन्होंने ब्रह्मा के 'एकानेक' वाले पहल को तो अनेक दृष्टान्तों से पुष्ट किया है। उन्होने लिखा कि जैसे महि मण्डल में नदी का प्रवाह तो एक ही है, किन्तु नीर की ढरनि अनेक भांति की होती है, जैसे अग्नि तो एक ही है, किन्तु तृन, काठ, बांस, पारने और अन्य ईधन डालने से वह नाना प्राकृति धारण करती है, जैसे नट एक ही है, किन्तु नाना भेष धारण करने से वह नानारूप दिखाई देता है, ठीक वैसे ही एक 'यात्म ब्रह्म' पुद्गल के संयोग से अनेक रूप धारण करता है। इसी भाँति उन्होंने एक ही ब्रह्म को "निर्गण रूप निरञ्जन देवा सगरण स्वरूप करें विधि सेवा।"४ लिख कर निर्गण कहा और सगुण भी। इन्ही को प्राचार्य योगीन्दु ने 'निष्कल' और 'सकल' की संज्ञा से अभिहित किया था। निष्कल वह है जो 'पञ्चविध शरीर रहित'५ हो, सकल वह है जो कुछ समय के लिये ही सही, शरीर सहित हो। भगवान् सिद्ध 'निष्कल' है और अहंन्त 'सकल' ब्रह्म। ब्रह्मत्व की दृष्टि से दोनों
१. नाटक समयसार, मोक्ष द्वार, दसवाँ पद्य, पृष्ठ ८२ । २. वही बंधद्वार, ५४ वाँ पद्य, पृष्ठ ७८ । ३. वही, बन्ध द्वार । ३५, जीव द्वार । ८ और मोक्षद्वार । १४ । ४. शिव पच्चीसी, ७ वाँ पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृष्ठ १५० । ५. 'पंचविध शरीर रहितः निष्कल ,' ब्रह्म देव की टीका, योगीन्दु कृत परमात्मप्रकाश,
१।२५, पृष्ठ ३२ ।
ទី១ ទី២ ទី១-ទី១១
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में अन्तर नहीं है, किन्तु प्रधातिया कर्मों के क्षय होने तक 'महन्त' को संसार में सशरीर रुकना पड़ता है। उनका परम प्रौदारिक शरीर होता है अर्थात् अन्तिम स्थूल शरीर, इसके उपरान्त उन्हें फिर कोई शरीर धारण नहीं करना पड़ता। 'अहंन्त' ही प्रधातिया कर्मों के क्षय होने पर 'सिद्ध' अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । एक ही जीव अपनी साधना से पहले 'सगुण ब्रह्म' बनता है, फिर निर्गुण दशा को प्राप्त कर लेता है। जो एक बार 'निगुण' बन गया, वह फिर कभी किसी रूप में अवतार नहीं लेता-लीला और माया के कारण भी नहीं। अनेक जीव 'सगुण' बनकर 'निर्गुण' बनते रहते हैं। जैन सिद्धान्त अनेक ब्रह्म में विश्वास करता है । स्वरूप-मूलरूप की दृष्टि से वे एक ही हैं, वैसे अनेक हैं। सूर और तुलसी ने जिस सगुण ब्रह्म की आराधना की, वह 'निर्गुण' से एकदम निराला था, बनारसीदास तो ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने 'निर्गुण' की भक्ति की और 'सगुण' की भी। दोनों में कोई अन्तर न माना। बनारसीदास से पूर्व अन्य जैन कवि भी ऐसा ही करते थे। मैने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में उनके अनेक दृष्टान्त दिये हैं। यहाँ हम केवल विवेचन के लिये, पहले बनारसीदास की 'सिद्ध भक्ति' को और फिर 'महन्त-भक्ति' को लेंगे।
बनारसीदास ने जिस 'सिद्ध' की अराधना की, वह केवल अविनाशी और अविकार ही नहीं है, अपितु परमरस का भी धाम है। रस और प्रानन्द पर्यायवाची होते हैं, अतः उसे 'परमानन्द' कहना उपयुक्त ही होगा । वह सर्वाङ्ग-सुन्दर है और सौन्दर्य भी ऐसा-वैसा नहीं-प्राकृतिक, सहज और स्वाभाविक । उस पर योगीजन ध्यान केन्द्रित करते है । वह मनमोहन है और उसके द्वारा योगियों के मन मोहे जाते रहे हैं, जाते रहेंगे। तभी तो वे उस पर दिन-रात अपने ध्यान को लगाये रखने में समर्थ हो पाते है । वह भगवान् अनादि है और अनन्त है । अनादि का अर्थ है कि उसका प्रादि नही और अनन्त का तात्पर्य है कि उमका अन्त नहीं। वह प्रादि और अन्त से, अर्थात् जन्म और मरण से परे है-ऊपर है। वह शुद्ध बुद्ध तो है ही, अविरूद्ध भी है । यह ही बड़ी विशेषता है। अविरुद्ध का अर्थ है कि वह विरोधों से रहित है-उसमें किसी प्रकार का विरोध समाहित ही नहीं हो पाता । वह देव क्या जिसका अन्य देवों से विरोध हो, वह धर्म क्या जिसका अन्य धर्मों से पृथक्करण हो और वह सत्य क्या जो अन्य सत्यों से मिल न पाता हो । सत्य वही है जो सब जगह सत्य हो, यदि दूसरे सत्यों से उसका विरोध है, तो वह सत्य नहीं, असत्य है । बनारसीदास ने ऐसे भगवान् की भक्ति की जो इस कसौटी पर खरा उतरता हो, इसी कारण उन्होंने 'अविरुद्ध' का प्रयोग किया।
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उनका भगवान् ऐसा है, इसलिए जगत-शिरोमणि है, समूचा जगत उसकी 'जै' के गीत गाता है
"अविनासी अविकार परम रस धाम है
समाधान सरवंग सहज अभिराम है । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त है ।।" बनारसीदास की एक प्रसिद्ध कृति है 'शिव पच्चीसी' । इसमें पच्चीस पद्य है । उस समय पच्चीसी, छत्तीसी और बहत्तरी आदि रचे जाने की प्रथा थी। बनारसीदास की यह रचना भी उसी परम्परा में गिनी जायेगी। इसमें उन्होंने सांगरूपक प्रस्तुत किया है, अर्थात् सिद्ध को शिव बनाया है और शिव के समूचे गुण सिद्ध में घटित किये है । शिव को सिद्ध कहने की प्रथा प्राचीन है । संस्कृत के अनेक जैन कवियों ने सिद्ध को शिव सज्ञा से अभिहित किया है। योगीन्दु से भी पूर्व प्राचार्य मानतुग ने (तीसरी शती) 'भक्तामरस्तोत्र' में "त्वं शकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्' 3 और आचार्य अकलंक ने 'अकलंकस्तोत्र' में "सर्ववित्तनुभृतां क्षेमकरः शकरः” ४ लिखकर जिनेन्द्र को स्पष्ट रूप से ही शंकर कहा है । बनारसीदास के जिनेन्द्र की करुण-रस-वाणी ही सुर-सरिता, सुमति गौरी, त्रिगुणभेद नयन-विशेष, विमल भाव समकित-शशि लेखा, सुगुरुसीख शृगी, नयव्यवहार बाधम्बर, विवेक-बैल, शक्ति-विभूति अगच्छवि, तीन
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१. नाटक समयसार, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज. देहली, प्रारम्भिक स्तुतियाँ, चौथी
स्तुति, पृष्ठ २। २. शिव पच्चीसी, बनारसी विलास, जयपुर, पृष्ठ १४६ पर संकलित है । "बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित बुद्धिबोधान
त्वं शकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर ! शिव मार्ग विधेविधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥" ४. "दग्धं येन पुरत्रयं शरभुवा तीवाचिषा वह्निना।
__ यो वा नृत्यति मत्तवत्पितृवने यस्यात्मजोवाग्रहः ।। सोऽयं कि मम शंकरो भयतृषारोषात्ति मोहक्षयं ।
कृत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमंकरः शंकरः ॥२॥"
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गुप्ति त्रिशूल, कंठ विभाव, विषम-विष और सजम ही जटाये हैं। जिनेंद्र शंकर की भाँति ही सहज सुख का भोग करने वाले हैं। जिस भाँति शंकर दिगम्बर योगी कहलाते हैं, वैसे ही जिनेन्द्र भी हैं । उनका ब्रह्मसमाधि-ध - ध्यान ही शंकर का घर है । वहाँ निरन्तर अनाहत नाद होता है, वही मानों डमरू बजता रहता है । ' ऐसे जिनेन्द्र रूपी शिव की भक्त पूजा करता है । उसका समरसी भाव ही अभिषेक करने का जल है, उपशम ही घिस - घिस कर लगाने का चन्दन रस है । सहजानन्द पुष्प हैं, जिनसे गुथी जयमाला भगवान् के चरणों में सदैव समर्पित की जाती है। ज्ञान ही दीप शिखा है, स्याद्वाद घन्टा की झनकार है, क्षायक भाव धूप है, निश्चय दान अर्घ्यविधि है, सहजशीलगुण प्रक्षत हैं, भगवान् के रस में पगना ही नेवजों का चढ़ाना है और विमल भाव फल हैं। इस सामग्री के साथ जो ध्यान-मग्न होकर, अपने को तल्लीन कर, शिव की पूजा करता है, वह प्रवीरण साधक इस जग में शिव-स्वरूप हो जाता है, अर्थात् स्वयं शिव बन जाता है। जिस प्रकार विद्यापति की राधा तादात्म्य की दशा में कृष्ण बन गई, वैसे ही भक्त भी तल्लीनता के कारण स्वयं शिव बन जाता है ।
"जो ऐसी पूजा करें, ध्यान मग्न शिव लीन ।
शिव स्वरूप जग में रहे, सो साधक परवीन ॥ " 3
एक दूसरे स्थान पर भी उन्होंने शिव रूप जिनेन्द्र की वन्दना की है। वह 'विधान' पर रहता है प्रर्थात् उसने शिवत्व प्राप्तकर लिया है और वह अपने प्रकाश से प्रकाशवन्त है । उसका अपना प्रकाश श्रात्म-ज्योति है, जिसे दिव्य प्रकाश भी कहते हैं । इसके कारण वह सब पदार्थों में मुख्य माना जाता है । कलंक तो उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता । निष्कलंक होकर ही वह शिव-लोक का वास प्राप्त कर सका है। उसे परम सुख उपलब्ध है । कलंक दुःख का कारण है, जब वह ही न रहा तो दुःख भी कैसे रह पाता । दुःख का नितान्त प्रभाव ही सुख है । सुख और शिव पर्यायवाची हैं। वह अन्तर्यामी भी है, अर्थात् विश्वव्यापी है । जीव और अजीव सबके घट-घट की जानता है । ऐसे शिव की वन्दना करने के लिये पात्रता की आवश्यकता है । अर्थात् भक्त को शिवगामी होना चाहिए | इसके लिए एक विशेष परिभाषिक शब्द है-भव्य । वही जीव भव्य होता
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१. शिवपच्चीसी, पद्य १२ - १६, बनारसीविलास, जयपुर, पृष्ठ १५०-५१ ।
२. वही, पद्य ८ - १०, बनारसीविलास, जयपुर, पृष्ठ १५० ।
३. वही ११ वां दोहा, पृष्ठ १५० ।
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है जो सन्निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त करे । उसे मोक्षगामी भी कहते हैं । ऐसा जो होगा वह 'शिव रूप' को देखकर अवश्य ही नमेगा, नमे बिना रहेगा नहीं, झुकझुक जायेगा । इसका तात्पर्य यह भी हुआ कि 'शिव रूप' को देखकर 'सिवगामी' हो झुक सकता है, दूसरा नहीं । बनारसीदास का यह पद्य है
"जो अपनी दुति माप विराजत
है परधान पदारथ नामी। चेतन अक सदा निकलंक
महासुखसागर को बिसरामी।। जीव - अजीव जिते जग मै
तिनको गुन-ज्ञायक अन्तरजामी। सो सिव रूप बस सिव-थान
ताहि विलोकि नमै सिवगामी ॥१
यहा 'शिव-रूप' को देखकर 'सिवगामी' झकता है, यह तो ठीक है; किन्तु वह देखने में समर्थ कैसे हो पाता है, प्रश्न यह है । ऐसी सामर्थ्य के लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नही है । केवल शिव-महिमा हृदय में बसी हो। 'शिव रूप' के दर्शन हो ही जायेंगे। दर्शन हो नहीं वह स्वयं भी शिवरूप हो जायेगा। बनारसीदास ने लिखा है 'शिव-महिमा जाके घट बासी, सो शिवरूप हुआ अविनासी ।"२ पहले भक्त आराध्य की महिमा से आकर्षित भर होता है, फिर उसका पाकर्षण घनीभूत ब्रह्म में बदल जाता है और महिमा उसके चित्त में दृढ़ प्रासन जमा लेती है । तुलसी ने विनयपत्रिका के अनेक पदों में राम-महिमा के ही गीत गाये हैं। उनकी दृष्टि में राम से अधिक राम-महिमा है । उसके सहारे हो राम प्राप्त होते हैं, तो वह अधिक क्यों न होगी। गोपियों ने कृष्ण-महिमा को समझा था। उनके हृदय में कृष्ण क्षण भर को भी इधर-से-उधर नहीं गये, यदि जाते तो ऊधो क्षणमात्र के लिए ही सही, निर्गुण ब्रह्म को वसा अवश्य देते। यदि गोपियों ने कृष्ण-महिमा को न समझा होता तो उनका ऐसा विश्व-व्यापी विरह सही-सही न उतर पाता । मभी जानते हैं कि कृष्ण-महिमा के बद्धमूल हो
१ जीव द्वार । २, नाटक समयसार, पृ० ११ । २. “शिव स्वरूप भगवान् अवाची । शिव-महिमा अनुभव मति सांची ॥
शिव-महिमा जाके घट मासी। सो शिवरूप हुमा अविनासी ॥"
--शिव पच्चीसी, तीसरा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १४६ ।
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जाने से ही राधा कृष्ठा बन गई थी, फिर उसके विरह ने दुतरफा मार की हो, इसकी उसने चिन्ता भी न की ।" बनारसीदास ने आराध्य की महिमा के अचूक प्रभाव को जाना था, इसी कारण उनका उपर्युक्त वाक्य समूचे 'बनारसी विलास' में एक 'जय गीत' की भाँति जड़ा है ।
शिव महिमा को सतत बनाये रखना आसान नहीं है । यह संसार मधुमक्खियों के छत्ते की भाँति है, जो इसको भोगने की चाह करता है, मधुमक्खियाँ उड़कर उससे चिपट जाती हैं और वह एक प्रसह्य वेदना से कराह उठता है । शिव महिमा एक प्रोर पड़ी रह जाती है। हाँ, शक्ति सम्पन्न व्यक्ति, जिसके लिए एक जैन पारिभाषिक शब्द है - सम्यक्त्वी, इस उपाधि - मधुमक्खियों के आक्रमण को समाधिष्ठ की भाँति झेल लेता है । सहज का कवच पहने और मन में उमंग भरे वह इस विपत्ति के मध्य भी सुख की राह बनाता निकल जाता है और उसकी दशा किंचिन्मात्र भी उद्व ेगजनक नहीं होती। कहने का तात्पर्य यह है कि जीव के श्रात्मन् में उत्पन्न हुई शिव-सत्ता तभी बनी रह सकती है, जब जीव ने सम्यक्त्व रूपी शक्ति उपात्त करली हो । मेरी दृष्टि में सम्यक्त्व एक पवित्र झुकाव है - जिनेन्द्र की ओर यात्म ब्रह्म की ओर। यह एक ऐसा झुकाव है, जो एक बार जिधर झुक गया फिर उधर से मुड़ता नही । इस झुकाव को तानने के लिए अनेक विकृत उपाय कारगर हो सकते हैं, और कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वह झुकाव अब हट गया, किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं । दुनियाबी कार्यों में सलग्न रहते हुए भी वह जीव उनसे नितान्त असंपृक्त रहता है । उसकी लगन आत्म- ब्रह्म की प्रोर होती है। जैसे कुछ ग्राम - बधुएँ कुए से जल भर कर घर को चल, सिर पर तीन-तीन भरे घट घरे हैं, श्रापस में हँस- खेल प्रौर इठला रही हैं, किन्तु उनका ध्यान सतत घड़ों में लगा रहता है। जैसे गौ वन में घास चरने जाती है, नदी में पानी पीती है, इधर-उधर घूमती-फिरती है; किन्तु उसका मन अपने
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" राधासयँ जब पुनतहि माधब माधब सयं जब राधा । दारुन प्रेम तर्बाह नहि टूटत बाढ़त बिरहक बाधा ।। दुहुँ दिसि दारु- दहन जैसे दगघई आकुल कीट परान । ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कवि विद्यापति मान ||"
- 'विद्यापति का प्रमर काव्य', गुणानन्द जुयाल सम्पादित, कानपुर प्रकाशन, ७० व पद, अन्तिम पंक्तियाँ, पृ० ४५ ।
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बछड़े में रखा रहता है,' ठीक ऐसे ही यह जीव संसार के नाना कृत्यों में उलझ कर भी अपने चित्त का स्वर ब्रह्म की पोर रख सकता है। जो उधर को मुड़ गया है, वह हटता नहीं। इसी मोड़ में शक्ति है और इस मोड़वाला ही शक्ति-सम्पन्न कहलाता है । 'जिनेन्द्र की ओर मोड़' को जिनेन्द्र-भक्ति कहते हैं । बनारसीदास ने उसका श्रेष्ठ ढंग से प्रतिपादन किया है"जैसे काह देस को बसया बलवन्त नर,
जंगल में जाइ मधु-छत्ता को गहतु है। वाका लपटाय चहुँ ओर मधुमक्षिका पै,
__ कम्बली की पोट सों अडंकित रहतु है ।। तैसे समकिती शिव-सत्ता को सरूप साधे,
उदै की उपाधिकों समाधि-सी कहतु है। पहिरे महज को सनाह मन में उछाह,
ठाने सुखराह उद्वेग न लहतु है ।।"२ जैन शास्त्रों में प्रात्म-ब्रह्म को चेतन, चिदानन्द या चिन्मूत्ति भी कहते है । यहाँ चेतन का तात्पर्य शुद्ध चेतन से है, ऐसा हुए बिना तो उसमें ब्रह्म संज्ञा घटित ही नहीं होती। यह चेतन स्वानभूति से दमकता रहता है. अर्थात अपने को अपने से प्रकाशित करता रहता है। प्रकाश के दो अर्थ है-ज्ञान और प्रानन्द । ज्ञान को प्रकाश और अज्ञान को अंधकार अजैन आचार्यों ने भी कहा है । तुलसीदास ने 'विनय पत्रिका' में एकाधिक स्थानों पर ज्ञान को प्रकाश लिखा है । स्वानुभूति ही ज्ञान रूप होती है। इसका अर्थ निकला कि ज्ञान स्वतः अपनी शक्ति से ही दीप्तिवन्त होता है । स्वानुभूति का प्रकाश ही प्रानन्द भी है । ज्ञान और प्रानन्द में अन्तर नहीं है । पूर्ण ज्ञान ही चरम आनन्द है। अमृतचन्द्राचार्य का 'नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते' में 'स्वानुभूति' ज्ञान की द्योतक है और 'चकासते'
१. "मात पाच महलियां रे हिल-मिल पारगीडे जायं ।
ताली दिय खल में, बाकी सरन गगरुमा मायें ।। उदर भरण के कारगणे रे गउवा बन मे जायं । चारो चरै चहु दिमि फिर, वाकी मुरत बछरुमा माय ।।" -प्रानन्दधन पद मग्रह, श्रीमद् बुद्धिमागर कृत गुजराती भावार्थ महित, अध्यात्म
जान प्रसारक मण्डल, बम्बई, वि० सं० १६६६, पद ६५, पृ० ४१२-१५ । २ निर्जराद्वार । ३४, नाटक ममयमार, पृ० ५४-५५ ।
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प्रकाश का । इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान ज्ञान से प्रकाशित होता है। तात्पर्य निकला कि ज्ञान से परम प्रानन्द मिलता है । तो वह चेतन ज्ञान मोर प्रानन्द दोनों रूप हैं । 'दोनों रूप' का अर्थ है--' प्रकाश रूप' है । चेतन प्रकाश है । बनारसीदास के पन्ना के पकाये जैसे कंचन विमल होत, तैसें शुद्ध चेतन प्रकाशरूप भयो है " " में भी चेतन के इसी 'प्रकाश रूप' की बात है । अतः उसकी अनुभूति में ज्ञान है और परम प्रानन्द भी । श्रानन्द और रस पर्यायवाची हैं । बनारसीदास का मत है, "चेतन को प्रनुभो प्रराधे जग तेई जीव, जिन्हnt प्रखण्ड रस चाखिबे की क्षुधा है।"" यहाँ प्रखण्ड-रस' में परमानन्द की ही बात है । 'परमात्मप्रकाश' के टीकाकार ब्रह्मदेव ने चिदानन्दैकरूप, परमात्मप्रकाश और सिद्धात्मा को एक ही माना। उनकी बन्दना करते हुए लिखा, "चिदानन्देक रूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ।। " यह चेतन घट रूपी मन्दिर में रहता है । बनारसीदास ने उसकी वन्दना की है, "सो है घट मंदिर में चेतन प्रगट रूप ऐसो जिनराज ताहि वदत बनरसी । " उन्होंने चेतन के माहात्म्य की बात अनेक बार कही। कभी तो "चिदुरूप स्वयम्भू चिन्मूरति धरमवंत, प्रानवत, प्रानि जन्तुभूत भवभोगी हैं" ४ कहा और कभी "निराबाध चेतन अलख, जामै सहज सुकीव । अचल अनादि, अनन्त नित, प्रगट जगत में जीव ।। "५ लिखा । तुलसी ने भी विनय पत्रिका में 'चिदानन्द' के सुधारस का पान करने के लिए मन को प्रेरित किया है। उनकी दृष्टि में संसार रविकर जल के समान है, उसकी ओर दौड़ने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, अतः मन को 'चिदानन्द' की ओर मोड़ने से ही लाभ है। जैन कवि भैया भगवतीदास भी 'चिदानन्द' के ही श्राराधक थे। उन्होंने बार-बार कहा कि 'चिदानन्द' की भक्ति करने से ही ससार के माया जाल से मुक्ति मिल सकती है, अन्यथा नहीं ।
जैन ब्रह्म निरञ्जन भी है। 'भी' यह प्रमाणित करने को लिखा कि निरञ्जन शब्द केवल ग्रजैन पारिभाषिक शब्द नहीं है, वह जैन पदावली में समाहित होता है । प्राचार्य अकलक ने 'अकलंक -स्तोत्र' में लिखा है. "सोऽस्मा
१. जीव द्वार । ३४, नाटक समयसार, पृ० २० ।
२. अजीव द्वार । ११, नाटक समयसार, पृ० २३ ।
३. जीव द्वार । २६, वही, पृ० १६ ।
४. नाटक समयसार, प्रारम्भिक स्तुतियाँ, २३ वाँ पद्य, पृ० ८ । ५. अजीव द्वार । १०, नाटक समयसार, पृ० २३ ।
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नपातु निरञ्जनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ।"१ प्राचार्य योगिन्दु ने 'परात्म प्रकाश' और 'योगसार' दोनों ही ग्रन्थों में 'निरञ्जन' का एकाधिक बार प्रयोग किया। उन्होंने निरंजन की परिभाषा लिखी, “जासुरण वण्णु रण गन्धु न रसु जासु ण सद्गुण फासु । जासु न जम्मंणु ण वि गाउ निरंजणु तासु ।"२ अर्थात् जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण, वह निरञ्जन कहलाता है। इससे मिलती-जुलती बात मुनि रामसिंह ने 'पाहुड़दोहा' में कही है, वैण्णविहूणउ णाणमउ जो भावइ सन्भाउ। संत निरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ । इसका तात्पर्य है कि जो वर्ण-विहीन है, ज्ञानमय है, सद्भाव को भाता है, वह संत और निरंजन है, वही शिव कहलाता है, उसी में अनुराग करना चाहिए। यहाँ मुनि जी ने शिव और 'निरंजन' को एक ही माना है। मूल स्वरूप की दृष्टि से दोनों में कोई भेद है भी नही । जैसे 'शिव' का ध्यान लगाने से चित्त का मैल दूर हो जाता है, वैसे ही "चित्ति रिणरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण।", निरंजन शब्द का अर्थ ही 'मलरहित' है। 'कल्प सुबोधिका' में लिखा है, "रंजनं रागाद्युपरञ्जनं तेन शून्यत्वात् निरञ्जनं ।” स्थानांग सूत्र में भी "रंजनं रागाद्युपरञ्जन तस्मानिर्गतः” को निरंजन कहा है ।५ अञ्जन का अर्थ है मैल । राग भी मैल ही है, अत: उससे छुटकारा पाने वाला निरंजन है । मुनि कनकामर ने भी 'करण्डुचरिउ में जिन दो तीन स्थानों पर निरंजन' शब्द का प्रयोग किया है, वह भी इसी अर्थ में है। इस सबसे स्पष्ट है कि उस भगवान् को निरंजन कहो, सिद्ध, शिव या निर्गुण एक ही बात है । अपभ्रंश-साहित्य में जिस शब्द का सबसे अधिक प्रयोग हुआ, वह निरंजन है।
बनारसीदास इसी परम्परा से प्रभावित थे। उन्होंने भी निरंजन को सिद्ध के रूप में ही स्वीकार किया है । यह बात उनके द्वारा निरूपित सिद्ध के स्वरूप से प्रमाणित है । उन्होंने “अलख अमूरति अरूपी अविनासी अज, निराधार,
१. अकलंक स्तोत्र, १० वॉ श्लोक । २. परमात्मप्रकाश, १११६, पृ० २७ । ३. मुनि रामसिंह, पहुड़दोहा, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, कारजा (बरार), वि० सं०
१९६०, ३८ वॉ दोहा, पृ० १२ । ४. मम्भितरचिति वि मइलियइ बाहिरि काइ तवेरण । चित्ति रिणरंजणु कोवि धरि मुच्चाहि जेम मलेण ।।
-~-देखिये वही, ६१ वां दोहा, पृ० १८ । ५. अभिधान राजेन्द्र कोश, चतुर्थ भाग, पृ० २१०६ ।
