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धर्मरूपी फाम खेल रहा है। इस भौति भारमध्यान के बल से परम ज्योति प्रकट हुई, जिससे प्रष्ट कर्म रूपी होली जल गई है और पात्मा शांत रस में मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा।"
कवि धानतराय ने दो जत्थों के मध्य होली की रचना की है। एक मोर तो बुद्धि, दया, क्षमारूपी नारियाँ हैं और दूसरी मोर मात्मा के गुणरूपी पुरुष हैं । ज्ञान मोर ध्यान रूपी डफ तथा ताल बजा रहे हैं, उनमें अनहद रूपी घनघोर नाद निकल रहा है । धर्मरूपी लाल रंग का गुलाल उड़ रहा है और समता रूपी रंग दोनों ही पक्षों ने घोल रखा है। दोनों ही दल प्रश्न के उत्तर की भांति एक दूसरे पर पिचकारी भर-भर कर छोड़ते हैं । इधर से पुरुष वर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, उघर से स्त्रियां पूछती हैं कि तुम किसके छोरा हो । माठ कर्मरूपी काठ अनुभवरूपी अग्नि में जलभुन कर शांत हो गये। फिर तो सज्जनों के नेत्र रूपी चकोर, शिवरमणी के मानन्दकन्द की छवि को टकटकी लगाकर देखते ही रहे । भूधरदास की नायिका ने भी अपनी सखियों
१. विषम विरष पूरो भयो हो, मायो सहज बसंत ।
प्रगटी सुरुचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयमंत । सुमति कोकिला गहगही हो, वही अपूरब वाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ताउ ।। शुभ दल पल्लव लहलहे हो, होहिं अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरत वेलि विस्तार । सुरति पग्नि ज्याला जगी हो, समकित भानु प्रमंद । हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरंद ।। परम ज्योति प्रगट भई हो, लागि होलिका माग । पाठ काठ सब जरि बुझे हो, गई तताई माग ।।
बनारसीविलास, जयपुर, अध्यात्मफाग, पृ० १५४-५५ । २.मायो सहज बसंत खेल सब होरी होरा।।
उत बुधि दया छिमा बहु ठगढ़ीं, इत जिय रतनसजे गुन जोरा ।। ज्ञान ध्यान अफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत धनघोरा । धरम सुहाग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहू ने घोरा ।। परसन-उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों करि-करि जोरा। इत से कहें नारि तुम काकी, उत तें कहें कोन को छोरा ।। पाठ काठ अनुभव पावक मैं, जल बुझ शान्त भई सब मोरा। चानत शिव मानन्द चन्द छवि, देखहिं सज्जन नैन चकोरा ॥
चानत पद संग्रह, धानवराय, कलकत्ता,'८६ वा पद,पृ. ३६-३७ ।
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