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अपनी 'समता' नाम की मखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह लीन हो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है। मैं अपनपा खोकर पियस मिलूँगी, जैसे घोला गलकर पानी हो जाता है ।" अन्त में पति तो उसे घर में ही मिल गया और वह उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गई कि द्विविधा तो रही ही नहीं । उसके एकत्व को कवि ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों से पुष्ट किया है । वह करतूति है और पिय कर्त्ता, वह सुख-सींव है और पिय सुखसागर, वह शिवनींव है और पिय शिव मन्दिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है और पिय शंकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र ।
पिय मोरे घट मै पिय माहिं । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि || पिय मो करता मैं करतुति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ।। पिय सुख सागर मै सुख-सींव । पिय सुख मन्दिर मै शिव-नीव ।। पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ॥ पिय शंकर मै देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवल वानि ॥ ३
एक दूसरे स्थान पर बनारसीदास ने 'सुमति' को पत्नी और 'वेतन' को पति बनाया है । दोनों में प्रेम है-प्रटूट, एकनिष्ठ । एक बार चेतन कही गया तो भटक कर रह गया । बहुत दिनों तक घर न लोटा । समय की सीमाएँ टूट गई । पथ निहारते-निहारते लोचन क्षीण हो गये । विरह की असह्य दशा कैसे सही जाय ? अन्त में पत्नी चल पड़ी पिय की खोज में। वह किसी मार्ग-दर्शक के अभाव में रुकी नही । जो पति को ढूँढने के लिए राजसी वस्त्र उतार कर कंथा धारण कर सकती है, उसे रास्ता दिखाने वाले की क्या आवश्यता । यदि उसके
१. होहु मगन में दरसन पाय, ज्यों दरिया में बूंद समाय । पिय कों मिलों अपनपो खोय, प्रोला गल पारगी ज्यो होय ||
वही, वाँ पद्य, पृ० १६० ।
२. देखिये वही, पृ० १६१ ।
३, फारि पटोरहि, पहिरों कथा । जो
मोहि कोउ दिखावे पथा ||
वह पथ पलकन्ह जाइ बोहारी। सीस चरन के तहाँ सिधारी ।।
जो गुरु अग ुवा होइ, सखि मोहि लावे पथ माँहा ।
तन मन धन बलि बलि करी, जो रे मिलावं नाहा ॥
जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल सम्पादित, पद्मावत, पद्मावती - नागमती विलाप खण्ड, चौथी चौपाई, पृ० २६५ ।
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