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निगम निरंजन निरंध है ।' कह कर सिद्ध का ही प्रतिपादन किया है । उनकी दृष्टि में यह निरंजन चिदाकार, निराकार, निरधार, निर्वाचक, निर्मम, निरजोग और चरित्रधाम है । यहाँ निर्मम का अर्थ कर नहीं है, अहिंसा के प्रतीक जिनेन्द्र में उसकी सम्भावना नहीं हो सकती । निर्मम का 'मम' ममता का द्योतक है और ममता मोह को कहते हैं, मर्थ हुमा कि निरंजन मोह-रहित है । जैन सिद्धान्त के पाठ कर्मों में 'मोहनीय' एक 'प्रबलतम कर्म माना जाता है । उसका घात करना कठिन है । साधक को समूची साधना खपानी होती है। मोह के क्षीण हुए बिना ज्ञान का प्रकाश प्रदीप्त नहीं हो सकता । तो निरंजन निर्मम है, इसका अर्थ इतना ही है कि वह ज्ञान के अनिर्वचनीय रस से संयुक्त है । बनारसीदास ने 'शिव पचीसी' में 'निर्गुण रूप निरंजन देवा' लिखकर 'निरंजन' को निर्गुण माना और साथ ही 'सगुरण स्वरूप करें विधि सेवा' के द्वारा उसे सगुरण भी कहा । निर्गुण ही मुख्य है, सगुण तो उसके भावलिंग की मूर्ति है, जो व्यापक दोष से दूषित तो रहेगी ही । सगुरग के महान् उपासक तुलसी भी 'ब्रह्म' का मूल रूप 'निर्गुण' ही स्वीकार करते हैं। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उनकी 'विनय पत्रिका' का मूलस्वर निर्गुण-परक है । बनारसीदास ने निरंजन को 'परमगुरु', 'परमपुरुष' और 'भगवान्' भी कहा । भगवान् भय-भञ्जन होता है और उनका 'निरंजन' भी ऐसा ही है । 'परमसमाधिगत' उस निरंजन की बनारसी ने श्रद्धापूर्वक वन्दना की है ।" उनका मत है कि संतोष को साधे बिना निरञ्जन की आराधना नहीं हो सकती । संतोष को साधने का अर्थ है
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१. बंध द्वार ५४, नाटक समय सार, पृष्ठ ७८ ।
२. चरित्रधाम चित् चमत्कार । चरनातम रूपी चिदाकार | निर्वाचक निर्मम निराधार । निरजोग निरञ्जन निराकार ॥
----सहस्रनाम, २३ वाँ पद्य, बनारसीविलास, पृ० ५ ।
३. भाव लिग सो मूरति थापी । जो उपाधि सो सदा प्रव्यापी । निर्गुण रूप निरजन देवा । सगुण स्वरूप करें विधि सेवा ||
५. 'साषि सन्तोष देइ सुसीख न
- शिव पच्चीसी, ७ वॉ पद्य, बनारसीविलास, पृ० १५० ।
४. परमनिरञ्जन परमगुरु, परमपुरुष परधान । वन्द परम समाधिगत, मय-मजन भगवान् ||
कर्म छत्तीसी, पद्य १, बनारसीविलास, पृ० १३६ । अराषि निरंजन,
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निर्जरा द्वार । १०, नाटक समयसार, पृ० ४८ ।
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तृष्णाओं पर विजय प्राप्त करना । श्रर्थात् तृष्णाभों पर विजय पाना अनिवार्य है । उसके बिना कोई 'निरञ्जन' की भक्ति चाहकर भी नहीं कर सकता । संसारी जीव के राग-द्वेष का मुख्य कारण है--मन की दुविधा । यदि 'दुविधा' हट जाय तो मन को निरञ्जननाथ पर केन्द्रित किया जा सकता है। जब भक्त अपने मन को भगवान् पर टिकाने के लिए बेचैन हो उठे, तो समझ लो कि उसकी मन की दुविधा चली ही जायगी । बनारसीदास की "दुविधा कब जैहै या मन की । कब निजनाथ निरञ्जन सुमिरौ तज सेवा जन-जन की ।" 'अध्यात्मपद पंक्ति' से यह स्पष्ट ही है । "
जैन परम्परा के अनुसार जिनेन्द्र और निष्कलंक आत्मा में कोई अन्तर नही है । श्रात्मा के कलंक - रहित होने पर यदि कोई अपने आपको जिनेन्द्र कहने लगे तो असत्य न होगा । बनारसीदास ने 'परमार्थ हिण्डोलना' में 'स्व' को 'निरञ्जननाथ' माना और उसे 'प्रबन्ध' 'दीन' तथा 'अशररण' कहा । यहाँ अशरण से उनका तात्पर्य 'अशरण शरण' है । जो अनाथों को शरण देता है, उसका स्मरण और जाप सभी करते हैं, बनारसी ने भी किया । बनारसीदाम की आत्मा और निरञ्जननाथ पर्यायवाची है । दोनों के स्वरूप में साम्य है और दोनों की भक्ति में कोई भेद नही है ।
चाहे जैन अपभ्रंश साहित्य हो या हिन्दी काव्य, किसी में भी बौद्धो के सिद्ध साहित्य और निरंजनियाँ सम्प्रदाय की भाँति निरञ्जन के विकृत रूप के दर्शन नही होते । डॉ० द्विवेदी ने 'कबीरदास' में लिखा है कि आगे चलकर निरञ्जन एक पुरुष भर रह गया, जिसके चारो प्रोर जादू-टोना और धार्मिक आवरण में व्यभिचार मजबूत कदमों से शान के साथ चलने लगा। यह हुआ तभी जब 'निरञ्जन' श्रपने निर्गुण ब्रह्म के पद से नीचे गिर गया और विकृत सिद्धियो के केन्द्र के रूप में पूजा जाने लगा। पहले जो सात्विकता का प्रतीक था, अब राजसिकता का प्रतीक हो गया । अब उसके सहाय्य से साधारण मानव की लैंगिक और आर्थिक आकाक्षायें सन्तुष्ट हो उठी। अब उसकी आराधना सहस्रसहस्र कण्ठों और सहस्र विधियों से सम्पन्न होने लगी । किन्तु जैन साहित्य का कोना-कोना झांकने के बाद भी निरञ्जन का यह रूप कहीं उपलब्ध नही हुआ ।
१. श्राध्यात्मपद पंक्ति, पद १३ वॉ, बनारसीविलास, पृष्ठ २३१ ।
२. कबहूं प्रबंध प्रदीन अशरन, लखत प्रापहि श्राप । कबहुँ निरञ्जन नाथ मानत, करत सुमरन जाप ।।
परमार्थ हिण्डोलना, ६ठा पद्य, बनारसीविलास, पृ० २३८ ।
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वह निष्कल ब्रह्म ही बना रहा और इसी रूप में उसकी साधना चलती रही। जैन साहित्य में भी मन्त्र और जादू दोनों की बातें हुई । मन्त्र बने, उनकी क्रियायें रची गई और तत्सम्बन्धी पुस्तकों का निर्माण हुना। इन मन्त्रों के आराध्य देव और देवियों का विवेचन मैंने 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि' में किया है।' किन्तु वहाँ निरञ्जननाथ का नाम भी नहीं है। अन्य देव-देवियाँ हैं, सभी शालीन और उच्च भावभूमि पर प्रतिष्ठित । वहाँ व्यभिचार-जैसी बात तो पनप ही नहीं सकी।
यद्यपि बनारसीदास के काव्य में अध्यात्म-मूला भक्ति ही प्रमुख है, किन्तु प्रर्हन्त-भक्ति के रूप में सगुण-भक्ति के दृष्टान्त भी अल्प नहीं हैं । बनारसी ने 'नाटक समयसार' में 'नवधा-भक्ति' का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, "श्रवन कीरतन चितवन सेवन वन्दन ध्यान । लघुता समता एकता नौधा भक्ति प्रवान ।।"२ इसमें लघुता मुख्य है । जब तक भक्त अपने को लघुतम और आराध्य को महत्तम न मानेगा, उसमें भक्ति का निर्वाह सम्भव नहीं है । 'तुलसी की भक्ति' में पं० रामचन्द्र शुक्ल ने ऐसी मान्यता को भक्ति का प्रथम और अनिवार्य सोपान कहा है । बनारसी के काव्य में लघुता का रूप ही मुख्य है । अपनी लघुता और आराध्य की महत्ता अविनाभावी है। एक-दूसरे के बिना नहीं चल सकती। प्रभु की महिमा का बखान करते हुए बनारसी ने लिखा, “प्रभु का स्वरूप अत्यधिक अगम्य और अथाह है, हमसे उसका वर्णन नहीं हो सकता, जैसे दिन में अन्धा हो जाने वाला उलूक-पोत रवि-किरन के उद्योत का वर्णन नहीं कर सकता।" एक दूसरे स्थान पर बनारसी का कथन है-"जैसे बालक अपनी भुजा फैलाकर भी सागर को पार करने में असमर्थ है, वैसे ही मैं मतिहीन होने के कारण प्रभु के असंख्य निर्मल गुणों का वर्णन कैसे करूं ?" तीसरी जगह
१. 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि', भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९६३ ई०, . पृ० १४१-१६६ । २. नाटक समयसार, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृ० २७७ । . . ३. प्रभुत्वरूप अति भगम प्रथाह । क्यों हमसे यह होइ निवाह । ज्यो दिन-अन्ध उलोको पोत । कहि न सके रवि-किरन उदोत ।।
__कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा, ४था पद्य, बनारसीविलास, पृ० १२४ । ४. तुम असंख्य निर्मल गुणखानि । मैं मतिहीन कही निजबानि ।। ज्यों बालक निज बांह पसार । सागर परिमित कहै विचार ।
-वही, ६ ठा पद्य, बनारसी विलास, पृ० १२४ ।
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बनारसी का भक्त असमंजस में पड़ा हुआ है कि “प्रभु के भारी गुरणों की भक्ति का बोझ हलके-से दिल पर कैसे धारण किया जाये, किन्तु प्रभु की महिमा अपरम्पार है, जिसके कारण यह जीव लघु होकर ही संसार को पार कर सकता है ।" इस भाँति भक्त की लघुता और प्रभु की महिमा के अनेकानेक उदाहरण बनारसी - काव्य में छिटके पड़े हैं।
बनारसी के अराध्य की सबसे बड़ी विशेषता है, उसकी उदारता । उदारता भी ऐसी-वैसी नही - परले सिरे की । एक बार स्मररण करने मात्र से पापीसे पापी के सब दुःख दूर हो जाते है। दुखों में मुख्य है भय । पापात्मा भयभीत हो काँपता रहता है। उसकी तड़फन, जो श्रभिव्यक्त नहीं हो पाती, उसे कोंचती ही रहती है । जिसके स्मरण से भय निर्मूल हो जायं, वह भगवान् बहुत बड़ा है और उतनी ही बड़ी है उसकी उदारता । ऐसे प्रभु के सहारे टिक पाता है भक्त का अटूट विश्वास और श्राशा की श्वांसों में वह जीवित रहता है। बनारसीदास प्रारम्भ से ही भगवान् पार्श्वनाथ के भक्त थे । वे जैन परम्परा में २३ वें तीर्थंकर माने जाते हैं । उनका जन्म ईसा से ८०० वर्ष पूर्व बनारस में हुआ था । उनका शरीर सजल जलद की भाँति था। उनके सिर पर सात फॅरण वाले सर्प का मुकुट सुशोभित रहता था । उन्होंने कमठ के मान का दलन किया था। वे मदन के विजेता और धर्म के हितैषी थे । बनारसीदास के समूचे भय, उनका नहीं, उनकी भक्ति का स्मरण करने से ही दूर हो गये
"मदन- कदन जित परम धरम हित, सुमिरति भगति भगति सब डरसी । सजल - जलद - तन मुकुट सपत फन, दलन जिन नमत बनरसी || २
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जो प्रभु भक्त को अभय न दे सका, वह भले ही शील-सना हो और भले ही सौन्दर्य का अधिष्ठान हो, एकनिष्ठ श्रद्धा का अधिकारी नहीं हो पाता । भक्त किसी भी कोटि का हो, भगवान् की शक्ति सम्पन्नता पर ही रीझता है । जितेन्द्र में शील-सौन्दर्य ही नही, शक्ति भी होती है। उन्हें 'अनन्त बोरज' का धनी भी
१. तुम अनन्त गरुवा गुरण लिये । क्योंकर भक्ति धरू निज हिये || व लघुरूप तिरहि संसार । यह प्रभु महिमा कथ अपार ।। वही, १३ वाँ पद्य, बनारसी विलास, पृ० १२५ । २. पार्श्वनाथ स्तुति, नाटक समयसार, दिल्ली, पृ० १ ।
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कहा जाता है। तभी तो वे बादल के समान पाप रूपी धूल को हरने में समर्थ हाते हैं। उनके भक्त को संसार के आवागमन का भय नहीं रहता। वे यमं को दल डालते हैं और नरक-पद को तो समाप्त ही कर देते हैं । उनका भक्त प्रगम्य
और प्रतट भव-जल को तैर कर पार कर जाता है । उन्होंने स्वयं मदन-रूपी-वन को शांकरीय अग्नि के ताप से भस्म कर दिया है। ऐसे प्रभु के जै-जै के गीतों से सब दिशायें ध्वनित हो उठती हैं । बनारसी ने भी उनकी चरण-वन्दना करते हुए लिखा है--
"पर अघ रजहर ' जलद,
सकल जननत भव-भय-हर । जम-दलन नरकपद-क्षय-करन,
अगम प्रतट भव--जल-तरन ।। वर सबल-मदन-वन-हरदहन,
जय-जय परम अभय करन ।"
बनारसी का आराध्यदेव देव ही नहीं हैं, अपितु देवों का देव है । इन्द्रादिक उनके चरणों का स्पर्श कर धन्यभाग्य बनते हैं। ऐसा करने से मुक्ति स्वयं प्राप्त हो जाती है । प्रयास नहीं करना पड़ता, तप नहीं तपना पड़ता, साधना नहीं साधनी पड़ती। वह मुक्ति जो चरणों का स्पर्श करते ही सध जाय, सच्ची मुक्ति है। उसमें ज्ञान की ऊष्मा नहीं, भाव-भीनी शीतलता होती है । यह ही मुक्ति भक्त कवियों की अनुभूति का विषय है। 'मुक्ति,' जिसे कबीर ने 'ब्रह्मलोक' कहा; सदैव दिव्य ज्योति से प्रकाशवन्त रहती है। बनारसी का देव भी सूर्य के समान प्रभामंडल से व्याप्त है। उसके प्रभाव से मिथ्यात्व-रूपी अन्धकार जड़-मूल से नष्ट हो जाता है और प्रकाश सतत छिटका रहता है । मुक्ति उसी का प्रकाश पादेदीप्यमान बनती है। ऐसा देव दीनदयालु होता ही है । उसके इसी गुण के सहारे भक्त दुःख
१. वही, दूसरी स्तुति, नाटक समयसार, पृ० १-२ । २. जगत मे सो देवन को देव । जासु चरन परसें इन्द्रादिक होय मुकति स्वयमेव ।।
-अध्यात्मपदपंक्ति, १५ वाँ पद्य, बनारसी विलास, पृ० २३२ । ३. सूर समान उदोत है, जग तेज प्रताप घनेरा । देखत मूरत मावसों, मिट जात मिथ्यात प्रधेरा ॥
-वही, २१ वा पद्य, विलास, पृ० २३६ ।
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और संकट से छुटकारा प्राप्त करने में समर्थ हो पाता है । बनारसी का कथन है
"दीनदयालु निवारिये, दुख संकट जोनि बसेरा।
मोहि अभय पद दीजिये, फिर होय नहीं भव-फेरा ॥"" ऐसे 'भगवन्त' की 'भगति' बनारसीदास के हृदय में बसी है। भक्ति कृत्रिम नहीं है, उसमें सहज भाव है । सरल हृदय में कृत्रिमता नहीं होती । वह दिखावे से दूर रहता है । बनारसी की भक्ति भी स्वाभाविक ही थी। यह बात और भी पुष्ट हो गई जब यह विदित हुआ कि 'कुमति' कही चूपचाप विलीन हो गई और 'सुमति' न-जाने कब प्रा विराजी है। वह हृदय, जो तमसाच्छन्न रहता था, अब विमल ज्योति से जगमगा उठा है। जो हृदय करता की उष्ण उसांसों से तप्तायमान था, अब 'दया' की मन्द-सुगन्ध पवन से शीतलता का अनुभव कर रहा है। लालसा अब भी जन्म लेती है, किन्तु वह भगवान् के दर्शन के अतिरिक्त और किसी की नहीं होती। यदि भक्त हृदय भगवान् के सम्मुख जा भारती करने को ललकता है, तो उसमें सन्निहित लालसा भगवद्परक होने के कारण दिव्य ही ठहरायी जायगी । उद्दाम भक्ति-भीने भाव हृदय में समाते नहीं, तो उमंगित हो, तटों को तोड़ बाहर फूट पड़ते हैं । उनका यह बलात् विस्फोट भक्ति का पावन चित्र है। सूरदास का 'शोभा-सिन्धु न अन्त लही री' इसका निदर्शन है और बनारसी का "कबहौ सुभारती है बाहिर बगति है" में भी वह ही बात है।
१. प्राध्यात्म पद पंक्ति, २१ वा पद्य, बनारसीविलास, पृ० २३६ । २. कबहों सुमति ह कुमति को विनाश कर,
कबहों विमल ज्योति अन्तर जगति है । कवहो दया चित्त करत दयाल रूप, कबहों सुलालसा व लोचन लगति है ।। कबहो प्रारती व के प्रभु मनमुख पावे, कबहो सुभारती व बाहरि बगति है। घरै दसा जैसो तब कर रीति तैसी ऐसी, हिरद हमारे भगवन्न को भगति है ।।
नाटक समयसार, १।१४, पृष्ठ ५।
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बनारसी का प्राराध्य 'सुख सागर' था । अर्थात् उसका सुख ऐसा था, जिसमें जन्म-मरण, लाभ-हानि और लीन-विलीन का प्रस्थैर्य नहीं था, वह सहज था। अर्थ है, स्वाभाविक था, दिव्य था, एकतान था । उसमें ज्ञान का उजाला था, वह भी सहज ही था, प्रयत्नपूर्वक कहीं से लाया नहीं गया था । अर्थात् वह श्रात्मा का स्वाभवरूप स्वतः ही खिल उठा था । जब अज्ञान की परतें हट जाती हैं तो ज्ञान ' रात्र्यधकार' के उपरान्त जगमगाती ऊषा की भाँति स्वत: दमक उठता है । जिसमें उसका यह सहज शुभागमन हो चुका है, वह सहज सुख सागर है। बनारसी ने 'नाटक समयसार' में उसे "ज्ञान को उजागर सहज सुख सागर" कहा है। किन्तु यह सहज सुख तभी उत्पन्न हुमा, जबकि वह देव पहले से ही श्रेष्ठ गुण रूपी रत्नों का आगर था । श्रेष्ठ गुरण के दो मोड़ होते हैं - एक संसार की ओर मुड़ता है और दूसरा दिव्य लोक की ओर । बिना श्रेष्ठ गुरगों के सांसारिक वैभव उपलब्ध नहीं होते, यहाँ श्रेष्ठ गुणों का तात्पर्य ऐसे गुरणों से है, जिनके सहारे यह जीव धनोपार्जन करता है और अन्य सांसारिक व्यवहारों में प्रतिष्ठित माना जाता है। दूसरा परमसुख से सम्बन्धित है । यहाँ 'श्रेष्ठ गुण' का अर्थ 'श्राध्यात्मिक गुरण' से है । उनके बिना बड़े से बड़ा भक्त भव-सागर नहीं तैर सकता और न 'ब्रह्मलोक' पाने में समर्थ हो पाता है । इस प्रकार श्रेष्ठगुरण दो अर्थों से समन्वित है, अर्थात् श्लेषवाची है । इस श्लेष - जन्य द्वंध को मिटाने के लिए बनारसीदास ने लिखा कि वह 'सगुन रतनागर' तो है, किन्तु 'विराग-रस-भरयो' है । विराग-रस से भरा श्रेष्ठ गुण संसार से विरक्ति दिलाने वाला ही होगा। इसका तात्पर्य निकला कि उसमें चक्रवर्ती का पद और वैभव दिलाने की क्षमता होगी, किन्तु विराग-रस से संलग्न होने के कारण, वैभव - सम्पत, वैभवों को त्यागता हुआ वन की राह लेगा । धन और धन के प्रति उदासीनता, संसार और संसार के प्रति वैराग्य, दोनों साथ-साथ चलते हैं । दोनों का यह गठबन्धन जितना पावन है, उतना ही आकर्षक । बनारसी का "सगुरण-रतनागर विराग रस भर्यो है" इसी का निदर्शन है ।
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इसी संदर्भ में वीतरागी भगवान् से 'वैभव - याचना' का अर्थ समझा जा सकता है । अपने-अपने प्राराध्य से भौतिक कामनाओं के पूर्ण होने की प्रार्थना astra और जैन दोनों ने को। दोनों को सफलता प्राप्त हुई, यह तथ्यांशों के
१. वही, ११५, प्रथम पंक्ति, पृष्ठ २ ।
२. नाटक समयसार, ११५, द्वितीय पंक्ति, पृष्ठ २ ।
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रूप में उपलब्ध है । फिर भी दोनों में अन्तर था। एक की वैभव-याचना के मूल में वीतरागता का स्नेह सन्निहित था, दूसरे की विशुद्ध भौतिकता से सम्बन्धित थी । एक अपने प्राराध्य से सांसारिक वैभव मांगता, किन्तु उनसे विरक्त होने का भाव, साथ में स्वभावतः चिपका होता, तो दूसरे की वैभव-याचना जीवन-पर्यन्त उपभोग के लिए होती। वीतरागी परम्परा में जिन पुण्य प्रकृतियों से चक्रवर्ती की विभूति मिलती, उन्हीं से उसे त्यागने का भाव भी उपलब्ध होता । सम्राट भरत, जिन्होंने कैलाश के शिखर पर समूचे विश्व का जयघोष किया था, एक दिन वन की राह लेने को मचल उठे। अकस्मात् 'उपयोग' जागृत होता है. और चक्रवर्ती सम्राट को भी साम्राज्यों की लक्ष्मी प्रातः की वैश्या-इव फीकी और अनाकर्षक प्रतीत हो उठती है। उसे वैभव की चकाचौंध अटका नहीं पाती। वह सबके मध्य नग्न होकर तप साधने चल पड़ता है । खबास खड़े रह जाते हैं, धनधान्य पड़े-के-पड़े ही रहते हैं और पुत्र-पौत्रादिक अड़े ही रहते हैं, किन्तु वह चला जाता है, रुकता नहीं। अन्तः की अदम्य प्रेरणा उसे रुकने नहीं देती । ऐसी होती है जैन भक्त की वैभव-याचना । भौतिकता की पृष्ठभूमि में निलीन प्राध्यात्मिकता की यह गौरवपूर्ण सुषमा विश्व-साहित्य के किस पृष्ठ पर अंकित मिलेगो ? इससे जैन भक्ति-परम्परा का एक महत्वपूर्ण तथ्य भी सामने प्रा जात है कि राग ही विराग है, यदि उसके साथ 'विरक्ति' का भाव सन्निहित है । परिग्रह ही अपरिग्रह है, यदि उसके पीछे विरक्ति का प्रारकेस्ट्रा बजता ही रहता है। जीव ही ब्रह्म है, यदि उसका मूल स्वर विरक्ति के सांचे में ढला होता है । जैन भक्ति का यह एक विशिष्ट पहलू है, जो स्पष्ट होते हुए भी अभी तक अनभिव्यक्त की भाँति पड़ा रहा है।
बनारसीदास ने अपने आराध्य के नाम की महिमा सूर-तुलसी की भॉति ही समझी थी। उनको विश्वास था कि जिनेन्द्र के नामोच्चारण में अमित बल है । जिस भाँति पारस के स्पर्श से कुधातु स्वर्ण बन जाती है, ठीक वैसे ही जिनेन्द्र का नाम लेने से पापीजन भी पावन हो जाते हैं। विश्व में सुयश से भरा नाम दोनों का है-एक तो भगवान् का और दूसरे किसी बड़े आदमी का । भगवान् के नाम से भव-सिन्धु तैरा जा सकता है, क्योंकि वह स्वयं अनादि अनन्त है, उनके साथ मरने-जीने की व्याधि संलग्न नहीं है । किसी बड़े प्रादमी का सुयश विस्तृत अवश्य हुआ है, किन्तु वह अस्थिर है और असत्य । जो मृत्यु और जीवन के फेरों से उबर नहीं सका, वह क्या सत्य होगा और क्या स्थिर । भक्त को पूरा विश्वास है कि भगवान् के नाम की महिमा अगम और अपार है । एक वह
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ही समूचे त्रिभुवन का प्राधार बनने की सामर्थ्य रखता है।' वह नाम किसी सरोवर के कमलों का स्पर्शकर मंद सुगन्ध शीतल पवन की भांति ग्रीष्म की भयंकर जलन का निवारण करता है। विश्व के संघर्ष ही ग्रीष्म की तपन हैं । भगवान् के नाम से यह जीव उनमें विजय प्राप्त कर शांति और शीतलता का अनुभव कर पाता है। नाम-मात्र से संघर्षों की यह जीत कितनी शानदार भौर शालीन है। तुलसी की विनयपत्रिका पोर सूरदास का सूरसागर 'नाम-महिमा' के ही निदर्शन हैं । वहाँ शत-शत पद केवल नाम की महत्ता मुखर हो-होकर घोषित करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि बनारसीदास इन वैष्णव कवियों की नाममूला भक्ति से प्रभावित थे। उनके पीछे अपनी ही एक समृद्धतर परम्परा थी। प्राचार्य समन्तभद्र (दूसरी शती वि० सं०) ने लिखा कि तीर्थ कर अजितनाथ का नाम लेने से घट में विराजे 'पातमराम' अर्थात् 'ब्रह्म' के तुरन्त दर्शन हो जाते हैं । आचार्य 'मेरुतुग' (वि० सं० सातवीं शती) का विश्वास है कि भगवान् का नाम एक ऐसा मन्त्र है, जिसमें असीम बल होता है । उसके उच्चारण से 'पापादकण्ठमुरुशृखलवेष्टितांग:' अर्थात् पैर से कण्ठ तक शृखलाओं से जकड़े और 'गाढ़ बृहन्निगडकोटिनिधृष्टजंघाः' अर्थात् मोटी-मोटी लोहे की जंजीरों से घिस गई हैं जघायें जिनकी, ऐसे मनुष्य शीघ्र ही बंधनमुक्त होजाते हैं। प्राचार्य सिद्धसेन (वि०स० ५ वीं शती)ने भी भगवन् के नाम की अचिन्त्य महिमा
१. "अनादि अनंत भगवन्त को सुजस नाम,
भव-सिन्धु तारण-तरण तहकीक है। अवतरं मरं मी घरै जे फिर-फिर देह, तिनको मुजस नाम अथिर अलीक है ।"
___'नाम निर्णय विधान', तीसरा कवित, बनारसीविलास, पृष्ठ १२५ । २. तुम जस महिमा अगम अपार । नाम एक त्रिभुवन माघार ।। अवै पवन पदमसर होय । ग्रीषम तपन निवार सोय ॥
कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा, ८ वा पद्य, बनारसीविलास, पृष्ठ १२५ । ३. देखिये स्वयम्भूस्तोत्र, दूसरा श्लोक, बीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली . ४. मापादकण्ठमुरुश्रंखलवेष्टितागा, गाढबृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघा । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्याः स्वयं विगतबन्धमयाः भवन्ति ।
भक्तामरस्तोत्र, मानतुंगाचार्य, ४६ वा श्लोक ।
