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वह निष्कल ब्रह्म ही बना रहा और इसी रूप में उसकी साधना चलती रही। जैन साहित्य में भी मन्त्र और जादू दोनों की बातें हुई । मन्त्र बने, उनकी क्रियायें रची गई और तत्सम्बन्धी पुस्तकों का निर्माण हुना। इन मन्त्रों के आराध्य देव और देवियों का विवेचन मैंने 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि' में किया है।' किन्तु वहाँ निरञ्जननाथ का नाम भी नहीं है। अन्य देव-देवियाँ हैं, सभी शालीन और उच्च भावभूमि पर प्रतिष्ठित । वहाँ व्यभिचार-जैसी बात तो पनप ही नहीं सकी।
यद्यपि बनारसीदास के काव्य में अध्यात्म-मूला भक्ति ही प्रमुख है, किन्तु प्रर्हन्त-भक्ति के रूप में सगुण-भक्ति के दृष्टान्त भी अल्प नहीं हैं । बनारसी ने 'नाटक समयसार' में 'नवधा-भक्ति' का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, "श्रवन कीरतन चितवन सेवन वन्दन ध्यान । लघुता समता एकता नौधा भक्ति प्रवान ।।"२ इसमें लघुता मुख्य है । जब तक भक्त अपने को लघुतम और आराध्य को महत्तम न मानेगा, उसमें भक्ति का निर्वाह सम्भव नहीं है । 'तुलसी की भक्ति' में पं० रामचन्द्र शुक्ल ने ऐसी मान्यता को भक्ति का प्रथम और अनिवार्य सोपान कहा है । बनारसी के काव्य में लघुता का रूप ही मुख्य है । अपनी लघुता और आराध्य की महत्ता अविनाभावी है। एक-दूसरे के बिना नहीं चल सकती। प्रभु की महिमा का बखान करते हुए बनारसी ने लिखा, “प्रभु का स्वरूप अत्यधिक अगम्य और अथाह है, हमसे उसका वर्णन नहीं हो सकता, जैसे दिन में अन्धा हो जाने वाला उलूक-पोत रवि-किरन के उद्योत का वर्णन नहीं कर सकता।" एक दूसरे स्थान पर बनारसी का कथन है-"जैसे बालक अपनी भुजा फैलाकर भी सागर को पार करने में असमर्थ है, वैसे ही मैं मतिहीन होने के कारण प्रभु के असंख्य निर्मल गुणों का वर्णन कैसे करूं ?" तीसरी जगह
१. 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि', भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९६३ ई०, . पृ० १४१-१६६ । २. नाटक समयसार, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृ० २७७ । . . ३. प्रभुत्वरूप अति भगम प्रथाह । क्यों हमसे यह होइ निवाह । ज्यो दिन-अन्ध उलोको पोत । कहि न सके रवि-किरन उदोत ।।
__कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा, ४था पद्य, बनारसीविलास, पृ० १२४ । ४. तुम असंख्य निर्मल गुणखानि । मैं मतिहीन कही निजबानि ।। ज्यों बालक निज बांह पसार । सागर परिमित कहै विचार ।
-वही, ६ ठा पद्य, बनारसी विलास, पृ० १२४ ।
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