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है।' उन्होंने इस ग्रन्थ का निर्माण, अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट को अध्यात्म-विषय समझाने के लिए किया था अतः उसमें एक अध्यापक की सरलता, मधुरता
और पुनरावृत्तिवाली बात मौजूद है । योगीन्दु ने स्वयं स्वीकार किया है कि शिष्य को समझाने के लिए शब्दों को बार-बार दुहराना पड़ा है । इसी उद्देश्य से उपमा और रूपकों का भी प्रयोग किया गया है। उनके पद्य कोमलता और माधुर्य से युक्त हैं। उनकी भाषा जनसाधारण की भाषा थी, अतः उसमें गेयपरकता अधिक है। उद्योतनसूरि (७७८ ई०) का यह कथन कि 'अपभ्रंश का प्रभाव बरसाती पहाड़ी नदियों की भाँति बेरोक होता है और प्रणयकुपिता नायिका की भाँति यह शीघ्र ही मनुष्यों के मन को वश में कर लेती है,२ परमात्मप्रकाश पर पर्णरूप से घटित होता है। जहाँ तक भावधारा का सम्बन्ध है. उसमें भी योगीन्दु की उदारता स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म-विशेष की संकुचित सीमामों में प्राबद्ध नहीं हुए। उन्होंने मुक्त प्रात्मा की भांति ही उन्मुक्तता का परिचय दिया। उनका 'जिन' शिव और बुद्ध भी बन सका । उनके द्वारा निरूपित परमात्मा की परिभाषा में केवल जैन ही नहीं अपितु वेदांती, मीमांसक और बौद्ध भी समा सके । उन्होंने प्रजन शब्दावली का भी प्रयोग किया। परमात्मप्रकाश अध्यात्म का ग्रन्थ है, जैन या बौद्ध नही । इसके दो अधिकारों में १२६ और २१६ दोहे हैं । इस पर ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका और प० दौलतराम की हिन्दी टीका महत्वपूर्ण है। 3 यह ग्रन्थ डा० ए० एन० उपाध्ये के सम्पादन में बम्बई से प्रकाशित हो चुका है।
योगसार नामक ग्रन्थ के रचयिता भी योगीन्दु ही थे । इसमें १०८ दोहे है। इसका विषय परमात्मप्रकाश से मिलता-जुलता है किन्तु, इसमें वैसी सरसता नहीं है । डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने इसका भी सम्पादन किया है । इसका प्रकाशन 'परमात्मप्रकाश' के साथ बम्बई में हुआ था।
सावयधम्मदोहा के रचयिता को लेकर दो भिन्न मत है । डॉ० ए० एन० उपाध्ये इसे लक्ष्मीचन्द की रचना बतलाते हैं और डॉ० हीरालाल जैन देवसेन की । इस समय देवसेनवाला मत ही प्रचलित है। डॉ० हीरालाल का सबसे बड़ा
१. परमात्मप्रकाश, डॉ० ए० एन० उपाध्ये-लिखित प्रस्तावना, पृ० ६७ । २. वही, प्रस्तावना, पृ० १०६ और अपभ्रंशकाव्यत्रयी, गायकवाड़ मोरियण्टल सीरीज,
बड़ौदा, श्री एल० बी० गांधी-लिखित प्रस्तावना, पृ० ६७-६८ । ३. श्री ब्रह्मदेव ईसा की तेरहवीं शती और पं० दौलतराम अठारहवीं शती में हुए ।
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