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रूप नहीं पाया जाता।"" मैंने जहाँ तक उन्हें पढ़ा और समझा है, उनमें विध्वंसात्मकता नाम-मात्र को भी नहीं है। उन्होंने अपने विचारों को प्रस्तुत-भर किया है, कण्ह या सरह की तरह किसी को डांटा-डपटा या फटकारा नहीं है। केवल ग्रन्थ-शान मोक्ष नहीं दिला सकता, उसके लिए 'ॐ' का उच्चारण मावश्यक है, इसको प्रस्तुत करते हुए रामसिह ने लिखा
बहुवह पढियहं मूढ पर तालू सुक्का जेरण । एक्कु जि अक्खरु पढहु सिवपुरि गम्मइ जेण ॥
पाहुड दोहा-१७ इसका अर्थ है- "अरे मूढ़ ! तूने बहुत पढ़ा, जिससे तेरा तालू सूख गया । अरे ! तू उस अक्षर को क्यों नहीं पढ़ता, जिसके पढ़ने से जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है।" यह किसी को फटकारना नहीं, अपितु अपने को ही समझाना है।
___ जहाँ भक्ति है, वहाँ शान्त-रस अनिवार्य है, दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध है । अजैन भक्ति-परक काव्यों में भी शान्त-रस ही प्रधान माना जाता है। जैन काव्य तो प्रायः अध्यात्म-मूला भक्ति के निदर्शन ही हैं। अतः उनमें शान्त-रस की जैसी रसधार देखने को मिलती है, अन्यत्र नहीं। जैनाचार्यों ने शान्त को रसों का नायक माना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने और रसों को अहमियत नहीं दी । वीर, शृगार, रौद्र आदि रस भी वहाँ यथाप्रसंग स्वाभाविक रूप से आये हैं, किन्तु प्रमुखता शान्त रस को ही है। वह उनके विषय के अनुकूल था । जहाँ अनन्त ज्ञान और दर्शन रूप आत्मा जीवन का लक्ष्य होगी, वहाँ शान्त ही रस-नायक होगा। मैंने अपने निबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी काव्य में शान्ता भक्ति' शीर्षक के अन्तर्गत, मध्ययुगीन हिन्दी के जैन भक्ति-परक काव्यों को माधार बनाकर भक्ति और शान्तरस का सम्बन्ध दिखाने का प्रयास किया है । पाठक उसका मूल्यांकन करेंगे।
बनारसीदास मध्यकालीन हिन्दी काव्य के सामर्थ्यवान कवि थे। उन पर डॉ० रवीन्द्रकुमार जैन ने एक शोध-प्रबन्ध लिखा है। अब यह पुस्तकाकार रूप में भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हो गया है। किन्तु उसमें मुझे कहीं बनारसीदास की भक्ति-विवेचना प्राप्त नहीं हुई। बनारसीदास एक भक्त कवि
१. वही, पृ. ३४८ ।
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