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को स्वीकार किया है। ' जैन, प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के विपुल साहित्य, जैन पुरातत्व और इतिहास में जिनेन्द्र की नाम-महिमा के शतश: उल्लेख प्रकित हैं । इसी महिमा को लेकर अनेक सहस्रनामों की रचना हुई। उनमें भगवज्जिनसेनाचार्य (वि० सं० हवीं शती), प्राचार्य हेमचन्द्र (वि० सं० १२-१३ वीं शती) और पं० प्राशाधर ( १३ वी शती वि० सं० ) के सहस्रनाम ख्याति प्राप्त हैं। ऐसी कुछ अन्य कृतियाँ अभी पाण्डुलिपियों तक ही सीमित हैं। मैंने उनका 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि' में विवेचन किया है । इसी परम्परा से अनुप्राणित होकर बनारसीदास ने हिन्दी में एक सहस्रनाम लिखा था । वह ललित गुणसम्पन्न रचना है। बनारसीविलास में उसका संकलन है । तो इस लम्बी और दूर तक फैली परम्परा का बनारसी पर प्रभाव था । जैसा, कुछ विद्वान, वैष्णवभक्ति पर बौद्धों की महायानी भक्ति का प्रभाव जताने की चेष्टा करते हैं, वैसी बात तो मैं नही करना चाहता, किन्तु जैन और वैष्णव भक्ति-काव्यों का तुलनात्मक अध्ययन अवश्य होना चाहिए, उससे अनेक मौलिक तथ्यों के उद्भावन की सम्भावना है।
कवि बनारसीदास ने 'शृगार' के स्थान पर 'शान्त' को रसों का नायक कहा है। काव्य-शास्त्र के मर्मज्ञ इसे विवाद-ग्रस्त मान सकते हैं, किन्तु भक्ति के क्षेत्र में उसकी सत्ता का महत्व असंदिग्ध है। जैन और अजैन दोनों ही प्रकार के काव्यों में 'भक्ति' और 'शान्ति' पर्यायवाची है। किन्तु जहाँ भक्ति की पृष्ठभूमि हिंसात्मक हो, वहाँ शान्ति का पर्यायवाचित्त्व विचारणीय हो सकता है । मध्यकालीन भक्ति का एक पहलू हिंसा-मूलक था-बलि ही उसका जीवन था । प्रभासपट्टन के प्रसिद्ध मन्दिर से संलग्न 'शक्ति' के अधिष्ठान की बात प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है। वहाँ भाद्रपद की अमावस की रात को ११६ कुपारी, सुन्दरी
• १. प्रास्तामचिन्त्य महिमा जिनसस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जयन्ति । -कल्याण मन्दिर स्तोत्र, ७ वा श्लोक, काव्यमाला, सप्तम गुच्छक, निर्णयसागर
प्रेस, बम्बई, पृ० ११ ।। २. देखिए बनारसी विलास, जयपुर, पृ० ३-१६ । ३. प्रथम सिगार वीर दूजो रस, तीजो रस करुना सुखदायक ।
हास्य चतुर्थ रुद्र रस पचम, छट्ठम रस बीमच्छ विभायक ।। सप्तम भय अष्टम रस अद्भुत, नवमो सांत रसनिको नायक ।। ए नव रस एई नव. नाटक, जो जह मगन सोइ तिहि लायक ॥ -नाटक समयसार, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १०११३३, पृ० ३९१ ।
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कन्याओं की बलि ही उत्तम श्रद्धांजलि थी। बजयानी तान्त्रिक सम्प्रदाय का भक्त श्मशान में मुर्दे की पीठ पर मासीन होकर, मदिरा के नशे में ध्वस्त, कपालपात्र में सद्यः जात नर-रुधिर का पान करता हुमा जिन मन्त्रों का उच्चारण करता है, वे भक्ति के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण थे । किन्तु इस सबके पीछे भी परब्रह्म का दर्शन ही मुख्य था, जो चिर शान्ति का प्रतीक है। अर्थात् भक्त इन हिंसात्मक साधनाओं के परिपेक्ष्य में भी शान्ति चाहता था। उसे अपने प्रयास के ढंग की चिन्ता नहीं थी, भले ही वह उपहासास्पद रहा हो । उसे शान्ति प्राप्त न हो सकी, क्योंकि उसके प्रयत्न गलत थे। प्रशान्त साधनों से शान्ति की खोज मृगमरीचिका है। यह वैसा ही है, जैसा रुधिर से धोकर किसी वस्त्र को धवल रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा और कीचड़ से मलकर किसी वर्तन की निर्मलता में विश्वास करना । बनारसीदास का जन्म विशुद्ध अहिंसक परम्परा में हुआ था। वे हिंसा की बात सोच भी नहीं सकते थे। वैसे मध्यकालीन जैन, संस्कृत-प्राकृत साहित्य मन्त्र-तन्त्र से प्रभावित हुआ । उनकी देवियाँ मन्त्राधिष्ठात्री बनीं, शक्ति का अवतार मानी गई । वे भी दुर्जनों के लिए कराला और साधुओं के लिए उदारमना थीं।' किन्तु उनमें हिंसात्मक प्रवृत्ति नहीं पनप सकी, कैसे, यह एक लम्बा विषय है । जहाँ तक जैन हिन्दी कवियों का सम्बन्ध है, उन्होंने उस देवी की अधिक आराधना की, जो मन्त्र-तन्त्र से नितान्त अस्पये थी। वह थी देवी सरस्वती। जैन हिन्दी के अधिकांश काव्यों का प्रारम्भ सरस्वती-वन्दना से हुआ। महाकाव्यों और खण्ड काव्यों के मध्य 'सरस्वती' को प्रतिष्ठित स्थान मिला। मुक्तक रूप में भी उसकी स्तुतियों की रचना की गई। उन्होंने प्राचीन जैन पुरातत्व और संस्कृत-प्राकृत के स्तोत्रों की ही भाँति सरस्वती को शुक्लवर्णा, हंसवाहना, चर्तु भुजा, वरद कमलान्वितदक्षिरणकरा और पुस्तकाक्षमालान्वितवामकरा के गीत गाये । बनारसीदास का 'शारदाष्टक' उसका प्रतीक है। उसमें १० पद्य हैं। आगे की समूची सरस्वती-वन्दनाओं पर उसका प्रभाव है। उससे भूधरदास भी अछूते नहीं बच सके हैं । यद्यपि आज तक भारत के प्रत्येक जैन मन्दिर में भूधरदास की सरस्वती-वन्दना' का अधिक उच्चारण होता है, किन्तु इसका कारण उसका अधिक प्रचार और प्रकाशन ही कहा जा सकता है। जहाँ तक संगीतात्मक लय का सम्बन्ध है, वह बनारसी में ही अधिक है । एक उदाहरण देखिये
"अकोपा अमाना अदम्भा अलोभा
श्रु तज्ञान-रूपी मतिज्ञान शोभा । १. देखिए मेरा ग्रन्थ, 'जन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि', पृ० १४१-१८२ । २. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १६५-६७ ।
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महापावनी भावना भव्यमानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ।। अशोका मुदेका विवेका विधानी, जगज्जन्तुमित्रा, विचित्रावसानी। समस्तावलोका निरस्तानिदानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी।"'
बनारसीदास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनकी टीकाओं का तलस्पर्शी अध्ययन किया था। अतः उनमें अध्यात्म रस की प्रधानता हो गई थी। 'नाटकसमयसार' उनकी प्रात्मानुभूति का ही दीपस्तभ है। आत्मा भले ही ज्ञान रूप हो, किन्तु उनकी अनुभूति भाव का विषय है, और उसका भावोन्मेष साहित्य का प्राण है । इसी कारण 'समयसार' दर्शन का ग्रन्थ था और 'नाटक समयसार' साहित्य का उत्तम निदर्शन माना गया है । बनारसी का पाठक यह स्वीकार करेगाही कि उनमें भाव-तन्तु प्रधान थे और इसी कारण वे एक सफल व्यापारी नही बन सके । उन्होने ज्ञान को भी भाव की 'टार्च' से देखा । उनका ऐसा देखना उमास्वाति के 'सम्यक्-दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग,' के अनुकूल ही था । दर्शन का प्रथम सन्निवेश भाव की प्राथमिकता को बताता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि भाव ने ज्ञान को देखा निरन्तर । ज्ञान के बिना भाव चैतन्यहीन होकर बालुका के कण-जैसा निस्पन्द रह जाता । ज्ञान के सतत प्रकाश ने भाव को जागृत रखा । दोनों एक-दूसरे के होकर जिये । इसी कारण बनारसी का काव्य ज्ञान-मूला भाव और भाव-मूला ज्ञान का प्रतीक है । अतः उनकी भक्ति कोरी भाव-मूला नही. अपित ज्ञान ममन्विता भी थी। उसे लोग भले ही ज्ञान-मूला भक्ति कहें । भाव-मार्गी उसे भक्ति मूलक ज्ञान भी कह सकते हैं । तात्पर्य है कि उनकी भक्ति में आत्म-ज्ञान का पुट मिला रहा । इसी कारण वह पुष्ट हुई, यह वात बनारसीदास के काव्य से स्पष्ट ही है । यदि भक्ति शांति की पर्यायवाची है तो प्रात्मज्ञान उसका सहचर है । दोनों का अविनाभावी संबंध है। इस सम्बन्ध से बनारसी की भक्ति में जैसा प्राकर्षण उत्पन्न हुआ, मध्यकालीन अन्य किसी हिन्दी कवि में नहीं । और इसी कारण उन्हें हिन्दी के भक्ति-साहित्य का मान स्तभ कहना चाहिए।
१. शारदाष्टक, ६ठा और हवा पद्य, बनारसीविलास, पृ० १६६-६७।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों
की शिक्षा-दीक्षा
कवि सधारु (वि० सं० १४११) ने अपने प्रद्युम्नचरित्र में लिखा है, "मैंने एरछ नगर में बस कर यह चरित्र सुना और मैं इस पुराण की रचना में समर्थ हो सका । जो कोई मनुष्य इसे पढ़ेगा वह स्वर्ग में देव होगा और वहाँ से चयकर मुक्ति रूपी स्त्री वरेगा । जो सुनेगे उनके भी अशुभ कर्म दूर हो जायेंगे।" इससे स्पष्ट है कि उस समय जैन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र जैन मन्दिरों में होने वाले शास्त्र-प्रवचन थे । इन प्रवचनों में ऐसे श्रोता भी पाते थे जो न पढना जानते थे और न लिखना, केवल श्रवण-मात्र से ही वे जैन सिद्धांत में नैपुण्य प्राप्त कर लेते थे । जो श्रोता पढ़े-लिखे होते थे, वे पण्डित ही बनते थे। पद्य-मय पुराणादि के सुनने से उनमें कवित्व शक्ति का भी उन्मेष होता था। सधारु ने भो ऐसे ही किसी शास्त्र-प्रवचन में प्रद्युम्न चरित्र सुना था।
श्वेताम्बर आचार्य होनहार बालकों को कम उम्र में ही दीक्षा देकर साधु बना लेते थे। साधु बालक की शिक्षा संघ में ही प्रारम्भ होती थी। वहाँ वह विद्वान् भी बनता था और संयम का आचरण भी करता था। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मेरुनन्दन उपाध्याय ने कम उम्र में ही. अपने गरु जिनोदय सरि से दीक्षा ली थी। जिनोदय सूरि भी केवल ८ वर्ष की उम्र में,जबकि वे समरा कहलाते थे, श्री जिनकुशल सूरि के पास दीक्षित हुए थे। सोमसुन्दर सूरि ने ७ वर्ष की ही वय में जयानन्द सूरि के पास दीक्षा धारण की थी। अपने-अपने गुरुनों के संघ में इन नव दीक्षित बाल साधुनों का अध्ययन चला । यह परम्परा ब्राह्मण आश्रमों की भांति थी, किन्तु अन्तर इतना ही था कि पाश्रम का विद्यार्थी २५ वर्ष के उपरान्त गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था, जबकि जैन दीक्षित बालक के लिए यह अवसर सदा-सर्वदा के लिए बन्द हो चुका रहता था।
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सूरियों में विद्वत्ता की परम्परा चली श्रा रही थी। वे स्वयं तो प्राकृतसंस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् होते ही थे, अपने शिष्यों को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करते थे । सोमसुन्दर का जन्म वि० सं० १४३० में हुआ था । उन्होंने १४३७ में साधु पद धारण किया और वि० सं० १४५० में वे एक ख्याति प्राप्त विद्वान् माने जाने लगे थे । वि० सं० १४५७ में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित होते ही उनका यश चतुर्दिक में व्याप्त हो उठा । अर्थात् उन्हें प्रकाण्ड विद्वान् बनने में २० वर्ष लगे । नन्दिरत्न गरिण आदि अनेक विद्वानों ने उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है । वे जो कुछ बने अपने गुरु और संघ में रहकर ही ।
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वह युग वाद-विवादों का था। राज दरबारों में उन्हीं का सन्मान होता था जो विजयी होते थे। सूरियों के शिष्यों की प्रतिष्ठा समूचे भारतवर्ष में थी । कहा जाता है कि उपाध्याय जयसागर के शिष्य सुर-गुरु को भी पराजित करने में समर्थ थे । यह उनको प्रखण्ड साधना के अनुकूल ही था। ये साधु-संघ में छोटेछोटे बालकों को अनवरत परिश्रम के साथ संयम और विद्या के क्षेत्र में अनुपम बना देते थे । आज समूचे विश्व की कोई शिक्षा संस्था ऐसा नहीं कर सकती । आज यदि कोई विद्वान् बन भी जाता है, तो या तो चरित्रहीन होता है या अहंकारी । आधुनिक चरित्र की परिभाषा केवल सभा-परिषदों की शिष्टता तक ही सीमित रह गई है। भारतीय शिक्षा संस्थानों में अनुशासनहीनता चरित्र की कृत्रिम परिभाषा स्वीकार कर लेने से हुई है । मध्यकाल के जैन साधु-संघों में अनुशासन की कोई समस्या नहीं थी । यद्यपि श्राश्रमों के रहने वाले शिष्य कभी-कभी विद्रोही भी हो जाते थे, जैसा कि 'भूलापारीय जातक' में लिखा है कि एक आश्रम के शिष्यों ने अध्यापकों की समानता का दावा करते हुए उनकी विनय करना त्याग दिया था । किन्तु जैन संघों के शिष्य विनय की मूर्ति ही होते थे । वहाँ एक ऐसा अनुशासन का वातावरण रहता था, जिसमें कोई शिष्य विरोधी विचार ला ही नहीं पाता था ।
कलियुग का प्रभाव विद्या केन्द्रों पर पड़ा था। गुरु के प्रति विद्यार्थी रोष दिखाते थे और अपने हठ पर ही चलते थे । हीरानन्द सूरि ने कलिकालरास का निर्मारण वि० सं० १४८६ में किया था । उसमें तत्कालीन विद्यार्थियों और विद्याकेन्द्रों की हीनदशा का वर्णन है। किन्तु उस समय भी जैन संघों के बाल साधु अत्यधिक विनय और श्रद्धा के साथ विद्या ग्रहरण में संलग्न थे । हीरानन्द सूरि जैसे चरित्र निष्ठ विद्वान् जिस संघ में बने थे, उसकी परम्परा पर कलियुग का प्रभाव नहीं था । हीरानन्द एक उत्कृष्ट कोटि के कवि भी थे। उन्होंने वस्तुपाल
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तेजपालराम, दशार्णभद्ररास, जम्मू स्वामी विवाहला और स्थूलभद्रबारहमासा का निर्माण किया था।
भट्टारक और उनके सम्प्रदाय भी शिक्षा के जीवन्त केन्द्र थे । वे अपने शिष्यों को सूरियों की भांति ही व्युत्पन्न बनाते थे। वे जैन दर्शन साहित्य मौर सिद्धांत के साथ-साथ अपने शिष्यों को मन्त्र, ज्योतिष और वैद्यक विद्या भी प्रदान करते थे। भट्टारक 'सकलकीर्ति संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने संस्कृत में १७ ग्रन्थ लिखे हैं । वे हिन्दी के सामर्थ्यवान् कवि थे। उन्होंने आराधना प्रतिबोषसार, णमोकारफलगीत,नेमीश्वरगीत,ौर मुक्तावलीगीत प्रादि भनेक मुक्तक कृतियों का निर्माण किया है । वे मन्त्र विद्या में पारंगत थे । सकलकीति के छोटे भाई ब्रह्मजिनदास ( वि० सं० १५२०) भी बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने हिन्दी में अनेक प्रबन्ध काव्यों का भी निर्माण किया है। उन्हें समूची शिक्षा-दीक्षा भट्टारक सकलकीत्ति से ही मिली । ब्रह्मजिनदास ने अपनी प्रत्येक रचना में अपने बड़े भाई को 'गुरु' भी कहा है । यह सच है कि भट्टारकों की शिष्य परम्परा अक्षुण्ण गति से चलती रही । उनका 'सरस्वती गच्छ' सरस्वती प्रदान करने में सदैव प्रसिद्ध रहा । उनके विद्यार्थी प्राध्यात्मिक चिन्तन और कवित्व शक्ति के केन्द्रीभूत प्रमाणित होते रहे हैं।
उस समय शिक्षा, दीक्षा और विद्या देने वाले गुरु पृथक-पृथक होते थे। दीक्षा वही दे सकता था जिसने विद्या और चरित्र को समान रूप से अपने जीवन में उतार लिया हो । उसे प्राचार्य कहते थे । सूरि और भट्टारक दोनों ही दीक्षा देने का कार्य करते थे । विद्या-गुरु को 'उपाध्याय' कहा जाता था । लघुराज को दीक्षा देने वाले थे श्री लक्ष्मीसागर सूरि (वि० सं० १५२६) और विद्या-गुरु थे श्री समयरत्न । दीक्षा के समय दीक्षागुरु नवदीक्षित को नया नाम देता था। लघुराज दीक्षा के बाद लावण्य समय कहलाये । दीक्षा के समय शिष्य की पात्रता की जांच की जाती थी। इस जांच के साधनों में ज्योतिष का प्रमुख स्थान था। मुनि समयरत्न ने लघुराज के जन्माक्षरों पर विचार करके ही कहा था कि तुम्हारा पुत्र तप का स्वामी होगा अथवा वह कोई तीर्थ करेगा। .
सूरियों और भट्टारकों में कवित्व शक्ति का होना भी गौरव का विषय माना जाता था। उनके संघों का वातावरण ऐसा होता था कि दीक्षित बालक यथा समय स्वतः कविता कर उठता था। थोड़ा-बहुत प्रयत्न भी अवश्य ही किया जाता होगा । लावण्यसमय ने एक स्थान पर लिखा है, "सोलहवें वर्ष में मुझ पर
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सरस्वती की कृपा हुई और कवित्व शक्ति का जन्म हुआ ।” संवेगसुन्दर उपाध्याय ( वि० सं० १५४८) भी ऐसे ही एक कवि थे । उनमें कवित्व शक्ति का जन्म गुरु के सान्निध्य से हुआ था । इनकी कवित्व शक्ति को स्फुरण देने के लिए प्रयत्न भले ही हुआ हो, किन्तु वे 'कृच्छ प्रयत्न-साध्य' नहीं थे, ऐसा उनकी कविता से प्रमाणित ही है ।
मन्त्र विद्या का शिक्षण सूरिसंघ भोर भट्टारक सम्प्रदाय की विशेषता थी । यह विद्या १६ वर्ष से कम के विद्यार्थी को नहीं दी जाती थी । ईश्वर सूरि ( वि० सं० १५६१ ) ने नाडलाई के मन्दिर की आदिनाथ की प्रतिमा का मन्त्र के बल पर ही उद्धार किया था । यह वह प्रतिमा थी, जिसे यशोभद्रसूरि ( वि० सं० ६६४ में ) मन्त्र शक्ति के बल पर लाये थे । भट्टारक ज्ञानभूषरण को जो असीम ख्याति प्राप्त हुई थी, उसका कारण विद्वत्ता और कवित्व शक्ति के साथ मन्त्र शक्ति भी थी। उन्हें ये तीनों शक्तियाँ अपने गुरु भुवनकीर्ति से प्राप्त हुई थीं। इनके आधार पर ही राजाधिराज देवराज ने उनके चरणों की प्राराधना की थी । भट्टारक शुभचन्द्र भी इसी परम्परा में हुए हैं। उन्हें तो 'त्रिविध विद्याधर' और 'षटभाषा कवि चक्रवर्ती' कहा जाता है । वे भी मन्त्रविशारद थे। दोनों उपर्युक्त भट्टारकों की गणना हिन्दी के उत्तम कवियों में की जाती है । इन विद्वानो के निर्माण का श्रेय गुरु को तो है ही, किन्तु संघों के उस वातावरण को भी है, जिसके निर्माण में परम्पराएँ खप गई होंगी । विद्यार्थी को प्रेरणा मिलती थी और वह अधिकाधिक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता ही
जाता था ।
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विद्वानों की विद्या प्राप्ति में राजाओ के हस्तलिखित संग्रहालयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । उन्होंने इन संग्रहालयों में बैठकर विद्याध्ययन किया और नवीन कृतियो का निर्माण भी किया। कहा जाता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपना प्रसिद्ध शोध ग्रन्थ 'समयसार' एक राजपुस्तकालय में ही बैठकर पूरा किया था | हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि विनयचन्द्र मुनि (वि० सं० १५७६) ने अपना ख्याति प्राप्त काव्य 'चूनड़ी' गिरिपुर के नरेश अजयराज के राजविहार में बंठकर लिखा था ।
हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह राजपुस्तकालयों के अतिरिक्त प्रत्येक जैन मन्दिर के सरस्वती भण्डारों में भी रहता था । आज भी जैन मन्दिर सरस्वती भण्डारों के बिना अधूरे ही माने जाते हैं । उस समय बड़े-बड़े नगरों के प्रमुख मन्दिरों के सरस्वती भण्डार ऐसे हस्तलिखित ग्रन्थों से भरे रहते थे । उनसे
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जनसाधारण तो लाभान्वित होता ही था, विद्वान् भीर मुनियों की खोजें भी उन्हीं पर आधारित थीं । कवि ठकुरसी ने चम्पावती के पार्श्व जिन मन्दिर में बैठकर ही अनेक काव्यों का निर्माण किया था। चम्पावती धन-धान्य से पूर्ण नगरी थी । उसके वैभव का वर्णन 'अन्तगडदसाथों में किया गया है । वहाँ का जैन साध्वी विद्यालय प्रसिद्ध था । इसी विद्यालय में महाराज श्रेणिक की पत्नी काली और सुकाली ने जिन दीक्षा लेकर अध्ययन किया था । इसकी प्राचार्या 'अज्जा - चन्दना' थी । ब्रह्म श्रजित ( १६ वीं शती) ने भडौंच के जैन मन्दिर के सरस्वती भण्डार में रहकर ही संस्कृत में 'हनुमच्चरित्र' की रचना की थी । इसमें २००० श्लोक हैं । भडौंच भी व्यापारिक केन्द्र होने के कारण एक समृद्धिशाली नगर था । इसी भाँति कुशललाभ ( वि० स० १६१६) ने जैसलमेर के रावल हरराज के प्रसिद्ध जैन मन्दिर में बैठकर 'पूज्यबाहणगीतम्' श्रादि भक्ति परक मुक्तक काव्यों का निर्माण किया था । जैसलमेर भारत का प्रमुख शिक्षा केन्द्र था ।
afa बनारसीदास के 'अर्धकथानक' से स्पष्ट है कि उस समय जौनपुर जैसे समृद्धिशाली नगर में भी कोई विशाल जैन विद्यालय नहीं था । उनके पिता खड्गसेन ने एक चटशाला में शिक्षा पाई थी । बनारसीदास भी उसी में पढ़े थे । उसके मुख्य विषय अक्षर ज्ञान और गणित थे । और अधिक शिक्षा लेने के लिए बनारसीदास को पं० देवदत्त के पास भेजा गया। इन पंडितो के घर हायर सेकेण्डरी स्कूल का काम करते थे । प० देवदत्त के गृह स्कूल के मुख्य विषय कोष, ज्योतिष, साहित्य और धर्म के साथ-साथ कोकशास्त्र भी था । इससे प्रतीत होता है कि अनिवार्य विषयों मे कोकणास्त्र की गणना थी। इसके अध्ययन से बालक मानव की मूल और प्रमुख मनोवृत्ति को सही रूप में समझ पाता था । बनारसीदास प्रासिखबाज बने थे, वह कोकशास्त्र का नहीं, अपितु उनकी संगति का प्रभाव था । किसी भी विषय की सही जानकारी, जीवन को सही मोड़ देती है, गलत नही ।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि पं० देवदत्त की शिक्षा भी कॉलिज स्तर की नहीं थी । बनारसीदास को पंडित बनाने का श्रेय उस 'सैली' को है, जिसके वे स्थायी सदस्य थे । 'सैली' का अर्थ है 'गोष्ठी' । प्रागरे में एक ऐसी गोष्ठी थी, जिसमें निरन्तर प्राध्यात्मिक चर्चा हुआ करती थी । इस चर्चा को सुष्ठु रूप देने के लए, गोष्ठी के सदस्य अपने व्यापारिक कृत्यों को छोड़कर भी अध्यात्म संबंधी ग्रन्थों का अध्ययन करते थे । बनारसीदास और उनके साथियों ने पहले समयसार
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की राजमल्लीय टीका पढ़ी और उससे वे कुपथगामी हो गये। जब पाण्डे रूपचन्द्र जी वहाँ पाये तो उनसे गोम्मटसार पढ़ने के उपरान्त उनका ज्ञान निर्मल हुमा। बनारसीदास ने इस गोष्ठी में पढ़ा, सुना और मनन किया । परिणामस्वरूप वे पंडित बन गये । कवित्व शक्ति तो उन्हें जन्म से ही मिली थी। इस पाण्डित्य के समन्वय से उनकी रचनाएँ 'भावसंकुल ज्ञान' की प्रतीक हैं।
यह 'सली' प्रागे चलकर 'वारणारसिया सम्प्रदाय' के नाम से अभिख्यात हुई । इस सम्प्रदाय की विशेषता थी आध्यात्मिक कविता । बनारसीदास के उपरान्त कुपरपाल प्रमुख व्यक्ति थे, जिन्होंने इस प्राध्यात्मिक परम्परा को विकसित किया । महामहोपाध्याय मेघविजय जी ने अपने 'युक्ति प्रबोध' में, उनकी चतुर्दिक में व्याप्त ख्याति को स्वीकार किया है। कुपरपाल की प्रेरणा से ही हेमराज ने 'सितपट चौरासी बोल' की रचना की थी। जगजीवन भी इस 'सैली' के गण्यमान्य व्यक्ति थे। उनके प्रोत्साहन से हेमराज ने पंचास्तिकाय की भाषा टीका लिखी थी। आगे चलकर वि० सं० १७८१ में भधरदास भी इसी सम्प्रदाय के सदस्य बने । उन्होंने आध्यात्मिक चर्चा में रस लिया और प्रसाद गुण युक्त कविता भी रची । मनराम को तो बनारसीदास का सान्निध्य प्राप्त हुआ था । 'मनराम विलास' में भाव-गर्भित आध्यात्मिकता ही अभिव्यजित हुई है।
