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________________ AAAAA तुलना से मेरा तात्पर्य खींचतान से नहीं है । निष्पक्षता समीक्षा का धारण है । यदि समीक्षक निष्पक्ष नहीं तो वह समीक्षा एक वर्ग विशेष मे क्षणिक समाहत होकर चुक जाती है-सदा के लिये । हमें अपनी बात एक प्रामाणिक पृष्ठभूमि, स्वस्थ दृष्टिकोण और किसी का विरोध किये बिना प्रस्तुत करनी होगी । श्राज नहीं तो कल, उसका स्वीकृत हो जाना अनिवार्य है । मेरा तात्पर्य तुलनात्मक होने से तो है, किन्तु हिंसक होने से नहीं । श्रहिंसा ब्रह्म है और वह तुलना के बीच भी हलके सितार की तरह संकृत होनी ही चाहिए। मैंने अपने निबन्धों में भरसक निष्पक्ष रहने का प्रयत्न किया है । कत्रियों के लिखे हुए अनेक महाकाव्य हैं। उनमें धर्म है, उपदेश है, किन्तु रसधार भी अल्प नहीं है। किसी धर्म से सम्बन्धित होने मात्र से कोई काव्य 'साहित्य' संज्ञा से वञ्चित नहीं हो जाता। रामचरितमानस और सूरसागर वैष्णवधर्म से सम्बद्ध होने पर भी सहृदयों के कण्ठहार रहे हैं। स्थायी साहित्य की कोटि में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । कबीर की साखी, शब्द और रमैनी उपदेश-प्रधान होते हुए भी काव्य-मय तो हैं ही। उनका काव्यत्व असंदिग्ध है । जायसी आदि सूफी कवि भी प्रदृष्ट की ओर इशारा करते हुए दार्शनिक से प्रतीत होते हैं, किन्तु उनकी भावुकता साहित्य का प्रारण है। वैसे ही जैनधर्म से निबद्ध होते हुए भी जैन काव्य अपनी भावसंकुलता, रसमयता और वाग्विदग्धता के कारण 'साहित्य' की कसौटी पर भी खरे हैं । रायचन्द का 'सीताचरित्र' एक उत्तमकोटि का प्रबन्धकाव्य है । कथानक के सूत्रों का निबन्धन, गतिमयता, उसका सहज प्रवाह, नगीने से जड़ा-सा एक-एक चरित्र, सब कुछ स्वाभाविक है और महान् । भाषा जैसे भावों की चेरी । शील में खिंची-सी, सौन्दर्य की प्रतीकसी, मन्द मन्द गामिनी सीता 'सीताचरित्र' की विभूति है। रामचरितमानस की सीता भी हूबहू ऐसी ही है। उसे देख कर महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को अकस्मात् १० वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि स्वयम्भू की याद भाई। उन्होंने विश्वास पूर्वक लिखा कि तुलसी बाबा ने सीता का यह चित्र 'पउमचरिउ' से लिया । उन्हे और कहीं न मिला होगा। तुलसी के 'नाना पुराण निगमागमसम्मत' सूत्र से यह प्रसम्भव भी नहीं लगता । स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' की अनेक परम्पराएँ हिन्दी में श्रायीं, ऐसा मैं मानता हूँ । उसके विधिवत् विश्लेषण की महती आश्वयकता है, किन्तु वह एक पृथक निबन्ध का विषय है । यह सच है कि जैनों का राम-सीता विषयक विपुल साहित्य है - प्राचीन और मध्यकालीन विविध भारतीय भाषाओं में । उनका अध्ययन 55555555 356666666
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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