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सरस्वती की कृपा हुई और कवित्व शक्ति का जन्म हुआ ।” संवेगसुन्दर उपाध्याय ( वि० सं० १५४८) भी ऐसे ही एक कवि थे । उनमें कवित्व शक्ति का जन्म गुरु के सान्निध्य से हुआ था । इनकी कवित्व शक्ति को स्फुरण देने के लिए प्रयत्न भले ही हुआ हो, किन्तु वे 'कृच्छ प्रयत्न-साध्य' नहीं थे, ऐसा उनकी कविता से प्रमाणित ही है ।
मन्त्र विद्या का शिक्षण सूरिसंघ भोर भट्टारक सम्प्रदाय की विशेषता थी । यह विद्या १६ वर्ष से कम के विद्यार्थी को नहीं दी जाती थी । ईश्वर सूरि ( वि० सं० १५६१ ) ने नाडलाई के मन्दिर की आदिनाथ की प्रतिमा का मन्त्र के बल पर ही उद्धार किया था । यह वह प्रतिमा थी, जिसे यशोभद्रसूरि ( वि० सं० ६६४ में ) मन्त्र शक्ति के बल पर लाये थे । भट्टारक ज्ञानभूषरण को जो असीम ख्याति प्राप्त हुई थी, उसका कारण विद्वत्ता और कवित्व शक्ति के साथ मन्त्र शक्ति भी थी। उन्हें ये तीनों शक्तियाँ अपने गुरु भुवनकीर्ति से प्राप्त हुई थीं। इनके आधार पर ही राजाधिराज देवराज ने उनके चरणों की प्राराधना की थी । भट्टारक शुभचन्द्र भी इसी परम्परा में हुए हैं। उन्हें तो 'त्रिविध विद्याधर' और 'षटभाषा कवि चक्रवर्ती' कहा जाता है । वे भी मन्त्रविशारद थे। दोनों उपर्युक्त भट्टारकों की गणना हिन्दी के उत्तम कवियों में की जाती है । इन विद्वानो के निर्माण का श्रेय गुरु को तो है ही, किन्तु संघों के उस वातावरण को भी है, जिसके निर्माण में परम्पराएँ खप गई होंगी । विद्यार्थी को प्रेरणा मिलती थी और वह अधिकाधिक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता ही
जाता था ।
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विद्वानों की विद्या प्राप्ति में राजाओ के हस्तलिखित संग्रहालयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । उन्होंने इन संग्रहालयों में बैठकर विद्याध्ययन किया और नवीन कृतियो का निर्माण भी किया। कहा जाता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपना प्रसिद्ध शोध ग्रन्थ 'समयसार' एक राजपुस्तकालय में ही बैठकर पूरा किया था | हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि विनयचन्द्र मुनि (वि० सं० १५७६) ने अपना ख्याति प्राप्त काव्य 'चूनड़ी' गिरिपुर के नरेश अजयराज के राजविहार में बंठकर लिखा था ।
हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह राजपुस्तकालयों के अतिरिक्त प्रत्येक जैन मन्दिर के सरस्वती भण्डारों में भी रहता था । आज भी जैन मन्दिर सरस्वती भण्डारों के बिना अधूरे ही माने जाते हैं । उस समय बड़े-बड़े नगरों के प्रमुख मन्दिरों के सरस्वती भण्डार ऐसे हस्तलिखित ग्रन्थों से भरे रहते थे । उनसे
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