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होहुं मगन मैं दरशन पाय । ज्यों दरिया में बूंद समाय ॥ पिय को मिलों अपनपो खोय । ओला गल पाणी ज्यों होय ।। "
इसी शती में मनराम, कुंवरपाल, यशोविजय उपाध्याय श्रौर महात्मा श्रानन्दघन प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । मनराम का 'मनराम विलास', कुअरपाल के 'पद', यशोविजयजी का 'जस - विलास' और श्रानन्दघन की 'श्रानन्दघन बहत्तरी', प्रौढ़ कृतियां हैं। सभी का सम्बन्ध या तो निराकार प्रात्मा श्रौर सिद्ध अथवा श्रहंत की भक्ति से है । पांडे हेमराज ( वि० सं० १७०३ - १७३०) एक प्रसिद्ध कवि माने जाते है । उनकी सितपट चौरासी बोल, हिन्दी भक्तामर और गुरुपूजा नाम की कृतियां पहले से ही ज्ञात थीं । किन्तु अब हितोपदेश दोहाशतक, उपदेश दोहाबावनी और नेमिराजीमती जखढी भी प्राप्त हुई हैं। इन्हें संत काव्य की परम्परा में गिनना चाहिये ।
जिनहर्ष (वि० सं० १७१३ - १७३८) अट्ठारहवीं शती के एक सामर्थ्यशाली कवि थे । इनके गुरु का नाम वाचक शान्तिहर्ष था । जिनहर्ष ने उन्हीं से शिक्षा प्राप्त की थी। जिनहर्ष एक जन्मजात कवि थे । उन्होंने पचासों स्तुतिस्तवन, रास और छप्पयों की रचना की है । वे मूलतः गुजराती लेखक थे। किन्तु इनका हिन्दी पर अधिकार था । उन्होंने हिंदी में जसराजबावनी, उपदेशछत्तीसी, चौबीसी, नेमि-राजीमती बारहमास सवैया, नेमि बारहमासा, महावीर छंद, सिद्धचक्रस्तवन और मंगलगीत का निर्माण किया था। जिनरंगसूरि (वि० सं० १७३१) का जन्म श्रीमाल जाति के सिन्धुणवंश में हुआ था । उन्होंने जैसलमेर में वि० सं० १६७८ फाल्गुन कृष्ण ७ को जिनराजसूरि से दीक्षा ली थी। शाहजहां के पुत्र दारा ने उन्हें 'युग-प्रधान' के पद से विभूषित किया था । उनकी रचनाओं में प्रबोधबावनी, रंगबहत्तरी, चतुर्विंशति जिन-स्तोत्र, चितामणि, पार्श्वनाथ - स्तवन प्रसिद्ध है । प्रथम दो में निष्फल और अन्तिम दो में सकल ब्रह्म की भक्ति है ।
इस समूची शती में भैया भगवतीदास अपनी श्रोजस्वी कविता के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में भी प्रोज को प्रमुखता दी है। भैया भगवतीदास आगरा के रहने वाले थे। उस समय श्रीरंगज़ ेब का राज्य था । उन्होंने उसके राज्य की प्रशंसा की है । 'भैया' का प्राकृत और संस्कृत पर अधिकार था । उनकी हिन्दी, गुजराती और बंगला में विशेष गति थी और वे उर्दू तथा फारसी
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