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प्रभाव में रुक सकती है, तो एक बहाना-मात्र है । जब साधक की लौ ब्रह्म की मोर मुड़ गई तो फिर किसी गुरु या सद्गुरु की जरूरत नहीं। वह स्वयं वहाँ तक पहुंच जायेगा, भले ही विपत्तियों के प्रम्बार टूट पड़ें। उसे विश्वास होता है वहां पहुंचने का । यदि ऐसा न हो तो कहाँ टिके उसकी साधना। बनारसी की नायिका भी ऐसी ही प्रतीति वाली है । उसने खोजा तो खोज लिया । पिय मिला भयावह कान्तार में । उसे देखते ही परायेपन की गागर फूट गई, दुविधा का मांचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गई । पत्नी का यह तादात्म्य का भाव शील-सना है, तो सुन्दर भी कम नही है। उसके बिना तो 'देखना' सार्थक ही नहीं हो सकता । यदि साधक ब्रह्म को केवल देखकर रह जाय, उसमें लीन होने का भाव न जागे, तो 'वैध' कैसे हटे । देखने के साथ तादात्म्य होने की भावना तीब्रगति से बढ़ती है । बनारसी की नायिका का स्पन्दन इस दिशा में हुआ।
"बालम तुहुँ तन चितवन गागरि फूटि, अचरा गौ फहराय सरम गै छूटि, बालम ।। १ ।। पिउ सुधि पावत बन में पैसिउ पेलि, छाडत राज डगरिया भयउ अकेलि, बालम ।।२।। काय नगरिया भीतर चेतन भूप, करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम ।।३।। चेतन बूझि विचार धरहु संतोष, राग दोष दुइ बन्धन छूटत मोष, बालम ।।४॥'
कभी-कभी ऐसा हुआ कि सुमति खोजने नहीं गई-न जा सकी। किन्तु इसका अर्थ यह नही था कि उसकी विरह-वेदना प्रल्प थी अथवा उसका प्रेमसान्द्र नहीं था। इसके विपरीत विरह ने उसे मार-मार कर लञ्ज बना दिया था। वह चलने में भी समर्थ नहीं थी। बेचैनी और आकुलता बढ़ गई थी। विरह में प्रेम और भी पुष्ट हो गया था। यदि प्रेम सच्चा है तो उसके आकर्षण में असीम शक्ति होती है । सुमति का प्रेम भी ऐसा ही था । भटका हुआ पति स्वयं लौटा, या उसे स्वयं लौटना पड़ा। यदि न लौटता तो आकर्षण की चुम्बकीय शक्ति सन्देहास्पद बन जाती । भगवान् को भी भक्त के पास जाना पड़ता है। भक्त की अनुरक्ति उनको खींचे बिना नहीं रहती । भगवान् पाते है तो समाँ ही
१. अध्यात्मपद पंक्ति, १० वा राग-बिरवा, बनारसी विलास, पृ० २२८ ।
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