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ध्यान है । प्राज्ञा-विचय के दूसरे अर्थ का उद्भावन करते हुए आचार्य ने कहा है, "भगवान् जिन के तत्व का समर्थन करने के लिए जो तर्क, नय और प्रमाण की योजना-रूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वज्ञ की श्राज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञा-विचय कहलाता है ।"७ प्रत्येक दशा में भगवान् जिन श्रौर उनकी श्राज्ञा पर पूर्ण श्रद्धा की बात है । इस भाँति धर्म्य ध्यान, जिसे मोक्ष - मार्ग का साक्षात् हेतु कहा गया है, भगवान जिन में श्रद्धा करने की बात कहता है । यह बात गीता के आत्म समर्पण तथा पातञ्जल योग के किसी दशा में कम नहीं है । तीनों ही भक्ति और समाधि के घोषणा करते हैं ।
ईश्वर - प्रणिधान से स्थायी सम्बन्ध की
सालम्ब समाधि के प्रकरण में रूपस्थ ध्यान की बात कहीं जा चुकी है । समवशरण में विराजित भगवान अर्हन्त ही रूपस्थ हैं । रूपस्थ इसलिए हैं कि उनके रूप है और प्राकार है । रूपस्थ ध्यान में ऐसे 'रूपस्थ' पर मन को टिकाना होता है । किन्तु इसके पूर्व मन का उधर झुकना अनिवार्य है, और मन श्रद्धा के बिना नही झुक सकता, अतः मन की एकाग्रता के पूर्व श्रद्धा का होना अनिवार्य है । प्रत की पूजा, स्तुति और प्रार्थना आदि में लगी हुई एकाग्रता और इस ध्यान वाली एकाग्रता में बाह्य रूप से कुछ भी अन्तर हो; किन्तु दोनों ही के मूल
अगाध श्रद्धा की भूमिका है। श्रद्धा भक्ति रस का स्थायी भाव है । पदस्थ ध्यान में एक अक्षर को प्रादि लेकर अनेक मन्त्रों का उच्चारण करते हुए 'पंच परमेष्ठी' का ध्यान किया जाता है । मन्त्रों के उच्चारण की एकतानता में श्राराध्य के प्रति मन की जो एकाग्रता पुष्ट होती है, वह ध्यान वाली एकाग्रता से कम नही है | मन्त्रोच्चारण, स्तुति-स्तवन, पूजा-अर्चा और ध्यान आदि सभी भक्ति की विभिन्न शैलियों हैं, जो श्रद्धा के प्रेरणा-स्रोत से ही सदैव सञ्चालित होती हैं ।
सामायिक भी एक प्रकार का ध्यान है, जिसका निर्देशन उन गृहस्थ श्रावकों के लिए हुआ है, जो साधु नही हो सके हैं । श्रावक के शिक्षाव्रतों में इसका प्रथम स्थान है । मामायिक के स्वरूप से स्पष्ट है कि वह भक्ति का ही एक अंग मात्र है । सामायिक में भी, गृहस्थ श्रावक को अपना मन 'पंच परमेष्ठी
१. 'तत्त्वसमर्थनार्थ तर्कनयप्रमारणयोजनपर : स्मृतिसमन्वाहार : सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचयः इत्युच्यते ।'
- प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ९३६ का भाष्य, पृ० ४४६
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