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निष्क्रिय है तो प्रेम में उद्दीपन कैसे हो ? उसमें वह गुरण तो है, जिस पर प्रेमी का प्रेम टिका है अर्थात् वीतरागता । वह प्रकाश-पुञ्ज के अलातचक्र की भाँति प्रेम को उमंगित बनाये रखेगा ।
परमात्मा रूपी पति के माने से श्रात्मा रूपी पत्नी को प्रसन्नता होती है । प्रसन्नता होना तो स्वाभाविक ही है; किन्तु ज्ञातव्य तो यह है कि पति - श्रागमन के लिये पत्नी अपने घर को निर्मल बनाती है या जैसा हैं वैसा ही पड़ा रहने देती है ? कुछ ने कहा कि जब तक अपने घट रूपी घर को शुद्ध न करोगे परमात्मा नहीं आयेगा। बिहारी का विचार है, "तौ लगु या मन सदन में हरि कहि बाट । बिकट जटे जौ लगु निपट खुलें न कपट- कपाट ||" किन्तु कबीर की कुछ दूसरी ही मान्यता प्रतीत होती है। उन्हें यह शर्त रुचिकर न थी । वे शर्त के घेरे में बंधने वाले जीव नहीं थे । उन्हें दृढ़ विश्वास था कि राम के नाते ही मलीमस स्वतः ही हट जायगा ।' कबीर से बहुत - बहुत पहले प्राचार्य योगीन्दु ने लिखा था कि जो मन शास्त्र-पुराण और तपश्चररण से शुद्ध नहीं हुआ, वह परमात्मा के आने से निर्मल हो दमक उठा । परमात्मा के आने से मैल स्वतः हट जाता है, यदि न हटे तो वह परमात्मा हो क्या ? मुनि रामसिंह के निरञ्जन देव भी ऐसे ही हैं, उनके धारण करने से चित्त के भीतरी भाग में जमी मैल की परतें विलीन हो जाती हैं । बनारसीदास पर अपभ्रंश की इसी परम्परा का प्रभाव है । जब साजन आया तो सजनी का भय पाप रूप मलीमस हट गया । अद्रा नक्षत्र के लगते ही शुष्क वृक्ष स्वत: पलुहा उठते हैं । मूर्च्छित लतायें लहलहा उठती हैं । जायसी की नागमती तो इसी आश्वासन पर जीवित
१. " निरगुन ब्रह्म कथौ रे भाई । जा सुमरि सुधि बुधि मति पाई ||" कबीर ग्रन्थावली, काशी, पद ३७५ ।
२. प्रप्ारिणय मरिण गिम्मलउ रियमे वसइ रग जासु । सत्य पुराणइ तव चरणु मुक्खु वि करहि कि तासु ॥ परमात्म प्रकाश, १६८, पृष्ठ १०२ ।
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३. भितर चित्ति वि मइलियइ बाहरि काइ नवेरण । चित्ति गिरंजणु को वि घरि मुम्बइ जेम मलेग ||
पाहुड़ दोहा, ६१ वाँ दोहा, पृष्ठ १५ ।
४. "सजन घट मन्तर परमात्मा सकल दुरित भयभंजन ।” बनारसीविलास, जयपुर, पृष्ठ २४० क ।
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