कवि द्यानतराय (वि० सं० १७३३) के समय में प्रागरे में पं० मानसिंह और बिहारीदास की 'सैली' चलती थी । मानसिंह की 'सैली' से प्रभावित होकर द्यानतराय की जैन धर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा हुई थी। उस समय दिल्ली में पं० सखानन्द की सैली मान्य थी। दिल्ली आने पर कवि द्यानतराय इस सैली के सदस्य बन गये थे । यद्यपि द्यानतराय की पूजाओं और प्रारतियों में भक्ति का स्वर ही प्रबल है, किन्त उनके पद प्राध्यात्मिकता के प्रतीक हैं । आध्यात्मिकता से युक्त होते हुए भी ऐसे सरस पदों की रचना हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका। हिन्दी के इस महत्वपूर्ण योगदान का श्रेय पं० मानसिह और पं० सुखानन्द की सैलियों को दिया जाना चाहिए । जयपुर, सांगानेर और बीकानेर में भी ऐसी ही सैलियाँ थीं। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि लक्ष्मीचन्द्र सांगानेर की 'सैलो' में व्युत्पन्न बने थे।
सैलियों के अतिरिक्त कहीं-कहीं उच्च जैन शिक्षा देने के लिए विद्यालय भी थे। प्राचीनकाल में तो ऐसे विद्यालय चम्पा, राजगृह, वैशाली, हस्तिनापुर, बनारस और श्रावस्ती आदि अनेक नगरों में फैले हुए थे, किन्तु मध्यकाल तक आते-आते उनका नितान्त अभाव हो गया था । बनारस-जैसे एक दो स्थानों पर
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ही शिष्ट रह गए थे। पांडे रूपचन्द्र को जैन दर्शन का अध्ययन करने के लिए बनारस भेजा गया था । वहाँ रहकर उन्होंने क्षेत्र व्याकरया, साहित्य और दर्शन में विचक्षणता प्राप्त की थी । बनारसीदास की शुद्ध प्राध्यात्मिक चेतना पांडे रूपचन्द की ही देन है। श्वेताम्बर विद्वान् यशोविजय जी उपाध्याय, जिन्होंने हिन्दी में 'जस विलास' का निर्माण किया था, एक गृहस्थ से पुरस्कार-स्वरूपं धन पाकर बनारस गये और वहाँ तीन वर्ष तक विविध दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन करते रहे । विनयविजय जी को भी गम्भीर विद्वत्ता बनारस में अध्ययन करने से ही प्राप्त हुई थी। विनय विजय ने 'विनय विलास' की हिन्दी में रचना की थी। वह एक प्रसिद्ध कृति है ।
मध्यकालीन जैन हिन्दी के कवियों को उर्दू और फारसी का भी अच्छा ज्ञान था । विशेषकर उन कवियों को जो दिल्ली और धारा की श्चोर के रहने वाले थे । 'भैय्या' भगवतीदास के 'ब्रह्मविलास' में अनेक ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें उर्दू-फारसी के शब्दों की बहुलता है । कवि बनारसीदास ने जौनपुर के नवाब के बड़े बेटे किलिच को संस्कृत उर्दू-फारसी के माध्यम से ही पढ़ाई थी । द्यानतराय के पदों में उर्दू के शब्द बिखरे हुए हैं। विनोदीलालजी का 'नेमजी का रेखता' फारसी मिश्रित उर्दू में लिखा गया है ।
इन कवियों को उर्दू-फारसी का ज्ञान दो प्रकार से मिला था - एक तो मकतब और मदरसों से, दूसरे उस्तादों और मौलवियों से, जो बहुत कम रुपयों पर घर पढ़ाने चले जाते थे । इतिहास की किताबों में भले ही औरंगजेब को संकीर्ण विचारों का बताया गया हो, किन्तु यह सच है कि उसने मदरसों और मकतबों का जाल-सा बिछा दिया था। उसके द्वारा शिक्षा प्रणाली में भी पर्याप्त सुधार किया गया । इसके लिए जैन कवियों ने औरंगजेब की प्रशंसा की है । प्रसिद्ध कवि रामचन्द्र और जगतराम ने उसके शासन को सख-चैन से भरा तथा न्यायपूर्ण बतलाया है ।
उस समय मकतब तो नितांत राज्य की भोर से ही संचालित होते थे, किन्तु मदरसों में अधिकांश ऐसे थे, जो धनवंतों के सहयोग पर निर्भर थे । जैन श्रीमन्तों ने इन मदरसों को सबसे अधिक दान दिया था । अकबर ने तो मदरसों के अतिरिक्त हिन्दू विद्यार्थियों के लिए अनेक विद्यालयों की भी स्थापना की थी । इनमें हिन्दू, जैन और बौद्ध साहित्य और दर्शन का अध्ययन होता था । अकबर ने मागरा में एक विशाल पुस्तकालय की भी स्थापना की थी। उसमें जैन धर्म के ग्रन्थों का अच्छा संचय था । सम्राट अकबर ने वि० सं० १६३८ में श्री हीर
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विजा सूरि को इस पुस्तकालय के जैन धर्म सम्बन्धी अन्य दिलायें । श्री हीर विजइ सूरि की विद्वत्ता से प्रभावित होकर सम्राट ने उन्हें 'गुरु' की उपाधि से विभूषित किया था।
उपर्युक्त विवेचन से प्रमाणित है कि जैन हिन्दी कवियों की शिक्षा पाठशालानों, मकतबों, मदरसों, सैलियों, भट्टारक सम्प्रदायों, मुनि संघों और व्यक्तिगत गुरुषों के सान्निध्य में हुई थी । अधिकांश जैन कवि विद्वान् थे और सहृदय भी । उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का कुछ ऐसा वातावरण मिला जिससे एक ओर तो वे कर्कश तर्क और दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन कर सके और दूसरी ओर कविता की सरस प्रस्विनी प्रवाहित करने में भी समर्थ हो सके। प्राध्यात्मिक अनुभूतियों का जैसा भावोन्मेष जैन कवियों के काव्य में दृष्टिगोचर होता है, अन्यत्र नहीं । प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार नाम के जटिल ग्रन्थ को साहित्यक रूप देना बनारसीदास की कवि सामर्थ्य का द्योतक है । पाण्डे रूपचन्द्र गोम्मटसार जैसे शुष्क ग्रंथ के विशेषज्ञ थे । उन्होंने परमार्थी दोहाशतक, गीत परमार्थी, मंगलगीत, नेमिनाथ रासा, खटोलनागीत आदि रस-विभोर बना देने 'वाले मुक्तक काव्यों का भी निर्माण किया । यशोविजय और विनय विजय ने प्राकृत और संस्कृत में प्रताधिक सैद्धान्तिक ग्रन्थों की रचना की । वे दोनों मुजराती और हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि भी माने जाते हैं । सरस्वती गच्छ बलात्कारगरण की परम्परा में होने वाले भट्टारक सकलकीर्ति, ज्ञानभूषण और शुभचन्द्र आदि की विद्वत्ता और माध्यात्मिक कविता दोनों ही में समान गति थी।
परम्पराअों ने वातावरण बनाया था और वातावरण विद्वान् और कवि दोनों को एक साथ जन्म देने में समर्थ हो सका।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों की
प्रेम साधना
भक्तिरस का स्थायी-भाव भगवद्विषयक अनुराग है । इसी को शाण्डिल्य ने 'परानुरक्तिःकहा है। परानुरक्तिः गम्भीर अनुराग को कहते हैं । गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है। चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढ़े हो जाने को ही प्रेम कहा है। भक्ति रसामृत सिन्धु' में लिखा है, "सम्यक मसृणित स्वान्तो ममत्वातिशयोक्तिः भावः स एव सान्द्रात्मा बुषः प्रेम निगद्यते ।"
प्रेम दो प्रकार का होता है-लौकिक और अलौकिक । भगवद्विषयक अनुराग अलौकिक प्रेम के अन्तर्गत माता है । यद्यपि भगवान् का प्रौतार मान कर उसके प्रति लौकिक प्रेम का भी प्रारोपण किया जाता है, किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्व सदैव छिपा रहता है । इस प्रेम में समूचा पात्मसमर्पण होता है और प्रेम के प्रत्यागमन की भावना नहीं रहती। अलौकिक प्रेम जन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षरण होती है कि दूध भाव ही मृत हो जाता है । फिर प्रेम में प्रतीकार का भाव कहाँ रह सकता है।
नारियां प्रेम की प्रतीक होती हैं। उनका हृदय एक ऐसा कोमल और सरस थाला है, जिसमें प्रेम भाव को लहलहाने में देर नहीं लगती । इसी कारण भक्त भी कांताभाव से भगवान् की पाराधना करने में अपना अहोभाग्य समझता
१.शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, ११२, पृ०१ २. चैतन्यचरितामृत, कल्याण, भक्ति ग्रंक, बर्ष ३२, अंक १, पृ० ३३३ ३. श्री रूपगोस्वामी, हरिभक्तिरसामृतसिन्धु, पोस्वामी दामोदर-सम्पादित, अच्युत ग्रन्थ
माला कार्यालय, काशी, वि.सं. १९८८, प्रथम संस्करण, १।४।१
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है। भक्त 'तिया' बनता है और भगवान 'पिय' यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियों की रचनाओं में भी होता है। बनारसीदास ने अपने 'अध्यात्मगीत' में मात्मा को नायक और 'सुमति' को उसकी पत्नी बनाया है। पत्नी पति के वियोग में इस भांति तड़प रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नाम की सखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह मग्न हो जाऊँगी, जैसे बंद दरिया में समा जाती है। मैं अपनपा खोकर पिय सूमिलगी, जैसे प्रोला गलकर पानी हो जाता है। अन्त में पति तो उसे अपने घर में ही मिल गया। और वह उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गई कि द्विविधा तो रही ही नहीं। उसके एकत्व को कवि ने अनेक सुन्दर-सुन्दर दृष्टान्तों से पुष्ट किया है। वह करतूति है और पिय कर्ता, वह सुख-सीव है और पिय सुख-सागर, वह शिवनींव है और पिय शिवमन्दिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है और पति शंकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र ।।
१. मैं विरहिन पिय के प्राधीन,
त्यो तलफों ज्यों जल बिन मीन । होहुँ मगन मैं दरशन पाय,
ज्यौं दरिया में बूद समाय । पिय सों मिलों अपनपो खोय, प्रोला गल पाणी ज्यों होय ।
अध्यात्मगीत, बनारसी विलास, पृ० १५६-६० । २ . पिय मोरे घट मैं पिय माहिं ।
जल तरग ज्यों दुविधा नाहिं । पिय मो करता मैं करतूति ।
पिय ज्ञानी में ज्ञान विभूति । पिय सुखसागर में सुख सींब,
पिय शिवमन्दिर में शिवनींव । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम,
पिय माधव मो कमला नाम । पिय शंकर में देवि मवानि, पिय जिनवर मैं केवलवानि ।।
अध्यात्मगीत, बनारसी विलास, पृ० १६१ ।
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कवि ने सुमति रानी को 'राधिका' माना है । उसका सौंदर्य और चातुर्य सब कुछ राधा के ही समान हैं। वह रूप-सी रसीली है और भ्रम रूपी ताले को खोलने के लिए कीली के समान है। ज्ञान मानु को जन्म देने के लिए प्राची है और मात्म स्थल में रहने वाली सच्ची विभूति है । अपने धाम की खबरदार और राम की रमनहार है । ऐसी सन्तों की मान्य, रस के पंथ मीर ग्रन्थों में प्रतिष्ठित और शोभा की प्रतीक राधिका सुमति रानी है ।"
सुमति प्रपने पति 'चेतन' से प्रेम करती है। उसे अपने पति के अनन्त ज्ञान, बल और वीर्य वाले पहलू पर एक निष्ठा है । किन्तु वह कर्मों की कुसंगत में पड़कर भटक गया है, अतः बड़े ही मिठास भरे प्रेम से दुलारते हुए सुमति कहती है, "हे लाल ! तुम किसके साथ और कहाँ लगे फिरते हो । प्राज तुम ज्ञान के महल में क्यों नहीं प्राते । तुम अपने हृदय तल में ज्ञान दृष्टि खोलकर देखो, दया, क्षमा, समता और शाँति-जैसी सुन्दर रमणियाँ तुम्हारी सेवा में खड़ी हुई हैं। एक-से-एक अनुपम रूप वाली हैं। ऐसे मनोरम वातावरण को भूलकर और कहीं न जाइये । यह मेरी सहज प्रार्थना है । "
बहुत दिन बाहर भटकने के बाद चेतन राजा भाज घर मा रहा है । सुमति के प्रानन्द का कोई ठिकाना नहीं है। वर्षों की प्रतीक्षा के बाद पिय के
१. रूप की रसीली भ्रम कुलप की कीली, शील सुधा के समुद्र झील सीलि सुखदाई है । प्राची ज्ञान मान की प्रजाची है निदान की, सुराबी निरवाची ठोर सांची ठकुराई है। धाम की खबरदार राम की रमनहार, राधा रसपंथनि में ग्रन्थनि मे गाई है । सन्तन की मानी निरवानी रूप की निसानी, यातं सुबुद्धिरानी राधिका कहाई है ।। नाटक समयसार, प्राचीन हिन्दी जैन कवि, दमोह, पृ० ७९ ।
२. कहां-कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल,
श्रावो वयो न श्राज तुम ज्ञान के महल में । कहू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेसी । कैसी-कैसी नीकी नारि ठाढ़ी हैं टहल में । एक-तें - एक बनी सुन्दर सु.रूप. धनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल में 1 ऐसी विधि पाय कहूँ भूलि श्रौर काज कीजे, बीनती सहल में ।
एतो कह्यो मान लीजं
ब्रह्मविलास, मैया भगवतीदास, बम्बई, द्वितीया वृत्ति, सन् १९२६ ई०, शत प्रष्टोत्तरी, पद्म २७, पृ० १४ ।
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प्रागमन की बात सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी । सुमति पाल्हादित होकर अपनी सखी से कहती है, "हे सखी देखो माज चेतन घर पा रहा है। यह अनादि काल तक दूसरों के वश में होकर घूमता फिरा, अब उसने हमारी सुष बी है। अब तो वह भगवान जिन की माज्ञा को मानकर परमानन्द के गुण गाता है। उसके जन्म-जन्म के पाप भी पलायन कर गये हैं। अब तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे उसे संसार में फिर नहीं माना पड़ेगा । अब वह अपने मन भाये परम अखंडित सुख का विलास करेगा।'
पति को देखते ही पत्नी के अन्दर से परायेपन का भाव दूर हो जाता है। वैध हट जाता है और अवैध उत्पन्न हो जाता है। ऐसा ही एक भाव बनारसीदाम ने उपस्थित किया है । सुमति चेतन से कहती है, "हे प्यारे चेतन ! तेरी और देखते ही परायेपन की गगरी फूट गई । दुविधा का अंचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गई। कुछ समय पूर्व तुम्हारी याद पाते ही मैं तुम्हें खोजने के लिए अकेली ही राज पथ को छोड़कर भयावह कान्तार में घुस पड़ी थी। वहाँ काया नगरी के भीतर तुम अनन्त बल और ज्योति वाले होते हुए भी कर्मों के प्रावरण में लिपटे पड़े थे । अब तो तुम्हें मोह की नोंद छोड़कर सावधान हो जाना चाहिए।'
१. देखो मेरी सखीये प्राज चेतन घर पावे।
काल अनादि फिर्यो परवश ही, अब निज सुधहि चिताव, देखो । जनम-जनम के पाप किये जे, छिन मांहि बहावै । श्री जिन आज्ञा सिर पर घरतो, परमानन्द गुण गावै ।। देत जलांजुलि जगत फिरन को, ऐसी जुगति बनावै । विलस सुख निज परम प्रखण्डित, भैया सब मन भावं ।।
देखिये वही, परमार्थ पद पक्ति, १४ वा पद, पृ० ११४ । २. बालम तुहूं तन चितवन गागरि फूटि ।
अचरा गो फहराय सरम में छूटि, बालम० ।। पिउ सुधि पावत बन में पेसिउ पेलि । छाड़त राज डगरिया भयउ मकेलि, बालम। काय नगरिया भीतर चेतन भूप, करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम० ।। चेतन बूझि विचार धरहु संतोष । राग-दोष दुइ बन्धन छाटत मोष, बालम० ॥
बनारसी विलास, अध्यात्मपद पंक्ति, पृ० २२८-२९ ।
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. : एक सखि सुमति को लेकर, नायक बैतम के पास मिलाने के लिए गई। पहले दूतियाँ ऐसा किया करती थीं । वहाँ कह सखी अपनी बाबासमति की प्रशंसा करते हुए बेतन से कहती है, हे लालन ! मैं अमोलक बाल लाई है। तुम देखो तो वह कैसी अनुपम सुन्दरी है। ऐसी नारी तो संसार में दूसरी नहीं है। और हे चेतन ! इसकी प्रीति भी तुमसे ही सनी हुई है । तुम्हारी और इस राधे की एक दूसरे पर अनन्त रीझ है । उसका वर्णन करने में मैं पूर्ण असमर्थ हूँ।'
प्राध्यास्मिक विवाह इसी प्रेम के प्रसंग में आध्यात्मिक विवाहों को लिया जा सकता है। ये 'विवाहला', 'विवाह', 'विवाहलउ', और 'विवाहली आदि के नाम से अभिहित हुए हैं । इनको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-एक तो वह जब दीक्षा ग्रहण के समय प्राचार्य का दीक्षाकुमारी अथवा संयमश्री के साथ विवाह सम्पन्न होता है, और दूसरा वह जब प्रात्मा रूपी नायक के साथ उसी के किसी गुण रूपी कुमारी की गांठे जुड़ती हैं। इनमें प्रथम प्रकार के विवाहों का वर्णन करने वाले कई रास 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में संकलित हैं । दूसरे प्रकार के विवाहों में सबसे प्राचीन 'जिनप्रभसूरि' का 'अंतरंग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। उपर्युक्त सुमति और चेतन दूसरे प्रकार के पति और पत्नी हैं । इसी के अन्तर्गत वह दृश्य भी आता है, जबकि आत्मा रूपी नायक 'शिवरमरणो' के साथ विवाह करने जाता है । अजयराज पाटणी के 'शिवरमणी विवाह' का उल्लेख हो चुका है। वह १७ पद्यों का एक सुन्दर रूपक काव्य है। उन्होंने 'जिन जी की रसोई में तो विवाहोपरांत सुस्वादु भोजन और वन-विहार का भी उल्लेख किया है ।।
बनारसीदास ने तीर्थंकर शांतिनाथ का शिवरमणी से विवाह दिखाया है। शांतिनाथ विवाह मंडप में आने वाले हैं । होने वाली बधू की उत्सुकता
१. लाई हों लालन बाल अमोलंक, देखहु तो तुम कैसी बनी है।
ऐसी कहुँ तिहुँ लोक में सुन्दर, और न नारि अनेक धनी है। याहि तें तोहि कहूँ नित चेतन, याहू की प्रीति जु तो सौ सनी है। तेरी और राधे की रीझि अनंत जु, मो पै कहुँ यह जात गनी है ।।
ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोत्तरी, २८ को पद्य, पृ. १४ । २. देखिये 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि', भारतीय शानपीठ काशी, बठा अध्याय,
पृष्ठ ६५६ ।
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crete नहीं दबती । वह अभी से उनको अपना पति मान बैठी है । वह अपनी संखी से कहती है, "हे सखी ! आज का दिन अत्यधिक मनोहर है, किन्तु मेरा मन भाया अभी तक नहीं भाया । वह मेरा पति सुख-कन्द है औौर चन्द्र के समान देह को धारण करने वाला है। तभी तो मेरा मन - उदधि प्रानन्द से प्रान्दोलित हो उठा है और इसी कारण मेरे नेत्र-चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं । उसकी सुहावनी ज्योति की कीर्ति संसार में फैली हुई है। उनकी वारगी से प्रमृत भरता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए ।" "
तीर्थंकर श्रथवा श्राचार्यों के संयम श्री के साथ विवाह होने के वर्णन तो बहुत अधिक हैं । उनमें से ' जिनेश्वर सूरि और जिनोदय सूरि विवाहला' एक सुन्दर काव्य है । इसमें इन सूरियों का संयमश्री के साथ विवाह होने का वर्णन है । इसकी रचना वि० सं० १३३१ में हुई थी । हिन्दी के कवि कुमुदचन्द्र का 'ऋषभनाथ का प्रादीश्वर विवाहला' भी बहुत ही प्रसिद्ध है । विवाह के समय भगवान् ने जिस चुनड़ी को प्रोढ़ा था, वैसी चूनड़ी छपाने के लिए न जाने कितनी पत्नियाँ अपने पतियों से प्रार्थना करती रही हैं । १६ वीं शती के विनयचन्द्र की 'चूनड़ी' हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध रचना है । साधुकीर्ति की चूनड़ी में तो संगीता त्मक प्रवाह भी है।
तीर्थंकर नेमीश्वर और राजुल का प्रेम
नेमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर जैन हिन्दी के भक्त कवि दाम्पत्य भाव प्रकट करते रहे हैं। राजशेखर सूरि ने विवाह के लिए राजुल को ऐसा सजाया है कि उसमें मृदुल काव्यत्व ही साक्षात् हो उठा है। किन्तु वह वैसी ही उपास्य बुद्धि से संचालित है, जैसे राधासुधानिधि में राधा का सौदर्य । राजुल की शील-सनी शोभा में कुछ ऐसी बात है कि उससे पवित्रता को प्रेरणा मिलती है, वासना को नहीं । विवाह मंडप में विराजी वधू जिसके आने की प्रतीक्षा कर
१. सहि एरी ! दिन आज सुहाया मुझ माया आया नही घरे ! सहि एरी ! मन उदधि प्रनंदा सुख-कन्दा चन्दा देह धरे । चन्द जिवां मेरा बल्लभ सोहे, नंन चकोरहि सुक्ख करे । जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमिर वितान हरे । सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग का लांछन कहिये । श्री शांति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, भाज मिला मेरी सहिये । शांति जिन स्तुति, पद्य १, पृ० १५६ ।
बनारसी विलास, श्री
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रही थी, बहु मूक. पामों के करुण कन्दन से प्रभावित होकर लौट गया। उस समय वधू की तिलमिलाहट और पति को पा लेने की बेचैनी का जो चित्र हेमविजय ने खींचा है, दूसरा नहीं खींच सका । हर्षकीर्ति- का 'नेमिनाथ राजुलगीत' भी एक सुन्दर रचना है। इसमें भी नेमिनाथ को पा लेने की बेचैनी है, किन्तु वैसी मरस नहीं जैसी कि हेमविजय वे अंकित की है।
कवि भूधरदास ने नेमीश्वर मौर राजुल को लेकर भनेक पदों का निर्माण किया है । एक स्थान पर राजुल ने अपनी मां से प्रार्थना की, "हे मां! देर न करो मुझे शीघ्र ही वहाँ भेज दो, जहाँ हमारा प्यारा पति रहता है । यहाँ तो मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, चारों पोर अंधेरा-ही-अवेरा दिखाई देता है । न जाने नेमि-रूपी दिवाकर का मुख कब दिखाई पड़ेगा। उनके बिना हमारा हृदय रूपी अरविन्द मुरझाया पड़ा है ।" पिय मिलन की ऐसी विकट चाह है, जिसके कारण लड़की मां से प्रार्थना करते हुए भी नहीं लजाती । लौकिक प्रेम-प्रसंग में लज्जा पाती है, क्योंकि उसमें काम की प्रधानता होती है, किन्तु यहाँ तो प्रलोकिक पौर दिव्य प्रेम की बात है । मलौकिक तल्लीनता में व्यावहारिक उचितअनुचित का ध्यान नहीं रहता।
राजुल के वियोग में 'सम्वेदना' की प्रधानता है । भूधरदास ने राषुल के अन्तःस्थ विरह को सहज स्वाभाविक ढंग से अभिव्यक्त किया है। राजूल अपनी सखी से कहती है, "हे सखि ! मुझे वहाँ ले चल, जहाँ प्यारे जादोपति रहते हैं । नेमि-रूपी चन्द्र के बिना यह प्राकाश का चन्द्र मेरे सब तन-मन को जला रहा है। उसकी किरण नाविक के तीर की भाँति अग्नि के स्फलिगों को बरसाती है। रात्रि के तारे तो अंगारे ही हो रहे है। कहीं-कहीं गजुल के विरह में
१. मां विलम्ब न लाब पठाव वहाँ री, जहाँ जगपति पिय प्यारो।
और न मोहि सुहाय कछू मब, दीसे जगत पंधारो री॥ मैं श्री नेमि दिवाकर की प्रब, देखौं बदन उजारो। बिन पिय देखें मुरझाय रह यो है, उर भरबिन्द हमारो री ।।
भूधरविलास, भूधरदास, कलकत्ता, १३ वा पद, पृ०६। १. तहाँ ले चल री जहाँ जादौपति प्यारो। ..
