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रुकना होता है । 'समवशरण में बैठकर संसार को उपदेश देते हैं। उनके शरीर होता है, वे दिखाई देते हैं हिन्दी के भक्त कवियों ने अर्हन्त की भक्ति में बहुत कुछ लिखा है । इसी सकल भक्ति-धारा में प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, देव - देवियों, चैत्य, पूर्ति, मन्दिर र तीर्थ क्षेत्रों को लिया जा सकता है । ये सब सशरीर हैं और दिखाई देते हैं । किन्तु जैन हिन्दी के भक्त कवियों को निष्कल और सकल भक्ति धाराम्रों में पृथक-पृथक नहीं बांटा जा सकता, जैसा कि पं० रामचन्द्रशुक्ल ने निगुण और सगुण भक्ति धारानों के रूप में स्पष्ट विभाजन किया है । हिन्दी का ऐसा कोई जैन कवि नहीं है, जिसे हम केवल सिद्ध या अर्हन्त का ही भक्त कह सके । प्रत्येक जैन कवि ने यदि एक ओर सिद्ध और आत्मा की भक्ति में अपने भाव अभिव्यक्त किये, तो दूसरी र अर्हन्त, प्राचार्य या किसी देव-देवी के चरणों में भी अपनी श्रद्धा के पुष्प बिखेरे हैं ।
वीरगाथा काल में जैन भक्ति कवि
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के कथनानुसार प० रामचन्द्र शुक्ल ने जिस काल को वीरगाथा काल नाम दिया है, उसमें वीरगाथाश्रो की अपेक्षा धार्मिक कृतियाँ अधिक थीं । पं० शुक्ल ने उन कृतियों को सूचना मात्र कह के छोड़ दिया था । इन कृतियों में जैन भक्ति सम्बन्धी रचनायें हैं । उनमें धार्मिकता हैं, तो साहित्यिकता भी । धार्मिक होने मात्र से ही कोई रचना साहित्यिक नही हो जाती । मूल प्रवृत्तियों का भावोन्मेष ही साहित्य है, फिर भले ही उसका मुख्य स्वर धर्म अथवा अन्य किसी विषय से सम्बन्धित हो। इसी कारण कबीर ग्रन्थावली और रामचरितमानस साहित्य के ग्रन्थ माने जाते हैं ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल, वि० सं० १०५० (सन् ९८३) से वि० सं० १३७५ (सन् १३१८) तक निर्धारित किया गया है। इसके पूर्व बहुत पहले ही, प्राकृत और अपभ्रंश के अतिरिक्त देश भाषा का जन्म हो चुका था । धर्मशास्त्री नारद ने लिखा है कि "संस्कृतैः प्राकृतेर्वाक्यैः शिष्यमनुरूपतः । देशभाषाद्युपायैश्च बोधयेत् स गुरुः स्मृतः । ।" डा० काशीप्रसाद जायसवाल का कथन है कि प्राचार्य देवसेन ( वि० सं० ६६०) के पहले ही 'देश भाषा' प्रचलित हो चुकी थी । श्राचार्य देवसेन ने अपने श्रावकाचार में जिन दोहों का उपयोग किया है, वे देश भाषा के ही है । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति कारंजा के सेनगरण मन्दिर के पुस्तक भंडार में मौजूद है। इसमें श्रावकों के लिये
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