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रूप में 'रूपक' हैं, जबकि सूरदास प्रादि के पृथक्-पृथक् पदों में तो रूपक हैं, किन्तु उनकी कोई ऐसी रचना नहीं, जिसमें समूचे रूप में 'रूपक' संज्ञा दी जा सके 1 जैनों में यह परम्परा पहले से थी । प्राध्यात्मिकता और ज्ञान-बहुला भक्ति उसका मुख्य प्राधार था। जैन हिन्दी में पाण्डे जिनदास का 'मालीरासो', उदयराज जती का 'वैद्यविरहिणी प्रबन्ध', कवि सुन्दर दास का 'धर्म सहेली', पाण्डे रूपचन्द का 'खटोलना गीत', हर्षकीर्ति का 'कर्म हिण्डोलना', छोहल का 'पंच सहेली गीत' और 'पंथी गीत', बनारसीदास का 'मांझा', 'तेरह कोठिया', 'भव - सिन्धु चतुर्दशी', प्रध्यात्महिण्डोलना, प्रजयराज का 'चरखा चउपई एवं 'शिवरमणी विवाह' और भैय्या भगवतीदास का 'चेतन कर्मचरित्र', 'मघुबिन्दुक 'चपई' और 'सुभा बत्तीसी' प्रसिद्ध रूपक काव्य हैं । कवि बनारसीदास का 'नाटक समयसार एक उत्तम रूपक है । उसमें सात तत्व अभिनय करते हैं । जीव नायक और अजीव प्रतिनायक है । ऐसी सरस कृति हिन्दी के भक्ति काव्य को एक अनूठो देन है । बहुत समय पूर्व, इसका एक अच्छा सम्पादन तथा प्रकाशन पं० नाथूराम प्रेमी ने किया था । अब उपलब्ध नहीं होता । उसके नये सम्पादन प्रौर प्रकाशन की महती आवश्यकता है। इनके अतिरिक्त, 'फागु', 'बेलि' और 'चूनडी' ऐसी कृतियाँ हैं, जो समूचे रूप में रूपक हैं । उनके रचयिता क्षमतावान कवि थे । 'बेलि' काव्य पर तो एक पूरा शोध प्रबन्ध ही रचा जा चुका है। फागु प्रौर चुनडी काव्यों पर भी काम हो रहा है । 'फागु काव्य' पर तो शीघ्र ही शोध ग्रन्थ प्रकाशित होगा ।
सूरसागर की भांति जैन कवियों के पदों में से एक-एक में भी 'रूपक' 'सन्निहित है । भूधरदास के 'मेरा मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि, यार लाव न बार रे', 'जगत जन जूवा हारि चले', 'चरखा चलता नाहीं, चरखा हुआ पुराना', द्यानतराय के 'परमगुरु बरसत ज्ञान झरी', 'ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन', भैय्या के 'कायानगरी जीवनृप, भ्रष्टकर्म प्रति जोर', तथा बनारसीदास के 'मूलन बेटा जायो रे साधो, मूलन बेटा जायो रे' में रूपकों का सौन्दर्य है । जैन कवियों के रूपक अधिकांशतया प्रकृति से लिए गए हैं। श्रतः इनमें सौन्दर्य है और शिवत्त्व भी । वे निर्गुनिए संतो की भांति कला-हीन भी नहीं हैं । देवाब्रह्म के पदों में चेतन और सुमति की होली से सम्बन्धित अनेक रूपक हैं, जिनके भाव अनुभूतिमय है तो भाषा निखरे रूप का निदर्शन है । कवि अपने विचारों का भावोन्मेष करता हुआ कवित्व के सांचे में ढालता गया है । जगतराम के पदों में भी रूपकों की सुन्दर छटा है। उनमें जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करने की पूर्ण सामर्थ्य है । कहीं त पैदा नही होती। मन रमता है। अंतः मौर बाह्य
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