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ब्रह्म रायमल्ल और परिमल्ल तीनों ही जन्म-जात कवि थे, बहुश्रुत और प्रतिभावान् । उन्होंने कथानक के पट्ट पर, भावों के नाना चित्र, सग और विराग की तूलिका से खीचे । वे अनूठे चित्रकार थे। जीवन के घात-प्रतिघात और मध्यात्म का शाश्वत, शान्त, ज्योतिवन्त चेतन, उन चित्रों से जैसे आज भी झांक-झांक कर, विश्व के भूले-भटके मानवों से कुछ कहना चाहता है। भारतीय वाङमय के ये पृष्ठ, जिन पर स्थूल और सूक्ष्म का समन्वय ऐसे सहज ढंग से उकेरा गया हो, और कहीं प्राप्त नहीं होते। इनके अतिरिक्त, मालकवि का भोजप्रबन्ध, रामचन्द्र का जम्बूचरित्र, कवि जोधराज का प्रीतंकरचरित्र और जिनचन्द्र का विक्रमचरित्र भी १८वीं शताब्दी की उल्लेखनीय रचनायें हैं।
खण्ड काव्यों में मानव का खण्ड जीवन ही मंकित रहता है। खंड-जीवन का अर्थ है-जीवन का एक हिस्सा, पूर्ण जीवन नहीं। प्रवशिष्ट सब कुछ प्रबंधकाव्य - जैसा ही होता है। नेमि-राजुल को लेकर ऐसे काव्यों का अधिकाधिक निर्माण हुमा। इस सन्दर्भ में मध्ययुगीन जैन हिन्दी के कवि राजशेखरसूरि का 'नेमिनाथ फागु' एक सुन्दर रचना है। दृश्यों को चित्रित करने में कवि निपुण प्रतीत होता है। विवाह के लिए सजी राजुल के चित्र में सजीवता है। शीलसौन्दर्य से सनी राजुल भारतीय नारी की प्रतीक है। नेमिनाथ तोरण-द्वार से वापस लौट गये । पशुओं के करुण-क्रन्दन को सुनकर उन्होंने अपने सारथी से पूछा-यह क्या है ? सारथी ने कहा-"आपके विवाह में भोज्य-पदार्थ बनने के के लिए इन्हें काटा जायेगा ? वह करुणा का एक ऐसा क्षण था, जिससे विगलित हो उन्होंने विवाह के स्थान पर दीक्षा ले ली। फिर राजुल का विलाप, नेमिनाथ को ही पति मानकर ऐसा विरह जो भगवान् किसी को न दे, प्रारम्भ हुपा । रोमाञ्च के क्षण आते-आते रुक गये और एक जीवन-व्यापी विरह शुरू हो गया। उसने राजीमती के प्रेम को और भी पुष्ट बनाया। वह दीवानी विरह के माध्यम से नेमिनाथ के साथ एकमेकता स्थापित कर सकी। कैसा विरह था वह और कैसा प्रेम, किसी राधा से कम नही। हिन्दी के जैन खण्ड काव्य उनकी रोमाञ्चकता और सरसता से ओतप्रोत हैं। ऐसे काव्यों में विनयचन्द्र सूरि की 'नेमिनाथ चतुष्पदी', कवि ठकुरसी की नेमिसुर की बेलि', विनोदी लाल का 'नेमिनाथ विवाह', अजयराज पाटणी का 'नेमिनाथ चरित्र' और मनरंगलाल की 'नेमिचन्द्रिका' प्रसिद्ध कृतियां हैं। नेमिचन्द्रिका में वात्सल्य, करुण और विप्रलम्भ का सुन्दर समन्वय हुआ है । यमक, उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपक स्वाभाविक ढंग से ही काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं। दोहा,
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