नेमि निशाकर दिन यह चन्दा, तन-मन दहत सकल री॥तहाँ।। किरन किकों नाविक-शर-तति के ज्यों पावक की झलरी। तारे हैं चंगारे सजनी, रजनी राकस दल री ॥तही। वही, ४५ वा पद, पृ. २५ ।
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'कहा' के दर्शन होते हैं, किन्तु उसमें नायिका के 'पेंडुलम होजाने की बात नहीं आ पाई है । यद्यपि राजुल की 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ उसके समीप नहीं ले जाया जा सकता, किन्तु ऐसा नहीं कि उसकी गर्मी से जड़काले में लुपे चलने लगी हों । राजुल अपनी सखी से कहती है. "नेमिकुमार के बिन जिय रहता नही है । हे सखी! देख मेरा हृदय कैसा तप रहा है। तू अपने हाथ को निकट लाकर देखती क्यों नहीं । मेरी बिरह जन्म उष्णता कपूर और कमल के पत्तों से दूर नहीं होगी । उनको दूर हटादे। मुझे तो 'सियरा कलाघर' भी 'करूर' लगता है । प्रियतम प्रभु नेमिकुमार के बिना मेरा हियरा' शीतल नहीं हो सकता 1"" प्रिय के वियोग में राजुल भी पीली पड़ गई । किन्तु ऐसा नहीं चिदित हुआ कि उसके शरीर में एक तोला मांस भी न रहा हो । विरह से भरी नदी में उसका हृदय भी बहा है, किन्तु उसकी आंखों से खून के धांसू कभी नहीं ढुलके । हरी तो वह भी भर्त्ता से भेंट कर ही होगी किन्तु उसके हाड़ सूख कर सारंगी कभी नहीं बने । २
बारह मासा
नेमीश्वर और राजुल को लेकर जैन हिन्दी साहित्य में बारहमासों की भी रचना हुई है । उन सब में कवि विनोदीलाल का 'बारहमासा' उत्तम है । प्रिया को प्रिय के सुख के निश्चय की प्राशंका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुख से रह रहा हो। तीर्थंकर नेमीश्वर वीतरागी होकर निराकुलता पूर्वक गिरिनार पर तप कर रहे हैं । किन्तु राजुल को शंका है, जब सावन में घनघोर घटायें जुड़ ग्रायेंगी चारों ओर से मोर शोर करेंगे, कोकिल कुहुक सुनावेगी, दामिनी दमकेगी और
१. नेमि बिना न रहे मेरो जियरा । हेर री हेंली तपत उर कैसी. लावत क्यों निजं हाथ न नियरा ।। करि करि दूर कमल-दल, लगत करूर कलांवर सियरा ॥ 'मूघर के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल हीय न राजुल हियरा ॥
वही, २० व चंद, पृ० १२ । २ . देखिये वही, १४ वाँ' पद, पृ० ६ और मिलाइये जायसी के नागमती विस्तृ-वन से ।
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पुरमई चोंगे. वो बमुख पूर्वक कप न कर सकेंगे ..पोल के सपने पर को रामुल की चिन्ता और भी बढ़ गई है। उसे विश्वास है कि पति कर पाय बिता रजाई के नहीं करेगा। फ्तों की धुवनी से तो काम चलेगा नहीं। उस पर भी काम को फोनें इसी ऋतु में निकलती हैं, कोमलगात के नेमीश्वर उससे लड़न सकेंगे । वैशाख की गर्मी को देखकर राजुल और भी अधिक व्याकुल है. क्योंकि इस गर्मी में नेमीश्वर को प्यास लगेगी तो, तो शीतल जल कहाँ मिलेगा, और तीन धूप से तपते पत्थरों से उनका शरीर दग जायेगा।
कवि लक्ष्मीवल्लभ का 'नेमिराजुल बारहमासा' भी एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य हैं । प्रकृति के रमणीय सन्निधान में विरहिणी के व्याकुल भावों का सम्मिश्रण हुआ है, "श्रावण का माह है, चारों ओर से विकट घटायें उमड़ रही हैं । यामिनी में कुम्भस्थल जसे स्तनों को धारण करने वाली भामिनियों को पिय का संग भा रहा है । स्वाति नक्षत्र की बूदों से चातक की पीड़ा दूर हो गई है । शुष्क पृथ्वी की देह हरियाली को पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुल का न तो पिय पाया और न पतियाँ ।"" ठीक इसी भांति एक बार जायसी की नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी, "चातक के मुख में स्वाति नक्षत्र की बूदे पड़ गई और समुद्र की सबसी भी मोतियों से भर गई।
१. पिया सावन में व्रत लीजे नहीं, घनघोर घटा जुर मावंगी।
चहुँ मोर त मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी ।। पिय रैन मधेरी में सूझे नहीं, कछु दामिनी दमक डरावेगी। पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, छिन में तप-तेज छुड़ावंगी।। कवि विनोदीलाल, बारहमासा नेमि-राजुल का, बारहमासा-संग्रह, कलकत्ता, ४२. बाँ
पद्य, पृ. २४ । २. देखिये वही, १४ वा पञ्च, पृ० २७ । । ३. वहीं, २२ वा पद्य, पृ० २६ । ४. उमड़ी विकट घनघोर घटा, चहुं मोरनि मोरनि सोर मचायो।।
भम दिवि दामिनि यामिनि कुभय मामिनि कुपिय को संग भायो । ' चिउ चातक पीड़ ही पीड़ लई, भई राजहरी मुंह देह दिपायो। पतियां पै न पाई री प्रीतम की, पली श्रावण पायो 4 नेम न पायो। कवि लक्ष्मीवल्लम, नेमी-राजुल बारहमासा, पहला पद्य, 'हिन्दी जन भक्ति काव्य 'पौर कवि', पृ० ५६४।
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हंस स्मरण कर-करके अपने तालाबों पर पाये, सारस बोलने लगे और खंजन भी दिखाई पड़ने लगे । कांसों के फूलों से वन में प्रकाश हो गया, किन्तु हमारे कन्त न फिरे, कहीं विदेश में ही भूल गये। कवि भवानीदास ने भी 'नेमिनाथ' बारहमासा' लिखा था, जिसमें कुल १२ पद्य हैं। श्री जिनहर्ष का 'नेमि बारहमासा' भी एक प्रसिद्ध काव्य है । उसके १२ सवैयों में सौंदर्य और आकर्षण व्याप्त है। श्रावण मास में राजुल की दशा को उपस्थित करते हुए कवि ने लिखा है, "श्रावण मास है, घनघोर घटायें उनै पाई हैं । झलमलाती हुई बिजुरी चमक रही है, उसके मध्य से बज-सी ध्वनि फूट रही है, जो राजुल को विष बेलि के के समान लगती है। पपीहा पिउ-पिउ रट रहा है। दादुर और मोर बोल रहे हैं । ऐसे समय में यदि नेमीश्वर मिल जायें तो राजुल अत्यधिक सुखी हो।"
माध्यात्मिक होलियां जैन साहित्यकार प्राध्यात्मिक होलियों की रचना करते रहे हैं। जिनमें होली के अंग-उपांगों का प्रात्मा से रूपक मिलाया गया है। उनमें प्राकर्षण तो होता ही है । पावनता भी आ जाती है। ऐसी रचनामों को 'फागु' कहते हैं । कवि बनारसीदास के 'फागु' में मात्मारूपी नायक ने शिवसुन्दरी से होली खेली है । कवि ने लिखा है, "सहज प्रानन्दरूपी बसन्त आगया है और शुभ भावरूपी पत्ते लहलहाने लगे हैं । सुमति रूपी कोकिला गहगही होकर गा उठी है, और मनरूपी भंवरे मदोन्मत्त होकर गुजार कर रहे हैं। सुरति रूपी अग्नि-ज्वाला प्रकट हुई है, जिसमें प्रष्ट कर्मरूपी वन जल गया है। अगोचर प्रमूर्तिक प्रात्मा
१. स्वाति बूद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ।।
सरवर संवरि हंस चलि भाये । सारस कुरलहिं खंजन देखाये ।। मा परगास कांस वन फूले । कन्त न फिरे विदेसहि भले ।। जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुल्क सम्पादित, का० ना० प्र० सभा, तु० सं०,
वि० स० २००३, ३०१७, पृ० १५३ ।। २. धन की घनघोर घटा उनही, बिजुली चमकति झलाहलि-सी।
विधि गाज प्रगाज, अवाज करत सु लागत मो विषवेलि जिसी। पपीहा पिउ-पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदं करलिसी। ऐसे श्रावण में यदु नेमि मिले, सुख होत कहे जसराज रिसी ।। जिनहर्ष, नेमि बारहमासा, हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि, छठा प्रध्याय, पृ० ५०२।
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धर्मरूपी फाम खेल रहा है। इस भौति भारमध्यान के बल से परम ज्योति प्रकट हुई, जिससे प्रष्ट कर्म रूपी होली जल गई है और पात्मा शांत रस में मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा।"
कवि धानतराय ने दो जत्थों के मध्य होली की रचना की है। एक मोर तो बुद्धि, दया, क्षमारूपी नारियाँ हैं और दूसरी मोर मात्मा के गुणरूपी पुरुष हैं । ज्ञान मोर ध्यान रूपी डफ तथा ताल बजा रहे हैं, उनमें अनहद रूपी घनघोर नाद निकल रहा है । धर्मरूपी लाल रंग का गुलाल उड़ रहा है और समता रूपी रंग दोनों ही पक्षों ने घोल रखा है। दोनों ही दल प्रश्न के उत्तर की भांति एक दूसरे पर पिचकारी भर-भर कर छोड़ते हैं । इधर से पुरुष वर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, उघर से स्त्रियां पूछती हैं कि तुम किसके छोरा हो । माठ कर्मरूपी काठ अनुभवरूपी अग्नि में जलभुन कर शांत हो गये। फिर तो सज्जनों के नेत्र रूपी चकोर, शिवरमणी के मानन्दकन्द की छवि को टकटकी लगाकर देखते ही रहे । भूधरदास की नायिका ने भी अपनी सखियों
१. विषम विरष पूरो भयो हो, मायो सहज बसंत ।
प्रगटी सुरुचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयमंत । सुमति कोकिला गहगही हो, वही अपूरब वाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ताउ ।। शुभ दल पल्लव लहलहे हो, होहिं अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरत वेलि विस्तार । सुरति पग्नि ज्याला जगी हो, समकित भानु प्रमंद । हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरंद ।। परम ज्योति प्रगट भई हो, लागि होलिका माग । पाठ काठ सब जरि बुझे हो, गई तताई माग ।।
बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मफाग, पृ० १५४-५५ । २.मायो सहज बसंत खेल सब होरी होरा।।
उत बुधि दया छिमा बहु ठगढ़ीं, इत जिय रतनसजे गुन जोरा ।। ज्ञान ध्यान अफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत धनघोरा । धरम सुहाग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहू ने घोरा ।। परसन-उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों करि-करि जोरा। इत से कहें नारि तुम काकी, उत तें कहें कोन को छोरा ।। पाठ काठ अनुभव पावक मैं, जल बुझ शान्त भई सब मोरा। चानत शिव मानन्द चन्द छवि, देखहिं सज्जन नैन चकोरा ॥
चानत पद संग्रह, धानवराय, कलकत्ता,'८६ वा पद,पृ. ३६-३७ ।
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के सत्यागली में माखान्य रूपी जल और सूचि रूपी केबार बोलकर नीर को अवकमी पिचकारी में घर कर अपने प्रियतम के ऊपर छोड़ा। भांति उसने अत्यधिक प्रानन्द का अनुभव किया। . प्रेम में अकव्यता का होना मावश्यक है । प्रेमी को प्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है । मां-बाप ने राजुल से दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया, क्योंकि राजुल की नेमीश्वर के साथ भांवरें नहीं पड़ने पाई थीं। किन्तु प्रेम भांवरों की अपेक्षा नहीं करता । राजुल को तो सिवा नेमीश्कर के अन्य का नाम भी रुचिकारी नहीं था। इसी कारण उसने माँ-बाप को फटकारते हुए कहा, "हे वात ! तुम्हारी जीभ खूब चली है, जो अपनी लड़की के लिए भी गलियाँ निकालते हो। तुम्हें हर बात सम्हाल कर कहना चाहिए। सब स्त्रियों को एक सी न समझो । मेरे लिए तो इस संसार में केवल नेमि प्रभु ही एकमात्र
- महात्मा मानन्दघन अनन्य प्रेम को जिस भाँति अध्यात्म पक्ष में घटा सके, वैसा हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका । कबीर में दाम्पत्य भाव है और आध्यात्मिकता भी, किन्तु वैसा आकर्षण नहीं, जैसा कि आनन्दधन में हैं। जायसी के प्रबन्ध-काव्य में अलौकिक की ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लौकिक कथानक के कारण उसमें वह एकतानता नहीं निभ सकी है जैसी कि आनन्दधन के मुक्तक पदों में पाई जाती है। सुजान वाले घनानन्द के बहुत से पद भगवद्भक्ति में वैसे नहीं खप सके, जैसे कि सुजान के पक्ष में घटे हैं । महात्मा मानन्दघन जैनों के एक पहुंचे हुए साधु थे। उनके पदों में हृदय की तल्लीनता है । उन्होंने
१. सरधा गागर रुचि रूपी, केसर घोरि तुरन्त ।
पानन्द नीर उमंग पिचकारी. छोड़ी नीकी मंत । होरी खेलोंगी, भाये चिंदानन्द कन्त ।।
भूधरदास, 'होरी खेलोंगी' पद, अध्यात्म पदावली, भारतीय भान पीठ,
काशी, पृ० ७५ २. काहे न बात सम्भाल कही, तुम जाजत हो यह बरस भली है।
गालियाँ काढ़त हो हमको सुनो तात माली तुम जीभ चली है। हम सब को तुम तुल्य गिनो, तुम जानत ना यह बात रली है। '' या भव में पति नेमि प्रभू, वह लाल विनोदी को नाथ बली है।
. नेमि व्याह, विनोदीलाल, हस्तलिखित प्रति, जन सियोत भवन, पारा।
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एक स्थान पर लिखा है, "सुहानिन के हृदय में नियुं ब्रह्म की अनुभूति से ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकाल से चली आाने वाली प्रज्ञान की नींद समाप्त होगई । हृदय के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज ज्योति को प्रकाशित किया है, जिससे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई। प्रेम एक ऐसा अचूक तौर है जिसके लगता है, वह ढेर होजाता है । वह एक ऐसा वीणा का नाद है, जिसको सुनकर श्रात्मारूपी मृग तिनके तक धरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेम से मिलता है, उसकी कहानी कही नहीं जो सकती
भक्त के पास भगवान् स्वयं प्राते हैं, भक्त नहीं जाता । जब भगवान् प्रांता है, तो भक्त के आनन्द का पारावार नहीं रहता । मानन्दघन की सुहागिन नारी के नाथ भी स्वयं प्राये हैं और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है । लम्बी प्रतीक्षा के बाद माये नाथ की प्रसन्नता में, पत्नी ने भी विविध भांति के
गार किये हैं। उसने प्रेम-प्रतीति, राम और रूचि के रंग में रंगी साड़ी धारण की है, भक्ति की महंदी रांची है और भाव का सुखकारी अंजन लगाया है । सहज स्वभाव की चूड़ियाँ पहनी हैं और पिरीति का सरी कंगन धारण किया है । ध्यान रूपी उरवसी गहना बक्षस्थल पर पड़ा है और पिंग के मुख की माला को गले में पहना है। सुरत के सिन्दूर से मांग को सजाया है और निरत की वेणी को श्राकर्षक ढंग से गूंथा है। उसके घर त्रिभुवन को सबसे अधिक प्रकाशमान ज्योति का जन्म हुआ है । वहाँ से अनहद का नाद भी
१. सुहागरण जागी अनुभव प्रीति, सुहागरण ||
नींद प्रज्ञान अनादि की मिटि गई निज रीति । सुहा० ॥ १ ॥
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घट मन्दिर दीपक कियो, सहन सुज्योति सरूप 1
आप पराई बाप ही छानत वस्तु ऋतूप | सुहा० ॥ २ ॥
कहाँ दिखावु और कू, कहा समझाऊ भोर 4 :
तीर चूक है'' का, सासी रहे और सुहा० 11 ३ 11
'नाद - विलुंडो प्रारंण कूँ, गिनेन तृण मृग श्रव ।
आनन्दघन प्रभु प्रेम का, प्रकथ कहानी वोय ।। सुहा० ।। ४ ।।
मानन्द घनपदसंग्रह, महात्मा मानन्दघन, मध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई चौथा पद, पृ० ७ ।
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उठने लगा है । अब तो उसे लगातार एकतान में पिय-रस का मानन्द उपलब्ध हो
ठीक उसी भांति बनारसीदास की नारी के पास भी निरंजन देव स्वयं प्रकट हुए हैं। वह इधर-उधर भटकी नहीं, उसने अपने हृदय में ध्यान लगाया पौर निरंजन देव मा गये । अब वह अपने खंजन-जैसे नेत्रों से उसे पुलकायमान होकर देख रही हैं पौर प्रसन्नता से भरे गीत गा रही है। उसके पाप मोर भय दूर भाग गये हैं । परमात्मा-जैसा साजन साधारण नहीं है, वह कामदेव जैसा सुन्दर और सुधारस-सा सधुर है । वह कर्मों का क्षय कर देने से तुरन्त मिल जाता है।
१. पाज सुहागन नारी ॥ मवधू आज० ।।
मेरे माथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंगधारी ॥ प्रवधू ॥१॥ प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जिन सारी। मेंहदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी ।। अवधू० ॥२॥ सहज सुमाव चूरियों पेनी, थिरता कंगन मारी। ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुनमाल अपारी ॥ अवधू० ॥३॥ सुख-सिन्दूर मांग रंग राति, निरते बेनि संभारी। उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन, पारसी केवल कारी ॥ प्रब० ॥ ४ ॥ उपजी घुनि प्रजपा की अनहद, जीत नगारे वारी। झड़ी सदा मानन्दधन बरखत, बिन मोरे इक तारी ॥ अवधू० ॥ ५ ॥
वही, २० वां पद । २. म्हारे प्रगटे देव निरंजन ।
प्रटको कहाँ कहाँ सिर मटकत कहा कहूं जन-रंजन ।। म्हारे० ॥१॥ खंजन हग, हग-नयनन गाऊ चाऊ' चितवत रंजन । सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ।। म्हारे ।। २ ॥ वो ही कामदेव होय, कामघट वो ही मंजन । और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन ॥ म्हारे० ॥३॥
बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, 'दो नये पद', पृ. २४० क ।
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ता भक्ति
पहले के प्राचार्यों ने 'शान्ति' को साहित्य में अनिर्वचनीय मानन्द का विधायक नहीं माना था, किन्तु पण्डितराज के अकाट्य तर्कों ने उसे भी रस के पद पर प्रतिष्ठित किया। तब से अभी तक उसकी गणना रसों में होती चली मा रही है। उसे मिलाकर नौ रस माने जाते हैं। जैनाचार्यों ने भी इन्हीं नौ रसों को स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने 'शृगार' के स्थान पर शान्त को 'रसराज' माना है। उनका कथन है कि अनिर्वचनीय आनन्द की सच्ची अनुभूति, रागद्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जाने पर ही होती है। रागद्वेष से सम्बन्धित अन्य पाठ रसों के स्थायी भावों से उत्पन्न हुए आनन्द में वह गहरापन नहीं होता, जो शान्त में पाया जाता है । स्थायी आनन्द की दृष्टि से तो शान्त ही एक मात्र रस है। कवि बनारसीदास ने 'नवमों सान्त रसनिको नायक' ' माना है। उन्होंने तो आठ रसों का अन्तर्भाव भी शान्तरस में ही किया है। डॉ० भगवान्
१. प्रथम सिंगार वीर दूजो रस,
तीजी रस करुना सुखदायक । हास्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम,
छटठम रस बीमच्छ विमायक ।। सप्तम भय अट्ठम रस अद्भुत, ..
नवमो सान्त रसनिको नायक । ए नव रस एई नव नाटक,
जो जहँ मगन सोई तिहि लायक ।। नाटक समयसार; पं० बुद्धिलाल श्रावक की टीका सहित, जैन ग्रन्यरत्नाकर कार्यालय; बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ ।
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दास ने भी अपने 'रस मीमांसा' नाम के निबन्ध में अनेकानेक संस्कृत उदाहरणों के साथ, 'शान्त' को 'रसराज' सिद्ध किया है ।
जहाँ तक भक्ति का सम्बन्ध है, जैन और अजैन सभी ने 'शान्त' को ही प्रधानता दी । यदि शाण्डिल्य के मतानुसार 'परानुरक्तिरीश्वरे' ही भक्ति है, तो यह भी ठीक है कि ईश्वर में 'परानुरक्ति:' तभी हो सकती है, जब प्रपर की अनुरक्ति समाप्त हो । अर्थात् जीव की मनः प्रवृत्ति संसार के अन्य पदार्थों से अनुराग - हीन होकर, ईश्वर में अनुराग करने लगे, तभी वह भक्ति है, अन्यथा नहीं । और संसार को प्रसार, प्रनित्य तथा दुःखमय मान कर मन का श्रात्मा अथवा परमात्मा में केन्द्रित हो जाना ही शान्ति है । इस भाँति ईश्वर में 'परानुरक्ति : ' का अर्थ भी 'शान्ति' ही हुआ । स्वामी सनातनदेवजी ने अपने 'भाव भक्ति की भूमिकाएँ' नामक निबन्ध में लिखा है, "भगवदनुराग बढ़ने से अन्य वस्तु और व्यक्तियों के प्रति मन में वैराग्य हो जाना भी स्वाभाविक ही है । भक्ति - शास्त्र में भगवत्प्रेम की इस प्रारम्भिक अवस्था का नाम ही 'शान्तभाव' है" । ' नारद ने भी अपने 'भक्तिसूत्र' में 'सात्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च ' को भक्ति माना है। इसमें पड़े हुए 'परमप्र' म' से यह ही ध्वनि निकलती है कि संसार से वैराग्योन्मुख होकर एकमात्र ईश्वर से प्र ेम किया जाये । शान्ति में भी वैराग्य की ही प्रधानता है । 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में 'अन्याभिलाषिताशून्यं कृष्णानुशीलनं उत्तमा भक्ति' : उपर्युक्त कथन का हो समर्थन करतो है । यह कहना उपयुक्त नहीं हैं कि अनुरक्ति में सदैव जलन होती है, चाहे वह ईश्वर के प्रति हो अथवा संसार के, क्योंकि दोनों में महदन्तर है । सांसारिक अनुरक्ति दुःख की प्रतीक है और ईश्वरानुरक्ति दिव्य सुख को जन्म देती है । पहली में जलन है, तो दूसरी में शीतलता, पहली में पुनः पुनः भ्रमरण की बात है, तो दूसरी में मुक्त हो जाने की भूमिका ।
जैनाचार्य शान्ति के परम समर्थक थे। उन्होंने एक मत से, राग-द्वेषों से विमुख होकर वीतरागी पथ पर बढ़ने को ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करने के दो उपाय हैं - तत्व- चिन्तन और वीतरागियों की भक्ति । वीतराग में किया गया
१. कल्याण, भक्ति विशेषांक, वर्ष ३२, अंक १, पृ० ३६६ ।
२. 'नारद प्रोक्त' भक्ति सूत्रं', वाराणसी, प्रथम सूत्र ।
३. भक्ति रसामृतसिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, प्रच्युतग्रन्थमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण ।
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अनुराग साधारण राग की कोटि में नहीं पाता। जैनों ने शान्तमाव की चार अवस्थाएँ स्वीकार की हैं-प्रथम अवस्था बह है जब मन की प्रवृति, दुःखरूपास्मक संसार से हट कर मात्म-शोधन की मोर मुड़ती है। यह व्यापक और महत्वपूर्ण दया है। दूसरी अवस्था में उस प्रमाद का परिष्कार किया जाता है, जिसके कारण संसार के दुःख सुख सताते हैं, तीसरी अवस्था वह है जबकि विषय-वासनामों का पूर्ण प्रभाव होने पर निर्मल प्रात्मा की अनुभूति होती है। चौथी अवस्था केवल ज्ञान के उत्पन्न होने पर पूर्ण प्रात्मानुभूति को कहते हैं । ये चारों मवस्थाएं आचार्य विश्वनाथ के द्वारा कही गई युक्त, वियुक्त और युक्तवियुक्त दशात्रों के समान मानी जा सकती हैं। इनमें स्थित 'शम' भाव ही रसता को प्राप्त होता है ।
जैनाचार्यों ने 'मुक्ति दशा' में 'रसता' को स्वीकार नहीं किया है, यद्यपि वहाँ विराजित पूर्ण शांति को माना है। अर्थात् सर्वज्ञ या अर्हन्त जब तक इस संसार में हैं, तभी तक उनकी 'शान्ति' शान्तरस कहलाती है, सिद्ध या मुक्त होने पर नहीं । 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में रस की परिभाषा लिखी है, "रस्यन्तेऽन्तरात्मनाऽनुभूयन्ते इति रसा:" । अर्थात् अन्तरात्मा की अनुभूति को रस कहते हैं। सिद्धावस्था में अन्तरात्मा अनुभूति से ऊपर उठकर आनन्द का पुञ्ज ही हो जाती है, अत: अनुभूति की आवश्यकता ही नहीं रहती। जैनाचार्य वाग्भट्ट ने अपने 'वाग्भट्टालंकार' में रस का निरूपण करते हुए लिखा है, "विभावैरतुभावश्च, सात्त्विकर्व्यभिचारिभिः। प्रारोप्यमाणं उत्कर्ष स्थायीभावः स्मृतो रस": । अर्थात् विमाव, अनुभाव, सात्विक और व्यभिचारियों के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त हुप्रा स्थायी भाव ही रस कहलाता है । सिद्धावस्था में विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी प्रादि भावों के प्रभाव में रस नहीं बन पाता।
जैन आचार्यों ने भी अन्य साहित्य-शास्त्रियों की भांति ही 'शम' को शान्त रस का स्थायीभाव माना है। भगवज्जिनसेन ने 'अलंकार चिन्तामणि' में 'शम' को विशद करते हुए लिखा है, "विरागत्वादिना निर्विकार मनस्त्वं शमः"
१. युक्तवियुक्तदशायामवस्थितो य: शभः स एव यतः ।
रसतामेति तस्मिन्संचार्यादेः स्थितिश्च न विरुद्धा ।।
प्राचार्य विश्वनाथ , सहित्यदर्पण, ३।२५०। २. प्रमिधानराजेन्द्रकोश, 'रस', शब्द । ३. प्राचार्य वाग्भट्ट, वाग्भट्टालंकार ।
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अर्थात् विरक्ति मादि के द्वारा मन का निर्विकार होना शम है।' यद्यपि प्राचार्य मम्मट ने 'निर्वैर' को 'शान्तरस का स्थायीभाव माना है, किन्तु उन्होंने "तत्वज्ञान जन्यनिर्वेदस्यैव शमरूपत्वात्" लिखकर निर्वेद को शम रूप ही स्वीकार किया है। प्राचार्य विश्वनाथ ने शम' और 'निर्वेद' में भिन्नता मानी है और उन्होंने पहले की स्थायी भाव में तथा दूसरे की संचारी भाव में गणना की है।' जैनाचार्यों ने वैराग्योत्पत्ति के दो कारण माने हैं-प्रथम-तत्वज्ञान, द्वितीय इष्टवियोग और अनिष्ट-संयोग। इसमें पहले में उत्पन्न हुमा वैराग्य स्थायीभाव है
और दूसरा सचारी । इस भांति उनका अभिमत भी आचार्य मम्मट से मिलताजुलता है । इसके साथ-साथ उन्होंने मम्मट तथा विश्वनाथ की भांति ही प्रनित्य जगत को पालम्बन, जैन मन्दिर, जैन तीर्थ क्षेत्र, जैन मूर्ति और जैन साधु को उद्दीपन, वृत्यादिकों को संचारी तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह के अभाव अर्थात् सर्व समत्व को अनुभाव माना है ।
___ शान्ति का अर्थ है निराकुलता । पाकुलता राग से उत्पन्न होती है। रत होना राग है । इसी को प्रासक्ति कहते है। प्रासक्ति ही अशान्ति का मूल कारण है । सांसारिक द्रव्यों का अर्जन और उपभोग बुरा नहीं है; किन्तु उसमें आसक्त होना ही दुःखदायी है । प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा है कि जैसे परति भाव से पी गई मदिरा नशा उत्पन्न नहीं करती, वैसे ही अनासक्त भाव से द्रव्यों का उपभोग कर्मों का बन्ध नहीं करता ।३ कर्मों का बन्ध अशान्ति ही है। प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह बन्ध जिनेन्द्र के चरणों की स्तुति से स्वतः उपशम हो जाता है जैसे कि मन्त्रों के उच्चारण से सर्प का दुर्जय विष शान्त हो जाताहै। ४ जैसे
१. भगवज्जितसेनाचार्य, प्रलंकारचिन्तामणि । २. प्राचार्य मम्मट, काव्यप्रकाश, चौखम्बा सस्कृत माला, संख्या ५६, १९२७ ई०,
तुर्थ उल्लास, पृ० १६४ ।। ३. जहमज्ज पिवमाणो अरदिमावेण मज्जदि ण पुरिसो।
दव्वुवमोगे मरदो गाणी वि ण वज्झदि तहेव ।। प्राचार्यकुन्दकुन्द, समयसार, श्री पाटणी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारौठ (मारवाड़), १९५३ ई०, १६६वी गाथा, पृ० २६६ । क्र द्वाशीविषदष्ट दुर्जयविषज्वालावली विक्रमो, विद्याभेषज मत्रतोयहवनर्याति प्रशान्तिं यथा । तद्वत्त चरणाम्बुजयुग स्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्, विघ्नाः कायविनाशकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः ।। प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृतशान्तिभक्ति, 'दशक्तिः ', शोलापुर, १९२१ ई०, २रा श्लोक, पृ. ३३५॥
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ग्रीष्म के प्रखर सूर्य से संतप्त हुए जीव को जल प्रोर छाया में शान्ति मिलती है, वैसे ही संसार के दुःखों से बेचैन प्राणी भगवान् के चरण कमलों में शान्ति पाता है ।" मुनि शोभन शाश्वत शान्ति चाहते हैं । उनका विश्वास है कि भगवान् की वाणी का वरण करने मात्र से वह उपलब्ध हो सकती है । श्राचार्य सोमदेव शिव-सुख देने वाली शान्ति चाहते हैं । वही भव दुःख रूपी मग्नि पर घनामृत की वर्षा कर सकती है । वह शान्ति भगवान् शान्तिनाथ प्रदान कर सकते हैं ।
"भव दुःखानलाशान्तिर्धर्मामृत वर्ष जनित जनशान्तिः । शिवशर्मासवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः ॥ १
जैन ग्रन्थों के अन्तिम मंगलाचरण प्रायः शान्ति की याचना में ही समाप्त होते हैं । शान्ति भी केवल अपने लिए नहीं, संघ, प्राचार्य, साधु, धार्मिक जन और राष्ट्र के लिए भी । आचार्य पूज्यपाद का "संपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्ति भगवान् जिनेन्द्रः । इसी का द्योतक है। पं० श्री मेघावी के धर्मसंग्रह श्रावकाचार का
१. न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन्पादद्वयं प्रजा, हेतुस्तत्र विचित्र दुख निचय. ससारधोरार्णवः । प्रत्यन्त स्फुरदुप्ररश्मिनिकरव्याकीर्ण भूमडलो, ग्रैष्म. कारयतीन्दु पादसलिलच्छायानुराग रविः || आचार्य पूज्यपाद, संस्कृतशान्तिभक्ति, पहला श्लोक, पृ० १७४ ।
२. शान्ति
वस्वनुता न्मियोऽनुगमनाद्यन्नं गमनाद्यैनं ये,
रक्षोमं जन हेऽतुला जितमदोदी गगजालं कृतम् । तत्पूज्य जगतां जिनैः प्रवचनं द्रप्यत्कुवाद्याबली,
रक्षोमं जन हेतुलांछितमदो दीपांग जालं कृतन् ॥
मुनिशोभन, चतुविशतिजिनस्तुतिः, काव्यमाला, सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रस, बम्बई, ३रा श्लोक, पृ० १३३ । '
