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सूरि (वि० सं० १६७०) वृद्ध शाखा के प्राचार्य विजयसेन सूरि के शिष्य थे। सम्राट अकबर ने विजयसेन सूरि को प्रागरे में बुलाया था और उन्हें सवाई हरिविजय की उपाधि से सुशोभित किया था। हेमविजय अन्धे थे। उन्होंने हरिविजय और विजयसेन सूरि की भक्ति में छोटे-छोटे अनेक पद्य बनाये हैं । उन्होंने तीर्थकरों का भी स्तवन, छोटी-छोटी स्तुतियों से किया है । 'नेमिनाथ के पद' उनकी सफल रचना है। जब नेमीश्वर राजुल के विवाह द्वार से दीन पशुओं की करुण पुकार सुनकर, गिरिनार पर तप करने चले गये, उस समय राजूल की बेचैनी का एक चित्र देखिये । गिरिनार की ओर भागती हई राजुल को सखियों ने पकड़ लिया है। वह उनको सम्बोधन करके कहती हैं
"कहि राजमति सुमति सखियान कू, एक खिनेक खरी रहुरे । सखिरि सगिरि अंगुरी मुही बाहि करति बहुत इसे निहुरे ।। अबही तबही कबही जबही, यदुराय कू जाय इसी कहुरे। मुनिहेम के साहिब नेम जी हो, अब तोरन ते तुम्ह क्यू बहुरे ॥"
जैन कवि सुन्दरदास, हिन्दी के संत कवि सुन्दरदास से पृथक थे । जैन कवि वागड प्रान्त के रहने वाले थे। बादशाह शाहजहां ने उनको पहले 'कविराय' और फिर 'महाकविराय' की पदवी प्रदान की थी। उन्होंने सुन्दर शृंगार, पाखंड पंचासिका, सुन्दर सतसई और सुन्दर विलास का निर्माण किया था। इनकी प्रवृत्तियां हिन्दी के कबीर दादू, सुन्दरदास आदि संत कवियों से मिलती जुलती हैं। उनका समय वि० सं० १६७५ के पास-पास माना जाता है। पांडे रूपचन्द । संस्कृत के प्रख्यात विद्वान् थे। उन्होंने बनारस में शिक्षा प्राप्त की थी। प्रसिद्ध
कवि कबीरदास ने इन्हीं से गोम्मटसार-जीवकांड पढ़ा था। इसका उल्लेख 'अर्द्ध कथानक' में हुआ है। पांडे रूपचन्द एक प्रतिभा सम्पन्न कवि भी थे। विद्वत्ता
और कवित्व शक्ति का ऐसा समन्वय अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। उनके गीत काव्यों पर आध्यात्मिकता की छाप है । परमार्थी दोहा शतक, गीतपरमार्थी मंगलगीत प्रबन्ध, नेमिनाथ रासा, खटोलनागीत और अध्यात्म सवैया उनकी प्रसिद्ध कृतियां है । इसके अतिरिक्त जयपुर के शास्त्र भण्डारों से उनकी दो रचनाए सोलहस्वप्नफल तथा जिनस्तुति और प्राप्त हुई हैं । अर्धकथानक के अनुसार उनका देहावसान वि० सं० १६६४ में हुआ।
हर्षकीति (वि० सं० १६८३) की मुक्तक रचनाओं में अध्यात्म और भक्तिरस की अधिकता है । उन्होंने पंचगति बेल, नेमिनाथ राजुल गीत, नेमीश्वर
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