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थे-पं० ० रूपचन्द, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुअरपाल, भौर धमदास ।' प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' की राजमल जी कृत बाल-बोध टीका पढ़कर उन्हें अध्यात्म चर्चा में रुचि उत्पन्न हुई थी, वह वि० सं० १६६२ में पाण्डे रूपचन्द जी से गोम्मटसार पढ़ने के उपरान्त परिष्कृत हुई। परिणाम स्वरूप वे अध्यात्म मत के पक्के समर्थक बन सके । किन्तु इन्होंने 'आत्मा' पर केवल चिन्तन और मनन नहीं किया, श्रपितु उसे अपनी अनुभूति का विषय बनाया। उनकी दृष्टि में आत्मा अनुभव थी और उसका रस पंचामृत- जैसा स्वादिष्ट । वे मूलत: साहिfore थे। उन्होंने 'अध्यात्मवाद' को भावोन्मेष के सांचे में ढाला । अतः वे ज्ञान क्षेत्र के प्राध्यात्मवादियों से पृथक् रहे । उन्हें श्रात्मा का रस प्राप्त करने के लिए अपना मन किसी ब्रह्मरन्ध्र पर केन्द्रित नहीं करना पड़ा। वे न योगी थे, न तपी और न ध्यानी । उनमें अनुभूति प्रमुख थी । उसकी अन्तश्चेतना ने श्रध्यात्म और भक्ति को सन्निकट ला दिया था। यदि यह कहें कि बनारसीदास प्रध्यात्मिक भक्ति के प्रणेता थे, तो अनुपयुक्त न होगा ।
प्राध्यात्मिक भक्ति का अर्थ है, आत्मा को आधार मानकर की गई भक्ति । जैनदर्शन में प्रात्मा ज्ञान को कहते है । इसका तात्पर्य निकला कि बनारसीदास ज्ञानमूला भक्ति मानते थे । ज्ञान-भक्ति का जैसा समन्वय जैन काव्यों में निभ सका, अन्य किसी मे नहीं। इसका कारण है कि निराकार, श्रदृश्य और श्ररूपी श्रात्मा तथा साकार और रूपी तीर्थंकर या केवलज्ञानी मुनि में, जैन प्राचार्य कोई तात्त्विक भेद नहीं मानते । यहाँ जो ब्रह्म ज्ञान क्षेत्र का विषय है, वह ही भाव क्षेत्र का भी । दोनों के रूपों में कोई अन्तर नहीं है । दूसरी बात है कि जैन दार्शनिक 'सुश्रद्धा' के समर्थक रहे हैं। 'सुश्रद्धा' उसी को कहते हैं, जो परीक्षापूर्वक की जाती है। आचार्य समन्तभद्र ने जिनेन्द्रदेव की भली भाँति परीक्षा की थी, तब उन्होंने जिस श्रद्धा के फूल चढ़ाये, वह सुश्रद्धा ही थी । यहाँ सिद्ध है
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१. रूपचन्द पण्डित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम ।
तृतीय भगौतीदास नर, कौरपाल गुन धाम || धर्मदास ये पंच जन, मिलि बैठें इक ठोर । परमारथ चरचा करें, इनके कथा न भोर ॥ -- नाटक समयसार, बम्बई, अन्तिम प्रशस्ति, दोहा २६-२७ ।
२. धनुमो की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, अनुभो को स्वाद पंच प्रमृत को कौर है । वही, पृ० १७ ।
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