३. K. K. Handiqui, yasastilak and Indian culture, Sholapur, 1949. P. 311.
४. दशमक्त्यादिसंग्रह, पृ० १५१, श्लोक १४वाँ ।
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मंगलाचरण भी ऐसा ही है। उन्होंने भी राजा, प्रजा और मुनि, सभी के लिए शान्ति चाही है।'
शान्ति दो प्रकार की होती है-शाश्वत और क्षणिक । पहली का सम्बन्ध मोक्ष से है और दूसरी का भौतिक संसार से । भक्त जन दोनों के लिए याचना करते रहे हैं । जिनेन्द्र की अनुकम्पा से उन्हें दोनों की प्राप्ति भी हुई है। इस दिशा में जैन मंत्रों का महत्वपूर्ण योग रहा है। जैनों का प्राचीन मंत्र 'रणमो प्ररिहन्तारणं मंत्र है। इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। पूरा मंत्र है "णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पायरियारणं, मो उवज्झायारणं, णमो लोएसव्वसाहूणं।" इसका अर्थ है--अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, प्राचार्यों को नमस्कार हो,उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक के सर्व साधुनों को नमस्कार हो। जैन प्राचार्यों ने इस मंत्र में अपूर्व शक्ति स्वीकार की है। भद्रबाहु स्वामी ने अपने 'उवसग्गहर स्तोत्र' में लिखा है, "तुह सम्मत्ते लढे चिंतामणिकप्प पायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ।।"२ इसका तात्पर्य है कि पंचनमस्कार मंत्र से चिंतामणि और कल्पवृक्ष से भी अधिक महत्वशाली सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, जिसके कारण जीव को मोक्ष मिलता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का विश्वास है, "अरुहा, सिद्धायरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठि । एदे पंचरणमोयारा भवे भवे मम सुहं दितु ॥"3 अर्थात् अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु मुझे भव-भव में सुख देवें। प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह 'पंच नमस्कार' का मंत्र सब पापों को नष्ट करने वाला है और जीवों का कल्याण करने में सबसे ऊपर है। मुनि वादिराज ने 'एकीभाव स्तोत्र' में लिखा है, "जब पापाचारी कुत्ता भी णमोकार मंत्र को सुनकर देव हो गया, तब यह
१. शान्तिः स्याज्जिनशासनस्य सुखदा शान्ति पाणां सदा,
सुप्रजाशांतयोभरभृतां शान्तिमुनीनां सदा । श्रोतयां कविताकृतां प्रवचनव्याख्यातकाणां पनः. शान्ति शान्तिरयाग्नि जीवनमुचः श्री सज्जनस्यापि च ।। पण्डित श्री मेधावी, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, अन्तिमप्रशस्ति,
प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १९५० ई०, ३५वा श्लोक, पृ० २५ । २. उवसग्गहरस्तोत, चौथीगाथा, जनस्तोत्रसन्दोह, भाग २, मुनिचतुरविजय सम्पादित,
अहमदाबाद, वि० सं० १६६२, पृ० ११। ३. 'पंचगुरुभक्ति', सातवी गाथा, दशभक्तिः, शोलापुर, १९२१ ई०, पृ० ३५८ । ४. एष पंचनमस्कारः सर्वपापप्रणाशनः । मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं भवेत् ॥
देखिए वही, सातवा श्लोक, पृ०३५३ ।
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निश्चित है कि उस मंत्र का जाप करने से यह जीव इन्द्र की लक्ष्मी को पा सकता है।'
थी जिनप्रभसूरि ने 'विविध तीर्थकल्प' के 'पंच-परमेष्ठी नमस्कार कल्प' में स्वीकार किया है, "इस मंत्र की प्राराधना करने वाले योगीजन, त्रिलोक के उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं । यही तक ही नहीं, किन्तु सहस्त्रों पापों का सम्पादन करने वाले तिर्यञ्च भी इस मंत्र की भक्ति से स्वर्ग में पहुंच जाते हैं।' जैनाचार्यों ने 'रणमोकार मंत्र' की शक्ति को देवता कहा है। उसमें आध्यात्मिक, माधि भौतिक और आधिदैविक तीनों ही प्रकार की शक्तियां सन्निहित हैं। वह मोह के दुर्गमन को रोकने में पूर्ण रूप से समर्थ है। जैन परम्परा में यह मंत्र अनादि निधन माना जाता है। वैसे भगवान् महावीर से पहले 'चौदह पूर्वो' का अध्ययन-अध्यापन प्रचलित था। भगवान ने अपने गणधरों को इनकी विद्या प्रदान की थी। उनमें 'विद्यानुवाद' नाम के पूर्व का प्रारम्भ णमोकार मंत्र
१. प्रापद्देवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टः,
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यं । कः संदेहो यदुपलभते वासवश्री प्रभुत्त्वं, जल्पजाप्यमणिभिरमलत्वन्नमस्कार चक्र ।। एकीभावस्तोत्र, १२वां श्लोक, काव्यमाला सप्तम्गुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई,
पृ० १६। २. एतमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः । त्रैलोक्याऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमं पदम् ।
कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुमन्त्रं समाराध्य तिर्यञ्चोऽपि दिवंगताः।। जिनप्रभसूरि, पंचपरमेष्ठि नमस्कारकल्प, विविधतीर्थकल्प, मुनिजिनविजय सम्पादित,
शान्तिनिकेतन, १९३४ ई०, प्रथम भाग, पृ० १०८, श्लोक ५-६ । ३. स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रियततो मोहस्य सम्मोहनं।
पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।।
नमस्कार मंत्र, तीसरा श्लोक, धर्मध्यानदीपक, पृ० २। ४. "The original doctrine was contained in the Fourteen
Purvas (old texts), which Mahavira himself had taught to his Ganadharas." Dr. Jagdish chandra Jain, Ancient India as depicted in Jain Canons, New book Company Ltd., Bombay, 1947. P.32. .
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श्री मोहनलाल ८५० वर्ष पूर्व, हो सकता है कि
से ही हुआ था । विद्यानुवाद मंत्र-विद्या का अपूर्व ग्रन्थ था ।' भगवानदास झवेरी ने जैन मन्त्र शास्त्र का प्रारम्भ ईसा अर्थात् तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय से स्वीकार किया है।" पार्श्वनाथ के समय में भी '१४ पूर्व' पहले से आई हुई 'विद्या' के रूप में प्रतिष्ठित रहे हों । उपलब्ध पुरातात्विक सामग्री के आधार पर 'मोकार मंत्र' का प्राचीनतम उल्लेख 'हाथी - गुम्फ' के शिलालेख में प्राप्त होता है, जिसके निर्माता सम्राट् खारबेल ईसा से १७० वर्ष पूर्व हुए हैं।
'शान्ति' का आधार केवल 'णमोकार मंत्र' ही नहीं है, अन्य अनेक मंत्र भी हैं । यहाँ सबका उल्लेख सम्भव नहीं है । वे एक पृथक् निबन्ध का विषय हैं । मंत्र क्षेत्र में यंत्रों की भी गणना होती है । उनमें एक शान्ति यंत्र भी है । मन्दिरों में इसकी स्थापना की जाती है और उसकी पूजा-अर्चा होती है । 'मंत्राधिराज कल्प' नाम के ग्रन्थ में 'शान्ति यंत्र' को पूजा दी हुई है । इसके रचयिता एक सागरचन्द्र सूरि नाम के साधु थे । उनका समय १५ वीं शताब्दी माना जाता है । उन्होंने एक स्थान पर 'शान्ति यंत्र' की महत्ता के सम्बन्ध में लिखा है, " शमयतिदुरित रिंग दमयत्यरिसन्तति सततमसौ । पुष्णाति भाग्यनिचयं मुष्णाति व्याधि सम्बाधाम् ||४ तात्पर्य है -- शांति यंत्र की पूजा से रोग, पाप, शत्रु और व्याधियां उपशम हो जाती हैं, और सौभाग्य का उदय होता है। शांति के लिए
१. कहा जाता है कि मुनि सुकुमारसेन ( ७वी शती ईसवी) के विद्यानुशासन में विद्यानुवाद की बिखरी सामग्री का सकलन हुआ था । विद्यानुशासन की हस्तलिखित प्रति जयपुर और अजमेर के शास्त्र भाण्डरो मे मौजूद है ।
२. “Mr. Jhaveri thinks that the Mantrasastra among the Jains is also of hoary antiquity. He claims that-its antiquity goes back to the days of Parsvanatha, the 23rd Tirthankara, who flourished about 850 B. C."
Dr A. S. Altekar, 'Mantrashastra and Jainism,' Jain cultural Research Society, Hindu University, Varanasi, P. 9.
३. V. A. Smith, Early History of India, Oxford, 1908, P. 38. N. I.
४. श्री सागर चन्द्र सूरि, मन्त्राधिराजकल्प, जनस्तोत्रसन्दोह, माग २, मुनि चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद, सन् १९३६, ३३वां श्लोक, पृ० २७७ ।
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भी
'शांति पाठ भी किये जाते हैं । वे मंत्र गमित होते हैं। प्रतेक दिन विधिवत् उनका पाठ होता है। भाज उनका प्रचलन है। प्रति वर्ष अनेक स्थानों पर उनके पाठ का आयोजन किया जाता है। इन मंत्र-यंत्रों में इहलौकिक शान्ति की अमोध शक्ति मानी गई है, किन्तु उनका मुख्य उद्देश्य पारलौकिक शाश्वत शान्ति ही है। उनका मूल स्वर 'आध्यात्मिक' है 'भौतिक' नहीं। यह ही कारण है कि उनमें ब्रज्रयानी तान्त्रिक सम्प्रदाय की भाँति व्यभिचार, मदिरा और मांस वाली बात नहीं पनप सकी । जैन देवियाँ मन्त्र की शक्तिरूपा थीं। उन्हें मन्त्र के बल पर ही साधा जा सकता था । किन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन मन्त्रों के साथ नीच कुलोत्पन्न कन्याओं के सेवन की बात चली हो । ऐसा भी नहीं हुआ कि भाद्रपद की प्रमावस की रात में एक सौ सोलह कुमारी, सुन्दरी कन्याओंों की बलि से वे यत्किञ्चित् भी प्रसन्न हुई हों । वे कराला थीं, किन्तु उनकी करालता व्यभिचार या मदिरा-मांस से तृप्त नहीं होती थी । सतगुरणों का प्रदर्शन ही उन्हें सन्तुष्ट बना सकता था। इसी भांति जैन साधु मन्त्र विद्या के पारंगत विद्वान् थे, किन्तु उन्होंने राम सम्बन्धी पदार्थों में उनका कभी उपयोग नहीं किया । जैन मन्त्र सांसारिक वैभवों के देने में सामर्थ्यवान होते हुए भी वीतरागी बने रहे । वीतरागता ही शान्ति है । उसका जैसा शानदार समर्थन जैन मन्त्र कर सके, अन्य नहीं ।
जैन भक्ति काव्य और मन्त्रों की सबसे बड़ी विशेषता है, उनकी शान्तिपरकता । कुत्सित परिस्थितियों और संगतियों में भी वे शान्तरस से दूर नहीं हटे । उन्होंने कभी भी अपनी प्रोट में शृंगारिक प्रवृत्तियों को प्रश्रय नहीं दिया । दाम्पत्य रति - मूला भगवद्भक्ति बुरी नहीं है । यह भी भक्ति की एक विधा है । जैन काव्यो के 'आध्यात्मिक विवाह' इसी कोटि में प्राते हैं । नेमीश्वर और राजुल को लेकर शतशः काव्यों का निर्माण हुआ। वे सभी सात्त्विकी भक्ति के निदर्शन हैं । उनमें कहीं भी जगन्माताओंों की सुहागरातों का नग्न विवेचन नहीं है। जिसे मां कहा, उसके अ ंग-प्रत्यंग में मादकता का रंग भरना उपयुक्त नहीं है । इससे मां का भाव लुप्त होता है और सुन्दरी नवयौवना नायिका का रूप उभरता है । घनाश्लेष में श्राबद्ध दम्पति भले ही दिव्यलोक-वासी हों, पाठक या दर्शक में पवित्रता नहीं भर सकते । भगवान् पति की भारती के लिए भगवती पत्नी का
गूठों पर खड़ा होना ठीक है, किन्तु साथ ही पीनस्तनों के कारण उनके हाथ की पूजा - थाली के पुष्पों का बिखर जाना कहां तक भक्ति परक
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है। राजशेखर सूरि के 'नेमिनाथफागु' में राजुल का अनुपम सौन्दर्य मंकित है, किन्तु उसके चारों पोर एक ऐसे पवित्र वातावरण की सीमा लिखी हुई है, जिससे विलासिता को सहलन प्राप्त नहीं हो पाती। उसके सौन्दर्य में जलन नहीं, शीतलता है । वह सुन्दरी है किन्तु पावनता की मूर्ति है । उसको देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है । मैंने अपने ग्रन्थ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में लिखा है, "जबकि भगवान् के मंगलाचरण भी वासना के कैमरे से खींचे जा रहे थे, नेमीश्वर भौर राजुल से संबंधित मांगलिक पद दिव्यानुभूतियों के प्रतीक भर ही रहे। उन्होंने अपनी पावनता का परित्याग कभी नहीं किया।"२ जिन पपसूरि के 'थूलिभद्दफागु'3 में कोशा के मादक सौन्दर्य और कामुक विलास चेष्टाओं का चित्र खींचा गया है । युवा मुनि स्थूलभद्र के संयम को डिगाने के लिए सुन्दरी कोशा ने अपने विलास-भवन में अधिकाधिक प्रयास किया, कितु कृतकृत्य न हुई । कवि को कोशा की मादकता निरस्त करना अभीष्ट था, अत: उसके रति-रूप और कामुक भावों का अंकन ठीक ही हुमा। तप की दृढ़ता तभी है, जब वह बड़े-से-बड़े सौन्दर्य के प्रागे भी दृढ़ बना रहे । कोशा जगन्माता नहीं, वेश्या थी। वेश्या भी ऐसी-वैसी नहीं, पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या । यदि पधसूरि उसके सौंदर्य को उन्मुक्त भाव से मूर्तिमन्त न करते तो अस्वाभाविकता रह जाती। उससे एक मुनि का संयम सुदृढ़ प्रमाणित हुआ । इसमें कहीं अश्लीलता नहीं है । सच तो यह है कि दाम्पत्य रति को रूपक ही रहना चाहिए था, कितु जब उसमें रूपकत्त्व तो रहा नहीं, रति ही प्रमुख हो गई, तो फिर प्रशालीनता का उभरना भी ठीक ही था। जैन कवि और काव्य इससे बचे रहे। इसी कारण उनकी शांतिपरकता भी बची रही।
हिन्दी के जैनभक्त कवियों ने संस्कृत-प्राकृत की शांतिधारा का अनुगमन किया। बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' में 'नवमों सांत रसनि को नायक' स्पष्ट
१. पादारस्थितया मुहुः स्तनमरेणानीतया नम्रता
शम्भोः सस्पृहलोचनत्रयपथं यान्त्या सदाराधने । ह्रीमत्या शिरसीहितः सपुलकस्वेदोद्गमोत्कम्पया विश्लिष्यन्कुसुमाञ्जलिगिरिजया क्षिप्तोऽन्तरे पातुवः।।
श्री हर्ष, रत्नावली, प्रथम मंगलाचरण । २. देखिए 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि', प्रथम अध्याय, पृ० ४ । ३. यह काव्य प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला, ३, वि० सं० २०११, पृ० ३० पर प्रकाशित हो
चुका है।
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रूप से स्वीकार किया। उनकी रचनायें इसकी प्रतीक हैं । प्रागे के कवि उनसे प्रभावित हैं। हिंदी के इन जैन कवियों का मंत्र, तंत्र और शांति पाठों की रचना में मन न लगा । इनसे संबंधित हिंदी काव्य संस्कृत प्राकृत ग्रंथों के अनुवाद - भर हैं। देवी पद्मावती, अम्बिका श्रादि मंत्राधिष्ठात्री देवियों की स्तुतियाँ भी पूर्व काव्यों की छाया ही हैं। इनका मन लगा, संसार की प्राकुलता और राग-द्व ेषों के चित्रांकन में । उन्होंने पुनः पुनः मन को वीतरागता की ओर आकर्षित किया । इस दिशा में उनका पद - काव्य अनुपम है। मानव की मूलवृत्तियों के समन्वय ने उसे भाव भीना बना दिया है। वे साहित्यिक कृतियाँ हैं । उनमें उपदेश की रूक्षता तो किञ्चिन्मात्र भी नहीं है । कोई भी बात, चाहे उपदेशपरक ही क्यों न हो, भावों के साँचे में ढल कर साहित्य बन जाती है। जैन हिंदी के प्रबंध श्रीर खण्ड काव्यों का मूल स्वर शांत रस ही है । अन्य रस भी हैं, किंतु उनका समाधान शांतरस में ही हुआ है। ऐसा करने में कहीं भी खींचतान नहीं है, सब कुछ प्रासंगिक और स्वाभाविक है ।
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जैन हिंदी के भक्ति - काव्यों में यदि एक श्रोर सांसारिक राग-द्व ेषों से विरक्ति है, तो दूसरी और भगवान् से चरम शांति की याचना । उनको शांति तो चाहिए किंतु प्रस्थायी नहीं । वे उस शांति के उपासक हैं जो कभी पृथक् न हो । जब तक मन की दुविधा न मिटेगी, वह कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर सकता । और यह दुविधा निजनाथ निरंजन के सुमिरन करने से ही दूर हो सकती है । कवि बनारसीदास प्रपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं, "न जाने कब हमारे नेत्र चातक अक्षयपद रूपी घन की बूँदें चख सकेंगे, तभी उनको निराकुल शांति मिलेगी । और न जाने वह घड़ी कब प्रायेगी जब हृदय में समता भाव जगेगा । हृदय के अन्दर जब तक सुगुरु के वचनों के प्रति दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी, परमार्थ सुख नहीं मिल सकता । उसके लिए एक ऐसी लालसा का उत्पन्न होना भी अनिवार्य है, जिसमें घर छोड़ कर बन में जाने का भाव उदित हुना हो ।'
१. कब जिननाथ निरञ्जन सुमिरों,
तजि सेवा जन जन की दुविधा कब है या मन की ॥१॥
कब रुचि सों पीयें हग चातक बूंद प्रखयपद धन की ।
कब शुभ ध्यान घरों समता गहि करू' न ममता तन की, दुविधा० ||२||
टिप्पणी अगले पेज पर देखिये
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कवि बनारसीदास ने 'शांतरस' को 'प्रात्मिक रस' कहा है, उसका भास्वादन करने से परम आनन्द मिलता है । वह श्रानन्द कामधेनु, चित्रावेलि भोर पंचामृत भोजन के समान समझना चाहिए।' इस श्रानन्द को साक्षात् करने वाला चेतन जिसके घट में विराजता है, उस जिनराज की बनारसीदास ने वंदना की है ।
यह जीव संसार के बीच में भटकता फिरता है किन्तु उसे शांति नहीं मिलती । वह अपने प्रष्टादश दोषों से प्रपीड़ित है और प्राकुलता उसे सताती ही रहती है। भैया भगवतीदास का कथन है, हे जीव ! इस संसार के असंख्य कोटि सागर को पीकर भी तू प्यासा ही है और इस संसार के दीपों में जितना प्रन्न भरा है, उसको खाकर भी तू भूखा ही है। यह सब कुछ अठारह दोषों के कारण है । वे तभी जीते जा सकते हैं जब तू भगवान् जिनेन्द्र का ध्यान करे और उसी
कब घट अन्तर रहै निरन्तर,
हड़ता सुगुरु वचन की । कब सुख लहीं भेद परमारथ, मिटं धारना धन की, दुविधा० ॥३॥
कब घर खांड़ होहुँ
एकाकी,
लिये
लालसा वन की 1
ऐसी दशा होय कब मेरी, हों बलि बलि वा छन की, दुविधा० ॥४॥ बनारसीदास, प्रध्यात्मपदपंक्ति, १३वां पद, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, पृ० १३१-३२ ।
१. अनुभौ की केलि यहै कामधेनु, चित्रावेलि, अनुभी को स्वाद पंच अमृत को कोर है ॥ नाटक समयसार, उत्थानिका, १६वां पद्य ।
२. सत्य- सरूप सदा जिन्ह कं प्रगट्यो अवदात मिध्यात निकंदन | सांत दसा तिन्ह की पहिचानि करं कर जोरि बनारसि बंदन || वही,
छठा पद्य, पृ० ७।
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पथ का अनुसरण करें, जिस पर वे स्वयं चले थे।" भैया की दृष्टि से भ्रष्टादश दोष ही प्रशांति के कारण हैं और वे भगवान् जिन के ध्यान से जीते जा सकते हैं। तभी यह जीव उस शांति का अनुभव करेगा, जो भगवान् जिनेन्द्र में साक्षात् ही हो उठी थी। भैया का स्पष्ट प्रभिमत है कि राग-द्वेष में प्रेम करने के ही कारण यह जीव अपने परमात्म-स्वरूप के दर्शनों का आनन्द नहीं ले पाता अर्थात् वह चिदानन्द के सुख से दूर ही रहता है। राग-द्व ेष का मुख्य कारण है मोह, इसलिए मोह के निवारण से राग-द्वेष' स्वयं नष्ट हो जायेंगे, मोर राग-द्वेषों के टलने से मोह तो यत्किचित् भी न रह पायेगा । कर्म की उपाधि को समाप्त करने का भी यह ही एक उपाय है। जड़ के उखाड़ डालने से भला वृक्ष कैसे ठहर सकता है। भौर फिर तो उसके डाल-पात, फल-फूल भी कुम्हला जायेंगे। तभी चिदानन्द का प्रकाश होगा और यह जीव सिद्धावस्था में अनन्त सुख विलस सकेगा ।
मोह के निवारे राग द्वेषहू निवारे जाहिं,
राग-द्वेष टारें मोह नेकहूँ न पाइए । कर्म की उपाधि के निवारिबे को पेंच यहै, जड़ के उखारे वृक्ष कैसे ठहराइए । फल-फूल सबै कुम्हलाय जायं, कर्मन के वृक्षन को ऐसे के नसाइए । तबै होय चिदानन्द प्रगट प्रकाश रूप,
डार - पास
विलसे अनन्त सुख सिद्ध में कहाई ॥ २
१. जे तो जल लोक मध्य सागर प्रसंख्य कोटि ते तो जल पियो पैन प्यास याकी गयी है । ज ते नाज दीप मध्य भरे हैं प्रवार ढेर ते तो नाज खायो तोऊ भूख याकी नई है । तातें ध्यान ताको कर जाते यह जाय हर भ्रष्टादश दोष प्रादि ये ही जीत लई है । वहे पंथ तू ही साज भ्रष्टादश जांहि माजि होम बैठि महाराज तोहि सीख दई है ॥ भैय्या भगवतीदास, ब्रह्मविलास, "जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२६ ई० शत भ्रष्टोत्तरी), ' १६वां कवित्त, पृ० ३२ ।
२. मिथ्यात्वविध्वंसन चतुर्दशी, ८ वां कवित्त, पृ० १२१ ॥
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अनन्त सुख ही परम शान्ति है। भैया ने एक सुन्दर से पद में जैन मत को शान्तिरस का मत कहा है । शान्ति की बात करने वाले ही ज्ञानी हैं, अन्य तो सब मज्ञानी ही कहे जायेंगे ।"
भूवरदासजी के स्वामी की शरण तो इसीलिए सच्ची है कि वे समर्थ श्रीर सम्पूर्ण शान्ति-प्रदायक गुणों से युक्त हैं। भूषरदास को उनका बहुत थोड़ा भरोसा है । उन्होंने जन्म-जरा श्रादि बेरियों को जीत लिया है और मरन की टेव से छुटकारा पा गये हैं। उनसे भूधरदास अजर श्रौर भ्रमर बनने की प्रार्थना करते हैं। क्योंकि जब तक यह मनुष्य संसार के जन्म-मरण से छुटकारा नहीं पायेगा, शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । जैन परम्परा में देवों को अमर नहीं कहते । यहाँ अमरता का अर्थ है मोक्ष, जहाँ किसी प्रकार की प्राकुलता नहीं होती, ऐसी शान्ति वह दे सकता है, जिसने स्वयं प्राप्त कर ली है । वे संसारी 'साहिब', जो बारम्बार जनमते हैं, मरते हैं, भोर जो स्वयं भिखारी हैं, दूसरों का दारिद्रय कैसे हर सकते हैं । भगवान् 'शान्तिजिनेन्द्र', जो स्वयं शान्ति के प्रतीक हैं, सहज में ही अपने सेवकों के भाव द्वन्द्वों को हर सकते हैं। भूघरदास उन्हीं से ऐसा करने की याचना भी करते हैं । यह जीव सांसारिक कृत्यों के करने में तो बहुत ही उतावला रहता है, किंतु भगवान् के सुमरन में सीरा हो जाता है। जैसे कर्म करता है, वैसे फल में शांति और निराकुलता चाहता है, जो कि पूर्ण रीत्या असम्भव है । भाक बोयेगा, श्राम कैसे मिलेंगे, नग हीरा नहीं हो सकता । जैसे यह जीव विषयों के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता, वैसे ही यदि प्रभु को निरंतर जपे तो सांसारिक प्रशांति को पार कर निश्चय शांति पा सकता है । ४
शान्तभाव को स्पष्ट करने के लिए भूधरदास ने एक पृथक् ही ढंग अपनाया है । वे सांसारिक वैभवों की क्षणिकता को दिखाकर और तज्जन्य बेचैनी को उद्घोषित कर चुप हो जाते हैं और उसमें से शांति की ध्वनि, संगीत की भंकार की तरह फूटती ही रहती है । धन और यौवन के मद में उन्मत्त जीवों को सम्बोधन
१. शान्तरसवारे कहें मन को निवारे रहें
वेई प्रानप्यारे रहें मौर सरवारे हैं ।।
वही, ईश्वर निर्णय पच्चीसी, छठा कवित्त, पृ० २५३ ।
२. भूधरविलास, कलकत्ता, ५३वां पद, पृ० ३० ।
३. वही, ३४ वां पद, पृ० १६ ।
४. वही, २२ वा पद, पृ०
१३ ।
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करते हुए उन्होंने कहा, "ए निपट गंवार नर । तुझे घमण्ड नहीं करना चाहिए । मनुष्य की यह काया और माया झूठी है, अर्थात् क्षणिक है। यह सुहाग और यौवन कितने समय का है, और कितने दिन इस संसार में जीवित रहना है । हे नर! तू शीघ्र ही चेत जा और विलम्ब छोड़े दे। क्षण-क्षण पर तेरे बंध बढ़ते जायेंगे, और तेरा पल-पल ऐसा भारी हो जायेगा, जैसे भीगने पर काली कमरी।"'भूधरदास ने एक दूसरे पद में परिवर्तन शीलताका सुन्दर दृश्य मंकित किया है। उन्होंने कहा, "इस संसार में एक अजब तमाशा हो रहा है, जिसका अस्तित्व-काल स्वप्न की भांति है, अर्थात् यह तमाशा स्वप्न की तरह शीघ्र ही समाप्त भी हो जायेगा । एक के घर में मन की भाशा के पूर्ण हो जाने से मंगलगीत होते हैं, और दूसरे घर में किसी के वियोग के कारण नैन निराशा से भरभर कर रोते हैं । जो तेज तुरंगों पर चढ़ कर चलते थे, और खासा तथा मलमल पहनते थे, वे ही दूसरे क्षण नंगे होकर फिरते हैं, और उनको दिलासा देने वाला भी कोई दिखाई नहीं देता । प्रात: ही जो राजतख्त पर बैठा हुमा प्रसन्न-बदन था, ठीक दोपहर के समय उसे ही उदास होकर वन में जाकर निवास करना पड़ा। तन और धन अत्यधिक अस्थिर हैं,जैसे पानी का बताशा । भूधरदासजी कहते हैं कि इनका जो गर्व करता है, उसके जन्म को धिक्कार है ।" यह मनुष्य मूर्ख है, देखते हुए भी अंधा बनता है । इसने भरे यौवन में पुत्र का वियोग देखा, वैसे ही अपनी नारी को काल के मार्ग में जाते हुए निरखा, और इसने उन पुण्यवानों को, जो सदैव यान पर चढ़े ही दिखाई देते थे, रंक होकर बिना पनहो के मार्ग में पैदल चलते हुए देखा, फिर भी इसका धन और जीवन से राग नहीं घटा। भूधरदास का कथन है कि ऐसी सूसे की अंधेरी के राजरोग का कोई इलाज नहीं है।
"देखौ भरि जोवन में पुत्र वियोग प्रायो,
तैसे ही निहारी निज नारी काल-मग में। जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पै,
रंक भये फिरें तेऊ पनही न पग में । ऐते 4, प्रभाग धन जीतब सों धरै राग,
होय न विराग जाने रहूँगो अलग मैं ।
१. वही, ११ वां पद, पृ०७ । २. वही, ६ वा पद, पृ. ६ ।
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'खिन विलोकि मन्ध : ससे की मंधेरी, . . . . . .
