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________________ भूमिका 'जैन शोध और समीक्षा' में मेरे १० शोध निबन्ध हैं। मैंने उन्हें समयसमय पर लिखा है । शोध सतत प्रवाह है। हम नहीं कह सकते कि हमने जो कुछ लिखा है, वह उतना और वैसा ही है । मैं नहीं चाहता कि इन निबन्धों की मान्यताओं को मील का अन्तिम पत्थर समझा जाये। इन पर अनुसन्धित्सु मौर शोध-खोज करें, यदि कुछ नया ला सकें तो मुझे प्रसन्नता ही होगी। जैन साहित्य विपुल है । स्थान-स्थान पर जैन भण्डार हस्तलिखित ग्रन्थों से भरे पड़े हैं । उनको खोजना, पढ़ना फिर उनका सम्पादन और प्रकाशन - सब कुछ परिश्रम-साध्य है । यदि यह हो सके तो भारतीय साहित्य, विश्व में और अधिक गौरवास्पद होगा, ऐसा मुझे विश्वास है । मूल साहित्य की खोज एक बात है और फिर उसे प्राधुनिक समीक्षा और तुलनात्मक अध्ययन के साथ प्रस्तुत करना दूसरी बात है। जैन सन्दर्भ में दोनों काम एक साथ करने होते हैं। ऐसा किये बिना मूल मूल्यवान नहीं बन पाता, उसे उचित स्थान नहीं मिलता और वह श्रादरास्पद होते हुए भी उपेक्षित-सा रह जाता है । प्राचीन और मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य, उत्तम कोटि का साहित्य है । इसे जिन्होंने पढ़ा है, उसके महत्व को स्वीकार करते हैं। उसे केवल धर्म कह कर छोड़ा नही जा सकता। किन्तु, हो ऐसा ही रहा है। बनारसीदास, धानतराय, भूधरदास, मानन्दघन आदि अनेक ऐसे जैन कवि हुए, जिन्होने सामर्थ्यवान हिन्दी साहित्य की रचना की। मध्यकाल के अन्य हिन्दी कवियों के साथ उन्हें स्थान मिलना ही चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है, जब उनके काव्य की सामर्थ्य और प्राणवत्ता तुलनात्मक अध्ययन और समीक्षा के साथ प्रस्तुत की जाये । 65555555 305055055
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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