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YAYATY
में अन्तर नहीं है, किन्तु प्रधातिया कर्मों के क्षय होने तक 'महन्त' को संसार में सशरीर रुकना पड़ता है। उनका परम प्रौदारिक शरीर होता है अर्थात् अन्तिम स्थूल शरीर, इसके उपरान्त उन्हें फिर कोई शरीर धारण नहीं करना पड़ता। 'अहंन्त' ही प्रधातिया कर्मों के क्षय होने पर 'सिद्ध' अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । एक ही जीव अपनी साधना से पहले 'सगुण ब्रह्म' बनता है, फिर निर्गुण दशा को प्राप्त कर लेता है। जो एक बार 'निगुण' बन गया, वह फिर कभी किसी रूप में अवतार नहीं लेता-लीला और माया के कारण भी नहीं। अनेक जीव 'सगुण' बनकर 'निर्गुण' बनते रहते हैं। जैन सिद्धान्त अनेक ब्रह्म में विश्वास करता है । स्वरूप-मूलरूप की दृष्टि से वे एक ही हैं, वैसे अनेक हैं। सूर और तुलसी ने जिस सगुण ब्रह्म की आराधना की, वह 'निर्गुण' से एकदम निराला था, बनारसीदास तो ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने 'निर्गुण' की भक्ति की और 'सगुण' की भी। दोनों में कोई अन्तर न माना। बनारसीदास से पूर्व अन्य जैन कवि भी ऐसा ही करते थे। मैने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में उनके अनेक दृष्टान्त दिये हैं। यहाँ हम केवल विवेचन के लिये, पहले बनारसीदास की 'सिद्ध भक्ति' को और फिर 'महन्त-भक्ति' को लेंगे।
बनारसीदास ने जिस 'सिद्ध' की अराधना की, वह केवल अविनाशी और अविकार ही नहीं है, अपितु परमरस का भी धाम है। रस और प्रानन्द पर्यायवाची होते हैं, अतः उसे 'परमानन्द' कहना उपयुक्त ही होगा । वह सर्वाङ्ग-सुन्दर है और सौन्दर्य भी ऐसा-वैसा नहीं-प्राकृतिक, सहज और स्वाभाविक । उस पर योगीजन ध्यान केन्द्रित करते है । वह मनमोहन है और उसके द्वारा योगियों के मन मोहे जाते रहे हैं, जाते रहेंगे। तभी तो वे उस पर दिन-रात अपने ध्यान को लगाये रखने में समर्थ हो पाते है । वह भगवान् अनादि है और अनन्त है । अनादि का अर्थ है कि उसका प्रादि नही और अनन्त का तात्पर्य है कि उमका अन्त नहीं। वह प्रादि और अन्त से, अर्थात् जन्म और मरण से परे है-ऊपर है। वह शुद्ध बुद्ध तो है ही, अविरूद्ध भी है । यह ही बड़ी विशेषता है। अविरुद्ध का अर्थ है कि वह विरोधों से रहित है-उसमें किसी प्रकार का विरोध समाहित ही नहीं हो पाता । वह देव क्या जिसका अन्य देवों से विरोध हो, वह धर्म क्या जिसका अन्य धर्मों से पृथक्करण हो और वह सत्य क्या जो अन्य सत्यों से मिल न पाता हो । सत्य वही है जो सब जगह सत्य हो, यदि दूसरे सत्यों से उसका विरोध है, तो वह सत्य नहीं, असत्य है । बनारसीदास ने ऐसे भगवान् की भक्ति की जो इस कसौटी पर खरा उतरता हो, इसी कारण उन्होंने 'अविरुद्ध' का प्रयोग किया।
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