'करै ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मैं ॥"'. . . एक वृद्ध पुरुष की दृष्टि घट गयी है, तन की छबि पलट चुकी है, गति मंद हो गयी है और कमर झुक गयी है । उसकी घर वाली भी रूठ चुकी है, और वह अत्यधिक रंक होकर पलंग से लग गया है। उसकी नार (गर्दन) काँप रही है और मुह से लार चू रही है। उसके सब अंग-उपांग पुराने हो गये हैं, किन्तु हृदय में तृष्णा ने और भी नवीन रूप धारण किया है। जब मनुष्य की मौत माती है, तो उसने संसार में रच-पच के जो कुछ किया है, सब कुछ यहां ही पड़ा रह जाता है। भूधरदास जी ने कहा है, "तीव्रगामी तुरंग, सुन्दर रंगों से रंगे हुए रथ, ऊँचे-ऊँचे मत्त मतंग, दास और खबास, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ और. करोड़ों की सम्पत्ति से भरे हुए कोश, इन सब को यह नर अंत में छोड़ कर चला जाता है । प्रासाद खड़े-के-खड़े ही रह जाते हैं, काम यहाँ ही पड़े रहते हैं, धनसम्पत्ति भी यहाँ ही डली रहती है और घर भी यहाँ ही धरे रह जाते ।" वह
"तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतग उतंग खरे ही। दास खबास प्रवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे ही ।। एसे बढ़े तो कहा भयौ हे नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे ही ।।"3
१. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, ३५ वा पद, पृ० ११ । २. दृष्टि घटी, पलटी तन की छबि,
बक मई गति लक नई है । रूस रही परनी घरनी प्रति, रक भयो परियंक लई है। कांपत नार वहै मुख लार, महामति संगति छोरि गई है। मंग-उपंग पुराने परे तिसना उर और नवीन मई है ।।
जैनशतक, कलकत्ता, ३८ वा सवैय्या, १० १२ । ३. वही, ३१ वा पद, पृष्ठ ११,
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श्री द्यानतराय ने भी भगवान् जिनेन्द्र को शांति प्रदायक ही माना है । वे उनकी शरण में इसलिये गये हैं कि शांति उपलब्ध हो सकेगी । उन्होंने कहा "हम तो नेमिजी की शरण में जाते हैं, क्योंकि उन्हें छोड़कर और कहीं हमारा मन भी नहीं लगता । वे संसार के पापों की जलन को उपशम करने के लिए बादल के समान हैं। उनका विरद भी तारन तरन है । इन्द्र फणीन्द्र और चन्द्र भी उनका ध्यान करते हैं। उनको सुख मिलता है और दुःख दूर हो जाता है । " " यहाँ बादल से भरने वाली शीतलता परम शांति ही है । शांति को ही सुख कहते हैं और वह भगवान् नेमिनाथ के सेवकों को प्राप्त होती ही है । द्यानतराय की दृष्टि में भी राग-द्वेष ही अशांति है और उनके मिट जाने से ही 'जियरा सुख पावैगा', अर्थात् उसको शांति मिलेगी। अरहंत का स्मरण करने से राग-द्वेष विलीन हो जाते हैं, अतः उनका स्मरण ही सर्वोत्तम है । द्यानतराय भी अपने बावरे मन को सम्बोधन करते हुए कहते हैं, "हे बावरे मन ! अरहंत का स्मरण कर । ख्याति, लाभ और पूजा को छोड़कर अपने अन्तर में प्रभु की लगा। तू नर-भव प्राप्त करके भी उसे व्यर्थ में ही खो रहा है और विषयभोगो को प्रेरणा दे-देकर बढ़ा रहा है । प्रारणों के जाने पर हे मानव ! तू पछतायेगा | तेरी श्रायु क्षण-क्षरण कम हो रही है। युवती के शरीर, धन, सुत, मित्र, परिजन, गज, तुरंग और रथ में तेरा जो चाव है, वह ठीक नहीं है । ये सांसारिक पदार्थ स्वप्न की माया की भाँति हैं, और आँख मीचते मीचते समाप्त हो जाते है । अभी समय है, तू भगवान् का ध्यान कर ले और मंगल गीत गा ले । और अधिक कहाँ तक कहा जाये फिर उपाय करने पर भी सघ नहीं सकेगा ।"२
अब हम नेमिजी की शरन ।
और ठौर न मन लगत है, छांडि प्रभु के शरण ॥ १ ॥ सकल भवि अघ दहन वारिद, विरद तारन तरन । इन्द्र चद फनिंद ध्यावं, पाय सुख दुख हरन || २ || द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पहला पद, पद २ । २. अरिहन्त सुमर मन बावरे ।
ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लो लाव रे । नर भव पाय अकारथ खोवै विषय भोग जु बढ़ावरे । प्रारण गये पछिते हैं मनवा, छिन छिन छीजं भावरे । युवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ
चावरे ।
टिप्पडी अगले पृष्ठ पर देखिये
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शुक्लध्यान में निरत तीर्थकर शांति के प्रतीक होते हैं। उनमें से सभी प्रकार की बेचनियाँ निकल चुकी होती हैं । उन्हें जन्म से ही पूर्व संस्कार के रूप में वीतरागता मिलती है । उसी स्वर में वे पलते, बढ़ते, भोग-भोगते और दीक्षा लेते हैं। कभी विलासों में तैरते-उतराते, कभी राज्यों का संचालन करते और कभी शत्रुओं को पराजित करते; किन्तु वह स्वर सदैव पवन की भांति प्राणों में भिदा रहता । अवसर पाते ही वह उन्हें वन-पथ पर ले छोड़ता । चिताएँ स्वतः पीछे रह जातों । वीतगगता शुक्लध्यान के रूप में फूल उठती । नासिका के अग्र भाग पर टिकी दृष्टि 'चिताभिनिरोध' को स्पष्ट कहती। वह एकाग्रता की बात कहती रहती । और फिर मुख पर आनन्द का अनवरत प्रकाश छिटक उठता। अनुभव रस अपनी परमावस्था में प्रकट हो जाता। उसकी झलक से तीर्थकर का सौदर्य अलौकिक रूप को जन्म देता, जिसे इन्द्र, सूर्य और चन्द्र जैसे रूपवन्तों का गर्व विगलित हो बह जाता । यह सच है कि उन परमशांति का अनुभव करते तीर्थंकर के दर्शन से 'प्रशुभ' नामधारी कोई कर्म टिक नहीं सकता था फिर यदि उनके स्मरण से अनहद बाजा बज उठता हो, तो गलत क्या है । जगराम ने लिखा है
निरखि मन मूरति कैसी राज। तीर्थकर यह ध्यान करत हैं, परमातम पद काजै । नासा अग्र दृष्टि कौं धारे, मुख मुलकति मा गाजै । अनुभव रस झलकत मानौ, ऐसा पासन शुद्ध विराजै । अद्भुत रूप अनुपम महिमा, तीन लोक में छाजै । जाकी छबि देखत इन्द्रादिक, चन्द्र सूर्य गण लाजै । धरि अनुराग विलोकत जाकौं,अशुभ करम तजि भाजै ।
जो जगराम बनै सुमिरन तौ, अनहद बाजा बाजै ।।' संसार के दुःखों से त्रस्त यह जीव शाति चाहता है। यहाँ शांति का अर्थ शाश्वत शांति से है । अर्थात् वैभव और निर्धनता दोनों ही में उसे शांति नहीं मिलती । अथवा वह सांसारिक वैभवों से उत्पन्न मुख-विलास को शांति नहीं
यह ससार सुपन की माया, मांख मीचि दिखराव रे । घ्याव-ध्याव रे अब है दाव रे, नाही मगल गाव रे । द्यानत बहुत कहाँ लो कहिये, फेर न कछू उपाव रे ।
द्यानत पद सग्रह, ७० वां पद, पृ० २६-३० । १. हस्तलिखित 'पद-संग्रह', न० ४६२, पत्र ७६, वधीचन्द जी का मन्दिर, जयपुर ।
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मानता । राग चाहे सम्पत्ति से सम्बन्धित हो या पुत्र-पौत्रादिक से, सदैव दाहकारी ही होता है, मखमल और कमख्वाब के गद्दों पर पड़े लोगों को भी बेचैनी से तड़फते देखा गया है । दूसरी ओर गरीबी तो नागिन-जैसी जहरीली होती ही है । भूधरदास की यह पंक्ति “कहूँ न सुख संसार में सब जग देख्यो छान" देशकाल से परे एक चिरंतन तय्य है। इहलौकिक प्राकुलता से संतप्त यह जीव भगवान की शरण में पहुंचता है और जो शांति मिलती है, वह मानों सुधाकर का बरसना ही है, चिंतामणिरत्न और नवनिधि का प्राप्त करना ही है। उसे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे आगे कल्पतरु लगा हुआ है । उसकी अभिलाषायें पूर्ण हो जाती हैं । अभिलाषाओं के पूर्ण होने का अर्थ है कि सांसारिक रोग और संताप सदा-सदा के लिए उपशम हो जाते हैं । फिर वह जिस सुख का अनुभव करता है वह कभी क्षीण नहीं होता और उससे अनुस्यूत शांति भी कभी घटती बढ़ती नहीं । कवि कुमुदचन्द्र को यह विनती शांतरस की प्रतीक है
प्रभु पायं लागौं करूं सेव थारी
तुम सुन लो अरज श्री जिनराज हमारी। घणौं कस्ट करि देव जिनराज पाम्यो ।
है सबै संसारनों दुख वाम्यौ ।। जब श्री जिनराजनी रूप दरस्यौ ।
जब लोचना सुष सुधाधार वरस्यौ । लह्या रतनचिता नवनिधि पाई ।
मानौं पागणे कलपतर आजि आयो । मनवांछित दान जिनराज पायौ ।
गयो रोग संताप मोहि सरब त्यागी॥'
संसार की परिवर्तनशील दशा के प्रकन में जैन कवि अनुपम हैं। परिवर्तनशीलता का अर्थ है-क्षणिकता, विनश्वरता । संसार का यह स्वभाव है । अत: यदि यहाँ संयोग मिलने पर कोई प्रानन्द-मग्न और वियोग होने पर दु:ख-संतप्त होता है तो वह अज्ञानी है । यहाँ तो जन्ममरण, संपत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख चिरसहचर हैं । संसार में यह जीव नाना प्रकार से विविध अवस्थाओं को भोगता
१. देखिए हस्तलिखित गुटका मं० १३३, लेखनकाल-वि० सं० १७७६, मंदिर ठोलियान,
जयपुर।
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हुमा चक्कर लगाता है वह नट की भाँति नाना वेष और रूप धारण कर नृत्य करता है। नृत्य करने की बात सूरदास ने भी, 'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल' शीर्षक पद में भली भाँति स्पष्ट की है। यहाँ नृत्य का अर्थ है कि जीव का संसार के चक्कर में फंसना और तज्जन्य सुख-दुःख भोगना । वह जब तक मावागमन के चक्कर में फंसा है, उसे नाचना पड़ेगा । यदि वह हर्ष और शोक को समान समझ कर सहज रूप में उनसे उदासीन हो जावे तो वह ज्ञानी कहलाये और शांति का अनुभव करे । गीता का यह वाक्य 'सुख दुःखे समे कृत्वा' जैन-शासन में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित है। कवि त्रिभुवनचन्द्र (१७वीं शताब्दी) ने उसका सुन्दर निरूपण किया है
"जहाँ है संयोग तहाँ वियोग सही,
जहाँ है जनम तहाँ मरण को बास है । संपति विपति दोऊ एकही भवनदासी,
जहाँ बसै सुष तहाँ दुष को विलास है । जगत में बार-बार फिरै नाना परकार,
करम अवस्था झूठी थिरता पास है । नट कैसे भेष और रूप होंहि तातें,
हरष न सोग ग्याता सहज उदास है ।।'' संसार में प्रानेवाला यह जीव एक महाघ तत्व से सम्बन्धित है । वह है उसका निजी चेतन । उसमें परमात्मशक्ति होती है। वह अपने प्रात्मप्रकाश से सदैव प्रदीप्त रहता है। किंतु यह जीव उसे भूल जाता है । इसी कारण उसे संसार में नृत्य करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । इस प्रकार भवन में 'भरमतेभरमते' उसे अनादिकाल बीत जाता है। उसे सम्बोधन कर पाण्डे रूपचन्द ने 'लिखा है---अहो जगत के राय ! तुम क्षणिक इन्द्रिय सुख में लगे हो, विषयो में लुभा रहे हो। तुम्हारी तृष्णा कभी बुझती नही। विषयो का जितना अधिक सेवन करते हो, तृष्णा उतनी ही बढ़ती है, जैसे खारा जल पीने से प्यास और तीव्र ही होती है । तुम व्यर्थ ही इन दुग्वों को झेल रहे हो । अपने घर को क्यों नहीं संभालते। अर्थात् तुम्हारा घर शिवपुर है। तुम शिवरूप ही हो। तुम अपना-पर भूल गये हो । तुम इस ससार के मालिक हो । चेतन को यदि यह स्मरण
१. अनित्यपंचाशत (हस्तिलिखित प्रति), लेखनकाल वि० सं० १६५२, गुटका नं० ३५,
लूणकरण जी का मन्दिर, जयपुर ।
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हो जाये कि, वह स्वयं भगवान् है तो संसार के सभी दुख स्वतः उपशम हो जायजहाँ-के-तहाँ पड़े रहें । संसार में जन्म लेने के साथ ही यह जीव विस्मरणशील मनोवेग साथ लाता है । कस्तूरी मृग को यह विदित नहीं रहता कि वह सुगन्धि उसकी नाभि में मौजूद है, जिसके लिए वह भटकता फिरता है । मन्दिर, मस्जिद और काबे में परमात्मा को ढूढनेवाला यह जीव नहीं जानता कि वह तो उसके भीतर ही रहता है । इसीलिए जीव अज्ञानी कहलाता है। इसीलिए वह सांसारिक पाकुलतामों में व्याकुल बना रहता है। उसकी शांति का सबसे बड़ा उपाय है कि वह अपने को पहचाने । पाण्डे रूपचन्द्र ने लिखा है
अपनो पद न विचारि, के अहो जगत के राय।। भव वन छायक हो रहे, शिवपुर सूधि विसराय ।। भव-भव भरमत ही तुम्हें, बीतो काल अनादि । अब किन घरहिं संवारई, कत दुख देखत वादि ।। परम प्रतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहिं गयो सुलझाय । किचित् इन्द्रिय सुख लगे, विषयन रहे लुभाय ।। विषयन सेवत हो भले, तृष्णा तो न बुझाय । ज्यों जल खारो पीवतै, बाढ़े तिस अधिकाय ।।'
श्री सुमित्रानन्दन पंत ने 'परिवर्तन' में लिखा है, "मूदती नयन मृत्यु की रात, खोलती नवजीवन की प्रात, शिशिर की सर्व प्रलयंकर वात, बीज बोतो अज्ञात ।” उनका तात्पर्य है कि मौत में जन्म और जन्म में मौत छिपी है। यह संसार अस्थिर है। जीवन अमर नहीं है । संसार के सुख चिरन्तन नहीं हैं। श्री पंत जी की कविता का स्वर 'जैन टोन' है। यदि यह कहा जाये कि पंत जी की अन्य कविताओं का आध्यात्मिक स्वर जैन परम्परा से ह-बहू मिलता-जुलता है, तो अत्युक्ति न होगी। जैन सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उन सबका अध्ययन होना आवश्यक है। अठारहवी शताब्दी के प्रारम्भ (१७०५) में एक जैन कवि पं० मनोहरदास हुए हैं । भावधारा की दृष्टि से उन्हें श्री पंत जी का पूर्व संस्करण ही कहा जा सकता है। उन्होंने एक जगह लिखा है, "हे लाल ! दिन-दिन प्राव घटती है, जैसे अंजली का जल शनैः शनैः रिस कर नितांत च जाता है । संसार की कोई वस्तु स्थिर नहीं है, इसे मन में भलीभांति समझ ले । तूने अपना बाल
१. देखिए, पाण्डे रूपचन्द जी रचित परमार्थी दोहा शतक', यह 'रूपचन्द-शनक' के
नाम से 'जैन हितैषी' भाग ६, अंक ५-६ में प्रकाशित हो चुका है
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पन खेल में खो दिया । जवानी मस्ती में बिता दी । इतने राग-रंगों में मस्त रहा कि वृद्धावस्था में शक्ति बिलकुल क्षीण हो गई । यदि तूने यह सोचा था कि वृद्ध होने पर जप-तप कर लूगा, तो वह तेरा अनुमान प्रसत्य की छाया ही थी । तू संसार के उन पदार्थों में तल्लीन है, जिनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। वे सेमल के फूल की तरह झूठे हैं। प्रातः के प्रोस कणों की भाँति शीघ्र ही विलुप्त हो जायेंगे।" वे पंक्तियाँ हैं
दिन दिन आव घटै है रे लाल,
ज्यौं अंजली को नीर मन माहिं ला रे । कीयो जाय ठोकर लै रे लाल,
थिरता नहीं संसार मन माहिं ला रे ।। बालपणौं खोयो ख्याल मैं रे लाल,
ज्वाणपणों उनमान मन मांहि ला रे । वद्धपणो सकति घटी रे लाल,
करि करि नाना रंगि मन माहिं ला रे। समकित स्यौं परच्यौ करौ रे लाल,
मिथ्या संगि निवारि मन माहिं ला रे । ज्यौं सुष पावै अति घणा रे लाल,
मनोहर कहैय विचारि मन माहि ला रे ।'
भारतीय मन सदैव भक्ति-धारा से सिञ्चित होता रहा। उसके जन्म-जन्म के संस्करण भक्ति के साँचे में ढले हैं। हो सकता है कि उसकी विधायें विकृत दिशा की ओर मुड़ गई हों, किन्तु मूल में विराजी भक्ति किंचिन्मात्र भी इधरसे-उधर नहीं हुई, यह सच है । एक विलायत से लौटा भारतीय भी मन से भक्त होता है। विज्ञान की प्रयोगशालाओं में डूबा वैज्ञानिक भगवान् को निरस्त नहीं कर पाता । आधुनिकता के पैरोकार परमपिता का नाम लेते देखे गये हैं। वैदिक और श्रमण दोनों परम्परायें भगवान् के नाम में अमित बल स्वीकार करती हैं। सच्चे हृदय से लिया गया नाम कभी निष्फल नहीं जाता। उससे विपत्तियां दूर हो जाती हैं । बेचैन, व्याकुल और तड़फता मन शांति का अनुभव करता है, यह केवल अतिशयोक्ति नहीं है कि गणिका, गज और अजामिल नाम लेने मात्र से
१. देखिए, 'सुगुरुसीष', पं० मनोहरदास रचित, हस्तलिखित गुटका नं० ५४, वेष्टन नं०
२७२, जैन मन्दिर, बड़ौत (मेरठ)।
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तर गए थे। अवश्य ही उसने उनके हृदय में परम शांति को जन्म दिया होगा। परम शांति ही परम पद है-मोक्ष है, संसार से तिरना है। यह बात केवल तुलसी और सूर ने ही नहीं लिखी, जैन कवि भी पीछे नहीं रहे । महा कवि मनराम ने लिखा, "महन्त के नाम से पाठ कर्म रूपी शत्रु नष्ट हो जाते हैं।" यशोविजय जी का कथन है, "अरे प्रो चेतन ! तू इस संसार के भ्रम में क्यों फंसा है। भगवान् जिनेन्द्र के नाम का भजन कर । सद्गुरु ने भगवान का नाम जपने की बात कही है।"२ द्यानतराय का अटूट विश्वास है, "रे मन ! भज दीनदयाल । जाके नाम लेत इक छिन में, कटै कोट प्रधजाल ।"3 कवि विश्वभूषण की दृष्टि में इस बोरे जीव को सदैव जिनेन्द्र का नाम लेना चाहिए। यदि यह परम तत्त्व प्राप्त करना चाहता है तो तन की ओर से उदासीन हो जाये। यदि ऐसा नहीं करेगा तो भव-समुद्र में गिर जायेगा और उसे चहेगति में घूमना होगा। विश्वभूषण भगवान् पदपंकज में इस भांति रांच गए हैं, जैसे कमलों में भौंरा
"जिन नाम ले रे बौरा, जिन नाम ले रे बोरा । जो तू परम तत्त्व कौं चाहै तो तन को लगे न जौरा ।। नातरु के भवदधि में परिहै भयो चहुँगति दौरा । विसभूषण पदपंकज राच्यौ ज्यों कमलन बिच भौंरा॥"
"भैया" भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में भगवद्नाम की महिमा का नानाप्रकार से विवेचन किया है । उनकी मान्यता है कि "भगवान का नाम कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि और पारस के समान है। उससे इस जीव की इच्छायें भरती हैं । कामनायें पूर्ण होती हैं । चिंता दूर हो जाती है और दारिद्र य डर जाता है। नाम एक प्रकार का अमृत है, जिसके पीने से जरा रोग नष्ट हो जाता है । अर्थात्
१. करमादिक अरिन को हर अरिहन्त नाम,
सिद्ध कर काज सब सिद्ध को मजन है ।।
मनराम विलास, (हस्तलिखित प्रति), मन्दिर ठोलियान, जयपुर । २. "जिनवर नाम सार भज मातम, कहा भरम संसारे ।
सुगुरु वचन प्रतीत भये तब, प्रानन्द धन उपगारे ॥" भानन्दधन अष्टपदी, मानन्दघन, मानन्दधन बहत्तरी,
रायचन्द ग्रन्थमाला, बम्बई । ३. यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ६६ वा पद, पृ० २८ । ४. हस्तलिखित पद संग्रह, नं० ५८, दि० जैन मन्दिर, बड़ौत, पृ. ४८ ।
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मृत्यु की आशंका नहीं रह पाती । यह जीव मृत से अमृत की पोर बढ़ जाता है। मौत का भय ही दुख है । उसके दूर होने पर सुख स्वतः प्राप्त हो जाता है। ऐसा सुख जो क्षीण नहीं होता । इसे ही शाश्वत मानन्द कहते हैं। किंतु उसे वही प्राप्त कर पाता है, जो वीतरागता की पोर बढ़ रहा है।" ऐसी शर्त तुलसी ने 'ज्ञान-भक्ति विवेचन' में भी लगायी है । उनकी दृष्टि में हर कोई भगवान् का नाम नहीं ले सकता । पहले उसमें नाम लेने की पात्रता चाहिए । इसका अर्थ यह भी है कि पहले मन का भगवान् की ओर उन्मुख होना आवश्यक है। ऐसा हुए बिना नाम लेने की बात नहीं उठती । उसके लिए एक जैन परिभाषिक शब्द है 'भव्य, उसका तात्पर्य है-भवसागर से तरने की ताकत । जिसमें वह नही उस पर भगवान की कृपा नहीं होती। भव्यत्त्व उपार्जित करना अनिवार्य है । यदि भगवान् के नाम को कोई भव्य जीव लेता है तो उसके भवसागर तरने में कोई कमी नहीं रहती। इस भव्यत्व को वैष्णव और जैन दोनों ही कवियों ने स्वीकार किया।
भारतीय भक्ति परम्परा की एक प्रवृत्ति रही है कि अपने आराध्य की महत्ता दिखाने के लिए अन्य देवों को छोटा दिखाया जाये । तुलसी के राम और सूर के कृष्ण की ब्रह्म, शिव, सनक, स्यन्दन आदि मभी देव आराधना करते हैं। तुलसी ने यहाँ तक लिखा है कि जो स्वयं भीख मांगते हैं, वे भक्तों की मनोकामनाओं को कैसे पूरा करेगे । सूरदास ने अन्य देवों से भिक्षा मांगने को रसना का
१. तेरो नाम कल्पवृक्ष इच्छा को न राखे उर,
तेरो नाम कामधेनु कामना हरत है । तेरो नाम चिन्तामनि चिन्ता को न राखे पास, तेरो नाम पारस सो दारिद हरत है ॥ तेरो नाम अमरत पिये तै जरा रोग जाय, तेरो नाम सुख मूल दुख को हरत है । तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतरागी, भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है ।
सुपंथ-कुपंथ पचासिका, ब्रह्मविलास, भैया भगवतीदास, पृ० १८० । २. भाव सहित खोजइ जो प्रानी ।
पाव भगति मनि सब सुख खानी ।। देखिए, रामचरितमानस, ज्ञान-भक्ति विवेचन ।
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व्यर्थ प्रयास कहा ।' तुलसी का कथन है कि अन्य देव माया से विवश हैं, उनकी शरण में जाना व्यर्थ है। तुलसी की दृष्टि में राम ही शोल, शक्ति और सौन्दर्य के चरम अधिष्ठाता हैं । कृष्ण भी वैसे नहीं हो सकते । सूर का समूचा 'भ्रमर मीत' निर्गुण ब्रह्म के खण्डन में ही खपा-सा प्रतीत होता है । जैन कवियों ने भी सिवा जिनेन्द्र के अन्य किसी को आराध्य नहीं माना। मैंने अपने ग्रन्थ 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि' में भक्तिधारा की इस प्रवृत्ति का समर्थन किया है। मेरा तर्क है कि भक्त कवियों ने यह काम प्राराध्य में एकनिष्ठ भाव जगाने के लिए ही किया होगा। किन्तु साथ ही मैंने यह भी स्वीकार किया है कि इस 'एकनिष्ठता' की प्रोट में वैष्णव और जैन दोनों ही कड़वाहट नहीं रोक सके। दोनों ने शालीनता का उल्लंघन किया। फिर भी अपेक्षाकृत जैनकवि अधिक उदार रहे । उनमें अनेक ने तो पूर्ण उदारता बरती। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि प्रभास पट्टन के सोमनाथ के मन्दिर के उद्धार में सम्राट कुमारपाल को प्राचार्य हेमचन्द्र का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त था। हेमचन्द्र ने बिना तरतमांश के उस देव को नमस्कार किया, जिसके रागादिक दोष क्षय को प्राप्त हो गये हों, फिर वह देव ब्रह्मा, विष्णु, हर या जिन कोई भी हो। उनका एक श्लोक है--
"भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया।
बीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥"3 इसी भॉति एक अन्य जैन भक्त कवि देवी पद्मावती की आराधना करने को उद्यत हुआ तो अन्य देवियों को निन्दा न कर सका। उसने कहा कि देवी पद्मावती ही सुगतागम में तारा, शैवागम में गौरी, कौलिक शासन में बजा और
