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PRADESH
जैन अपभूश का हिन्दी के निर्गुण
भक्ति-काव्य पर प्रभाव
जिस भांति संस्कृत में 'श्लोक' और प्राकृत में 'गाथा' छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं, ठीक वैसे ही अप्रभ्रंश में 'दूहा' का सबसे अधिक प्रयोग किया गया। अपभ्रंश का तात्पर्य है-दूहा-साहित्य । यह दो भागों में बांटा जा सकता है-एक तो भाटों के द्वारा रचा गया जिसमें शृगार, वीर आदि रसों की भावात्मक अभिव्यक्ति है। इसके प्रचुर उदाहरण 'प्राचार्य हेमचन्द्र' के 'सिद्धहेमशब्दानुशासन'' में मौजूद हैं। दूसरा वह, जिसके रचयिता बौद्ध सिद्ध और जैन साधक थे। तिलोप्पाद, सरहपाद, कण्हपाद आदि का दूहा-साहित्य 'दोहाकोश' में प्रकाशित हो चुका है। जैन साधकों का साहित्य एक संकलित रूप में तो नहीं, किन्तु पृथक्-पृथक् पुस्तकाकार या पत्रिका में प्रकाशित होता रहा है । कुछ ऐसा है, जो हस्तलिखित रूप में उपलब्ध है !
परमात्मप्रकाश अपभ्रंश का सामर्थ्यवान् ग्रन्थ है । इसके रचयिता आचार्य योगीन्दु एक प्रसिद्ध कवि थे। उनका समय ईसा की छठी शती माना जाता
१. सिद्धहेमशब्दानुशासन, डॉ० पी० एल० वैद्य- सम्पादित तथा भण्डारकर मोरियण्टल
रिसर्च इन्स्टीट्यूट से सन् १६३६ ई० में प्रकाशित । संशोधित संस्करण सन् १९५८ ई० में पुनः छपा है।
फफफफफकका ५८
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