________________
YYYYYYY
रही।' उसे विश्वास था कि रतनसैन के पाते ही मेरा वियोग-जन्य कलुष मिट जायगा। बनारसीदास को इस परम्परा का स्तम्भ कहना चाहिये ।
बनारसीदास ने केवल प्रेम की ही नहीं श्रद्धा की भी बात कही। उन्होंने जिस श्रद्धा को संजोया वह अंध नहीं थी। अर्थात् उसमें देखने वाली आँख थी। आचार्य समन्तभद्र ने उसे सुश्रद्धा कहा है । इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। बनारसीदास की सुश्रद्धा सद्बुद्धि को पर्यायवाची थी। उन्होंने लिखा कि जिनवाणी को बुद्ध देख सकता है, दुरबुद्ध नही---- "बुद्ध लखै न लखै दुरबुद्ध । सदा जग माहि जगै जिनवानी ॥"२ 'बुद्ध' का अर्थ है 'बुद्धि सहित' । बुद्धि अच्छे और बरे दोनों ही प्रकार के तन्तुनों से बनी जा सकती है, किन्तु यहाँ 'बद्ध' में सन्निहित बुद्धि से ध्वनित होता है कि उसका निर्माण सुश्रद्धा से हुआ है। जिनवाणी विश्व-व्यापी है और सदैव जगमगाती रहती है, किन्तु उसे देखने के लिए 'एक अाँख' चाहिए, वह जिसके पास नहीं है, वह नहीं देख सकता। यह आँख मुश्रद्धा की बनी होनी है । मुश्रद्धा को श्रेष्ठ लगन भी कहते है, उसका स्वभाव है कि जिसके प्रति होती है, उससे पाश्लिष्ट और धनाश्लिष्ट होती जाती है। ऐसा करने से उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। यह ही वह आँख है जो जिनवाणी को देखती है । देखकर ही नहीं रह जाती, तन्मय हुए बिना उसे चैन नहीं मिलता। अनुखन माधव-माधव सुमरते राधा, माधव के दर्शन-मात्र से ही तृप्त नहीं हुई, अपित माधव हो गई।३ श्रद्धा की भावभूमि पर, साधक और साध्य तथा प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते रहे हैं-होते रहेंगे, उन्हें कोई शक्ति रोक नहीं सकती।
१. जिनि भस जीव करसि तू बारी।
यह तरिवर पुनि उहि सँवारी ।। दिन दस बिनु जल मूग्वि विधसा । पुनि सोइ मरवर, मोइ हसा ।। मिर्लाह जो बिहुरे साजन, अंकम भेटि गहता । तपनि मृगसिरा जे महे. ते यद्रा पलुहंत ।।
पद्मावत, नागमती-वियोग ग्वण्ड, तीसरी चौपाई, अन्तिम पंक्तियाँ, पृष्ठ १५२ । २. नाटक समयसार, जीव द्वार, तीसरा पद्य । ३. “अनुखन माधव-माधव मुमरइत मुन्दरि भेलि मधाई ।" विद्यापति का प्रमर काव्य', गुरणानन्द जुयाल सम्पादित, कानपुर,
७० वो पद, पृष्ठ ४५ ।
54जका