१. जांचक पं जॉचक कह जाँच
जो जाँचे तो रसना हारी ।।
सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ३४ वा पद, पृ० ३० । २ देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया-विवस विचारे ।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपी हारे ।।
विनयपत्रिका, पूर्वार्ष, १०१ वां पद, पृ० १६२ । ३. प्राचार्य हेमचन्द्र का श्लोक, देखिए मेरा पन्थ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि',
पहला अध्याय, पृ० १२ ।
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सांख्यागम में प्रकृति कहलाती है। उनमें कोई अन्तर नहीं है। सब समान हैं। सब की शक्तियाँ समान हैं। उस मां भारती से समस्त विश्व व्याप्त है। ऐसा प्राराषक ही सच्चा भक्त है, जिसमें दूसरों के प्रति निन्दा और कटुता का भाव मा गया, वह सात्विकता की बात नहीं कर सकता । उसका भाव दूषित है। जिसने भक्ति क्षेत्र में भी पार्टीबन्दी की बात की वह भक्त नहीं और चाहे कुछ हो। ऐसा व्यक्ति शान्ति का हामी नहीं हो सकता । उसका काम व्यर्थ होगा और आराधना निष्फल । वीतरागियों की भक्ति पूर्ण रूप से अहिंसक होनी चाहिए, यदि ऐसी नहीं हुई तो भक्त के भावों की विकृति ही माननी पड़ेगी। किन्तु इस क्षेत्र में बहुत हद तक अहिंसा को प्रश्रय मिला, यह मिथ्या नहीं है। उपर्युक्त श्लोक है
"तारात्वं सुगतागमे, भगवती गौरीति शैवागमे । बजा कौलिकशासने जिनमते पद्मावती विश्रु ता ।। गायत्री श्रुतिशालिनी प्रकृतिरित्युक्तासि सांख्यागमे ।
मातर्भारति ! किं प्रभूत भरिणतं, व्याप्तं, समस्त त्वया ।।" यह पावनता जैन हिन्दी कवियों में भी पनपो। उनके काव्य में अपने पाराध्य की महत्ता है, अन्य देवों की बुराई भी। किन्तु अनेक स्थल तरतमांश से ऊपर उठे हैं, या उन्हें बचाकर निकल गए हैं। महात्मा प्रानन्दघन का ब्रह्म अखंड सत्य था । अखंड सत्य वह है जो अविरोधी हो, अर्थात् उनमें किसी भी दृष्टि से विरोध की सम्भावना न हो। कोई धर्म या प्रादर्श, जिसका दूसरे धर्मों से विरोध हो, अपने को अखण्ड सत्य नहीं कह सकते। वे खण्ड रूप से सत्य हो सकते हैं । प्रानन्दघन का ब्रह्म राम, रहीम, महादेव, ब्रह्मा और पारसनाथ सब कूछ था। उनमें आपस में कोई विरोध नहीं था। वे सब एक थे । न उनमें तरतमांश था और न उनके रूप में भेद था। महात्मा जी का कथन था कि जिस प्रकार मिट्टी एक होकर भी पात्र-भेद से अनेक नामों से पुकारी जाती है, उसी प्रकार एक अखण्ड रूप आत्मा में विभिन्न कल्पनाओं के कारण अनेक नामों की कल्पना कर ली जाती है। उनकी दृष्टि से निज पद में रमने वाला राम है, रहम करने वाला रहमान है, कर्मों का कर्षण करने वाला कृष्ण है, निर्वाण पाने वाला महादेव है, अपने रूप का स्पर्श करने वाला पारस है, ब्रह्म को पहचानने
१. पद्मावती स्तोत्र, २० वां श्लोक, भैरवपद्ममावती कल्प, अहमदाबाद, परिशिष्ट ५,
पृ०२८ ।
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वाला ब्रह्म है । कथन है
इस जीव के निष्कर्म वेतन को ब्रह्म कहते हैं। उनका
" राम कहो, रहमान कहो कोऊ, कान कहो महादेव री । पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेद कहावत नाना, एक मृतिका रूप री 1 तैसे खण्ड कल्पना रोपित, श्राप प्रखण्ड सरूप री । निज पद रमै राम सो कहिए, रहिम करे रहिमान री । कर्षे करम कान सो कहिए, महादेव निर्वाण री । परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विधि साधो भानन्दघन, चेतनमय निष्कर्म री ।।" "
इस प्रकार की उदार परम्पराओं ने जैन काव्यों में शान्ता भक्ति के रूप को शालीनता के साथ पुष्ट किया था। इसी सन्दर्भ में माया की बात भी श्रा जाती है । माया, मोह और शंतान पर्यायवाची हैं । संत, वैष्णव और जैन तीनों ही कवियों ने शान्ति के लिए उसके निरसन को अनिवार्य माना । वह अज्ञान की प्रतीक है । उसके कारण ही यह जीव संसार के आवागमन में फंसा रहता है । यदि वह हट जाय तो समस्त विश्व ब्रह्म रूप प्रतिभासित हो उठे
।
वह दो प्रकार 'हट सकती है-ज्ञान से और भक्ति से । सांख्यकारिका में एक प्रत्यधिक मनोरंजक दृष्टान्त आया है । प्रकृति सुन्दरी है और पुरुष को लुभाने में निपुण है, किन्तु जब पुरुष उसे ठीक से पहचान जाता है, तो लज्जा से अपना बदन ढक दूर हो जाती है । ठीक से पहचानने का अर्थ है कि जब पुरुष को ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह प्रकृति के मूल रूप को समझ जाता है तो वह प्रकृति-माया पलायन कर जाती है । जैन सिद्धांत में ज्ञान ही भ्रात्मा है । यहाँ श्रात्मा का अर्थ है -- विशुद्ध प्रात्मा प्रर्थात् जब जीवात्मा में विशुद्धता प्राती है तो मोह स्वत: ही
१. महात्मा श्रानन्दघन, प्रानन्दघनपदसंग्रह, प्रध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई, ६७ व पद ।
२. प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति ।
या दृष्टाऽस्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥
सांख्यकारिका, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, प्रथम संस्करण, वि० सं० १६६७, ६१ वां श्लोक |
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हटता जाता है। जैन आचार्यों ने माठ कर्मों में मोहनीय को प्रबलतम माना है। 'स्व' को सही रूप में पहचानने में वह ही सबसे बड़ा बाधक है।' उसकी जड़ को निर्मूल करने में ज्ञानी प्रात्मा ही समर्थ है । बनारसीदास का कथन है, "माया बेली जेती तेती रेते में धारेती सेती, फंदा ही को कंदा खोदे खेती को सो जोधा है।' सांख्य-की-सी बात भय्या भगवतीदास ने 'ब्रह्म विलास' में कही है। उन्होंने लिखा कि काया रूपी नगरी में चिदानन्द रूपी राजा राज्य करता है । वह माया रूपी रानी में मग्न रहता है । जब उसका सत्यार्थ की ओर ध्यान गया, तो ज्ञान उपलब्ध हो गया और माया की विभोरता दूर हो गई, "काया-सी जू नगरी में चिदानन्द राज करै, माया-सी जू रानी पै मगन बह भयौ है।"२ कबीरदास ने भी जब उसका भेद पा लिया तो वह बाहर जा पड़ी। उसका भेद पाना, ज्ञान प्राप्त करना ही है । शान के बिना माया मजबूत चिपकन के साथ संसारी जीव को पकड़े रहती है ।
तुलसीदास ने भक्ति के बिना माया का दूर होना असम्भव माना है। इस सम्बन्ध में रघुपति की दया ही मुख्य है । वह भक्ति से प्राप्त होती है । तुलसी ने विनय पत्रिका में लिखा है, 'माधव अस तुम्हारि यह माया, करि उपाय पचि मरिय तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया। जैन कवि भूधरदास ने मोहपिशाच को नष्ट करने के लिए भगवन्त भजन' पर बल दिया। उसको भूलने पर तो मोह से कोई छुटकारा नहीं पा सकता। उन्होंने लिखा है, "मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निजकर कंध वसूला रे । भज श्री राजमतीवर भूधर दो दुग्मति सिर धूला रे । भगवंत भजन क्यों भूला रे ।४" कबीर की दृष्टि में माया मे छुटकारा प्राप्त करने के लिए सतगुरु की कृपा आवश्यक है । कबीर ने सत्गुरु को गोविन्द से बड़ा माना है। उनका कथन है कि यदि गुरु की कृपा न होती तो वह इस जीव को नष्ट कर डालती क्योंकि वह मीठी शक्कर की भांति शीरनी होती है। जायसी ने भी माया का लोप करने के लिए सतगुरु की कृपा
१. नाटक समयसार, मोक्षद्वार, ३ रा पद्य । २. शत अष्टोत्तरी, २८ वा सवैय्या, ब्रह्मविलास, पृ० १४ । ३. विनयपत्रिका, पूर्वार्ध, ११६ वां पद । ४. भूधरविलास, कलकत्ता, १६ वो पद, पृष्ठ ११ वां। ५. कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड । '' सतगुरु की कृपा मई, नहीं तो करती भांड़ ।।
'माया को अंग', ७वीं साग्वी, कबीर प्रन्थावली, काशी, चतुर्थ संस्करण, पृ० ३३ ।
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को महत्वपूर्ण समझा था । उन्होंने लिखा है कि जब तक कोई गुरु को नहीं पहचानता उसके और परमात्मा के मध्य अन्तराल बना ही रहता है । जब पहचान लेता है तो जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं। उनका मध्यन्तर मिट जाता है । जायसी की मान्यता है कि यह अन्तर माया जन्य ही है। भैय्या भगवतीदास को पूरा विश्वास है कि सतगुरु के वचनों से मोह विलीन होता है और प्रात्मरस प्राप्त होता है । बनारसीदास ने गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । मोह जन्य बेचैनी दूर होने का एकमात्र उपाय गुरु का आदेश है । यदि आत्मा 'अलख प्रखय निधि लूटना चाहती है तो उसे गुरु की सवारी से लाभान्वित होना ही चाहिए। उनका कथन है, “गुरु उपदेश सहज उदयागति, मोह विकलता छूटे । कहत बनारसि है करुनारसि अलख अखयनिधि लूटै । इस घट में सुधा सरोवर भरा है । जिससे सब दुख विलीन हो जाते हैं। इस सरोवर का पता लगना श्रावश्यक है । वह सतगुरु से लग सकता है। सतगुरु भक्ति से प्रसन्न होते हैं । उन पर मन केन्द्रित करना पड़ता है । कवि विनय विजय ने लिखा
"सुधा सरोवर है या घट में, जिसतें सब दुख जाय । विनय कहे गुरुदेव दिखावे, जो लाऊ दिल ठाय ॥ प्यारे काहे कू ललचाय ॥ *
आत्मरस ही सच्ची शांति है । वही अलख प्रखय निधि है । वह अनुभूति
के बिना नही होता । ब्रह्म की, भगवान की या परमात्मा की अनुभूति ही आत्मरस है । अनुभूति के बिना लाखों करोड़ों भवों में जप-तप भी निरर्थक हैं। एक स्वांस
१. जब लगि गुरु को महान चीन्हा ।
कोटि अन्तरपट बीचहि दीन्हा || जब चीन्हा तब और न कोई ।
तब मन जिउ जीवन सब सोई ।।
पद्मावत, जायसी, का० ना० प्र० सभा, काशी।
२. सतगुरु वचन धारिले अब के, जाते मोह विलाय ।
तब प्रगटै प्रातमरस भैया, सो निश्चय ठहराय ॥
परमार्थ पद पक्ति, भैया भगवतीदास, २५ वां पद, ब्रह्मविलास, पृ० ११८ |
३. भ्रष्टपदीमल्हार, ८ वां पद्य बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३९ ।
४. 'प्यारे काहे कू' ललचाय' शीर्षक पद, विनयविजय, मध्यात्मपदावली, भारतीयज्ञान
पीठ, काशी, पृ० २२१ ।
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की अनुभूति जितना काम करती है, भव-भव को तपस्या और साधना नहीं । धानतराय ने लिखा है, "लाख कोटि भव तपस्या करतें. जितो कर्म तेरो जर रे । स्वास उस्वास माहिं सो नासै जब अनुभव चित घर रे ।"" बनारसीदास ने अनुभूति को अनुभव कहा है। उसका प्रानन्द कामधेनु, चित्राबेल के समान 'है । उसका स्वाद पंचामृत भोजन जैसा है । कवि रूपचन्द ने 'अध्यात्मसवैया' मैं स्वीकार किया है, "ग्रात्म ब्रह्म की अनुभूति से यह चेतन दिव्य प्रकाश से युक्त हो जाता है । उसमें अनन्तज्ञान प्रकट होता है और यह अपने श्राप में ही लीन होकर परमानन्द का अनुभव करता है ।" आत्मा के अनूपरस का संवेदन करने वाले अनाकुलता प्राप्त करते हैं । प्राकुलता बेचैनी है। जिससे बेचैनी दूर हो जाय, वह रस प्रमुपम ही कहा जायेगा। यह रस अनुभूति से प्राप्त होता है, तो अनुभूति करने वाला जीव शाश्वत सुख को विलसने में समर्थ हो जाता है | पं० दीपचन्द शाह ने ज्ञानदर्पण में लिखा है, "अनुभी विलास में अनंत सुख पाइयतु । भव की विकारता की भई है उछेदना ।।" उन्होंने एक दूसरे स्थान पर लिखा, "अनुभौ उल्हास में अनंतरस पायौ महा ।।" यह अखण्ड रस और कुछ नहीं साक्षात् ब्रह्म ही है। अनुभूति की तीव्रता इस जीव को ब्रह्म ही बना देती है । श्रात्मा परमात्मा हो जाती है। अनुभव से संसार का आवागमन मिटता है । यदि अनुभव न जगा तो, "जगत की जेती विद्या भासी कर रेखावत, कोटिक जुगांतर जो महा तप कीने हैं । अनुभी अखण्डरस उरमें न प्रायो जो तो सिव पद पाव नाहि पर रस भीने हैं ।। " " किन्तु यह महत्वशाली तत्व भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है। महात्मा आनन्दघन का कथन है, "मोको दे निज अनुभव स्वामी - निज अनुभूति निवास स्वधामी ।" इस अनुभूति से जो संयुक्त है वही अनन्त गुणातम धाम है। अनुभव रूप होने के कारण ही भगवान नाम भी दुख हरण करने वाला और प्रतिभव को दूर करने वाला है । महात्मा का कथन है कि प्रभु के समान और कोई नटवा नही है । उसमें से हेयोपादेय प्रकट होते हैं ।
१ द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पद ७३ वो, पृ० ३१ ।
नाटक समयसार, बनारसीदास, बम्बई, १६ व पद्य, पृ० १७-१८ ।
३. देखिए अध्यात्मसवैया, रूपचन्द, मन्दिर ब्रधीचन्द जी, जयपुर की हस्तलिखित प्रति ।
' ज्ञानदर्पण, पं० दीपचन्द शाह, तीनों उद्धरण क्रमश: - पद्य मं० १८१, १७५, १२६, सकलित प्रध्यात्म पंचसंग्रह, पं० नाथूलाल जैन सम्पादित, इन्दौर, वि० सं० २००५, पृष्ठ संख्या -- ६१, ५६, ४४ क्रमशः ।
५. प्रानन्दषनपदसंग्रह, महात्मा प्रानन्दघन, बम्बई, २१ वो पद ।
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अनुभव रस का देने वाला इष्ट है, वह परम प्रकृष्ट और सब कष्टों से रहित है। उसकी अनुभूति ही चित्त की भ्रांति को हर सकती है। वही सूर्य की किरण की भांति प्रज्ञान के तमस को नष्ट करती है। वह माया रूपी यामिनी को काटकर दिन के प्रकाश को जन्म देती है । वह मोहासुर के लिए काल रूपा है
"या अनुभूति रावरी हरै चित्त की भ्रांति । सा शुद्धा तुष भानु की किरण जु परम प्रशान्ति ।। किरण ज परम प्रशान्ति तिमिर यवन जु की नास । माया यामिनी मेटि बोध दिवस जु विभासै ।। मोहासुर क्षयकार ज्ञानमूला विभूती। भाष दौलति ताहि रावरी या अनुभूती ॥"
जैन कवियों के प्रबन्ध और खण्ड काव्यों में 'शान्त-रस' प्रमुख है । अन्य रसों का भी यथा प्रसंग सुन्दर परिपाक हुआ है, किन्तु वे सब इसके सहायक भर हैं । जिस प्रकार अवान्तर कथायें मुख्य कथा को परिपुष्ट करती हैं, उसी प्रकार अन्य रस प्रमुख रस को और अधिक प्रगाढ़ करते हैं। एक प्रबन्ध काव्य में मुख्य रस की जितनी महत्ता होती है, सहायक रसों की उससे कम नहीं। पं० रामचन्द्र शुक्ल प्रवान्तर कथानों को रस की पिचकारियाँ कहते थे, सहायक रस भी वैसे ही होते हैं । वे अवान्तर कथाओं और प्रासंगिक घटनाओं के संघटन में सन्निहित होते हैं और वहाँ ही काम करते हैं। एक महानद के जल प्रवाह में सहायक नदियों के जल का महत्वपूर्ण योगदान होता है, वैसे ही मुख्य रस की गति भी अन्य रसों से परिपुष्ट होती हुई ही वेगवती बनती है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मुख्य रस केवल परिणति होता है, प्रारम्भ नही । यद्यपि प्रत्येक रस अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र और बलवान होता है, किन्तु उसके अन्तरंग में मुख्य रस का स्वर सदैव हल्के सितार की भांति प्रतिध्वनित होता ही रहता है । एक प्रबन्ध काव्य में घटनाएँ, कथाएँ तथा अन्य प्रसंग होते हैं, जिनमें मानव-जीवन के विविध पहलुनों की अभिव्यक्ति रहती है किन्तु उनके जीवन में मुख्य रस एक प्राण तत्व की भाँति भिदा रहता है और उनमें मानव की मूल मनोवृत्तियों को खुला खेलने का पूरा प्रबसर मिलता है । मुख्य रस और मुख्य
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१. अध्यात्मबारहखड़ी, पं० दौलतराम, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत की हस्तलिखित
प्रति, ११८ वा पद्य।
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कथा भी होती है। दोनों में कोई विरोध नहीं होता, दोनों दूध-पानी की भाँति मिले रहते हैं । अत: जैन काव्यों के विषय में डा० शिवप्रसावसिंह का यह कथन "जैन काव्यों में शांति या शम की प्रधानता है अवश्य किन्तु यह प्रारम्भ नहीं परिणति है.। सम्भवतः पूरे जीवन को शम या विरक्ति का क्षेत्र बना देना प्रकृति का विरोध है ।" उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । अन्य काव्यों की भांति ही जैन काव्य हैं । इनमें भी एक मुख्य रस और अन्य रस रहते हैं। केवल शम को मुख्य रस मान लेने से प्रकृति का विरोध है, शृगार या वीर को मानने से नहीं, यह एक विचित्र तर्क है, जिसका समाधान कठिन है ।
जैन महाकाव्य शांति के प्रतीक है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मानव जीवन के अन्य पहलुग्नों को दबा दिया गया है या छोड़ दिया है और इस प्रकार वहाँ अस्वाभाविकता पनप उठी है। जहाँ तक जैन अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का सम्बन्ध है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है-स्वयभू का 'पउमचरिउ', पुष्पदन्त का 'महापुराण', वीर कवि का 'जम्बूस्वामी चरिउ' और हरिभद्र का 'रणेमिणाहचरिउ' पौराणिक शैली में तथा धनपाल धक्कड़ को 'भविसयत्तकहा', पुष्पदन्त का 'गायकुमारचरिउ' और नयनंदि का 'सुदंसरणचरिउ' रोमांचक शैली में लिखे गये हैं। हिन्दी के जैन प्रबन्ध काव्यों में पौराणिक और रोमांचिक शैली का समन्वय हुअा है । सधारु का 'प्रद्युम्नचरित्र', ईश्वर सूरि का 'ललितांग चरित्र', ब्रह्मरायमल्ल का 'सुदर्शनरास', कवि परिमल्ल का 'श्री पालचरित्र' मालकवि का 'भोजप्रबन्ध', लालचन्द लब्धोदय का 'पद्मिनीचरित्र', रामचन्द्र का 'सीताचरित्र' और भूधरदास का 'पार्श्वपुराण' ऐसे ही प्रबन्ध काव्य हैं। इनमें 'पद्मिनीचरित्र' की जायसी के 'पद्मावत' से और 'सीताचरित्र' की तुलसीदास के 'रामचरितमानस' से तुलना की जा सकती है । स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' की महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उनका पूरा विश्वास है कि तुलसी बाबा का रामचरित मानस, 'पउमचरिउ' से
१ विद्यापनि, डॉ. विश्वप्रसार्दासह, हिन्दी प्रचारक पुस्तालय, वाराणसी, द्वितीयसंस्करण,
सन् १६६१, पृ० ११० । २. इनका परिचय मेरे ग्रन्थ 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि', अध्याय २ में
देखिए । ३. पधि चरित्र और सीताचरित्र की हस्तलिखित प्रतियों का परिचय, मेरे उपयुक्त
ग्रन्थ में क्रमशः पृ० २२५ व २३१ पर दिया हुआ है।
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प्रभावित है । पुष्पदन्त के महापुराण का डॉ० पी० एल० वैद्य ने सम्पादन किया हैं। उनकी मान्यता है कि महाकाव्यों में वह एक उत्तमकोटि का ग्रंथ है। 'भविस
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कहा' की खोज का श्रेय जर्मन के प्रसिद्ध विद्वान प्रो० जेकोबी को है। उन्होंने पनी भारत यात्रा के समय इस काव्य को अहमदाबाद से १६१४ में प्राप्त किया था । यह सबसे पहले श्री सी० डी० दलाल और पी० डी० गुणं के सम्पादन में, गायकवाड़ भोरियण्टल सीरीज, बड़ौदा से सन् १९२३ में प्रकाशित. हुप्रा जैकोबी ने भाषा की दृष्टि से और दलाल ने काव्यस्व की दृष्टि से इसे समूचे मध्ययुगीन भारतीय साहित्य की महत्वपूर्ण कृति कहा है । डा० विष्टरनित्स ने लिखा है कि इसकी कथा में थोड़े में अधिक कहने का गुरण कूट-कूटकर भरा है । कार्यान्विति श्रादि से अन्त तक बराबर बनी हुई है । हायकुमारचरिउ की भूमिका में डा० हीरालाल जैन ने उसे उत्तम कोटि का प्रबन्ध काव्य प्रमाणित किया है। 3 सधारु के 'प्रद्युम्नचरित्र' के 'प्राक्कथन' में डा० माताप्रसाद गुप्त ने उसे एक उज्ज्वल तथा मूल्यवान रत्न माना है । भूधरदास के पार्श्वपुराण को प्रसिद्ध पं० नाथूराम प्रेमी ने मौलिकता. सौदर्य तथा प्रसादगुरण से युक्त कहा है।" लालचन्द्र लब्धोदय के पद्मिनी चरित्र और रामचन्द्र के सीताचरित्र को पाण्डुलिपियों के रूप में मैने पढ़ा है और मैं उन्हें इस युग के किसी प्रबन्ध काव्य से निम्न कोटि का नहीं मानता । इनके अतिरिक्त अपभ्रंश और हिन्दी के नेमिनाथ-राजुल से सम्बन्धित खण्डकाव्य हैं। उनका काव्य- सौदर्य अनूठा है । मैंने अपने ग्रंथ 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि में यथा स्थान उनका विवेचन किया है ।
इन विविध काव्यों में युद्ध है, प्रेम है, भक्ति है, प्रकृति के सजीव और स्वाभाविक चित्र है । संवाद - सौष्ठव की अनुपम छटा है । भाषा में लोच और
१. हिन्दी काव्यधारा, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, प्रथम संस्करण, १९४५ ई०, किताव महल इलाहाबाद, पृ० ५२ ।
२. 'ए हिस्ट्री प्राँव इण्डियन लिटरेचर' एम० विष्टरनित्स, १९३३ ई०, खण्ड २, पृष्ठ
५३२ ।
३. 'गायकुमारचरिज', भूमिका माग, डॉ० हीरालाल जैन लिखित |
४ प्रद्युम्नचरित्र, सधार, प० चैनसुखदास सम्पादित, महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाईवे, जयपुर, प्राक्कथन, डॉ० माता प्रसाद गुप्त लिखित, पृ० ५ ।
५. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पं० नाथूराम प्रेमी, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय. हीराबाग, बम्बई, सन् १६१७, पृ० ५६ ।
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भावों में अनुभूति की गहराई है। कहीं छिछलापन नहीं, कहीं उद्दाम वासनामों का नग्न नृत्य नहीं । केवल शांत रस के प्रमुख रस होने से क्या हुमा । प्रबन्ध काव्य में कोई-न-कोई रस तो मुख्य रस होगा ही। उसकी पृष्ठ भूमि में समूचा मानव जीवन गतिशील रहता है, यह प्रबन्ध काव्य की कसौटी पर खरे उतरते हुए भी शांत रस का सुनिर्वाह जैन काव्यों की अपनी विशेषता है और वह वीतरागी परिप्रेक्ष्य में ही ठीक से समझी जा सकती है ऐसा होने पर ही उसका प्राकलन भी ठीक हो सकता है।
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________________ वोर सेवा मन्दिर काल नं. लेखक जैन मसागर शीर्षक जैन शोपीसीदा खण्ड -क्रम संख्या -