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________________ Answm GARDERATUpad N कहा जाता है। तभी तो वे बादल के समान पाप रूपी धूल को हरने में समर्थ हाते हैं। उनके भक्त को संसार के आवागमन का भय नहीं रहता। वे यमं को दल डालते हैं और नरक-पद को तो समाप्त ही कर देते हैं । उनका भक्त प्रगम्य और प्रतट भव-जल को तैर कर पार कर जाता है । उन्होंने स्वयं मदन-रूपी-वन को शांकरीय अग्नि के ताप से भस्म कर दिया है। ऐसे प्रभु के जै-जै के गीतों से सब दिशायें ध्वनित हो उठती हैं । बनारसी ने भी उनकी चरण-वन्दना करते हुए लिखा है-- "पर अघ रजहर ' जलद, सकल जननत भव-भय-हर । जम-दलन नरकपद-क्षय-करन, अगम प्रतट भव--जल-तरन ।। वर सबल-मदन-वन-हरदहन, जय-जय परम अभय करन ।" बनारसी का आराध्यदेव देव ही नहीं हैं, अपितु देवों का देव है । इन्द्रादिक उनके चरणों का स्पर्श कर धन्यभाग्य बनते हैं। ऐसा करने से मुक्ति स्वयं प्राप्त हो जाती है । प्रयास नहीं करना पड़ता, तप नहीं तपना पड़ता, साधना नहीं साधनी पड़ती। वह मुक्ति जो चरणों का स्पर्श करते ही सध जाय, सच्ची मुक्ति है। उसमें ज्ञान की ऊष्मा नहीं, भाव-भीनी शीतलता होती है । यह ही मुक्ति भक्त कवियों की अनुभूति का विषय है। 'मुक्ति,' जिसे कबीर ने 'ब्रह्मलोक' कहा; सदैव दिव्य ज्योति से प्रकाशवन्त रहती है। बनारसी का देव भी सूर्य के समान प्रभामंडल से व्याप्त है। उसके प्रभाव से मिथ्यात्व-रूपी अन्धकार जड़-मूल से नष्ट हो जाता है और प्रकाश सतत छिटका रहता है । मुक्ति उसी का प्रकाश पादेदीप्यमान बनती है। ऐसा देव दीनदयालु होता ही है । उसके इसी गुण के सहारे भक्त दुःख १. वही, दूसरी स्तुति, नाटक समयसार, पृ० १-२ । २. जगत मे सो देवन को देव । जासु चरन परसें इन्द्रादिक होय मुकति स्वयमेव ।। -अध्यात्मपदपंक्ति, १५ वाँ पद्य, बनारसी विलास, पृ० २३२ । ३. सूर समान उदोत है, जग तेज प्रताप घनेरा । देखत मूरत मावसों, मिट जात मिथ्यात प्रधेरा ॥ -वही, २१ वा पद्य, विलास, पृ० २३६ । GANA 5555555 १३९कऊऊऊऊऊy
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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