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ले गये। सन् १९१८ में म्यूनिक की रायल एकेडेमिक सोसाइटी से भविसयत कहा' को सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित हुमा । सन् १९२१ में नेमिनाथ चरित की एक अन्त:कथा-'सुदंसण चरिउ' भी वहाँ से ही प्रकाशित हुई।
बड़ौदा के महाराज सर सयाजीराव गायकवाड़ प्राचीन ग्रंथों की शोषखोज में अधिक रुचि लेते थे। उनकी प्राज्ञा से श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल ने पाटण के जैन ग्रन्थ भण्डार का परीक्षण किया और अपभ्रंश के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को खोज निकाला। उनमें सन्देशरासक, चच्चरी, भावनासार, परमात्मप्रकाश, भविसयत्तकहा और 'पउमचरिउ' जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ भी थे। उन्होंने स्वयं भविसयत्तकहा का प्रामाणिक सम्पादन प्रारम्भ किया, किन्तु पाकस्मिक मृत्यु के कारण डा० गुणे ने इस कार्य को सम्पन्न किया।
भण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट की स्थापना सन् १९१८ में हुई। डकन कॉलिज में सुरक्षित प्रतियाँ यहाँ लाई गई। मुनि जिनविजयजी ने जैन ग्रंथों का परीक्षण किया। उन्हें महत्वपूर्ण अपभ्रंश ग्रन्थों का पता लगा । पुष्पदन्त का महापुराण उन्हीं की खोज है। उन्हें स्वयंम्भू के 'पउमचरिउ' और 'हरिवंशपुराण' भी प्राप्त हुये। उन्होंने 'सिंघी जैन ग्रंथमाला' के अन्तर्गत अनेक अपभ्रंश ग्रन्थों का सम्पादन किया और प्रकाशन करवाया । उनका समूचा कार्य ऊँची विद्वत्ता का प्रतीक है। वे एक साधक हैं और अब भी साधना में दत्तचित्त हैं।
डॉ० हीरालाल जैन ने बरार के कारंजा-स्थित जन भण्डारों की शोध. खोज की और जोइंदु, रामसिंह तथा कनकामर के अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाये। स्वयं सम्पादन किया और खोजपूर्ण भूमिकाएं लिखीं । अभी, उनके द्वारा सम्पादित 'मयणपराजयचरिउ', भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुभा है । डॉ० हीरालालजी ने शोध पत्रिकाओं में अपभ्रंश भाषा और साहित्य से सम्बन्धित अनेक शोध निबन्ध लिखे, जो आज भी अनुसन्धित्सुनों के मार्गदर्शक हैं । इसी समय के ख्याति प्राप्त विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने अपने त्रैमासिक पत्र 'जैन साहित्य संशोधक' में 'पुष्पदन्त और उनका महापुराण'जैसे एकाधिक शोध निबन्ध लिखे । उनका संकलन, उन्होंने 'जैन साहित्य का इतिहास' में किया है।
अपभ्रंश साहित्य की शोष-खोज के सन्दर्भ में डॉ. एन. उपाध्ये और डॉ० पी० एल० वैद्य ने भी साधना की है। उन्होंने क्रमशः जोइंदु के परमात्म
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