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थे, ऐसा मैं मानता माया हूँ। भले ही फिर वह भक्ति प्राध्यात्ममूलक हो, किन्तु थी भक्ति । 'अध्यातमियाँ सम्प्रदाय' का सदस्य होने के कारण बनारसीवाल ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' और उस पर लिखे गये अमृतचन्द्राचार्य के कलशों तथा राजमल्ल की बालबोधिनी टीका का सूक्ष्म अध्ययन किया था। ये सब दर्शन के ग्रन्थ हैं, किन्तु बनारसीदास को जन्म से ही एक भावुक कवि का हृदय प्राप्त हना था । अल्पवय में ही एक सहस्र-पद्य प्रमाण की रचना इसका प्रमाण है । व्यापार में असफल होकर मधुमालती की कथा सुनाने वाला अवश्य ही सहृदय था । भक्ति और भाव का गहरा सम्बन्ध है। बनारसीदास दर्शन पढ़कर भी दार्शनिक न बन सके । उन्होंने समूचे आध्यात्मिक अध्ययन को भक्ति और भाव के सांचे में ढाल दिया । वे प्रथमतः भक्त थे, फिर और कुछ। अध्यात्म की प्राधार भूमि ने उनको प्रध्यात्ममूला बना दिया है। उसे हम ज्ञानमूला भी कह सकते हैं। मैंने 'कवि बनारसोदास की भक्ति साधना' में, यह सब कुछ विशद रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
'जैन समाधि और समाधिमरण' में जैन-बौद्ध और हिन्दू ग्रन्थों में वरिणत समाधियों का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। समाधिमरण और सल्लेखना जैनों का अपना एक विशेष तत्त्व है। इस पर कुछ अनजानकार लोग दोषारोपण करते रहते हैं कि वह आत्महत्या है। मैंने अपने निबन्ध में प्रमाण, तर्क और पागम के आधार पर इसका निराकरण किया है । भनेकानेक उद्धरण भी प्रस्तुत किये है। जिज्ञासु अवश्य ही समझ सकेगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
'भगवान् महावीर और उनके समकालीन जैन साधक' निबन्ध को और अधिक विस्तृत करना चाहता था, किन्तु समयाभाव के कारण ऐसा न कर सका । फिर भी जितना है, उससे तत्कालीन युग का परिचय तो अवश्य ही मिल जाता है। सच यह है कि महावीर के पंचायम में बहुत से पापित्यिक सम्मि. लित हो गये और कुछ नहीं भी हुये । वे भी अपने को जैन साधक मानते रहे। इनका पूरा विवरण एक ग्रंथ की अपेक्षा रखता है ।
अन्त में, इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि 'जैन शोध और समीक्षा' के रूप में मेरा यह प्रयत्न यदि पाठकों को भाया पौर रुचा तो मैं उसे कृतकृत्य समझंगा। परम पूज्य १०८ मुनिश्री विद्यानन्दजी ने इस ग्रंथ के सभी शोध निबन्धों को प्राद्योपान्त देखा है । उन्हें रुचिकर हुए और उन्होंने हिन्दी भाषा